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आचार्यदेव, उपाध्यायदेव, साधुदेव, धर्मदेव, आगमदेव, चैत्य (प्रतिमा) देव, चैत्यालय (मन्दिर) देव |
1. अर्हन्तदेव परमेष्ठी की परिभाषा
जैनदर्शन में कर्म (दोष या आवरण) आठ कहे गये हैं- (1) ज्ञानावरण (ज्ञान का आवरण करनेवाला ), ( 2 ) दर्शनावरण ( पदार्थों के दर्शन या सामान्य प्रतिभास को अश्वरण करनेवाला), (3) वेदनीय (इन्द्रियविषयों के सुख दुःख को अनुभव करानेवाला), (4) मोहनीय ( आत्मा को मोहित कर आत्मा आदि तत्त्वों पर अश्रद्धा करानेवाला), (5) आबुकर्म ( शरीर में आत्मा का संयोग करानेवाला ), ( 6 ) नामकर्म (विविध शरीर आदि की रचना करनेवाला ), ( 7 ) गोत्रकर्म ( लोकपूजित तथा लोक निन्दित कुल में उत्पन्न करनेवाला), (8) अन्तरायकर्म ( आत्मा की शक्ति को नष्ट करनेवाला) |
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय-ये चार कर्म घाति कहे जाते हैं। कारण कि ये आत्मा के ज्ञान, दर्शन, आत्मिक सुख और शक्ति का घात (विनाश ) करते हैं। शेष चार कर्म अघाति कहे गये हैं। कारण कि ये चार आत्मा के अव्याबाधत्व आदि गुणों का घात कर आत्मा को विकृत करते हैं।
अरिहन्त उनको कहते हैं जिनके उक्त चार घातिकर्म का नाश होने से क्रमशः अक्षय पूर्वज्ञान, दर्शन, आत्मिक सुख और अक्षय बल इन चार अक्षय गुणों की पूर्णता हो, अठारह दोषों से रहित वीतरागता हो, विश्व कल्याणकारी दिव्य उपदेशकता हो और दिव्य शरीर की शोभा हो। ये प्रथम परमेष्ठी, अरिहन्त, जिन, वीतराग, सर्वज्ञ, हितोपदेशी, जोवन्मुक्त आदि एक हजार आठ नामों से पूजित होते हैं। यह अर्हन्त की आध्यात्मिक विभूति है। बाह्यविभूति पुण्याधिक्य से जन्म समय दश अतिशय, केवल ज्ञान के उदय के समय दश अतिशय ( चमत्कार विशेष ), लोक-बिहार करते समय देवकृत चौदह अतिशय और सिंहासन आदि आठ प्रातिहार्य ( रमणीय वस्तु विशेष ) से शोभित होते हैं। इनकी अपेक्षा आध्यात्मिक विभूति का महत्त्व विशेष होता है ।
2. सिद्ध परमेष्ठी की परिभाषा
वे अर्हन्त या जीवन्मुक्त आत्मा चतुर्थ शुक्ल ध्यान के द्वारा जब शेष चार अघाति कर्मों का क्षय कर देते हैं तब सिद्ध अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं। वे परमात्मा, द्रव्य कर्म तथा भाव कर्म से पूर्ण मुक्त, नो कर्म (शरीर) रहित, लोकाग्रभाग में स्थित, आठ आत्मीय गुणों से शोभायमान होते हैं। वे प्रधान आठ गुण इस प्रकार हैं - ( 1 ) ज्ञानावरण के क्षय से केवलज्ञान (2) दर्शनावरण के क्षय से केवलदर्शन, ( 8 ) मोह कर्म के क्षय से अतीन्द्रिय सुख, (4) अन्तरायकर्म के क्षय से आत्मबल, जैन पूजा- काव्य का उद्भव और विकास : 53