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अनन्त सुख का स्थान विशेष, इस समीचीन धर्म का जलादि द्रव्यों के द्वारा अर्चन करते हैं।
केवलिनाथमुखोद्गत-धर्मःप्राणिसुखहितार्थमुद्दिष्टः । तत्प्राप्त्यै तद्यजनं कुर्वे मखविघ्ननाशाय ॥ '
सारांश - अर्हन्त केवलज्ञानी के मुख से उपदिष्ट सत्यार्थ धर्म, प्राणियों के उपकार तथा शान्ति सुख की प्राप्ति के लिए लक्ष्य रखकर कहा गया है अतः अर्चन यज्ञ आदि श्रेष्ठ कार्यों में विघ्न-बाधा के निराकरण हेतु हम धर्म की साधना के लिए धर्म का अर्चन करते हैं।
धर्मः सर्वसुखाकरो हितकरो धर्मं वुधाश्चिन्बते, धर्मेणैव समाप्यते शिव सुखं धर्माय तस्मै नमः | धर्मान्नास्त्यपरः सुहृद् भवभृतां धर्मस्य मूलं दया, धर्मे चित्तमहं दधे प्रतिदिनं हे धर्म! मां पालय ।।
सारांश - 'धर्म' लव प्रकार के सुखों का खजाना है, धर्म सर्वप्राणियों का हितकारी है, बुद्धिमान् पुरुष धर्म की साधना करते हैं, धर्म के द्वारा ही अक्षय मुक्ति सुख की प्राप्ति होती हैं, उस सत्यार्थ श्रेष्ठ धर्म के लिए नमस्कार है। धर्म को छोड़कर अन्य कोई पदार्थ प्राणियों का मित्र नहीं है, धर्म का मूल कारण दया है अथवा मैत्री हैं, भव्य पुरुष कहता है कि में प्रतिदिन धर्म के प्रतिपालन में चित्त को स्थिर करता हूँ । हे धर्म ! आप हमारी रक्षा करें।
धर्मो वसेन्मनसि यावदलं स तावद्, हन्ता न हन्तुरपि पश्य गतेऽथ तस्मिन् । दृष्टा परस्परहतिर्जनकात्मजानां,
रक्षा ततोऽस्य जगतः खलु धर्म एव ।
देखो, जब तक वह वास्तविक धर्म मन में अतिशय निवास करता है तब तक मानव अपने मारनेवाले को भी नहीं मारता अर्थात् उस घातक के प्रति भी मैत्री भाव रखता है, परन्तु जब वह धर्म हृदय से निकल जाता है तब पिता और पुत्र में परस्पर मार-पीट ( घातक वृत्ति) देखी जाती है। इसलिए यह निष्कर्ष निकलता है कि इस विश्व की सुरक्षा उस धर्म के रहने पर ही हो सकती है।
1. गणेश वणी ग्रन्थमाला, मन्दिर वेदी प्रतिष्ठा कलशारोहण विधि सं.पं. पन्नालाल साहित्याचार्य सन् 1961 भदैनी वाराणसी, पृ. 17
2. धर्मध्यान दीपिका श्री 108 अजितसागर महाराज, सं.प्र. पलवीर जी राजस्थान प्र. सं., पृ. ५. 3. गुणभद्र : आत्मानुशासन सं. प्रो. हीरालाल जैन, प्र-जैन सं. सं. संघ सोलापुर, 1961, पृ. 25.
जैन पूजा - काव्य का उद्भव और विकास : 61