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कुछ अन्तर रहता है— अर्हन्त केवल साली जीवन शुक्त पद में बीतराग मुक्ति-मार्ग रूप परमपद के उपदेष्टा हैं अतः वे परमेष्ठी कहे जाते हैं और सिद्ध परमात्मा, परमसिद्धि रूप मुक्ति में विद्यमान होने से सिद्ध परमेष्ठी कहे जाते हैं । केवलज्ञानी दो प्रकार के होते हैं - ( 1 ) तीर्थकर केवलानी (जो अतिशय पूर्ण पंचकल्याणकों से शोभित होते हैं तथा तीर्थंकर नामक विशिष्ट पुण्य प्रकृति के प्रभाव से, देवरचित समवशरण में दिव्य उपदेश विश्व को प्रदान करते हैं, धर्म तीर्थ के प्रवर्तक होते हैं) । (2) सामान्य केवल ज्ञानी जिनके अतिशय नहीं होने, समवशरण की रचना नहीं होती, परन्तु विश्य की जनता को दिव्य उपदेश अवश्य देते हैं। ये दोनों परमेष्ठी सिद्ध पद को नियम से प्राप्त करते हैं ।
अर्हन्त, सिद्ध परमेष्ठी के अतिरिक्त आचार्य, उपाध्याय और साधु वे भी परमेष्ठी कहे जाते हैं कारण कि ये महात्मा भी वीतराग रूप मुक्ति मार्ग के परमसाधक कहे जाते हैं। सरल शब्दों में कह सकते हैं कि जो परमपद में स्थित हो, उनको परमेष्ठी कहते हैं। यद्यपि बाह्य दृष्टि से इन तीनों का वेष दिगम्बर मुद्रा एक है, व्रत, चर्चा, परीषह, रत्नत्रय की साधना समान है, अन्तरंग में वीतरागता पूर्ण समताभाव जागृत है तथापि उन तीनों परमेष्ठियों के आचार्य, उपाध्याय तथा साधु रूप विशिष्ट पदों की अपेक्षा लक्षण तथा पृथक् पृथक् मूलगुण पूर्व में कहे गये हैं - जिससे कि मुक्ति मार्ग के कर्तव्य निष्ठा के साथ अनुशासन सुदृढ़ रहे ।
6. धर्म देवता की उपासना
जैनदर्शन में अर्हन्त तथा सिद्ध परमात्मा की तुलना में सम्यक् धर्म को भी देव कहा गया है। इसका कारण यह है कि जैसे परमशुद्ध निर्दोष परमात्मा पूज्य एवं विश्वहितकारी हैं उसी प्रकार उनके द्वारा कथित वस्तुतत्त्व या पदार्थ का यथार्थ स्वरूप भी पूज्य एवं विश्वहितकारी है, उसी को दूसरे शब्दों में सिद्धान्त, दर्शन, धर्म, श्रेयस् सुकृत और वृष कहते हैं। यह विषय मुक्ति तथा अनुभव से भी सिद्ध है कि वक्ता या उपदेष्टा के अनुकूल वस्तु तत्त्व (धर्म) का कथन होता है। उपदेष्टा यदि रागी, देषी, मोही, मानी एवं मायावी है तो उसके द्वारा प्रतिपादित धर्म भी राग-द्वेष-मोह आदि दोषों से परिपूर्ण है। उसे धर्म नहीं कहा जा सकता और उपदेष्टा (वक्ता ) यदि सर्वदोषों से हीन हैं तो उसके द्वारा कथित धर्म भी निर्दोष है। उसी वस्तु तच को सत्यार्थ धर्म कहा जा सकता है। इसलिए परमात्मा के समान सत्यार्थ धर्म भी परम पूज्य तथा कल्याणकारी सिद्ध होता है। वह धर्म लोक में मंगलमय उत्तम तथा शरण कहा जाता है 1
प्राकृत मंगल पाठ में इसी विषय का वर्णन किया गया है
(1) चत्तारिपंगल - अर्हन्ता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहूमंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं ।
जैन पूजा - काव्य का उदभव और विकास 59