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प्रवचन-२७ परंपरागत व्यवसाय के लाभ :
स्थूलभद्रजी ने सीधा साधुधर्म का ही चुनाव कर लिया। मंत्रीपद श्रीयक को दिया गया। श्रीयक ने मंत्रीपद को स्वीकार कर लिया। कुलपरम्परा की राजसेवा श्रीयक ने जारी रखी। ग्रन्थकार आचार्यदेव सामान्य गृहस्थधर्म की भूमिका बताते हुए पहली बात यह कहते हैं कि गृहस्थ को कुलपरम्परा से प्राप्त व्यवसाय या नौकरी सर्वप्रथम पसन्द करनी चाहिए। वह व्यवसाय होना चाहिए अनिन्दनीय, वह नौकरी होनी चाहिए शिष्ट पुरुषों में संमत।
जमी-जमायी दूकान मिल जाने से, नयी दूकान जमाने की मेहनत बच जाती है। इससे मनुष्य ज्यादा उलझता नहीं है। उसकी धर्मआराधना सुचारु रूप से चलती रहती है। श्रीयक का जीवन वैसा ही शान्त और स्वस्थ व्यतीत हुआ था। मृत्युपर्यंत वह मगधसाम्राज्य की सेवा करता रहा था। उसने अपने पिता का नाम उजागर किया था, रोशन किया था। उसकी धर्मभावना भी बहुत अच्छी थी। बड़े भाई स्थूलभद्रजी साधु बन गये थे। इधर उनकी सात बहनों ने भी साध्वीजीवन स्वीकार कर लिया था। और जिस परिवार में से इतनी दीक्षाएँ हुई हों, उस परिवार में धर्मभावना जाग्रत होना स्वाभाविक है। निंदनीय व्यवसाय मत करो : ___ अर्थोपार्जन गृहस्थजीवन की मुख्य क्रिया है। इसलिए आचार्यदेव सर्वप्रथम इस विषय में विशद मार्गदर्शन दे रहे हैं। वर्तमानकालीन परिस्थितियों में यह मार्गदर्शन आप लोगों को अति उपयोगी सिद्ध होगा। आजकल कुछ व्यवसाय जो कुलपरम्परा से चले आते थे, टूट गये हैं। वर्तमानकालीन राज्यव्यवस्था ने व्यवसायों में बहुत बाधाएँ उत्पन्न कर दी हैं। ऐसे संयोगों में आप इतना ध्यान रखें कि जो भी व्यवसाय आप करें, निन्दनीय नहीं हो यानी ज्यादा पापमय नहीं होना चाहिए। आपकी स्वयं की संपत्ति के अनुरूप होना चाहिए । वर्तमानकाल के अनुरूप होना चाहिए | आप जिस प्रदेश में रहते हो, उस प्रदेश के अनुरूप होना चाहिए। और उस व्यवसाय में आपकी प्रामाणिकता होनी चाहिए, न्यायनीति का स्तर ऊँचा होना चाहिए। इससे आप भयमुक्त होकर धर्ममय जीवन जी सकेंगे।
आज, बस इतना ही।
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