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(5) नामकर्म के क्षय से सूक्ष्मत्य, (6) आयु कर्म के क्षय से अवगाहनत्व, (7) गोत्र कर्म के क्षय से अगुरुलधुत्व (8) वेदनीय कर्म के क्षय से अव्याबाधत्व। इनके अतिरिक्त उन परम आत्मा में अनन्त गुण होते हैं। यह पहले से ही कहा गया है कि जीवन्मुक्त परमात्मा तथा सिद्ध परमात्मा क्षुधा आदि अठारह दोषों से पूर्णतः रहित वीतराग होते हैं।
3. आचार्य परमेष्ठी की परिभाषा
जो अन्तरंग तथा बहिरंग परिग्रह का त्याग कर दिगम्बर मुनि के वेश में दैनिक चर्या का पालन करते हुए सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की साधना करते हैं, जो साधु संघ के अधिपति हों, जो योग्य शिष्यों को नवीन दीक्षा देते हों, अज्ञान या प्रमाद से व्रत में कोई त्रुटि होने पर संघस्थ साधु को प्रायश्चित्त देकर शुद्धि कराते हों, इनके छत्तीस मूलगुण होते हैं-12 तप, 10 धर्म, 5 आचार, 6 आवश्यक, 9 गुप्ति-ये 96 मुख्य गण हैं। 12 तप-(1) अनशन या उपवास (24 घण्टे तक पूर्ण भोजन का त्याम), (2) ऊनोदर (भूख से कम भोजन करना), (3) आहार के विषय में नयीन प्रतिज्ञा करना (4) यथाशक्ति भोजन के रसों का त्याग करना, (5) एकान्त स्थान में शयन करना, स्वाध्याय करना, (6) शरीर के कष्टों को शान्तभाव से सहन करना, (7) प्रयश्चित्त-(आवश्यक षट् कर्तव्यों में यदि कदाचित् अज्ञान या प्रमाद से दोष लपस्थित हो जाए तो आचार्य के पास जाकर स्वयं दोष कहना और उनके आदेश से प्रायश्चित्त = दोषों की शुद्धि तथा प्रतिक्रमण = दाष पर पश्चात्ताप करना एवं भविष्य में न करने की प्रतिज्ञा करना), (8) विनय (रत्नत्रय धर्म तथा उसके साधक धर्मात्माओं साधु एवं गृहस्थ समाज का आदर करना-भक्ति करना), (9) वैयावृत्य-आचार्य-उपाध्याय-साधु-त्यागी, ब्रह्मचारी आदि ज्ञानी तपस्वी महात्माओं की सेवा-शुश्रूषा एवं चिकित्सा करना, (10) स्वाध्याय करना (ज्ञान की वृद्धि के लिए एवं श्रद्धान तथा चारित्र को दृढ़ करने के लिए जिन प्रणीत शास्त्रों का अध्ययन, बाचन, प्रश्नोतर समझना), (11) व्युत्सर्ग तप (मिध्यात्व, क्रोधादि कषायरूप अन्तरंग परिग्रह तथा धन-धान्य-मकान आदि बाह्य आडम्बर से मोह तथा शरीर से ममत्व का त्यगा करना), (12) अन्य विषय की चिन्ता को रोककर किसी एकतत्त्व के चिन्तन में आत्मा को स्थिर करना तथा मन का वशीकरण 'ध्यानतप' है।
आचार्य के मुख्य गुणों में देश धर्म : (1) उत्तम क्षमा (कोधकषाय का त्याग करना), (2) उत्तम मार्दव (मान का त्याग कर विनय धारण करना), () उत्तम आर्जव (लल-कपट का त्याग कर सरलवृत्ति धारण करना), (4) उत्तम शौच (लोभ, तृष्णा का त्याग कर मन-वचन-काय को शुद्ध रखना), (5) उत्तम सत्य असत्य का त्याग कर हित-मित-प्रिय वचनों का प्रयोग करना), (6) उत्तम संयम (पच इन्द्रिय तथा मन को वश में करना इन्द्रिय संयम है और प्राणियों की हिंसा न कर उनकी
54 :: जैन पूजा-काव्य : एक चिन्तन