Book Title: Dhammam Sarnam Pavajjami Part 2
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धम्म स20 पजाम भाग-२ प्रवचनकार : पू. आ. श्री विजयभद्रगुप्तसूरीश्वरजी For Private And Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .org Achary धम्मं सरणं पवज्जामि भाग : २ आचार्य श्री हरिभद्रसूरि-विरचित साधक जीवन के प्रारंभ से पराकाष्टा तक के अनन्य सांगोपांग मार्गदर्शन को धराने वाले 'धर्मबिन्दु' ग्रंथ के प्रथम अध्याय पर आधारित रोचक-बोधक और सरल प्रवचनमाला के प्रवचन, HOM प्रवचनकार आचार्य श्री विजयभद्रगुप्तसूरिजी महाराज For Private And Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पुन: संपादन ज्ञानतीर्थ-कोबा तृतीय भावृत्ति फागण वद-८, वि.सं. २०६६, ८-मार्च-२०१० वर्षीतप प्रारंभ दिन मूल्य पक्की जिल्द : रु. ६००-०० कच्ची जिल्द : रू. २७५-०० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आर्थिक सौजन्य शेठ श्री निरंजन नरोत्तमभाई के स्मरणार्थ ह. शेठ श्री नरोत्तमभाई लालभाई परिवार प्रकाशक श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, जि. गांधीनगर - ३८२००७ फोन नं. (०७९) २३२७६२०४, २३२७६२५२ email : gyanmandir@kobatirth.org website : www.kobatirth.org मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टर्स, अमदावाद टाईटल डिजाइन: आर्य ग्राफीक्स - ९८२५५९८८५५ ९९२५८०१९१० For Private And Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पूज्य आचार्य भगवंत श्री विजयभद्रगुप्तसूरीश्वरजी श्रावण शुक्ला १२, वि.सं. १९८९ के दिन पुदगाम महेसाणा (गुजरात) में मणीभाई एवं हीराबहन के कुलदीपक के रूप में जन्मे मूलचन्दभाई, जुहीं की कली की भांति खिलतीखुलती जवानी में १८ बरस की उम्र में वि.सं. २००७, महावद ५ के दिन राणपुर (सौराष्ट्र) में आचार्य श्रीमद् विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराजा के करमकमलों द्वारा दीक्षित होकर पू. भुवनभानुसूरीश्वरजी के शिष्य बने. मुनि श्री भद्रगुप्तविजयजी की दीक्षाजीवन के प्रारंभ काल से ही अध्ययन अध्यापन की सुदीर्घ यात्रा प्रारंभ हो चुकी थी.४५ आगमों के सटीक अध्ययनोपरांत दार्शनिक, भारतीय एवं पाश्चात्य तत्वज्ञान, काव्य-साहित्य वगैरह के 'मिलस्टोन' पार करती हुई वह यात्रा सर्जनात्मक क्षितिज की तरफ मुड़ गई. 'महापंथनो यात्री' से २० साल की उम्र में शुरु हुई लेखनयात्रा अंत समय तक अथक एवं अनवरत चली. तरह-तरह का मौलिक साहित्य, तत्वज्ञान, विवेचना, दीर्घ कथाएँ, लघु कथाएँ, काव्यगीत, पत्रों के जरिये स्वच्छ व स्वस्थ मार्गदर्शन परक साहित्य सर्जन द्वारा उनका जीवन सफर दिन-ब-दिन भरापूरा बना रहता था. प्रेमभरा हँसमुख स्वभाव, प्रसन्न व मृदु आंतर-बाह्य व्यक्तित्व एवं बहुजन-हिताय बहुजन-सुखाय प्रवृत्तियाँ उनके जीवन के महत्त्व चपूर्ण अंगरूप थी. संघ-शासन विशेष करके युवा पीढ़ी. तरुण पीढी एवं शिश-संसार के जीवन निर्माण की प्रकिया में उन्हें रूचि थी... और इसी से उन्हें संतुष्टि मिलती थी. प्रवचन, वार्तालाप, संस्कार शिबिर, जाप-ध्यान, अनुष्ठान एवं परमात्म भक्ति के विशिष्ट आयोजनों के माध्यम से उनका सहिष्णु व्यक्तित्व भी उतना ही उन्नत एवं उज्ज्वल बना रहा. पूज्यश्री जानने योग्य व्यक्तित्व व महसूस करने योग्य अस्तित्व से सराबोर थे. कोल्हापुर में ता.४-५-१९८७ के दिन गुरुदेव ने उन्हें आचार्य पद से विभूषित किया.जीवन के अंत समय में लम्बे अरसे तक वे अनेक व्याधियों का सामना करते हुए और ऐसे में भी सतत साहित्य सर्जन करते हुए दिनांक १९-११-१९९९ को श्यामल, अहमदाबाद में कालधर्म को प्राप्त हुए. For Private And Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir "प्रकाशकीय यदि आप अपना नैतिक और धार्मिक उत्थान करना चाहते हैं, यदि व्यवहार लोकप्रिय करना चाहते हैं, तो यह पुस्तक आपको सुन्दर और सटीक मार्गदर्शन करेगी. वर्तमान कालीन समस्याओंको सुलझाने के लिए यह ग्रंथ कल्याणमित्र बन सकता है. - पूज्य आचार्य श्री विजयभद्रगुप्तसूरिजी महाराज (श्री प्रियदर्शन) द्वारा लिखित और विश्वकल्याण प्रकाशन, महेसाणा से प्रकाशित साहित्य, जैन समाज में ही नहीं अपितु जैनेतर समाज में भी बड़ी उत्सुकता और मनोयोग से पढ़ा जाने वाला लोकप्रिय साहित्य है. पूज्यश्री ने १९ नवम्बर, १९९९ के दिन अहमदाबाद में कालधर्म प्राप्त किया. इसके बाद विश्वकल्याण प्रकाशन ट्रस्ट को विसर्जित कर उनके प्रकाशनों का पुनः प्रकाशन बन्द करने के निर्णय की बात सुनकर हमारे ट्रस्टियों की भावना हुई कि पूज्य आचार्य श्री का उत्कृष्ट साहित्य जनसमुदाय को हमेशा प्राप्त होता रहे, इसके लिये कुछ करना चाहिए. पूज्य राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरिजी महाराज को विश्वकल्याण प्रकाशन ट्रस्टमंडल के सदस्यों के निर्णय से अवगत कराया गया. दोनों पूज्य आचार्यश्रीयों की घनिष्ठ मित्रता थी. अन्तिम दिनों में दिवंगत आचार्यश्री ने राष्ट्रसंत आचार्यश्री से मिलने की हार्दिक इच्छा भी व्यक्त की थी. पूज्य आचार्यश्री ने इस कार्य हेतु व्यक्ति, व्यक्तित्त्व और कृतित्त्व के आधार पर सहर्ष अपनी सहमती प्रदान की. उनका आशीर्वाद प्राप्त कर कोबातीर्थ के ट्रस्टियों ने इस कार्य को आगे चालू रखने हेतु विश्वकल्याण प्रकाशन ट्रस्ट के सामने प्रस्ताव रखा. विश्वकल्याण प्रकाशन ट्रस्ट के ट्रस्टियों ने भी कोबातीर्थ के ट्रस्टियों की दिवंगत आचार्यश्री प्रियदर्शन के साहित्य के प्रचार-प्रसार की उत्कृष्ट भावना को ध्यान में लेकर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबातीर्थ को अपने ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित साहित्य के पुनः प्रकाशन का सर्वाधिकार सहर्ष सौंप दिया. - इसके बाद श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा ने संस्था द्वारा || संचालित श्रुतसरिता (जैन बुक स्टॉल) के माध्यम से श्री प्रियदर्शनजी के For Private And Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लोकप्रिय साहित्य के वितरण का कार्य समाज के हित में प्रारम्भ कर दिया. __ श्री प्रियदर्शन के अनुपलब्ध साहित्य के पुनः प्रकाशन करने की शृंखला में धम्म सरणं पवज्जामि ग्रंथ के चारों भागों को प्रकाशित कर आपके कर कमलों में प्रस्तुत किया जा रहा है. शेठ श्री संवेगभाई लालभाई के सौजन्य से इस प्रकाशन के लिये श्री निरंजन नरोत्तमभाई के स्मरणार्थ, हस्ते शेठ श्री नरोत्तमभाई लालभाई परिवार की ओर से उदारता पूर्वक आर्थिक सहयोग प्राप्त हुआ है, इसलिये हम शेठ श्री नरोत्तमभाई लालभाई परिवार के ऋणी हैं तथा उनका हार्दिक आभार मानते हैं. आशा है कि भविष्य में भी उनकी ओर से सदैव उदारता पूर्ण सहयोग प्राप्त होता रहेगा. इस आवृत्ति का प्रूफरिडिंग करने वाले श्री हेमंतकुमार सिंघ, श्री रामकुमार गुप्तजी तथा अंतिम प्रूफ करने तथा अन्य अनेक तरह से सहयोगी बनने हेतु पंडितवर्य श्री मनोजभाई जैन का हम हृदय से आभार मानते हैं. संस्था के कम्प्यूटर विभाग में कार्यरत श्री केतनभाई शाह, श्री संजयभाई गुर्जर व श्री बालसंग ठाकोर के हम हृदय से आभारी हैं, जिन्होंने इस पुस्तक का सुंदर कम्पोजिंग कर छपाई हेतु हर तरह से सहयोग दिया. आपसे हमारा विनम्र अनुरोध है कि आप अपने मित्रों व स्वजनों में इस प्रेरणादायक सत्साहित्य को वितरित करें. श्रुतज्ञान के प्रचार-प्रसार में आपका लघु योगदान भी आपके लिये लाभदायक सिद्ध होगा पुनः प्रकाशन के समय ग्रंथकारश्री के आशय व जिनाज्ञा के विरुद्ध कोई बात रह गयी हो तो मिच्छामि दुक्कड़म्. विद्वान पाठकों से निवेदन है कि वे इस ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करें. अन्त में नये आवरण तथा साज-सज्जा के साथ प्रस्तुत ग्रंथ आपकी जीवनयात्रा का मार्ग प्रशस्त करने में निमित्त बने और विषमताओं में भी समरसता का लाभ कराये ऐसी शुभकामनाओं के साथ... ट्रस्टीगण श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा For Private And Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धम्म सरणं पवज्जामि आवा की विप्रवचनकार प्रवचनकार आचार्य श्री विजयभद्रगुप्तसूरिजी महाराज For Private And Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir KAN धर्मबिंदु-सूत्राणि ० सोऽयमनुष्ठातृभेदात् द्विविधो गृहस्थधर्मो यतिधर्मश्चेति ।।१।। ० तत्र गृहस्थधर्मोऽपि द्विविधः सामान्यतो विशेषतश्चेति ।।२।। ० न्यायोपात्तं हि वित्तमुभयलोकहिताय ।।३।। ० अनभिशंकनीयतया परिभोगाद् विधिना तीर्थगमनाच्च ।।४।। ० अहितायैवान्यद् ।।५।। ० तदनपायित्वेऽपि मत्स्यादिगलादिवत् विपाकदारुणत्वात् ।।६।। ० न्याय एव ह्याप्त्युपनिषत्परेति समयविदः ||७|| ० ततो हि नियमतः प्रतिबन्धककर्मविगमः ।।८।। ० सत्यस्मिन्नायत्यामर्थसिद्धिरिति ।।९।। ० अतोऽन्यथापि प्रवृत्तौ पाक्षिकोऽर्थलाभो निःसंशय स्त्वनर्थः ।।१०।। ० समान कुल-शीलादिभिरगोत्रजैःवाह्यमन्यत्र बहुविरुद्धेभ्यः ||११।। ० दृष्टादृष्टबाधाभीतता ।।१२।। ० शिष्टचरितप्रशंसनम् ।।१३।। ० तथा - अरिषड्वर्गत्यागेनाविरुद्धार्थप्रतिपत्येन्द्रियजय इति ।।१४।। For Private And Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra VAG www.kobatirth.org धर्म का प्रारंभ होता है, धर्म के प्रति भीतरी प्रेम जुड़ने से । धर्म के प्रति दिल में प्रोति के भाव जग जाने चाहिए। फिर धर्म को आराधना में आपके तन-मन सराबोर होंगे ही। गृहस्थजीवन में भी धर्म को आराधना-साधना आप कर सकते हैं। पर इसके लिए जाग्रति चाहिए। चूंकि गृहस्थ का जीवन है ही कुछ ऐसा कि जहाँ धर्म के फूलों से भी ज्यादा पापों के कांटे उग आते हैं! Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * प्रेम जगना... अनुराग पैदा होना... यानी ऊपर-ऊपर का दिखावा नहीं...अन्तःस्तल को अथाह गहराइयों में प्रकट होनेवाला अनुराग आत्मा को धर्म को तरफ गतिशील रखता है। प्रवचन : २५ परमश्रुतधर परम करुणानिधान आचार्यश्री हरिभद्रसूरिजी 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ में धर्म का प्रभाव और धर्म का स्वरूप बताकर अब धर्म के प्रकार बता रहे हैं । धर्म का प्रभाव सुनकर जो मनुष्य धर्माभिमुख बनता है, धर्म के प्रति आकर्षित होता है, धर्माचरण करने उत्साहित होता है, वह मनुष्य धर्म का स्वरूप जानने के लिए लालायित होगा ही । धर्म का स्वरूप समझे बिना धर्माचरण हो कैसे सकता है? इसलिए आचार्यश्री ने धर्म का स्वरूप बता दिया। धर्म का क्रियात्मक स्वरूप बताया और भावात्मक स्वरूप भी बताया । धर्म का प्रारंभ : धर्म के प्रति प्रेम से : 'सुख पाना है परन्तु पाने के लिए पाप के रास्ते पर नहीं जाना है, पाप के रास्ते पर चलकर सुख नहीं पाया जाता; सुख पाया जाता है धर्म के रास्ते पर चलकर! इस प्रकार का दृढ़ विश्वास हृदय में स्थापित हो जाने पर मनुष्य की जीवनदृष्टि ही बदल जाती है। संभव है कि वह तत्काल सभी पापों का त्याग नहीं कर सके, परन्तु पापों को त्याज्य तो मानेगा ही । धर्म को ही वह उपादेय समझेगा। धर्म के प्रति उसका हृदय प्रीतिवाला बनेगा। धर्म का प्रारंभ ही धर्मप्रेम से होता है न! ऐसे धर्मप्रेमी बने मनुष्यों के सामने ग्रन्थकार दो प्रकार के धर्म रख देते हैं। दो में से आपको जिस धर्म का चुनाव करना हो, कर लो। आपकी जो क्षमता हो, उस क्षमता के अनुसार आप धर्म का चुनाव कर लो। For Private And Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-२५ गृहस्थधर्म : साधुधर्म : ___ एक है गृहस्थधर्म और दूसरा है यतिधर्म यानी साधुधर्म | चूंकि इस दुनिया में जीवन दो प्रकार से व्यतीत किया जा सकता है : गृहस्थ रहते हुए और गृह का त्याग करके | गृहस्थ रहना यानी पत्नी, पुत्र आदि परिवार के साथ रहना, आजीविका हेतु व्यापार वगैरह करना इत्यादि। गृह का त्याग कर, साधु बन कर भिक्षावृत्ति से जीवन जीना, साधुधर्म का पालन करते हुए जीवन जीना यह दूसरा प्रकार है। गृहस्थ जीवन में जो धर्मआराधना करनी होती है, वह धर्मआराधना करने के लिए तन-मन की जो क्षमता चाहिए इससे बहुत ज्यादा क्षमता साधुधर्म का पालन करने के लिए चाहिए। साधुधर्म है महान, परन्तु साधुजीवन जीने के लिए तन-मन की अपार शक्ति चाहिए। तन में कष्ट सहन करने की शक्ति चाहिए और मन में महाव्रतों का पालन करने की दृढ़ता चाहिए। साधुधर्म के लिए तन-मन की असीम शक्ति चाहिए : । प्रभाव की दृष्टि से देखा जाय तो गृहस्थधर्म से साधुधर्म बहुत ज्यादा प्रभावशाली है। पुण्यकर्म के बंध की दृष्टि से और कर्मों की निर्जरा की दृष्टि से साधुधर्म ही श्रेष्ठ है। आंतरशान्ति की दृष्टि से भी साधुजीवन श्रेष्ठ जीवन है। आत्मगुणों के विकास की दृष्टि से देखा जाय तो भी साधुजीवन ही सर्वोपरि है। परन्तु साधुधर्म स्वीकार करने एवं उसका पालन करने हेतु तनमन की अपार शक्ति चाहिए। __ गृहस्थधर्म भी प्रभावशाली तो है, परन्तु गृहस्थजीवन ऐसा है कि जहाँ मनवचन एवं काया के पाप हो ही जाते हैं। कुछ पाप अनिवार्य होते हैं। करने ही पड़ते हैं, पाप! यह एक बहुत बड़ा घाटा होता है गृहस्थ जीवन में! एक मनुष्य दुकान में प्रतिदिन सौ रूपये कमाता है, परन्तु खर्च भी रोजना साठ-सत्तर रूपये का हो जाता है, तो लाभ कितना रहेगा? तीस चालीस रूपये ही बचेंगे। दूसरा मनुष्य प्रतिदिन सौ रूपये कमाता है और खर्च होता है दस-पन्द्रह रूपये ही! मुनाफा कितना होता है? साधुजीवन ऐसा है! साधुजीवन में पापों का खर्चा नहींवत् होता है! जबकि गृहस्थजीवन में पापों का खर्चा बहुत ज्यादा होता है। कभी-कभी तो धर्म से पाप ज्यादा हो जाते हैं....धर्म में से पाप 'माईनस' नहीं होते, पापों में से धर्म 'माईनस' हो जाता है! नीचे बचते हैं पाप! For Private And Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रवचन- २५ साधुधर्म की पसंदगी कर लो : फिर भी गृहस्थ जीवन में धर्म का पालन हो तो सकता ही है। बहुत अच्छा पालन हो सकता है। यदि मनुष्य जाग्रत बना रहे तो बढ़िया धर्मपालन कर सकता है। यदि आप में संसार का त्याग करने की क्षमता नहीं है, संसार के सुखों के प्रति वैराग्य पैदा नहीं हुआ है, तो आप गृहस्थजीवन जी सकते हैं और जीवन में धर्म की आराधना कर सकते हैं। आप अपनी क्षमता को सोच लें। अंदाजा लगा लें । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेरा तो आप से यह कहना है कि यदि आपके हृदय में साधुधर्म का पालन करने का उल्लास और उत्साह जाग्रत होता हो तो आप साधुधर्म को ही पसंद करें! कहिए, क्या होता है हृदय में ? सभा में से : क्षणिक उल्लास तो हो जाता है कि साधुधर्म स्वीकार कर लें.... परन्तु यहाँ से जब घर जाते हैं तब वह भावना जिन्दा नहीं रहती! १. दुःखमूलक वैराग्य । २. मोहमूलक वैराग्य । ३. ज्ञानमूलक वैराग्य । महाराजश्री : क्षणिक उल्लास बार-बार जगता रहेगा तो शाश्वत उल्लास एक दिन जाग्रत हो जाएगा! साधुधर्म प्यारा लगे तभी उल्लास जगता है ठीक है क्षणिक तो क्षणिक ! जो वस्तु प्रिय लगी, वह पाने की जब क्षमता आयेगी, आप उसे पा लोगे! साधुजीवन प्रिय लगा है तो जिस दिन प्रबल उत्साह जगेगा, आत्मवीर्य उल्लसित होगा तब आप साधु बन ही जाओगे ! साधुजीवन के लिए चाहिए संसार के प्रति वैराग्य । संसार के सुखों के प्रति वैराग्य! वैराग्य भी ज्ञानमूलक चाहिए । वैराग्य भी तीन प्रकार का होता है ! गृहस्थजीवन में अनेक प्रकार के दु:ख हैं, जैसे कि रहने को घर नहीं है, मनपसन्द पत्नी नहीं मिल रही है, पत्नी है तो कर्कशा है, संतान अच्छी नहीं हैं, शरीर में रोग उत्पन्न हो गये हैं, धन नहीं मिल रहा है, पूरा भोजन नहीं मिल रहा है, दुनिया में इज्जत नहीं रही है.... इन सब दुःखों से संसार के प्रति वैराग्य हो जाय और साधु बन जाने का सोचें.... तो यह दुःखमूलक वैराग्य है। ऐसा वैराग्य काम का नहीं । साधुजीवन इस प्रकार के वैराग्य से स्वीकार नहीं करना चाहिए। चूँकि दुःखों से घबराकर साधु बननेवाला व्यक्ति साधुजीवन के कष्टों को सहन नहीं कर सकता है और जब उसको सुख मिल For Private And Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- २५ ४ जाते हैं, साधुजीवन से भ्रष्ट हो जाता है । सुखों का आकर्षण उसको साधुता से गिराता है। साधुजीवन में सुखों का आकर्षण मर जाना चाहिए। सुखों का राग नहीं चाहिए । दुःखमूलक वैरागी को सुखों के आकर्षण बने ही रहेंगे। साधुजीवन में भी सुख के अनेक प्रलोभन आते हैं । यदि आकर्षण होगा तो वह प्रलोभन साधु को गिरायेगा ही । संसार में सुख नहीं मिलते हैं, इसलिए साधुजीवन स्वीकार करना अनुचित है। संसार के दुःखों को देखकर, अनुभव कर, ज्ञानदृष्टि खुल जाये और संसार के सुखों को भी दुःखरूप समझ लें, तो वह साधुता स्वीकार कर सकता है। वैश्रवण का वैराग्य ज्ञानमूलक : रावण ने राजा वैश्रवण को पराजित कर दिया था । पराजित वैश्रवण ने साधुजीवन स्वीकार कर लिया था, परन्तु पराजय के दुःख से स्वीकार नहीं किया था, ज्ञानदृष्टि से संसार के स्वरूप को जानकर साधुता का स्वीकार किया था। तभी तो वे उसी भव में, साधुजीवन में उग्र तपश्चर्या कर, मोक्ष में गये थे। यदि उनका दुःखगर्भित वैराग्य होता तो वे सभी कर्मों का क्षय करके निर्वाण नहीं पा सकते थे। उन्होंने साधुधर्म का श्रेष्ठ पालन करके निर्वाण पाया था, इसलिए हमें मानना ही पड़ेगा कि उनका वैराग्य ज्ञानमूलक था । वैश्रवण के सामने दो धर्म थे, गृहस्थधर्म और साधुधर्म । यदि वे चाहते तो बारह व्रतों का गृहस्थधर्म भी ले सकते थे। परन्तु उन्होंने चुनाव किया साधुधर्म का । संसार के सुखों का राग नहीं रहा, आसक्ति नहीं रही, फिर गृहस्थ जीवन किसलिए चाहिए? गृहस्थ जीवन तो तब तक ही पसन्द करना पड़ता है जब तक पाँच इंद्रियों के विषय सुख प्यारे लगते हैं, वैषयिक सुखों का उपभोग किये बिना रहा नहीं जाता है । साधुता के महाव्रत एवं दूसरे नियमों का पालन करने का मनोबल नहीं हो । शारीरिक प्रतिकूलताएं सहन करने की शक्ति नहीं हो और मानसिक तनावों से मुक्त रहने की क्षमता नहीं हो । ऐसा कोई नियम नहीं है कि गृहस्थधर्म का पालन करके ही साधुधर्म स्वीकार किया जा सकता है। गृहस्थधर्म का पालन किये बिना भी सीधा साधुजीवन अंगीकार किया जा सकता है। ऐसे कई उदाहरण शास्त्रों में एवं इतिहास में मिलते हैं। चाहिए साधुधर्म की पूरी जानकारी और साधुधर्म के पालन की पूरी तैयारी! कई डाकू भी सीधे साधु बन गये हैं भूतकाल में! चारचार हत्याएं करने वाला दृढप्रहारी साधु ही बन गया था न? उसमें साधुता का For Private And Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- २५ शुद्ध पालन करने की शक्ति थी, किया था शुद्ध पालन और पा ली थी आत्मा की परम विशुद्धि! आत्मा में ज्ञानमूलक वैराग्य प्रकट हो जाना चाहिए। मोहमूलक वैराग्य : वैराग्य का दूसरा प्रकार है मोहमूलक वैराग्य । 'साधुजीवन का पालन करने से स्वर्ग मिलता है, देवलोक के दिव्य सुख मिलते हैं..... हजारों.....लाखों वर्ष के सुख मिलते हैं। ऐसा जान लिया, सुन लिया शास्त्रों में से ..... और गृहस्थजीवन का त्याग कर दें, यह है मोहमूलक वैराग्य! मानवसुखों से देवों के सुख 'सुपरफाईन' होते हैं, श्रेष्ठ होते हैं, वे श्रेष्ठ सुख पाने की तमन्ना से मानवजीवन के सुखों के प्रति वैराग्य हो जाय, यह मोहमूलक वैराग्य है । भौतिक, वैषयिक सुखों का राग ही तो मोह कहलाता है! साधुता के पालन से, विशुद्ध पालन से स्वर्ग के सुख मिलते हैं अवश्य, परन्तु वे सुख पाने की इच्छा सच्ची साधुता की विघातक है । साधुता का संबंध भौतिक सुखों के साथ नहीं है, साधुता का संबंध आत्मगुणों के साथ है। साधुता की आराधना आत्मा के शाश्वत अविनाशी सुख पाने के लिए करने की है । परन्तु जिस मनुष्य ने आत्मतत्त्व को जाना नहीं है, पहचाना नहीं है, आत्मसुख की कल्पना भी जिसको नहीं है, वह ज्ञानमूलक वैरागी कैसे बन सकता है? राग, द्वेष और मोह से मूढ़ जीवात्मा वैषयिक सुखों को ही जानता है। वैषयिक सुख पाने के लिए ही निरंतर सोचता है और प्रयत्न करता है । विश्वभूति एवं विशाखानंदी : कभी ऐसा भी होता है कि साधुता का स्वीकार ज्ञानमूलक वैराग्य से किया हो परन्तु बाद में ज्ञानदृष्टि चली जाय और मोहदशा प्रबल हो जाय! प्रबल मोहदशा साधुता का सौदा करवा देती है-वैषयिक सुखों के लिए ! भगवान महावीर की आत्मा ने अपने एक भव में यह गलती कर डाली थी। जब वे विश्वभूति युवराज थे, अपने चचेरे भाई विशाखानन्दी ने विश्वभूति के साथ धोखा किया था। इससे विश्वभूति को सारे संसार पर ही वैराग्य हो गया और उन्होंने साधुजीवन अंगीकार कर लिया। साधु बनकर उन्होंने घोर तपश्चर्या की । तपश्चर्या के प्रभाव से उनकी प्रबल आत्मशक्ति जाग्रत हो गई थी । एक दिन, एक नगर में विश्वभूति मुनिराज भिक्षा लेने जा रहे थे। रास्ते में सामने से एक गाय आई और मुनि से टकराई। मुनि जमीन पर गिर पड़े। मुनि को गाय पर तनिक भी गुस्सा नहीं आया, परन्तु इस घटना को विशाखानन्दी ने For Private And Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-२५ देखा, जो कि उसी नगर में शादी करने के लिए आया हुआ था। और वह खिलखिलाकर हँस पड़ा! उसको विश्वभूति के शब्द याद आये : 'मैं अपने एक मुक्के से तेरा सर फोड़ सकता हूँ....' विशाखानन्दी ने सोचा : 'अपने एक मुक्के से मेरा सर फोड़ने की शक्तिवाला विश्वभूति गाय की इस एक टक्कर से जमीन पर गिर गया!' और वह जोर-जोर से हँसने लगा। विश्वभूति मुनि ने विशाखानन्दी को देखा । अपने पर हँसता हुआ देखा.....और मुनि की ज्ञानदृष्टि ओझल हो गई.... मोहदृष्टि खुल गई! विश्वभूति मुनि के हृदय में 'अहं' और 'मम' उभर आये। 'तू क्या मुझे कमजोर समझता है? शक्तिहीन मानता है? ठहर, अभी मैं मेरी शक्ति का परिचय देता हूँ.....।' मुनि ने दो हाथ से गाय के दो सींग पकड़े....गाय को घुमाकर आकाश में ऊपर उछाल दिया.....! जब गाय नीचे गिरती है, मुनिराज ने अपने दो हाथों में उसे पकड़ लिया। जमीन पर गिरने नहीं दिया। विशाखानन्दी, मुनि की यह दिव्य शक्ति देखकर स्तब्ध रह गया....घबरा गया... 'शायद मुझे अभी पकड़कर आकाश में उछालेगा......तो मैं सीधा स्वर्ग में ही पहुँच जाऊँगा.....।' ऐसा घबराया कि वहाँ से दुम दबा कर भाग गया। _ विशाखानन्दी को भागता हुआ देखकर विश्वभूति मुनि खुश हुए। दूसरे को भगाकर दूसरों को हराकर, दूसरे को मारकर खुश होना घोर मोहदशा है| मुनिराज ने सोचा : 'इस दुनिया में ताकतवालों का बोलबाला है। दुनिया में शक्ति की पूजा है। मुझे शक्तिशाली बनना है। दुनिया का श्रेष्ठ शक्तिशाली बनूँगा | मेरी उग्र तपश्चर्या और मेरी शुद्ध साधुता से आने वाले भव में मुझे श्रेष्ठ शक्ति प्राप्त होनी चाहिए।' मुनिवर की ज्ञानदृष्टि नष्ट हो गई, उन्होंने साधुता का सौदा कर लिया भौतिक..... शारीरिक शक्ति के साथ! दूसरे भव में उनको ताकत मिली परन्तु साधुता नहीं मिली। उस शक्ति ने उनकी आत्मा का अधःपतन किया... मर कर नरक में चली गई उनकी आत्मा। वैराग्य स्थिर रहना चाहिए : । ज्ञानमूलक वैराग्य से साधुता स्वीकार करने के बाद भी साधुजीवन में सतत ज्ञानदृष्टि खुली रहनी चाहिए। वैराग्य जीवंत रहना चाहिए | संसार का त्याग करना, भौतिक सुखों का त्याग करना सरल है परन्तु वैराग्य को स्थिर रखना दुष्कर है। चूंकि साधु भी मनुष्य तो है न! उसकी इन्द्रियाँ होती हैं, For Private And Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-२५ उनमें कषाय भी होते हैं, उनमें रसानुभूति, वैभवलालसा एवं आरामप्रियता भी होती है.....कष्टों से बचने की वृत्ति भी होती है। इन सब पर साधु संयम रखता है यानी इन्द्रियों को वश में रखता है, कषायों को उग्र नहीं होने देता है, रसास्वाद नहीं करता है, वैभवों की लालसा को जगने नहीं देता है एवं अप्रमत्त रहने का भरसक प्रयत्न करता है। फिर भी कभी इन्द्रियाँ उत्तेजित हो गई, बेलगाम हो गई.... तो साधु को गिरा भी देती हैं। कषाय की आग कभी भड़क गई तो मुनि को जला भी देती है! रसानुभूति की वासना तीव्र हो गई तो साधु का पतन भी करा देती है! वैभवों की लालसा उत्तेजित हो गई तो मुनि का अधःपतन भी करा देती है। कभी प्रमाद..... आरामप्रियता प्रबल हो गई तो मुनि का शतमुख विनिपात भी करा देती है। सराग धर्मक्रिया से पुण्यबंध : ___ फिर भी, ज्ञानमूलक वैरागी निर्भय रह सकता है | चाहिए निरन्तर जाग्रति! निरन्तर जाग्रत साधु अपने साधुधर्म का यथायोग्य पालन कर सकता है। इससे वह अपूर्व पुण्यकर्म का बंध करता है। 'सराग-संयमी' ऐसे साधु को अपने संयम पर प्रेम होता है, अपने गुरु के प्रति प्रेम होता है, परमात्मा के प्रति प्रेम होता है। जिस धर्मक्रिया में प्रेम होता है, राग होता है, उस धर्मक्रिया से पुण्यकर्म बंधता ही है। सभा में से : पुण्यकर्म भी मोक्षप्राप्ति में अवरोधक तत्त्व है न? बाधक है न? महाराजश्री : पुण्यकर्म के दो प्रकार हैं। एक है पापानुबंधी पुण्य और दूसरा है पुण्यानुबंधी पुण्यकर्म । पापानुबंधी पुण्यकर्म मोक्षमार्ग की आराधना में बाधक बनता है, पुण्यानुबंधी पुण्यकर्म बाधक नहीं बनता है परन्तु मोक्षमार्ग की आराधना में सहायक बनता है। सभा में से : पापानुबंधी पुण्य किसको कहते हैं? महाराजश्री : पुण्यकर्म के उदय से जीवात्मा को सुख मिलते हैं न? जब सुख मिले, सुख के साधन मिले, तब वह जीवात्मा पापाचरण करे, सुख के साधनों का उपयोग पाप करने में करे तो समझना कि पापानुबंधी पुण्य का उदय हुआ है। पुण्य के उदय से शरीर अच्छा मिला, नीरोगी शरीर मिला, परन्तु उस शरीर से भोगविलास ही करता है! पुण्य के उदय से काफी धन मिला, उस धन से बुरे काम ही करता है। पुण्य के उदय से सत्ता मिल गई, उस सत्ता से हिंसा और अत्याचार ही करता है.... तो समझना कि पापकर्म For Private And Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-२५ बंधाने वाले पुण्यकर्म का उदय है। आजकल दुनिया में इस पुण्य का उदय ज्यादा दिखाई देता है। जिन जिनको पुण्यकर्म के उदय से सुख के साधन मिले हैं वे लोग ज्यादातर पाप ही करते नजर आते हैं। ऐसे जीवात्मा मोक्षमार्ग की आराधना, आत्मशुद्धि का पुरुषार्थ नहीं कर सकते। ऐसे जीवों की बुद्धि ही इतनी मलिन बनी हुई होती है कि उनको आत्मा, परमात्मा या मोक्ष की बातें अँचती ही नहीं हैं। सभा में से : पुण्यानुबंधी पुण्य किसको कहते हैं? महाराजश्री : जिस पुण्यकर्म का उदय जीवात्मा की धर्मवृत्ति को जाग्रत करे, धर्म की प्रवृत्ति में प्रेरित करे, वह होता है, पुण्यानुबंधी पुण्य | जिस पुण्य के उदय से नया पुण्यकर्म बंधे, वह होता है पुण्यानुबंधी पुण्य | यह पुण्यकर्म जीवात्मा की मोक्षमार्ग की आराधना में सहायक बनता है- जैसे, हमें पाँच परिपूर्ण इन्द्रियाँ पुण्यकर्म के उदय से मिली हैं, तो अपने धर्मग्रंथ को सुन सकते हैं, पढ़ सकते हैं। परमात्मा का दर्शन-पूजन-स्तवन कर सकते हैं। अच्छा शरीर मिला हुआ होता है तो तपश्चर्या कर सकते हैं, विहार-पदयात्रा कर सकते हैं। पुण्यकर्म के उदय से अच्छी दौलत मिली है तो दान दे सकते हैं। परमार्थपरोपकार के कार्य कर सकते हैं | पुण्यकर्म के उदय से सत्ता मिली है तो देश में, गाँव-नगर में प्रजा को धर्मसन्मुख कर सकते हैं, पापों का त्याग करवा सकते हैं। तीर्थंकर परमात्मा को कैसा अद्भुत पुण्यकर्म का उदय होता है। इससे तो वे करोड़ों जीवों को धर्मबोध दे सकते हैं। करोड़ों जीवों को सन्मार्गगामी बना सकते हैं। पुण्यकर्म के साथ अनासक्ति के संस्कार : ___ सभा में से : साधुधर्म के पालन से आत्मा को देवगति मिलती है, देवगति में तो 'अविरति' होती है। सर्वविरतिवाले साधु को अविरति वाले जीवन में जाना पड़े यह तो नुकसान की बात हुई न? महाराजश्री : साधुधर्म हो या गृहस्थधर्म हो, जिसने देवगति का आयुष्यकर्म बांध लिया, उसको देवलोक में जाना ही पड़ता है। जो पुण्यकर्म बंधा हुआ होता है, उसको भोगना ही पड़ता है। परन्तु देवलोक में भी जो देव जाग्रत होते हैं, सावधान होते हैं, वे सुख भोगते समय डूब नहीं बांधते हैं। प्रगाढ़ आसक्ति उनको नहीं होती है, इसलिए वे ज्यादा पापकर्म नहीं बांधते हैं | साधुजीवन में जो अनासक्ति के संस्कार पड़ते हैं, वे संस्कार आत्मा के साथ For Private And Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- २५ चलते हैं। देवलोक में अनासक्ति के संस्कार जाग्रत होते हैं। इससे जीवात्मा भोगसुखों में अनासक्त रहता है। देवलोक में भी मोक्षयात्रा चालू रहती है : देवलोक में अविरति ही होती है यानी कोई व्रत - नियम - प्रतिज्ञा देव-देवी नहीं ले सकते, न ही पालन कर सकते हैं । परन्तु यह एक अनिवार्य स्थिति है। सुख अविरत जीवन में ही भोगे जा सकते हैं, सर्वविरति जीवन में नहीं । देवलोक में सुख भोगने होते हैं। सुख भोगने से ही पुण्यकर्म समाप्त होते हैं। पुनः वह मनुष्यजीवन पायेगा, पुनः सर्वविरतिमय साधुजीवन को स्वीकारेगा और कर्मों की निर्जरा करता हुआ मोक्ष के प्रति आगे बढ़ता जाएगा। इसलिए आपको घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है! आपको कोई नुकसान नहीं होगा.. .. यदि आप साधुधर्म का चुनाव कर साधुधर्म स्वीकार करेंगे और पुण्यकर्म बांधकर देवलोक में जायेंगे, तब भी मोक्षमार्ग की यात्रा चलती ही रहेगी, स्थगित नहीं होगी। आज आपको चुनाव करना है ! या तो साधुधर्म का अथवा गृहस्थ धर्म का ! ग्रन्थकार महर्षि ने दो प्रकार का धर्म बताया है। हालाँकि तीर्थंकर परमात्मा ने जो दो प्रकार बताये हैं वे दो प्रकार ग्रन्थकार ने बताये हैं, आप लोग चिन्ता नहीं करना ! यदि आप साधुधर्म पसन्द करेंगे तो भी मैं आज ही आपको साधुधर्म देनेवाला नहीं हूँ! चूँकि यह वर्षाकाल है, आप जानते कि हमारी धर्ममर्यादानुसार वर्षाकाल में दीक्षा नहीं दी जाती है ! इसलिए आप मुक्त मन से चुनाव करना | आपको अपने स्वयं के लिए चुनाव करना है। अच्छा लगे वह प्यारा लगता है : सभा में से : साधुजीवन अच्छा तो लगता है, परन्तु गृहस्थजीवन प्यारा लगता है! साधुजीवन अच्छा है, ऐसा समझने पर भी प्रेम नहीं होता है और गृहस्थजीवन अच्छा नहीं है, पायमय है, ऐसा जानने पर भी उस पर प्रेम हो जाता है! : महाराजश्री : मनोविज्ञान का एक नियम है जो वस्तु अच्छी लगती है, वह वस्तु प्यारी लगती ही है। आप लोगों की बात दूसरी है ! आप लोग साधुजीवन को अच्छा इसलिए कहते हो, चूँकि आप एक साधु के सामने बैठे हो! आप लोग साधुपुरुषों के भक्त हैं! इसलिए! 'अच्छा' तो कहना ही पड़ेगा । अथवा, जब शान्त चित्त से सोचते होंगे तब साधुजीवन अच्छा लगता होगा....परन्तु For Private And Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १० प्रवचन-२५ वैसा जीवन जीने की शक्ति अपने आप में पाते नहीं होंगे! ऐसा भी हो सकता है कि जब संसार में दुःखों से, आपत्तियों से घिर जाते होंगे.... सर्वत्र अन्धकार दिखता होगा, तब साधुजीवन अच्छा लगता होगा। परन्तु 'साधुजीवन में वैषयिक सुखभोग नहीं मिलते हैं.....साधुजीवन में कुछ कष्ट सहन करने पड़ते हैं, ऐसे विचार आने पर साधुजीवन से विरक्त बन जाते होंगे! होता है न ऐसा? पापों के प्रति नफरत पैदा हुई है? गृहस्थजीवन पापमय है, इसलिए अच्छा नहीं है, यह तो हुई ज्ञान की बात | मन की बात दूसरी है! पापमय जीवन में भी सुखों का अनुभव होता है तो मज़ा आ जाता है! आप लोगों को पापों से नफरत है? पापों के प्रति घृणा है? नहीं, आपको तो दुःख से नफरत है, दु:खों के प्रति घृणा है। यदि आपके पास वैषयिक सुखों के साधन हैं....भरपूर भौतिक सुख-सामग्री है, तो आपको संसार के प्रति, गृहस्थजीवन के प्रति प्रेम होगा, राग होगा। पापों से नफरत होगी तभी गृहस्थजीवन का प्रेम टूटेगा। यदि आत्मा प्यारी लगे, प्रिय आत्मा की कर्ममलिन अवस्था देखी जाये, आत्मा की दुःखपूर्ण अवस्था देखी जाये....और आत्मा को संपूर्णतया दु:खमुक्त करने की प्रबल भावना जगे, तो ही साधुता-श्रमण जीवन प्यारा लगेगा | क्यों गृहस्थजीवन का त्याग करके साधुजीवन स्वीकार करना? गृहस्थजीवन में वैसा प्रबल धर्मपुरुषार्थ नहीं हो सकता कि जिस धर्मपुरुषार्थ से आत्मा को कर्मबन्धनों से मुक्त किया जा सके, आत्मा के सभी दुःख दूर किये जा सकें। गृहस्थ जीवन : राग द्वेष का प्राबल्य : गृहस्थजीवन ऐसा जीवन है कि जिसमें दिन-रात के २४ घंटों में धनसंपत्ति कमाने में कितने घंटे व्यतीत हो जाते हैं? प्रमाद और निद्रा में कितने घंटे निकल जाते हैं? खाने-पीने और घूमने में कितने घंटे गुजर जाते हैं? स्नेहीस्वजन और मित्रों के साथ बातें करने में कितना समय व्यतीत हो जाता है? धर्मआराधना करने के लिए कितना समय बचता है? धर्मचिन्तन करने के लिए कितना समय बचता है? गृहस्थजीवन की तमाम प्रवृत्तियों में क्या विवेक और मर्यादाओं की समानता रहती है? गृहस्थजीवन की हरेक प्रवृत्ति ज्ञानी पुरुषों के मार्गदर्शन के अनुसार कर सकते हो? नहीं, राग-द्वेष और मोह की प्रबलता आपको अविवेकी और For Private And Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११ प्रवचन-२५ निर्मर्याद बना देती है। भौतिक-वैषयिक सुखों का तीव्र राग और दुःखों का भय-द्वेष आपको निरन्तर सताता है एवं मूढ़ बनाये रखता है। ऐसी स्थिति में आप कैसे धर्मपुरुषार्थ करके आत्मविशुद्धि कर सकते हैं? ___ हालाँकि परमकृपानिधि तीर्थंकर परमात्मा ने ऐसे गृहस्थजीवन में भी धर्म बताने की कृपा की है। कुछ सामान्य और विशेष धर्मआराधना गृहस्थ स्त्रीपुरुषों के लिए बतायी है, परन्तु आप लोग अपने जीवन में उस धर्मआराधना को स्थान दो तब न! राग-द्वेष और मोह की प्रबलता में शान्ति और स्वस्थता रहती नहीं और शांति एवं स्वस्थता के बिना धर्म की आराधना हो नहीं सकती। इस अपेक्षा से कहता हूँ कि साधुजीवन ही धर्मपुरुषार्थ करने का 'प्रॉपर' जीवन है। साधुजीवन में संसार का कोई प्रपंच ही नहीं। साधुजीवन, सचमुच निश्चिंत जीवन है : साधुजीवन में न घर बनाने की कोई चिन्ता, न घर गिर जाने की चिन्ता! न पैसा कमाने की चिन्ता, न पैसा गँवाने की चिन्ता! न पत्नी-परिवार की चिन्ता, न स्नेही स्वजनों की चिन्ता! सम्पूर्ण चिन्तामुक्त जीवन! कोई सांसारिक प्रवृत्ति नहीं.....सम्पूर्ण निवृत्ति । इस निवृत्तिमय जीवन में सतत धर्म प्रवृत्ति करते रहो! निवृत्ति में प्रवृत्ति! गृहस्थजीवन सांसारिक प्रवृत्तियों से भरा हुआ होता है.....वहाँ धर्म की प्रवृत्ति कैसे हो सकती है? वहाँ तो धर्मपुरुषार्थ की निवृत्ति बनी रहेगी! मेरी तो यही राय है की आप लोग साधुधर्म का ही चुनाव कर लो! इस मानवजीवन में साधुधर्म का पालन कर लो, जीवन सफल बन जायेगा। दुर्लभ मानवजीवन का श्रेष्ठ सदुपयोग हो जायेगा । गुरुचरणों में जीवन समर्पित कर दो, सद्गुरु की सेवा, भक्ति और उपासना करते रहो। दूसरी कोई चिन्ता आपको नहीं करनी होगी। आपकी सारी चिन्ताएँ गुरुदेव करेंगे। आपका काम उनकी शरण में रहना है! बस, दूसरा सब कुछ गुरु सम्हालेंगे। एकमात्र बन्धन रहेगा गुरु आज्ञा का। संसार में, गृहस्थजीवन में तो हजारों बंधन होते हैं, साधुजीवन निर्बधन जीवन होता है। कब करेंगे आप निर्णय? आप लोग आज निर्णय करोगे? निर्णय करने के लिए आज का दिन अच्छा है। घर जाकर परिवार के साथ परामर्श करके निर्णय करना हो तो वैसे करना। आप घर जाकर ये सारी बातें करोगे तो सही न? For Private And Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-२६ सभा में से : ऐसी बातें करें तो घरवाले 'मेन्टल हॉस्पिटल' में भिजवा दें! महाराजश्री : इसका अर्थ यह होता है कि ऐसी बातें आज दिन तक आपने अपने घर में चलायी नहीं हैं! सच्ची बात है न? तो क्या घर में गृहस्थजीवन की ही बातें चलती रहती हैं? साधुधर्म की बातें करने में भी घबराते हो? या तो साधुधर्म की बातें शुष्क लगती होंगी? आप लोगों के घर-घर में साधुधर्म की बातें चलती ही रहनी चाहिए। अब शुरू कर दोगे न? ग्रंथकार ने, धर्म करनेवालों की अपेक्षा से दो प्रकार का धर्म बताया है : गृहस्थधर्म और साधुधर्म | ग्रंथकार पहले गृहस्थधर्म के प्रकार एवं स्वरूप बतायेंगे, बाद में साधुधर्म के प्रकार एवं स्वरूप बतायेंगे। आज, बस इतना ही। For Private And Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-२६ मा. सद्गृहस्थ बनना यानी गुणवान होना। 'सत्' यानी गुण।' गृहस्थ तो आप हो ही। अब आपको सद्गृहस्थ बनना है.....गुणों से युक्त बनना है। • पैसे में सुख मानते हो तो जरा कभी जाकर पैसेवालों से पूछ । तो लो कि वे लोग सुख के सरोवर में तैर रहे हैं या दु:ख के सागर में डूबे जा रहे हैं। अयोग्य को योग्य बनाने की रीत भी सीखने जैसी चीज है। नालायक को यदि नालायक ही रहने दें तो इसमें क्या बडा तीर मारा....? अरे....बात तो तब बने कि जब तुम नालायक को भी 6 लायक बना दो! इसी में तुम्हारी समझदारी समायी हुई है। बाहर का जरातरा कुछ देखकर ही बड़बड़ करने मत लग जाओ! • प्रवचन : २६ महान श्रुतधर आचार्यदेव श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी ने धर्म के दो प्रकार बताये : गृहस्थधर्म और साधुधर्म । यतिधर्म कहो, मुनिधर्म कहो, साधुधर्म कहो, एक ही बात है। गृहस्थधर्म भी दो प्रकार का बताया है : सामान्य गृहस्थधर्म और विशेष गृहस्थधर्म। सामान्य गृहस्थधर्म यानी सभी सज्जन गृहस्थों के लिए 'कॉमन'-साधारण क्रियात्मक धर्म। विशेष गृहस्थधर्म होता है : सम्यक् दर्शन के साथ अणुव्रत, गुणव्रत शिक्षाव्रत आदि व्रत-नियमों को स्वीकार करने के रूप में। सद्गृहस्थ बनिये : आज हम सामान्य गृहस्थधर्म की प्राथमिक भूमिका पर विचार करेंगे। एक बात याद रखना, अब अपने जो प्रवचन होंगे वे मात्र जैन या श्रावकों के लिये ही नहीं होंगे, परन्तु सभी गृहस्थों के लिए उपयोगी बातें कही जायेंगी। जो जैन नहीं हैं, जो श्रावक नहीं हैं, वैसे गृहस्थों के लिए भी ये बातें उपयोगी एवं आवश्यक होंगी। गृहस्थ को सद्गृहस्थ बनने के लिए ये सामान्य गृहस्थधर्म की बातें अत्यंत उपयोगी सिद्ध होंगी। आप लोग घर में रहते हैं इसलिए गृहस्थ तो हैं ही, परन्तु जीवन को आनन्दमय और सुखमय बनाने के लिए For Private And Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४ प्रवचन-२६ मात्र गृहस्थ बने रहना पर्याप्त नहीं है, सद्गृहस्थ बनना अनिवार्य है। सद्गृहस्थ ही जैन बन सकता है और जो जैन होता है वही श्रावक बन सकता है। मेरे कहने का मतलब समझे न आप? आप गृहस्थ तो हैं ही, अब सद्गृहस्थ बनो, फिर जैन बनो, बाद में श्रावक और उसके पश्चात् साधु बनना! बिना तमन्ना के गुणवान नहीं बन सकते : आपके जीवन में 'सत' का प्रवेश होगा तभी आप सदगृहस्थ बनेंगे। 'सत' क्या है, जानते हो? 'सत्' को जाने बिना पाने का पुरुषार्थ कैसे होगा? यह 'सत्' एक नहीं है, पैंतीस प्रकार के 'सत्' हैं। 'सत्' का अर्थ है गुण | सद्गृहस्थ बनने के लिए ३५ गुण प्राप्त करने होंगे गुणवान बनना पड़ेगा। गुणवान बनने की तमन्ना होगी तो ही गुणवान बन पाओगे। तमन्ना के बिना भी भाग्योदय से धनवान बन सकते हो, ताकतवान बन सकते हो, परन्तु तमन्ना के बिना गुणवान नहीं बन सकते। है न तमन्ना गुणवान बनने की? ___ सभा में से : हम लोगों की तमन्ना तो धनवान बनने की है। धनवान बनने के लिए दिनरात तड़पते हैं। महाराजश्री : धनवान तड़पने से नहीं बना जाता। तड़पन चाहिए गुणवान बनने की। आप धनवान किसलिए बनना चाहते हो? सुखी बनने के लिए न? आपकी यह मान्यता बन गई है कि 'धन के बिना सुख नहीं।' परन्तु धनवानों से पूछो कि वे सुखी बने हैं क्या? क्या धन बढ़ने के साथ सुख बढ़ा है? गुणहीन धनवान कभी भी सुखशान्ति नहीं पा सकता है। मैंने अनेक दुःखी धनवानों को देखा है। उनके पास धनदौलत ढेर सारी है, परन्तु सुख नहीं है, शान्ति नहीं है। स्वस्थता नहीं है, प्रसन्नता नहीं है और धीरता नहीं है। क्या काम का वह धन? क्या काम की वह दौलत? बुद्धिमत्ता गुणवान बनने में है : दुःखी श्रीमंत होने के बजाय सुखी गरीब होना ज्यादा अच्छा है। अमीरी गरीबी महत्व की बात नहीं है, दुःख और सुख महत्व के हैं। गुणवान मनुष्य घास की झोपडी में भी सुखी होगा, प्रसन्न होगा । गुणहीन मनुष्य बड़े बंगले में भी दुःखी होगा। सद्गृहस्थ गरीब हो सकता है, दुःखी नहीं हो सकता। भगवान महावीर के समय में ऐसा एक सद्गृहस्थ हो गया। उसका नाम था पुणिया। छोटा-सा घर था और पति-पत्नी मजे से रहते थे। दो जनों की For Private And Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-२६ आजीविका चल, उतना ही पुणिया कमाता था। इसमें भी प्रतिदिन एक अतिथि को वह घर पर निमन्त्रित करके उसे भोजन करवाता था। एक दिन पति उपवास करता था, एक दिन पत्नी उपवास करती थी। स्वेच्छा से करते थे। दोनों प्रसन्नता से जीवन व्यतीत करते थे। कभी भी दुःख की शिकायत नहीं। कभी भी सुखों की याचना नहीं। पुणिया धनवान नहीं था, गुणवान अवश्य था । भगवान महावीर ने स्वयं उस पुणिया की प्रशंसा की थी। पुणिया में अनेक 'सत्' थे, अनेक गुण थे इसलिए वह सद्गृहस्थ था। बुद्धिमता भी गुणवान बनने में है। गुणवान ही मेरी राय में बुद्धिमान है। गुणवान बने रहने में निपुणता.....बुद्धिमत्ता होनी भी अति आवश्यक है। आप लोगों को बुद्धिमान मानकर ही यो सारी बातें कर रहा हूँ, समझे न? हाँ कहो या मना करो : आप गृहस्थ ही हैं या सद्गृहस्थ, आप स्वयं निर्णय कर सकें, इसलिए मैं कुछ प्रश्न पूछता हूँ, आप 'हाँ' या 'नहीं' में प्रत्युत्तर देना। यदि 'हाँ' का प्रत्युत्तर हो तो आप सद्गृहस्थ हैं ऐसा मानना, और 'नहीं' का प्रत्युत्तर हो तो मात्र गृहस्थ समझना अपने आपको। __ पहला प्रश्न : क्या आप कुल परंपरा से चला आता व्यापार या नौकरी आदि व्यवसाय करते हैं? दूसरा प्रश्न : आपका व्यापार या नौकरी वगैरह व्यवसाय अनिंद्य है न? तीसरा प्रश्न : आपका व्यवसाय आपकी संपत्ति के अनुरूप है न? काल के अनुरूप है न? देश-नगर के अनरूप है न? चौथा प्रश्न : आप अपने व्यवसाय में नाप-तोल वगैरह शुद्ध करते हैं न? आपका लोगों के साथ व्यवहार प्रामाणिक है न? न्याययुक्त है न? __यदि आपका प्रत्युत्तर 'हाँ' में है तो आप सद्गृहस्थ हैं। आप में सामान्य गृहस्थधर्म का पालन है। यह आप निश्चित रूप से मान सकते हैं, निःशंक रूप से मान सकते हैं | आपका व्यवसाय इस प्रकार का है तो आपको किसी प्रकार का नुकसान नहीं हो सकता। लक्ष्य के साथ-साथ धर्म का संबंध : सभा में से : व्यापार करना, नौकरी करना, यह धर्म कैसे? महाराजश्री : क्रिया के साथ धर्म-अधर्म का संबंध मत जोड़ो। दृष्टि क्या For Private And Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६ प्रवचन-२६ है, लक्ष्य क्या है, धनोपार्जन किस हेतु से करते हो- इस पर धर्म-अधर्म का आधार है। याद रखिये, आप गृहस्थ हैं, साधु नहीं हैं, यह बात गृहस्थधर्म की हो रही है, साधुधर्म की नहीं। धनोपार्जन के पीछे आपका आशय मात्र भोगविलास नहीं है, धर्म के साधन के रूप में आप धनोपार्जन कर रहे हो, दीनअनाथ जीवों के उद्धार की आपकी दृष्टि है, आपकी स्वयं की एवं आपके परिवार की धर्मआराधना निर्विघ्न होती रहे, यह आपका लक्ष्य है और आप ऊपर बताई हुई चार शर्तों के पालन के साथ धनोपार्जन करते हैं, तो आप की वह व्यवसाय क्रिया भी धर्म ही है। यदि आपके जीवन का प्रधान पुरुषार्थ धर्म है और उस धर्म पुरुषार्थ के साधन के रूप में धन कमाने का पुरुषार्थ करते हो, तो वह पुरुषार्थ धर्मपुरुषार्थ ही है। यदि गृहस्थ धनोपार्जन-हेतु व्यवसाय नहीं करेगा तो अपना और अपने परिवार का गुजारा कैसे करेगा? यदि वह बेकार बना रहेगा, धनोपार्जन का पुरुषार्थ नहीं करेगा तो उसका पारिवारिक जीवन क्लेशपूर्ण हो जायेगा। रहने को मकान नहीं होगा, खाने को रोटी नहीं होगी और पहनने को कपड़ा नहीं होगा........तो धर्मपुरुषार्थ भी कैसे करेगा? __ सभा में से : धनोपार्जन करने में कुछ पापाचरण हो ही जाता है, दूसरी बात, धनोपार्जन में परिग्रह का पाप भी है.... फिर धर्म कैसे? महाराजश्री : सही बात है आपकी, यह संसार ही पापरूप है, छोड़ दो संसार और बन जाओ साधु । साधुजीवन में कोई पाप नहीं करना पड़ेगा। पापों का भय लगता है न? संसार में जीना है, संसार के सुख भोगने हैं और व्यवसाय करना नहीं है, तो क्या भीख माँग कर गुजारा करना है? सद्गृहस्थ कभी भी याचक बनकर नहीं भटकता है। वह तो उचित व्यवसाय करेगा ही। न्यायपूर्ण और अनिन्दनीय व्यवसाय करेगा। वैसा व्यवसाय करने पर जितना अर्थलाभ होगा, उसमें संतोष मानकर गुजारा करेगा। यदि गृहस्थ धनोपार्जन का कोई भी सुयोग्य पुरुषार्थ नहीं करता है तो उसकी समग्र जीवन-व्यवस्था ध्वस्त हो जाती है। सारी धर्मक्रियाएँ भी स्थगित हो जाती हैं। अर्थपुरुषार्थ में दृष्टि और दिशा दोनों बदलनी होगी : इसलिए कहता हूँ कि सद्गृहस्थ बनने के लिए आपको सर्वप्रथम अर्थपुरुषार्थ की दिशा और दृष्टि बदलनी होगी। चारों पुरुषार्थ में महत्वपूर्ण पुरुषार्थ है, For Private And Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७ प्रवचन-२६ अर्थपुरुषार्थ! अर्थ के बिना कामपुरुषार्थ संभव नहीं। पैसे के बिना वैषयिक सुख नहीं मिलते। पैसे के बिना घर नहीं, दुकान नहीं, पत्नी नहीं, गाड़ी नहीं, इज्जत नहीं। भोगसुख की सामग्री पैसे के बिना नहीं मिलती। वैसे, आवश्यक धनसंपत्ति और आवश्यक भोग-सामग्री के बिना आपका तन-मन क्या धर्मक्रियाओं में स्थिर रहेगा? धर्मस्थानों में जाने का अवकाश मिलेगा? जैसे उन्मत्त इन्द्रियाँ जीवात्मा को धर्मसन्मुख नहीं होने देती वैसे अतृप्त इन्द्रियाँ भी जीवात्मा को धर्म में स्थिर नहीं होने देती। धर्मश्रद्धा और धर्माचरण में बाधक बनती हैं। हाँ, इन्द्रियों को तृप्त करने में विवेक और मर्यादा आवश्यक है। विवेक और मर्यादा से तृप्त बनी हुई इन्द्रियाँ धर्मआराधना में सहायक बनती हैं। धर्माराधना में मन और इन्द्रियाँ लीन बनती हैं तब ही वह धर्मपुरुषार्थ मोक्षसाधक बनता है, यानी मोक्षपुरुषार्थ में जीवात्मा प्रगति कर सकता है। धनोपार्जन, श्रीमंत बनने के लिए केवल भोग-विलास करने के लिए प्रकट और प्रच्छन्न पापाचरण करने के लिए नहीं करना है। आपकी दृष्टि भोगदृष्टि नहीं होनी चाहिए, धर्मदृष्टि चाहिए। योगदृष्टि चाहिए। यदि आपकी दृष्टि निर्मल है, धर्मदृष्टि है और आप अर्थपुरुषार्थ करते हो तो अर्थपुरुषार्थ भी धर्मपुरुषार्थ बन जाएगा। यदि आपकी दृष्टि मलिन है, भोगदृष्टि है और आप धर्मपुरुषार्थ करते हो तो धर्मपुरुषार्थ नहीं बन सकता है। विवेक-मर्यादा-औचित्य वही तो धर्म है : अर्थपुरुषार्थ में विवेक चाहिए, मर्यादा चाहिए, औचित्य चाहिए | ग्रन्थकार ने जो चार बातें बतायी हैं, बड़ी महत्वपूर्ण बातें हैं। उन्होंने विवेक बताया है, मर्यादा सिखाई है, औचित्य समझाया है। यह विवेक मर्यादा और औचित्य ही तो धर्म है। अर्थपुरुषार्थ में यदि ये विवेक-मर्यादा और औचित्य नहीं हों, तो अर्थपुरुषार्थ धर्म नहीं कहलाएगा। सर्वप्रथम औचित्य बताया कुलपरम्परा का। यदि आपकी कुलपरम्परा से कोई अच्छा व्यापार, अच्छा व्यवसाय, अच्छी नौकरी चली आ रही है, आप उसी व्यापार-व्यवसाय में जुड़ जाएँ। उसी नौकरी को स्वीकार कर लें। __हालाँकि वह व्यवसाय निन्दनीय नहीं होना चाहिए यानी शिष्ट-सज्जन पुरुषों में मान्य, प्रशंसनीय होना चाहिए। प्राचीन काल में यह एक पद्धति थी। कुलपरंपरा से जो व्यवसाय चला आता हो, उस व्यवसाय को ही लोग पसन्द करते। आजकल भी कुछ शहरों For Private And Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८ प्रवचन-२६ में कहीं-कहीं यह परम्परा देखने को मिलती है। सौ-सौ साल से एक ही कपड़े की पीढ़ी | दादा ने व्यवसाय शुरू किया था, पिता ने उसी व्यवसाय को किया और पुत्र भी उसी व्यवसाय में संलग्न है । अब उसका पुत्र भी उसी दुकान पर बैठेगा। कपड़े की दुकान है, कपड़े का धंधा कोई निन्दनीय धंधा नहीं, सज्जनों के समाज में मान्य और इज्जतवाला व्यवसाय गिना जाता है। सोने-चाँदी का व्यवसाय, हीरे मोती वगैरह का व्यवसाय, बरतनों का व्यवसाय वगैरह शिष्टपुरुषों में संमत व्यवसाय हैं। वैसे राज्य में कुल-परम्परा से मंत्रीपद चला आता है, पुरोहितपद या नगरवेष्ठि का पद चला आता है। तो उसी पद को, राज्यसेवा को ठुकराना नहीं चाहिए | जब देश में राजाशाही थी तब ऐसी परंपराएँ चलती रहती थीं। मंत्रीपद स्वर्गस्थ मंत्री के पुत्र को ही दिया जाता था। यदि स्वर्गस्थ मंत्री को कोई पुत्र नहीं होता तो फिर दूसरे की पसंदगी होती थी। जब तक पुत्र हो, उसी को मंत्रीपद दिया जाता था। कभी-कभी तो योग्यता भी नहीं देखी जाती थी। कुल की खानदानी....कुलीनता ही योग्यता का मापदंड बन जाती थी। स्थूलभद्रजी के वैराग्य का कारण : आप लोग जानते हो न स्थूलभद्रजी का नाम? स्थूलभद्र के पिताजी शकटाल, मगधसम्राट नंदराज के महामंत्री थे। जब महामंत्री की षडयन्त्र के द्वारा हत्या हो गई थी, उस समय स्थूलभद्र तो मगध-नृत्यांगना कोशा के विलासभवन में थे। बारह साल से कोशा के पास थे। कोशा के प्रेम में ऐसे दीवाने हो गये थे कि बारह साल तक अपने घर पर भी नहीं गये थे। परन्तु महामंत्री की हत्या से महामंत्रीपद खाली पड़ा था। राजा ने महामंत्री के छोटे पुत्र श्रीयक को मंत्रीपद स्वीकार करने के लिए कहा, तब श्रीयक ने कहा : 'महाराजा, मंत्रीपद के अधिकारी मेरे ज्येष्ठ भ्राता स्थूलभद्र हैं।' 'तेरा बड़ा भाई है क्या? कहाँ है? मैंने तो उसको देखा तक नहीं है।' राजा ने आश्चर्य व्यक्त किया। बात भी सही थी, स्थूलभद्र जैसे अपने घर पर नहीं गये थे, वैसे राजदरबार में भी नहीं गये थे कभी। वे तो कोशा के स्नेहपाश मे जकड़े हुए थे। श्रीयक ने जो बात थी, कह दी : 'महाराजा, वे तो बारह साल से कोशा के घर पर ही हैं, अपने घर पर आते ही नहीं।' राजा ने स्थूलभद्रजी को बुलावा भेजा। राजपुरुषों ने कोशा के घर पर जाकर नंदराजा का आदेश सुनाया। राजाज्ञा का पालन करना नितान्त आवश्यक था, For Private And Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-२६ चूँकि कोशा राजमान्य नृत्यांगना थी। कोशा का राज्य के साथ संबंध था । स्थूलभद्रजी गये नंदराजा की राजसभा में, राजा को नमन कर, औचित्य का पालन करते हुए खड़े रहे | राजा क्षणभर युवान स्थूलभद्र के तेजस्वी, मनोहर और सप्रमाण सुन्दर देह को देखता रहा....और कहा : 'तुम्हारे पिताजी का देहावसान हो गया है, इसलिए यह मंत्रीपद तुम्हें स्वीकार करना है।' राजा ने मंत्रीपद की मुद्रा स्थूलभद्र के हाथों में रख दी। राजा के पास ही श्रीयक खड़ा था। स्थूलभद्रजी ने श्रीयक के सामने देखा। श्रीयक की आँखें आँसुओं से गीली थीं। मुख पर शोक और उदासीनता थी। श्रीयक ने अपने बड़े भैया की ओर देखा। स्थूलभद्रजी ने राजा को कहा : 'महाराजा! आपकी हमारे परिवार पर महती कृपा है, मेरे प्रति आपका स्नेह है, आपने मुझे यह मंत्रीमुद्रा दी परन्तु मुझे कुछ समय सोचने देंगे तो आपकी कृपा होगी। मैं इस राजभवन के उद्यान में जाकर शान्ति से, सोचना चाहता हूँ। बिना सोचे ऐसी बड़ी जिम्मेदारी कैसे उठाऊँ?' राजा ने अनुमति दी और स्थूलभद्रजी उद्यान में चले गये । श्रीयक भी बड़े भाई के साथ उद्यान में गया। अब इस घटना पर हम भी सोचेंगे! किस दृष्टि से स्थूलभद्रजी महामंत्री बनने लायक थे? राजा ने किस योग्यता पर स्थूलभद्रजी को मंत्रीपद देना चाहा? बारहबारह वर्ष से जो नृत्यांगना के प्रेम में अपने माता-पिता भाई-बहन......वगैरह सभी स्नेही-स्वजनों को भूल गया था, पिता की इज्जत-आबरू का भी जिसने विचार नहीं किया था, राजनीति की शिक्षा भी जिसने नहीं पायी थी,......ऐसे स्थूलभद्र को मगधसाम्राज्य का महामंत्री-पद राजा दे रहा है! कौनसी योग्यता थी? एक ही-खानदानी! कुलीनता! महामंत्री शकटाल खानदानी थे, कुलीन थे, राज्य के वफादार थे, तो उनके बाद महामंत्री पद उनके पुत्र को ही देना उचित समझा। सभा में से : यहाँ दो प्रश्न उपस्थित होते हैं : पहला प्रश्न तो यह है कि राजा को शकटाल मंत्री की वफादारी में शंका पैदा हो गई थी, इसलिए तो शकटाल ने स्वयं अपने पुत्र के हाथ अपनी हत्या करवाई थी तो राजा को महामंत्री की खानदानी पर तो अविश्वास हो गया था न? दूसरा प्रश्न यह है कि महामंत्रीपद स्थूलभद्र को देना तो अनुचित ही था, बिना योग्यता ऐसा पद For Private And Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २० प्रवचन-२६ नहीं देना चाहिए, 'राजा का पुत्र राजा और मंत्री का पुत्र मंत्री.....' यह प्रथा तो कुप्रथा है। महत्वपूर्ण पद योग्यतासंपन्न व्यक्ति को ही देने चाहिए। क्या महामंत्रीपद के लिए श्रीयक लायक नहीं था? महाराजश्री : दोनों प्रश्न महत्वपूर्ण हैं। कभी ऐसा होता है कि अतिविश्वसनीय व्यक्ति पर भी शंका....अविश्वास पैदा हो जाता है। इससे व्यक्ति की कुलीनता खंडित नहीं होती। श्रीराम को सीताजी के प्रति, पवनंजय को अंजना के प्रति शंका पैदा हो गई थी, इससे क्या सीताजी और अंजना की कुलीनता नष्ट हो गई थी? पापकर्म का उदय होता है तो निर्दोष होने पर भी दोषारोपण हो जाता है। वररुचि ब्राह्मण ने शकटाल मंत्री के विरुद्ध षड्यंत्र रचा था, उस षड्यंत्र में शकटाल फँस गये थे। जानते हो न वह इतिहास? बड़ी ही रोमांचक हैं पाटलीपुत्र नगर की वे घटनाएँ! राजनीति में ऐसी कूटनीतियाँ होती रहती हैं। उद्यान में जाकर श्रीयक ने स्थूलभद्रजी के चरणों में अपना सर रख दिया...... और फूट-फूट कर रोने लगा। स्थूलभद्र का भ्रातृ-स्नेह उभर आया और श्रीयक को शांत होकर सारी घटना बताने को कहा। श्रीयक ने अपने उत्तरीय वस्त्र से आँसू पोंछ डाले और एक लतामंडप में जाकर दोनों भाई बैठे । श्रीयक ने वररुचि और शकटाल मंत्री के बीच कैसे वैर बंधा और वररुचि ने शकटाल मंत्री के विरुद्ध नंदराजा को कैसे उकसाया... वे सारी बातें कहीं। पिताजी शकटाल मंत्री ने अपने परिवार की जानरक्षा के लिए अपनी हत्या किस प्रकार श्रीयक के हाथ करवायी, वह घटना बताते हुए श्रीयक फूट-फूट कर रो पड़ा। पिता की हत्या पुत्र के हाथों क्यों? __ शकटाल मंत्री को जब लगा कि नंदराजा उनके प्रति शंकाशील है, नाराज है, तब उन्होंने अपने परिवार की रक्षा के लिए अपना बलिदान देने का सोचा। वे नंदराजा के दिमाग से और मिजाज से परिचित थे। उनको लगा था कि 'संभव है राजा मेरे पूरे परिवार की हत्या करवा दे।' इसलिए उन्होंने अपने पुत्र श्रीयक को कहा कि 'कल जब मैं राजसभा में आकर महाराज को नमन करूँ, उस समय तू मुझ पर तलवार का वार कर देना।' श्रीयक तो स्तब्ध हो गया......उसने महामंत्री से कहा : पिताजी, आप क्या बोल रहे हैं? पितृहत्या का पाप मेरे हाथ क्यों करवाते हो?' तब शकटाल मंत्री ने कहा : बेटा, यह For Private And Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१ प्रवचन-२६ आपद्धर्म है। यदि अपने परिवार को बचाना है तो मुझे बलिदान देना ही होगा....।' श्रीयक ने कहा : 'पिताजी, परन्तु यह पाप मेरे हाथ क्यों करवाते हो?' महामंत्री ने कहा : 'श्रीयक, तू महाराजा का अंगरक्षक है, जब तू मुझ पर तलवार का वार करेगा, राजा तुझे तुरंत पूछेगा : 'यह तूने क्या कर दिया? क्यों कर दिया?' तो तू कहना : दो-तीन दिन से मैं देख रहा हूँ कि आप मेरे पिताजी के प्रति नाराज हैं, अवश्य पिताजी ने कोई अपराध किया होगा, तभी आप नाराज होंगे....इसलिए मैंने पितृहत्या की। आप जिसके प्रति नाराज हों, उसको जीने का हक नहीं है।' शकटाल मंत्री के अतिआग्रह से श्रीयक को उनकी आज्ञा माननी पड़ी, और दूसरे दिन राजसभा में श्रीयक ने पितृहत्या कर दी। नंदराजा ने श्रीयक से पूछा : 'श्रीयक! तूने यह क्या कर दिया? महामंत्री की, तेरे पिताजी की हत्या कर दी?' __ श्रीयक ने वही प्रत्युत्तर दिया जो महामंत्री ने बताया था। नन्दराजा ने कहा : 'मैंने सुना था कि 'शकटाल मंत्री मेरा राज्य छीन लेने का षड्यंत्र बना रहे हैं। अपने घर के भूमिगृह में अनेक शस्त्र बनवा रहे हैं.... | मैंने गुप्तचरों द्वारा गुप्त तलाश करवायी तो वास्तव में बात सही निकली । तुम्हारे घर में शस्त्र बन रहे हैं न? इसलिए मैं महामंत्री के प्रति नाराज था।' श्रीयक स्तब्ध-सा रह गया। उसने राजा से कहा : 'महाराजा, यदि आप इस बात का खुलासा मुझ से करते तो यह अनर्थ नहीं होता, मुझे पितृहत्या का पाप नहीं करना पड़ता....। हमारे घर के भूमिगृह में शस्त्र बन रहे हैं, यह बात सही है, परन्तु यह शस्त्रोत्पादन आपके विरुद्ध विद्रोह करने के लिए नहीं परन्तु आपको भेंट देने के लिए कराये जा रहे हैं! कुछ समय के पश्चात् मेरी शादी होने वाली है, उस समय आप हमारे घर पर पधारेंगे ही, तब आपको कुछ उत्तम भेंट देने के वास्ते शस्त्र तैयार करवाये जा रहे हैं। आपके प्रति और मगध साम्राज्य के प्रति पिताजी की कितनी निष्ठा थी, यह बात आप भलीभांति जानते हैं।' नन्दराजा श्रीयक की स्पष्टता सुनकर आश्चर्य, खेद व ग्लानि से भर गया। निष्ठावान्, बुद्धिमान और कुटनीतिज्ञ महामात्य खो देने की घोर वेदना उनके हृदय में उभर आयी। महामंत्री की खानदानी और कुलीनता के प्रति उनकी श्रद्धा दृढ़ हो गई। तभी उन्होंने श्रीयक को मंत्रीपद स्वीकार करने का अनुरोध किया था। नन्दराजा नहीं जानते थे कि श्रीयक का बड़ा भाई भी है। For Private And Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-२६ २२ श्रीयक की खानदानी समझियेगा : ___ श्रीयक की भी खानदानी और कुलीनता कैसी अद्भुत! उसने स्वयं मंत्रीपद स्वीकार नहीं किया! उसने अपने बड़े भाई को याद किया.....कि जिस बड़े भाई ने बारह साल से घर नहीं देखा था, जो अपने छोटे भाई और बहनों को नहीं मिला था। यों देखा जाय तो महामंत्री की कीर्ति को कलंक भी लगाया था महामंत्री का पुत्र एक वेश्या के वहाँ १२-१२ साल पड़ा रहे, इससे महामंत्री की इज्जत पर असर होगा या नहीं? ऐसे भाई को महामंत्रीपद के लिए याद करना चाहिए क्या? श्रीयक ने याद किया, वह अच्छा किया या बुरा किया? आप लोगों की क्या राय है? मान लो कि श्रीयक आपकी राय लेने आता तो आप क्या राय देते? वह आकर आपको पूछता : 'आप बुद्धिमान हैं, मुझे राय देने की कृपा करें कि राजा मुझे मंत्रीपद दे रहा है तो मैं स्वीकार कर लूँ या बड़े भाई को मंत्रीपद देने के लिए बात करूँ? वास्तव में अधिकार है बड़े भाई का। बड़े भाई के अधिकार की वस्तु मैं कैसे लूँ?' आपकी इस प्रकार राय मांगता तो आप क्या राय देते? बोलो न! चुप क्यों हो? भाई के अधिकार का पद, भाई के अधिकार का धन, भाई के अधिकार का मकान, भाई के अधिकार की जमीन....जो कुछ भाई का हो, आप उसे हड़पने का नहीं सोचते हैं न? आप लोग तो धर्मात्मा हैं..... आप कैसे सोच सकते हैं ऐसा! __ सभा में से : आप कृपया हम लोगों की बात ही न करें। भाई क्या, माँ और बेटी की संपत्ति भी मिलती हो तो नहीं छोड़ें। __ महाराजश्री : तो फिर श्रीयक की खानदानी का खयाल आ गया न? उस परिवार के खून में खानदानी थी! भाई भले वेश्या के वहाँ हो, परन्तु इससे क्या? उसका अधिकार नहीं छीना जा सकता | स्थूलभद्रजी के प्रति श्रीयक के हृदय में कोई दुर्भावना नहीं थी, द्वेष नहीं था, धिक्कार का भाव नहीं था। इतना ही नहीं, स्थूलभद्र के प्रति प्रेम और आदर था! विनय और भक्ति थी। इसलिए तो जब दोनों भाई उद्यान में मिले, श्रीयक स्थूलभद्र के चरणों में गिर पड़ा। पिताजी के साथ जो घटना बनी, सारी घटना बता दी स्थूलभद्र को। अयोग्य को योग्य बनाने का तरीका : अब आइये, आपके दूसरे प्रश्न का जवाब देता हूँ। 'मंत्रीपद की योग्यता स्थूलभद्र में नहीं थी, इसलिए उनको मंत्रीपद नहीं देना चाहिए था।' यह बात For Private And Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir u प्रवचन-२६ है न आपकी? आपकी राय में स्थूलभद्र कोशा के घर बारह वर्ष रहे, इसलिए वे मंत्रीपद के लिए अयोग्य थे, यही बात है न? हालाँकि स्थूलभद्रजी ने मंत्रीपद ठुकरा कर अपनी योग्यता सिद्ध कर ही दी थी, परन्तु यदि वे मंत्रीपद को स्वीकार करते, तो क्या वे कोशा के घर रह सकते थे? मगध का महामात्य बनकर क्या वे नृत्यांगना के घर रह सकते थे? उनको अपने घर पर ही रहना पड़ता। दो काम हो जाते : कोशा का सहवास छूट जाता और महामंत्री-पद प्राप्त हो जाता! अयोग्य को योग्य बनाने का तरीका आता है? अयोग्य को अयोग्य ही बनाये रखने में बुद्धिमत्ता नहीं है। कभी पापकर्मों के उदय से योग्य और कुलीन मनुष्य भी थोड़े समय के लिए अयोग्य रास्ते पर चला जा सकता है, इसका अर्थ यह नहीं है कि वह अयोग्य ही बना रहेगा। जब पापकर्मों का उदय समाप्त हो जाता है, उसकी योग्यता उभर आती है, घनघोर बादल बिखर जाते हैं, नव्य जीवन का सूर्य जगमगाता है। 'यह तो वेश्यागामी बन गया है....चाहे मेरा भाई है तो क्या हो गया? वेश्यागामी को महामंत्री-पद नहीं देना चाहिए, वह इस पद के लिए लायक नहीं है.....मेरी चले तो उसको देश निकाला दे दूँ....।' ऐसे विचार सज्जन पुरुष के नहीं होते हैं। सद्गृहस्थ के नहीं होते हैं। सद्गृहस्थ तो गंभीरता से सोचता है। मनुष्य की खानदानी भी एक मूल्यवान चीज है। ऐसे उच्च परिवारों में वंशपरम्परा से राज्यसेवा के पद चले आते थे, इससे राज्य को और प्रजा को प्रायः लाभ ही होता था। स्थूलभद्रजी की दीक्षा में आप उपस्थित होते तो? हालाँकि पितृहत्या की करूण घटना और उसके आसपास की कूटराजनीति की बातें सुनकर स्थूलभद्र का चित्त पूरे संसार से ही विरक्त हो गया था और उन्होंने राजा को मंत्रीमुद्रा लौटा दी थी। कोशा के वहाँ भी वापस नहीं गये थे, वे पहुँचे थे गुरुचरणों में | संसार का त्याग कर साधुधर्म अंगीकार कर लिया था। ___ यदि उस समय... उस जमाने में आप लोग होते तो स्थूलभद्रजी की दीक्षा का भी विरोध करते! ऐसे वेश्यागामी को कैसे दीक्षा दे सकते हैं? नहीं देनी चाहिए दीक्षा! १२-१२ वर्ष तक वेश्या के सहवास में रहने वाला दीक्षा के लिए योग्य हो सकता है क्या? दीक्षा लेकर बाद में.... 'ऐसी-ऐसी ही बातें करोगे न? आप लोगों की विचारधाराएँ भी गजब की होती हैं! For Private And Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४ प्रवचन-२७ परंपरागत व्यवसाय के लाभ : स्थूलभद्रजी ने सीधा साधुधर्म का ही चुनाव कर लिया। मंत्रीपद श्रीयक को दिया गया। श्रीयक ने मंत्रीपद को स्वीकार कर लिया। कुलपरम्परा की राजसेवा श्रीयक ने जारी रखी। ग्रन्थकार आचार्यदेव सामान्य गृहस्थधर्म की भूमिका बताते हुए पहली बात यह कहते हैं कि गृहस्थ को कुलपरम्परा से प्राप्त व्यवसाय या नौकरी सर्वप्रथम पसन्द करनी चाहिए। वह व्यवसाय होना चाहिए अनिन्दनीय, वह नौकरी होनी चाहिए शिष्ट पुरुषों में संमत। जमी-जमायी दूकान मिल जाने से, नयी दूकान जमाने की मेहनत बच जाती है। इससे मनुष्य ज्यादा उलझता नहीं है। उसकी धर्मआराधना सुचारु रूप से चलती रहती है। श्रीयक का जीवन वैसा ही शान्त और स्वस्थ व्यतीत हुआ था। मृत्युपर्यंत वह मगधसाम्राज्य की सेवा करता रहा था। उसने अपने पिता का नाम उजागर किया था, रोशन किया था। उसकी धर्मभावना भी बहुत अच्छी थी। बड़े भाई स्थूलभद्रजी साधु बन गये थे। इधर उनकी सात बहनों ने भी साध्वीजीवन स्वीकार कर लिया था। और जिस परिवार में से इतनी दीक्षाएँ हुई हों, उस परिवार में धर्मभावना जाग्रत होना स्वाभाविक है। निंदनीय व्यवसाय मत करो : ___ अर्थोपार्जन गृहस्थजीवन की मुख्य क्रिया है। इसलिए आचार्यदेव सर्वप्रथम इस विषय में विशद मार्गदर्शन दे रहे हैं। वर्तमानकालीन परिस्थितियों में यह मार्गदर्शन आप लोगों को अति उपयोगी सिद्ध होगा। आजकल कुछ व्यवसाय जो कुलपरम्परा से चले आते थे, टूट गये हैं। वर्तमानकालीन राज्यव्यवस्था ने व्यवसायों में बहुत बाधाएँ उत्पन्न कर दी हैं। ऐसे संयोगों में आप इतना ध्यान रखें कि जो भी व्यवसाय आप करें, निन्दनीय नहीं हो यानी ज्यादा पापमय नहीं होना चाहिए। आपकी स्वयं की संपत्ति के अनुरूप होना चाहिए । वर्तमानकाल के अनुरूप होना चाहिए | आप जिस प्रदेश में रहते हो, उस प्रदेश के अनुरूप होना चाहिए। और उस व्यवसाय में आपकी प्रामाणिकता होनी चाहिए, न्यायनीति का स्तर ऊँचा होना चाहिए। इससे आप भयमुक्त होकर धर्ममय जीवन जी सकेंगे। आज, बस इतना ही। For Private And Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-२७ छ.गलत और अवैध व्यापार करनेवालों की जिन्दगी जरा भीतर से देखो....आप को वहाँ निरी अशांति.... पीड़ा.... बेचैनी और परेशानी देखने को मिलेगी! उनका पारिवारिक जीवन भी अशांति की आग में झुलसता है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक प्रति वर्ष भारत में पचपन लाख पक्षियों का व्यापार होता है! व्यक्ति के जीवन में जब स्नेह का झरना सूख जाता है तब फिर उस व्यक्ति का जीवन जीवन न रहते हुए केवल यंत्र बन जाता है! हाँ...चलता...फिरता हुआ मानवयंत्र! जिन्दा 'रोबोट' समझ लो! व्यापार करने में कई तरह की सावधानियाँ रखनी होती, हैं....हरिभद्रसूरिजी एवं श्री मुनिचन्दसूरिजी कितना मार्मिक एवं मनोवैज्ञानिक मार्गदर्शन दे रहे हैं। प्रवचन : २७ Lee9 महान श्रुतधर पूजनीय आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी रचित 'धर्मबिंदु' ग्रंथ में गृहस्थ का 'सामान्य धर्म' बता रहे हैं। गृहस्थजीवन में अर्थपुरुषार्थ और कामपुरुषार्थ की प्रधानता होती है। जिस मनुष्य की ज्ञानदृष्टि उन्मीलित होती है वह मनुष्य धर्मपुरुषार्थ को भी जीवन में यथोचित स्थान देता है। ज्ञानदृष्टिवाला गृहस्थ उस ढंग से अर्थपुरुषार्थ और कामपुरुषार्थ करता है कि जिससे धर्मपुरुषार्थ को क्षति न हो । मानवजीवन का उच्च मूल्यांकन करनेवाला मनुष्य जानता है कि धर्मपुरुषार्थ करने का श्रेष्ठ जीवन, श्रेष्ठ समय मानवजीवन ही निंदनीय व्यवसाय से निंदा व अशांति : सर्वप्रथम यहाँ अर्थपुरुषार्थ की सही दिशा बतायी जा रही है। अर्थपुरुषार्थ में भी जागृति आवश्यक बतायी जा रही है। गृहस्थजीवन में अर्थोपार्जन अनिवार्य होता है। अर्थोपार्जन का पुरुषार्थ यदि कुल परम्परागत होता है, अनिन्दनीय होता है, अपने वैभवानुसार और देशकालानुसार होता है, न्यायपुरस्सर होता है तो वह पुरुषार्थ धर्मपुरुषार्थ बन जाता है! गृहस्थधर्म बन जाता है! यदि For Private And Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-२७ ___ २६ आपकी कुल परम्परा से कोई व्यवसाय चला आ रहा है और यदि वह व्यवसाय अनिन्दनीय है, तो आपको वही व्यवसाय करना चाहिए। व्यवसाय का अनिंदनीय होना अति आवश्यक है। चूंकि मनुष्य अपनी निंदा से अशांत बनता है! गाँव में, समाज में, स्नेही स्वजनों में यदि आपकी निंदा होती है, आपके बुरे व्यापार की निंदा होती है और आपको मालूम हो गया कि 'लोग मेरी निंदा कर रहे हैं, तो आपके मन में अशांति पैदा हो जायेगी। आपके परिवार के सदस्यों को भी बुरा लगेगा। संभव है कि इससे आपका मन धर्मआराधना में एकाग्र नहीं बन पायेगा। आप लोग ही सोचो कि दूसरा कोई मनुष्य निंदनीय व्यापार करता है, तो आप लोग निंदा करते हो या नहीं? आपके समाज में से किसी ने शराब की दुकान खोली हो, किसी ने हड्डियाँ पीसने का कारखाना खोला हो, किसी ने स्मगलिंग-तस्करी का धंधा शुरू किया हो, तो आप लोग उनकी आलोचना करते हो या नहीं? तो फिर, आप लोग स्वयं ऐसा गर्हणीय धंधा करोगे तो दूसरे लोग आपकी निंदा करेंगे या नहीं? केवल पैसे से तो अशांति भी बढ़ेगी ही : सभा में से : आजकल तो लोग जिस धंधे में ज्यादा पैसा मिलता हो, वैसा ही धंधा पसंद करते हैं। निंदनीय-अनिंदनीय का भेद नहीं करते! ___ महाराजश्री : इसलिए तो वैसा धंधा करने वाले लोग ज्यादा अशांत हैं! उनके जीवन में शांति नहीं होती, प्रसन्नता नहीं होती, धर्म-आराधना नहीं होती। वे ज्यादा धन कमाने में ही जीवन व्यतीत कर देते हैं। धनसंपत्ति ही उनका जीवन होता है। धनसंपत्ति ही उनके जीवन का सर्वस्व होता है। ऐसे कुछ लोगों को मैं जानता हूँ | मैंने ज्यादातर ऐसे लोगों में क्रूरता, कठोरता और निर्दयता पायी है। नहीं होती है दया और करुणा, नहीं होती है मानवता और नहीं होती है धर्मपरायणता। सद्गृहस्थों को ऐसे निंदनीय व्यवसाय नहीं करने चाहिए। निंदा से बचना चाहिए। निंदा को सहन करने की आप में क्षमता हो तब भी ऐसे निम्न स्तर के धंधे नहीं करने चाहिए। निम्नस्तर के निंदनीय व्यवसाय करने से पाप तो होते ही हैं, साथ-साथ स्वयं के परिवार की मानसिक तन्दुरस्ती बिगड़ती है। समाज में अनेक दूषण प्रविष्ट हो जाते हैं, देश में बुराइयों का प्रसार होता है। For Private And Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-२७ ___ २७ धर्महीन और पापलीन सरकार से पाला पड़ा है : सभा में से : आजकल तो सरकार ऐसे निम्न स्तर के व्यवसायों को प्रोत्साहन देती है! शराब की दुकानों के लायसंस सरकार देती है, सिनेमा बनाने के स्टूडियो बांधने में सहायता देती है, डॉक्टरों को गर्भपात के ऑपरेशन करने की 'परमिट' सरकार देती है! महाराजश्री : सरकार कौनसा धंधा नहीं करती है, नहीं करवाती है? आपकी सरकार स्वयं व्यापारी बन गई है। जिस धंधे से धन मिलता हो, वे सब धंधे सरकार करती है। प्रति दिन बूचड़खाने में लाखों पशुओं की हत्या क्यों होती है? बहुत से बड़े-बड़े बूचड़खाने सरकार चलाती है न? क्यों? पैसा कमाना है सरकार को! विदेशों में बंदर जैसे असंख्य पशुओं का निर्यात होता है, क्यों? पैसा कमाना है सरकार को! सरकार मत्स्यउद्योग चलाती है! सरकार मच्छीमार बन गई है आज! सारे के सारे निन्दनीय व्यापार सरकार कर रही है और प्रजा से करवा रही है। दुर्भाग्य है देश का कि ऐसी धर्महीन और पापलीन सरकार देश को मिली है। यदि काँग्रेस सरकार सत्ता से हट भी जाय और दूसरी सरकार आये, तो भी ये पाप के धंधे तो चलनेवाले ही हैं। दुनिया के सभी देशों में सरकारें आजकल व्यापारी बन गई हैं। सरकारें पापपुण्य के सिद्धान्तों को मानती कहाँ हैं? सरकारों को धर्म से कौन सा नाता है? मात्र भौतिक समृद्धि ही लक्ष्य बन गई है सरकारों की। विश्व की प्रजा का लक्ष्य भी भौतिक समृद्धि बन गया। जो भी काम करने से ज्यादा धन मिलता है, वह काम करने जैसा माना गया है आज की दुनिया में । इसलिए तो आज घोरातिघोर हिंसा दुनिया में फैल गई है। देश और दुनियाभर में हिंसा का बोलबाला : देश और दुनिया में हिंसा को बढ़ावा दिया जा रहा है। शराब को विश्वव्यापी बना दिया गया है। झूठ और चोरी को तो अब लोग 'कर्तव्य' मानने लग गये हैं। व्यभिचार जैसा घोर पाप मात्र मनोरंजन बन गया है। मांसभक्षण का काफी जोरशोर से प्रचार हो रहा है। अंडे, शाकाहारी अंडे! इनका भी कितना धुआंधार प्रचार हो रहा है? ऐसी दुनिया में आपको जीना है और इन बुराइयों से बचना है! अत्यंत सावधान रहोगे तो ही बच पाओगे | त्याज्य और निंदनीय धंधों के आकर्षक विज्ञापन प्रकाशित होते हैं अखबारों में, होते हैं न? यदि ऐसे विज्ञापनों के प्रभाव में आ गये तो फंस जाओगे। ऐसे प्रचार के प्रभाव में फँसना मत। For Private And Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-२७ २८ सरकार की दृष्टि में चाहे कोई व्यवसाय निंदनीय न हो, दूसरे लोभी और अर्थप्रेमी लोगों की दृष्टि में भले कोई धंधा त्याज्य न हो, परंतु ज्ञानी, विवेकी और आत्मदृष्टा पुरुषों की दृष्टि में जो व्यवसाय त्याज्य हो, निंदनीय हो, धर्मविरुद्ध हो, वैसा व्यवसाय नहीं करना चाहिए। आजकल अपने अहिंसक जैन समाज के भी कुछ लोग ऐसे निंदनीय व्यवसाय करने लगे हैं। ये लोग जन्म से जैन होंगें, कर्म से जैन नहीं हैं | चाहे वे आर्य देश में जन्मे हों, परन्तु वे आर्य नहीं हैं। वे शरीर से चाहे मानव हों, उनमें मानवता नहीं है। मात्र श्रीमंत.....धनवान् बनने की ही तमन्ना वाले लोग क्या मानव हो सकते हैं? मानवताहीन मानव से तो पशु अच्छे होते हैं। ऐसे 'जैनों' ने जैन धर्म की शान को लांछन लगाया है। मात्र अर्थप्रेमी लोग क्रूर, निर्दय और मानवताहीन ही होते हैं। गंदे धंधे करने वालों में संभवतः दया, करुणा और मानवता हो ही नहीं सकती। तस्करों के इर्दगिर्द भय के भूत घूमते हैं : ये सारी बातें मूर्ख और बुद्धिहीन लोगों के पल्ले पड़ने वाली नहीं हैं। पैसे के पीछे पागल बने हुए लोगों के दिमाग में ये बातें जंचने वाली नहीं हैं। उनको तो कोई भी 'बिजनेस' हो, ढेर सारे रूपये मिलने चाहिए! रूपयों के लिये ही जीते हों तो आपको भी ये बातें पसन्द नहीं आयेंगी। बुद्धिमान बनो! निर्मल और तीक्ष्ण बुद्धि चाहिए। इस वर्तमान जीवन में और पारलौकिक जीवन में किसी प्रकार का गंभीर नुकसान न हो, इस प्रकार का अच्छा व्यवसाय करना चाहिए । 'स्मगलिंग' अवैध-व्यापार, तस्करी का धंधा कितना खतरनाक है? इस धन्धे में प्राण का खतरा होता है। यों भी यह धन्धा देशद्रोह है, राज्यविरुद्ध है। सतत् 'टेंशन' बना रहता है | भय के भूत निरंतर स्मगलरों के इर्दगिर्द नाचते रहते हैं। उनके जीवन में आप शांति, स्वस्थता और स्थिरता नहीं देख पायेंगे। उनके परिवारवालों को भी अशांति और उद्वेग में ही जीवन गुजारना पड़ता है। परंपरागत भी निंदनीय धंधा मत करो : ___ ऐसे निंदनीय व्यवसाय यदि कुलपरंपरा से चले आते हों तो भी आपको नहीं करने चाहिए | गलत परंपरा को निभाना अनुचित है, ऐसी परंपराओं को तो तोड़ना ही चाहिए। ऐसा नहीं सोचना कि 'यह व्यवसाय तो मेरे दादा भी करते थे, मेरे पिता करते थे, क्या वे मूर्ख थे? वे करते होंगे तो ठीक ही करते For Private And Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-२७ २९ होंगे न?' ऐसा मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। आप के दादा और पिता भी गलत कर सकते हैं! उनको धन की लालसा सताती हो तो वे बुरे धंधे कर सकते हैं। उनके पास सच्चा ज्ञान न हो तो वे निंदनीय व्यवसाय भी कर सकते हैं! आपको ज्ञान हो जाय कि 'यह धंधा बुरा है, तो आपको छोड़ देना चाहिए। जितने दादा और पिता होते हैं वे सब अनिंदनीय व्यवसाय ही करनेवाले होते हैं, ऐसा कोई नियम नहीं है। सुलस और अभयकुमार : श्रमण भगवान महावीर स्वामी के समय का एक प्रसंग है। कालसौकरिक नाम का एक कसाई था। प्रतिदिन ५०० भैंसों की वह हत्या करता था। कसाई था न? मांस बेचने का धंधा था। उसका पुत्र था महामंत्री अभयकुमार का मित्र! नाम था सुलस। पिता कालसौकरिक की मृत्यु हो गई। सुलस ने कुलपरंपरा का कसाई का धंधा चालू रखा। एक दिन अभयकुमार ने सुलस से कहा : 'सुलस, जीववध का यह व्यवसाय बुरा है, इससे घोर पापकर्म बंधते हैं....रोजाना सैंकड़ों जीवों की हत्या करना बहुत बड़ा पाप है।' __ सुलस ने कहा : 'अभयकुमार, यह धंधा हमारी कुलपरंपरा का धंधा है। हमारी आजीविका इसी धंधे से चलती है। मैं मात्र अपने लिये ही यह पाप नहीं करता हूँ, माता, पत्नी, पुत्र.... आदि सभी के लिए करता हूँ, तो जीवहत्या से जो पापकर्म लगते हैं वे पापकर्म पूरे परिवार में विभाजित हो जाते होंगे न? क्या मैं अकेले ही सारे पाप थोड़े ही बांधता हूँ?' __ अभयकुमार ने कहा : 'मेरे मित्र, जीववध तू करता है, इसलिए पापकर्म तू अकेला ही बाँधता है। इस व्यवसाय से जो रूपये मिलते हैं, उन रूपयों से सारा परिवार सुख भोगता है। तेरे पापों से उनको कोई संबंध नहीं है। पापों से जो दुःख आयेंगे, तुझे अकेले को ही भोगने पड़ेंगे। दुखों में कोई हिस्सा नहीं बँटायेगा। सुलस को अभयकुमार की बात अँच गई। आप लोगों के दिमाग में यह बात अँची या नहीं? आप अनेक पाप करके लाखों रूपये कमा लो, और उन रूपयों से आपका सारा परिवार मौज-मजा करेगा परन्तु आपके पापों को बाँट कर नहीं लेगा! उन पापकर्मों के उदय से जो दुःख आयेंगे, आपको अकेले को ही भोगने पड़ेगे वे दुःख! परिवारवाले नहीं कहेंगे कि 'आपने हमारे सबके लिए पाप किये थे, तो लाईए, आपके दुःख हम सब बाँट लेते हैं!' ऐसा नहीं कहेंगे। For Private And Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-२७ ३० यदि कहेंगे तो भी वे बाँट नहीं पायेंगे | सुलस ने तो घर पर जाकर प्रयोग कर दिया। पाप में हिस्सा कौन लेगा? दुःख में भी कोई नहीं! सुलस घर पर गया। उसने लकड़ी काटने की कुल्हाड़ी उठायी और लकड़ी काटने लगा। लकड़ी काटते समय एक घाव जानबूझ कर उसने अपने पैर पर कर दिया। पैर कट गया, खून बहने लगा। सुलस चिल्लाया : 'अरे........मेरा पैर कट गया....बहुत दर्द होता है.... सब आओ....मेरा दुःख बाँट लो तुम लोग....' ___ माता आई, पत्नी भी दौड़ती आई.... 'क्या हुआ? कैसे लगी कुल्हाडी? क्या बहुत दर्द होता है?' पूछने लगी। सुलस ने कहा : 'तुम लोग मेरा दुःख ले लो....मैं तुम्हारे लिए ही लकड़ी काटता था....काटते-काटते मेरा पैर कट गया....तो मेरा दुःख तुम लोगों को ले लेना चाहिए.... जरा सा तो ले लो....।' __ माता बोली : 'बेटा, तेरे घाव में दवाई भर के पट्टी बाँध देती हूँ.... दर्द कम हो जायेगा, परन्तु तेरा दर्द हम नहीं ले सकते.... किसी का दुःख किसीसे लिया नहीं जाता। दुःख दर्द तो मनुष्य को स्वयं भोगना पड़ता है....।' सुलस ने अपनी पत्नी की ओर देखा और कहा 'तू तो मेरी पत्नी है, मुझ से बहुत प्यार करती है, तो मेरा दुःख नहीं ले लेगी?' पत्नी ने कहा : 'स्वामिनाथ, यदि आप दे सकते हो अपना दुःख तो दे दो, मैं भोग लँगी....| परन्तु ऐसे दुःख दिया जाता नहीं और लिया जाता नहीं.....अपना दुःख तो अपने आपको ही सहन करना पड़ता है।' सुलस को अभयकुमार की बात स्मृति में थी। उसने कहा : 'तो फिर मैं जो रोजाना ५०० जीवों का वध करता हूँ, इससे जो घोर पाप कर्म बाँधता हूँ, उन पाप कर्मों का जब उदय होगा तब जो भयानक दुःख आयेंगे, वे दुःख क्या मुझे अकेले को ही भोगने पड़ेंगे? मैं जीववध का धंधा हम सब के लिए करता हूँ, तो क्या हम सब दुःखों को बाँट के नहीं भोगेंगे? तुम लोग क्या मेरे दु:खों को नहीं बाँट लोगे?' जो कर्म करे वही भुगते : ___ माता ने कहा : 'बेटा, जो कर्म बाँधता है वही भोगता है ।' पत्नी ने भी वैसा ही प्रत्युत्तर दिया। सुलस को अभयकुमार की बात पर पूर्ण विश्वास हो गया For Private And Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 39 प्रवचन-२७ और उसने कुलपरंपरा का जीव वध का धंधा छोड़ दिया। अभयकुमार ने सुलस को ज्ञानदृष्टि दी। कुलपरंपरा का धंधा यदि निंदनीय है, गलत है, पापमय है तो तत्काल छोड़ देना चाहिए | अनिंदनीय और निष्पाप धंधा हो तो चालू रखना चाहिए। ___ सभा में से : यदि आप कहते हैं वैसा अच्छा निष्पाप व्यवसाय नहीं मिले तो क्या करना चाहिए? ___ महाराजश्री : ऐसा नहीं हो सकता। कोई न कोई अनिंदनीय व्यवसाय या नौकरी मिल ही जाती है। थोड़ा सा धैर्य होना चाहिए। तृष्णा कम होनी चाहिए। इच्छाओं पर नियंत्रण होना चाहिए। ___ वास्तव में देखा जाय तो मनुष्य परिश्रम को नापसंद करता जा रहा है। जिस 'बिजनेस' में, जिस व्यवसाय में कम परिश्रम हो, वह व्यवसाय आज का युवक ज्यादा पसंद करता है। कुर्सी पर बैठकर 'टेबलवर्क' करने की नौकरी विशेषकर पसंद की जाती है। भले तनख्वाह कम मिलती हो, रिश्वत लेकर ज्यादा 'इनकम' कर लेते हैं। सरकारी नौकरी में भ्रष्टाचार कितना व्यापक बन गया है, आप लोग अच्छी तरह जानते हो। महीने हजार-दो हजार की तनख्वाह पाने वाले नौकर भी रिश्वत लेते हैं और प्यून-चपरासी भी रिश्वत लेता है! रिश्वत लेना और रिश्वत देना-दोनों बड़े पाप हैं, परन्तु आप लोगों को पापों का भय है कहाँ? यदि मनचाहा धन मिलता है तो पाप करने में आपको किसी प्रकार का क्षोभ नहीं है। सच बात यह है न? परंतु आप याद रखें कि गलत और निंदनीय धंधा करके कमाया हुआ धन आपके पास दीर्घ समय तक टिकेगा नहीं और उपार्जित किये हुए पाप आपके साथ परलोक चलेंगे। जब वे पापकर्म उदय में आयेंगे तब कितने भयानक दुःख आप पर गिरेंगे, उसका विचार करें। गंभीरता से विचार करें। अर्थव्यवस्था की पद्धति : तीसरी बात है व्यापार में अर्थव्यवस्था की पद्धति । आपके पास जितनी द्रव्यराशि हो, उसीके अनुसार व्यापार करना चाहिए। व्यापार है, कभी नुकसान भी होता है। यदि आपने दूसरे लोगों से रूपये लाकर..... व्याज से रूपये लाकर व्यापार किया हो और व्यापार में, नुकसान हो जाए तो क्या होगा? डूब जाओगे न? जिन-जिन से रूपये लाये हो, उनको क्या दोगे? For Private And Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- २७ ३२ सभा में से : आजकल तो लोग दूसरों के रूपयों से ही ज्यादातर व्यापार करते हैं! जब बड़ा नुकसान आता है तब 'डिफोल्टर' घोषित हो जाते हैं। महाराजश्री : 'डिफोल्टर' जाहिर होने में जिनको शर्म नहीं आती है, जो बेशरम लोग हैं, वैसे लोगों की बात ही क्या करें ? दिवाला निकालना आज मामूली बात बन गई है। बिना सोचे बिना विचार किये व्यापार करनेवालों की इज्जत इस प्रकार समाप्त हो जाती है। समाज में, 'मारकेट' में मानभंग हो जाता है। घोर अशान्ति में उसको सुलगना पड़ता उसके परिवार वालों को मानहानि सहन करनी पड़ती है। इसलिए व्यापार अपनी आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए करना चाहिए । दुनिया की बात जाने दें, दुनिया में हर बुराईवाले लोग मिल जायेंगे । आपको तो आपके विषय में सोचना है । मंदिरों में और उपाश्रयों में आनेजाने वाले आप लोग यदि दिवाला निकालते हो तो आपकी बदनामी तो होती है, साथ-साथ धर्म की और धर्मगुरुओं की भी बदनामी होती है। लोग निन्दा करते हैं। 'देखा इस धर्मात्मा को ? गाँव के पैसे से धंधा किया.... दिवाला निकाला..... बेचारी विधवाओं के रूपये भी डूब गये.... ऐसे भगतों के कारनामें ही ऐसे होते हैं...। दिखावे का धर्म करनेवालों का नाम ही मत लो .... ।' आपको व्यापार करते समय यह भान रहना चाहिए कि 'इस व्यापार में ज्यादा से ज्यादा कितना नुकसान आ सकता है, मेरी अपनी इतनी संपत्ति है या नहीं? परिवारवालों को तो किसी प्रकार की मुसीबत नहीं आयेगी न? फिर से व्यापार कर सकूँ, वैसी आर्थिक स्थिति रहेगी या नहीं ?' व्यापार में मात्र मुनाफे का विचार पर्याप्त नहीं है। नुकसान की संभावना भी सोच लेनी चाहिए। नुकसान होने पर भी आप रास्ते के भटकते निर्धन न बन जायं, वैसे व्यापार करना चाहिए। सभा में से : दुर्भाग्य का उदय हो तो श्रीमंत भी भिखारी बन जाता है न? महाराजश्री : पर्याप्त विचार करने पर भी, सोचकर व्यापार करने पर भी, कभी अकस्मात् हो जाए और कल्पनातीत संकट आ जाय यह बात अलग है। जान-बूझ कर कोई श्रीमंत भी भिखारी बनना चाहेगा? आप अपनी बुद्धि से सोच-विचार कर व्यापार-व्यवसाय करें, ताकि आपको आर्थिक संकट में फँसना न पड़े। यदि व्यापार में आप १. कुलपरंपरा का, २. अनिंदनीयता का और ३. आर्थिक स्थिति का विचार करते हैं तो आपकी व्यापारक्रिया गृहस्थधर्म बन जाती है। For Private And Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 3३ प्रवचन-२७ व्यापार में समयज्ञाता जरूरी : व्यापार-व्यवसाय में जिस प्रकार आर्थिक स्थिति का विचार करना आवश्यक है, वैसे काल-समय का विचार करना भी आवश्यक है। किस समय कौनसा व्यापार करना चाहिए। किस समय माल खरीदना चाहिए और किस समय बेचना चाहिए। किस मौसम में कौनसा व्यापार करना चाहिए, किस मौसम में कौन-सा व्यापार नहीं करना चाहिए, यह भी बुद्धि का, तीव्र बुद्धि का विषय है। जिसके पास इस प्रकार सोचने की बुद्धि नहीं होती है, वे लोग गलत धंधा कर लेते हैं और नुकसान करते हैं। ___ व्यापार का क्षेत्र नहीं हो, राजसेवा, श्रेष्ठिसेवा अथवा दूसरी कोई नौकरी हो, वहाँ पर भी समय का ख्याल करना नितांत आवश्यक होता है। जिस समय नौकरी में हाजिर होना हो, उस समय पहुँच जाना चाहिए, जिस समय जो काम करने का मालिक का आदेश हो, उस समय वह काम करना चाहिए | जितना समय नौकरी का नियत किया हो, उतना समय पूरा देना चाहिए। सभा में से : आजकल तो नौकरों की समस्याएं काफी बढ़ गई हैं। नौकरों की ओर से व्यापारीवर्ग को परेशानियों का पार नहीं है। नौकर मालिक बनने जा रहा है। महाराजश्री : इसका मूलभूत कारण खोजना चाहिए । 'नौकरी न्यायपुरस्सर करनी चाहिए,' 'नौकरी में प्रमाणिकता बरतनी चाहिए, यह सिद्धान्त भुला दिया गया है। नौकरों की ओर से मात्र व्यापारी वर्ग को ही परेशानी नहीं है, सरकार को भी पूरी परेशानी है। आये दिन हड़तालें होती रहती हैं। हिंसा बरती जाती है। उद्योग स्थगित हो जाते हैं। करोड़ों रूपयों का नुकसान हो जाता है। नौकरों ने देश में आतंकपूर्ण वातावरण पैदा कर दिया है। नौकरों के 'युनियन' बन गये हैं | 'युनियन' के माध्यम से मालिकों के साथ झगड़े होते हैं, लड़ाइयाँ होती हैं। स्नेह-सहानुभूति के झरने सूख गये : ___ मालिक और नौकर के बीच प्रेम का संबंध नहीं रहा। स्नेह और सहानुभूति नहीं रही। मात्र रूपयों का संबंध बन गया है। दोनों के बीच गहरी खाई बन गई है। नौकरों ने मालिकों का विश्वास खो दिया है। जहाँ अधिकार की लड़ाई होती है वहाँ प्रेम का अमृत सूख जाता है। जिस व्यक्ति के जीवन में प्रेम का अमृत नहीं रहा, उस व्यक्ति का जीवन नहीं रहता, मात्र एक यंत्र बन जाता है। For Private And Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-२७ __ ३४ अधिकार की लड़ाई है चौतरफ : अधिकार की लड़ाइयाँ सर्वत्र फैल गई हैं। घर-घर में यह लड़ाई पहँच गई है। पत्नी पति से अधिकार माँग रही है, पुत्र पिता से अधिकार माँग रहा है। नौकर मालिक से अधिकार माँग रहा है। प्रजा सरकार से अधिकार माँग रही है। सर्वत्र अधिकार की दौड़-धूप है। अब धर्मस्थानों में भी अधिकार की भूख भड़क उठी है न? आपके लोग कहते हैं कि उपाश्रय पर हमारा अधिकार है और दूसरे कहते हैं कि उपाश्रय पर हमारा अधिकार है। किसी जगह गुजराती-मारवाड़ी के अधिकारों की लडाई हो रही है। कहीं ओसवालपोरवाल का चक्कर है। व्यापार में जिस तरह कुलपरंपरा का खयाल करना है, अनिंदनीयता का विचार करना है, वैसे समय का भी खयाल करना है। व्यापार करनेवालों को : ० किस समय व्यापार करना चाहिए, ०किस मौसम में कौनसा व्यापार करना चाहिए, ० किस समय दूकान बँद रखनी चाहिए और ० किस 'सीझन' में व्यापार नहीं करना चाहिए। इन चार बातों का पूरा ख़याल करना चाहिए | पहली बात है किस समय व्यापार करना चाहिए | यानी जिस समय-सुबह, दुपहर या शाम, ग्राहक आते हों, उस समय दूकान खुली रहनी चाहिए और व्यापार में पूरा ध्यान देना चाहिए। यदि ग्राहक शाम को आते हों और आप दोपहर को ही दुकान बंद कर देते हों, तो आपका व्यापार ठप्प हो जायेगा। दूसरी बात है किस मौसम में कौनसा व्यापार करना चाहिए। यानी आपका मौसमी व्यापार है तो सर्दी में और गर्मी में कौन सा व्यापार करने से आपको विशेष अर्थलाभ हो सकता है, उस बात का आप को पूरा ध्यान रखना चाहिए | तीसरी बात है किस समय दुकान बंद रखनी चाहिए। जिस समय गाँव में परमात्मभक्ति का महोत्सव हो रहा हो, गाँव में किसी प्रसिद्ध और लोकप्रिय नागरिक की मृत्यु हो गयी हो, पर्युषण महापर्व जैसे महापर्व के दिवस हों, गाँव में 'कफ्र्यु लगा हो....आप को दूकान नहीं खोलनी चाहिए | चौथी बात है किस मौसम में व्यापार नहीं करना चाहिए। आप समझे इस बात को? वर्षाऋतु में व्यापार नहीं करना चाहिए | वर्षाकाल धर्मआराधना करने का उत्तम समय है। इस मौसम में व्यापार स्थगित रखना चाहिए। For Private And Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-२७ ३५ सभा में से : पूरा चातुर्मास व्यापार कैसे स्थगित किया जाय? महाराजश्री : क्यों? क्या व्यापार स्थगित रखो तो क्या निर्धन हो जाओ, वैसी स्थिति है? हाँ, जो लोग नौकरी करते हैं और घरसंसार चलाते हैं, वे नौकरी छोड़ नहीं सकते चार महीना | परन्तु जिनके पास लाखों रूपये हैं, वे क्या चार महीना दुकान नहीं जाएं तो भूखे मर जायेंगे? परन्तु हृदय में धनदौलत की प्रचुर आसक्ति भरी पड़ी है। पैसे की ममता पारावार भरी पड़ी है। अरे, आप चार महीने दुकान बंद मत रखें, दुकान चाहे खुली रहे, आप दुकान नहीं जाएं, तो क्या नहीं चल सकता? आप जानते हो कि गुर्जरेश्वर राजा कुमारपाल चातुर्मास में राजसभा में भी नहीं जाते थे। जिनालय में परमात्मपूजन करने जाते थे, पौषधशाला में गुरुदेव के दर्शन-वंदन करने जाते थे। बस, तीसरी जगह जाते ही नहीं थे। पूरे गुजरात का साम्राज्य सम्हालते थे न? आपको क्या पूरा अपने गांव का भी साम्राज्य सम्हालना है? होगी एक-दो दुकानें अथवा एक-दो 'फैक्ट्रियाँ'। सभा में से : हम लोगों के पास इससे ज्यादा कहाँ से होगा? आपकी कृपा हो जाए तो काम बन जाए। ___ महाराजश्री : यानी मेरी कृपा से दुकानें बढ़नी है क्या? मेरी कृपा से धन बढ़ाना है क्या? मेरी कृपा का उपयोग पाप बढ़ाने में करना है क्या? मेरी क्या, किसी भी साधु-संत की कृपा, पाप या पाप के साधन बढ़ाने हेतु मत लीजिए, मत मांगिए । आप तो ऐसी कृपा मांगो कि घर और दुकान की ममता ही छूट जाय | ममता थोड़ी भी छूटे तो कम से कम दैनिक धर्मआराधना छोड़ कर तो दुकान नहीं जाओगे। कुछ लोग इसलिए प्रवचन सुनने नहीं आते हैं चूंकि उनको दुकान जाना होता है। कुछ लोग इसलिए प्रभुपूजन नहीं करते हैं चूंकि उनको दुकान पहुँचने में देरी होती है! रात्रिभोजन की आदत हो चुकी है : रात्रिभोजन नहीं करना पड़े उस प्रकार व्यवसाय करते हो न? शाम को सूर्यास्त से पहले भोजन कर लेते हो न? आजकल रात्रिभोजन का पाप तो सामान्य बन गया है। रात्रिभोजन करते समय कोई दुःख भी नहीं होता है। होता है क्या? दुकान पर कोई ग्राहक न हो तो भी भोजन तो रात को ही घर जाकर करने का। कुछ लोगों के लिए तो रात्रिभोजन व्यसन बन गया है। जिस प्रकार व्यापार में संपत्ति का और काल का खयाल करना है, वैसे क्षेत्र For Private And Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६ प्रवचन-२७ का भी ध्यान रखना है। कौनसे प्रदेश में कौन सा व्यापार करना चाहिए | कौनसे गाँव में कौनसा व्यापार चल सकता है, उस बात का ख़याल करना चाहिए | जो धंधा जिस गाँव में, जिस प्रदेश में नहीं चल सकता हो, वैसा धंधा नहीं करना चाहिए। किस जगह दुकान खोलनी चाहिए, किस जगह दुकान नहीं लेनी चाहिए, इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए। ऐसा ध्यान रखा जाये तो अनेक उपद्रवों से आप बच सकते हो। व्यापार में सफलता की 'कुँजियाँ' : व्यापार में, नौकरी में अंतिम बात बड़ी महत्त्व की है। वह है न्याय की, प्रामाणिकता की । अर्थोपार्जन में आपका व्यवहार शुद्ध चाहिए | न्यायपरायणता व्यापार-व्यवसाय में सफलता की 'मास्टर-की' गुरुचाबी है। आप में न्यायपरायणता कितनी है? आप निम्न प्रश्नों के माध्यम से जान लें। १. क्या आप व्यवसाय में किसी प्रकार की मिलावट तो नहीं करते हैं न? २. क्या आप व्यापार में गलत नाप-तौल तो नहीं रखते हैं न? ३. ज्यादा पैसा लेकर कम माल नहीं देते हो न? ४. अच्छा 'सेम्पल' बताकर घटिया माल तो सप्लाय नहीं करते हो न? ५. किसी की अमानत हड़प तो नहीं करते हो न? ६. रुपयों का व्याज ज्यादा तो नहीं लेते हो न? ७. किसी से रुपये माँगते हो, वसूल करते समय गरीबों पर जुल्म तो नहीं करते हो न? ___ इन बातों पर हम विस्तार से सोचेंगे। क्योंकि इन बातों में आप लोगों की बहुत कमजोरी है। यदि इन बातों पर आप पूरा ध्यान दें और व्यवहार में लायें तो अर्थोपार्जन की क्रिया आपके लिए धर्म बन जाए। अर्थोपार्जन के सुंदर लक्ष्य : आपका लक्ष्य मात्र आप का सुख नहीं होना चाहिए, अर्थोपार्जन का लक्ष्य जैसे आजीविका हो वैसे ही दीन, अनाथ, अपंग.....गरीब लोगों के उद्धार का भी लक्ष्य होना चाहिए । 'मेरे पास पर्याप्त धन आ जाए तो मैं दीन-अनाथों का दुःख दूर कर दूँ । गरीबों की गरीबी दूर कर दूँ। भूखों के लिए सदाव्रत खोल दूं, राहगिरों के लिये पानी की व्यवस्था कर दूँ। बेघर लोगों के लिए निवासस्थानों की व्यवस्था कर दूं.....।' For Private And Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 3७ प्रवचन-२७ ___ मन में ऐसे ऐसे परमार्थ-परोपकार की तीव्र भावनाएँ भरकर यदि आप न्यायपुरस्सर अर्थोपार्जन करते हों तो अर्थोपार्जन का पुरुषार्थ 'गृहस्थधर्म' बन जाता है। यदि गृहस्थ अर्थोपार्जन का सही पुरुषार्थ नहीं करता है तो उसका धर्मपुरुषार्थ भी रुक जाता है। ऐसे लोगों को तो दीक्षा लेकर साधु ही बन जाना चाहिए। टीकाकार आचार्य श्री ने कहा है : वित्तीवोच्छेयंमि य गिहिणो सीयंति सव्व किरियाओ। निरवेक्खवस्स उ जुत्तो संपुण्णो संजमो चेव ।। 'गृहस्थ की आजीविका का विच्छेद होने पर उसकी सभी क्रियाएँ शिथिल बन जाती हैं। जिसको अर्थोपार्जन नहीं करना हो उसके लिए साधु बन जाना ही उचित है। आज, बस इतना ही। For Private And Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-२८ मा. धर्मविहीन श्रीमंतों को अति ज्यादा महत्व देकर, उनकी __महत्वाकांक्षाओं को थपथपाकर हम अपने संघ को, समाज को बरबादी की तरफ ले जा रहे हैं। दिन ब दिन संघ और समाज के नैतिक मूल्य घिसते ही जा रहे हैं...इसके लिए हम स्वयं ही जिम्मेदार हैं... और कोई नहीं! . स्वेच्छया समतापूर्वक यदि दुःख सहन कर लिए जाते तो आत्मा पर जमे हुए अनंत-अनंत कर्म अवश्य नष्ट हो जाएंगे। दुःख सहन करने में जरा भी आर्तध्यान या दीनताभरी लाचारी नहीं आनी चाहिए। 'फैशन' के पीछे पागल...व्यसनों में फंसे हुए और अंधानुकरण की खाई में गिरे हुए जीवों के लिए मोक्षमार्ग है ही नहीं! भोगासक्त जीव तो इस मोक्षमार्ग को समझ भी नहीं पाएंगे। STEST प्रवचन : २८ महान् श्रुतधर आचार्यश्री हरिभद्रसूरिजी ने 'धर्मबिंदु' ग्रन्थ में सामान्य गृहस्थधर्म की मर्मग्राही व्याख्या की है। उन्होंने सर्वप्रथम, गृहस्थजीवन के निर्वाह हेतु अर्थोपार्जन किस प्रकार करना चाहिए, इस बात की विस्तार से चर्चा की है। गृहस्थ को अर्थोपार्जन करना अनिवार्य होता है। अर्थोपार्जन के बिना गृहस्थजीवन का निर्वाह हो नहीं सकता! परन्तु अर्थोपार्जन करने मात्र से गृहस्थ सुखी नहीं बन सकता है। यदि वह अन्याय से और अनीति से धन कमाता है तो उसका जीवन अशान्ति और संताप से भर जाएगा | भौतिक सुख की विपुल सामग्री उसके पास होने पर भी वह शान्ति, समता और प्रसन्नता का अनुभव नहीं कर सकता है। आप लोगों में से कइयों को ऐसा अनुभव होगा ही! है न ऐसा अनुभव? अशुद्ध मन : अशुद्ध व्यवहार : 'न्याय' का अर्थ है शुद्ध व्यवहार! आपको व्यापार में अथवा नौकरी में व्यवहार शुद्ध रखना चाहिए। परन्तु जब तक मनुष्य का मन अशुद्ध होगा तब तक उसका व्यवहार कैसे शुद्ध बनेगा? मन में एक बहुत बड़ी अशुद्धि जमी हुई है....वह अशुद्धि है श्रीमंत बनने की वासना! धनवान् बनने की तीव्र For Private And Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३९ प्रवचन-२८ कामना! यह वासना ही मनुष्य को अशुद्ध व्यवहार में प्रेरित करती है! धनवान् बनने की तीव्र आकांक्षा पुण्यपाप के सिद्धान्तों को भुला देती है। 'मेरा पुण्यकर्म का उदय होगा, तो ही मैं धनवान बन सकूँगा, यह सिद्धान्त भूल जाता है वासनाग्रस्त मनुष्य | 'मेरे पापकर्मों का उदय होगा तो मैं निर्धन ही बना रहूँगा,' यह सिद्धान्त विस्मृत हो जाता है धनवान बनने की तमन्नावालों के हृदय में। इसलिए ऐसे लोग अर्थोपार्जन में न्याय-अन्याय, नीति-अनीति, शुद्धि-अशुद्धि का भेद भूल कर पैसा कमाने का भरसक प्रयत्न करते रहते हैं। इससे न तो वर्तमान जीवन सुखमय बनता है, न पारलौकिक जीवन सुखमय बनता है। इस जीवन में भी दुःख और आनेवाले जीवन में भी दुःख, उभय जीवन दुःखमय बन जाते हैं। यदि आप लोगों को उभय जीवन बरबाद नहीं करना है, तो अन्याय का मार्ग छोड़ दो।। धंधे में होशियार : लक्ष्मीदास सेठ : एक छोटा सा शहर था। उस शहर में लक्ष्मीदास की सोने-चांदी की दुकान थी। बड़ा बेईमान सेठ था। पूर्व जन्मों का उपार्जित पुण्यकर्म उसके पास था, परन्तु बुद्धि अशुद्ध थी। बेईमानी करने पर भी उसको काफी धन मिला था। पुण्यकर्म का उदय होने से ऐसा बनता है। परन्तु वह पुण्यकर्म जीवनभर नहीं टिकता है। ज्यों पुण्यकर्म समाप्त हुआ कि सारा का सारा धन चला जाता है। लक्ष्मीदास को एक ही पुत्र था। भला-भोला लड़का था। पिता की तरह वह बेईमानी नहीं कर सकता था। लक्ष्मीदास को इस बात का दुःख था कि उसका लड़का अच्छी तरह बेईमानी नहीं कर पाता था! बेटे की अच्छी बात प्यारी लगती है? : ___ आप लोगों को ऐसा नहीं होता होगा? मान लें कि आप दो नंबर का धंधा करते हैं, आपने अपने लड़के को भी वैसा धंधा करने को कहा, परन्तु लड़के ने इनकार कर दिया.... इतना ही नहीं, उसने आपसे कहा : 'पिताजी, आप ऐसा धंधा नहीं करें, आप परमात्मा के मंदिर जाते हैं, सद्गुरु के चरणों में जाते हो, धर्मक्रियाएँ करते हो... आप छोड़ दो यह दो नंबर का धंधा....!' आप लड़के की बात सुनकर नाराज नहीं होंगे न? सभा में से : नाराज ही नहीं, गुस्सा भी आ जाए! For Private And Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४० प्रवचन-२८ महाराजश्री : लड़के की अच्छी बात भी आप लोगों को पसंद नहीं आती है क्या? नहीं आती है, यदि वह आपको रूपये कमाने से रोकता है! धंधे में दखल देता है! यदि मैं आपको दो नंबर के धंधे नहीं करने का आग्रह करूं तो मेरे प्रति भी गुस्सा आ जायेगा न? सभा में से : आप इतना कहते हो तो भी आपके प्रति गुस्सा नहीं आता है! महाराजश्री : चूंकि मैं आप में से किसी को व्यक्तिगत ऐसा आग्रह नहीं करता हूँ | यदि व्यक्तिगत कह दूँ कि 'आप जैसे भक्त को ऐसा बुरा काम करना शोभा नहीं देता है, ऐसा धंधा करने से घोर पाप लगता है.... आत्मा दुर्गति में चली जाती है....' तो शायद दूसरे दिन आप मेरे उपाश्रय में आयेंगे ही नहीं। आपके स्वार्थ में बाधक अच्छी बात भी आप नहीं स्वीकारेंगे। हालांकि लक्ष्मीदास के लड़के ने लक्ष्मीदास को बेईमानी नहीं करने की सलाह नहीं दी थी, परन्तु लड़का उतना बुद्धिमान ही नहीं था कि वह बेईमानी कर सके! बेईमानी करने में बुद्धि तो चाहिए न? बुद्धिमान लोग ही ज्यादातर बेईमान होते हैं! भय वहाँ अशांति : भय वहाँ दुःख : अन्याय, अनीति, अप्रमाणिकता.... बेईमानी करके लक्ष्मीदास ने दो लाख रूपये जोड़ लिये थे। परन्तु वह सदैव चिंताग्रस्त रहता था, भयभीत रहता था । उसको चोरों का भय सताता था डाकुओं का भय सताता था जहाँ भय वहाँ अशांति! जहाँ भय वहाँ दुःख! लोग भी जान गये थे कि लक्ष्मीदास ने बेईमानी से लाखों रूपये इकट्ठे किये हैं। लोगों की निगाह में लक्ष्मीदास का नैतिक चरित्र गिर गया था । सज्जन पुरुषों में लक्ष्मीदास की गिनती नहीं होती थी। सभा में से : इस जमाने में धनवान् को ही सज्जन माना जाता है! नैतिक या धार्मिक स्तर देखा ही नहीं जाता है! समाज में और संघ में भी धनवानों की ही प्रतिष्ठा हो रही है! क्या होने जा रहा है आजकल! ___ महाराजश्री : क्या यह ठीक हो रहा है? बेईमान श्रीमंतों को दुराचारी श्रीमंतों को, धर्महीन श्रीमंतों को प्रतिष्ठा देकर, इज्जत देकर क्या संघ और समाज अच्छा काम कर रहा है? संघ और समाज में नैतिक मूल्यों का नाश हो रहा है। जो बात ज्यादा लोग करते हैं.... वह बात महत्व नहीं रखती है। For Private And Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- २८ ४१ 'सब लोग बेईमानी करते हैं इसलिए हम भी करते हैं.... आजकल बेईमानी किये बिना नहीं चल सकता.... सब धंधे .... सब व्यवसाय ऐसे ही हो गये हैं..... भ्रष्टाचार व्यापक बन गया है....!' ऐसा सोचते हैं और निश्चिंत होकर भ्रष्टाचार करते रहते हैं । यदि समाज में और संघ में नैतिकता का मूल्यांकन नहीं होगा, धार्मिकता का अभिनंदन नहीं होगा तो सामान्य बुद्धिवाले लोग नैतिकता और धार्मिकता की ओर आकृष्ट नहीं होंगे। संघ और समाज यदि धनवानों की प्रशंसा करेगा, धनवानों का अभिवादन करता रहेगा तो सामान्य मनुष्य धन-संपत्ति के प्रति ही आकृष्ट होगा। धन की कामना से भी मान की वासना ज्यादा प्रबल होती है। मनुष्य संघ- समाज में मान-सम्मान-प्रतिष्ठा चाहता है। जैसा बनने से, जैसा करने से संघ समाज में मान-सम्मान मिलता हो, वैसा बनने और वैसा करने को प्रयत्नशील बना रहता है । आजकल बेईमान धनवानों को भी संघ समाज में मान-सम्मान मिलता है, इसलिए सामान्य मनुष्य बेईमानी करते हिचकिचाता नहीं है । प्राचीनकाल में बेईमानी नहीं थी, ऐसी बात नहीं है, कुछ लोग जैसे बेईमान होते थे, वैसे कुछ लोग ईमानदार भी होते थे। आजकल तो ईमानदार को खोजने निकलना पड़ेगा! कोई लाख में एकाध मिल जाए तो भाग्य ! शहर में लक्ष्मीदास जैसे बेईमान लोग थे, वैसे ईमानदार लोग भी थे उस शहर में। ईमानदारों की शहर में प्रतिष्ठा थी, राजा भी ऐसे ईमानदारों की इज्जत करता था । लक्ष्मीदास ने अपनी संपत्ति की सुरक्षा का विचार किया। उस जमाने में बैंकें नहीं थीं, 'सेफ डिपोजिट वाल्ट' नहीं थे। लोग धन को जमीन में गाड़ते थे। लक्ष्मीदास ने भी अपने धन को जमीन में गाड़ने का सोचा। उसने दो लाख रूपये का जौहरात खरीद लिया और एक डिब्बे में भरकर 'सील' लगा दिया । एक दिन अपने लड़के से कहा : 'बेटा, सारी जिंदगी मेहनत करके मैंने जो धन एकत्र किया है, तेरे लिए मैं उस धन को सुरक्षित रखना चाहता हूँ । इसलिए आज रात को हम श्मशान में जाकर उस धन को जमीन में गाड़ देंगे। भविष्य में यह धन तेरे काम आयेगा ।' लड़के ने सारी बात सुन ली । संध्या हो गई। नगर में अंधेरा छा गया तब लक्ष्मीदास लड़के को साथ लेकर धन-माल बगल में छिपाता हुआ निकल पड़ा। चारों ओर उन्होंने देख लिया था कि कोई उनको देख तो नहीं रहा है। उनको मालूम नहीं पड़ा कि नगर का एक कुख्यात ठग उनके पीछे हो गया था। जब बाप-बेटे श्मशान पहुँचे, एक पेड़ के पीछे वह छिप गया । श्मशान में अंधेरा था, फिर भी ठग For Private And Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२ प्रवचन-२८ अनुमान से अन्दाजा लगा रहा था कि लक्ष्मीदास क्या कर रहा है। लक्ष्मीदास ने एक खड्डा खोदा और उसमें वह डिब्बा रख दिया। खड्डे को पत्थर और मिट्टी से भर दिया। परन्तु शंकाशील लक्ष्मीदास को चैन कहाँ? उसने लड़के से कहा : 'बेटा, जरा श्मशान में एक चक्कर लगाकर देख लो कि कोई आदमी देख तो नहीं रहा है।' लड़के ने कहा : 'पिताजी, इस समय श्मशान में कौन होगा? आप फ़िजूल की शंका करते हो।' लक्ष्मीदास ने कहा : 'तू मूर्ख है। ऐसे महत्वपूर्ण कार्य में सावधानी बरतनी चाहिए। तूने इस दुनिया को देखा नहीं है। जा, देख के आजा।' उस ठग ने सेठ की बात सुन ली। अब वह घबराया। उसने सोचा कि 'यदि मैं यहाँ से भागता हूँ तो लक्ष्मीदास को खयाल आ जाएगा कि किसी ने उसको देख लिया है....तो वह अपना माल निकालकर चला जाएगा। यदि मैं यहाँ बैठा रहा और लड़के ने मुझे देख लिया.... तो भी माल मेरे हाथ नहीं लगेगा। क्या करूं?' सोचता है ठग | बुद्धिमान था वह | उसके दिमाग में एक विचार आया.... वहीं पर लम्बा होकर वह सो गया। प्राणायाम सीखा हुआ होगा, जब वह लड़का पास आया, उसने सांस रोक ली। मुर्दे की तरह पड़ा रहा। लड़के ने वहाँ आकर देखा । उसने सोचा : यह श्मशान है, श्मशान में मुर्दे हो सकते हैं, फिर भी देख लूँ कि इसके श्वासोश्वास चलते हैं या नहीं?' उसने उस जिंदे मुर्दे के नाक के आगे अपना हाथ रखकर देखा । सांस बंद थी। उसने निर्णय कर लिया कि यह मुर्दा ही है। लक्ष्मीदास की सावधानी : लड़का अपने पिता के पास गया, पिता से कहा : 'श्मशान में कोई जिन्दा पुरुष नहीं है । एक वृक्ष के नीचे एक मुर्दा ताजा मरा हुआ पड़ा है।' लक्ष्मीदास चौंक उठा, उसने लड़के से पूछा : 'मुर्दा पड़ा है? अखंड है, क्या? जला हुआ नहीं है? शरीर पर कपड़े हैं?' बहुत सारे प्रश्न पूछ डाले! लड़के ने कहा : 'पिताजी मुर्दा है तो अखंड | शरीर पर कपड़े भी हैं, परन्तु मैंने देखा कि उसकी सांस नहीं चल रही है। ताजा ही मरा हुआ लगता है।' लक्ष्मीदास ने कहा : 'ले मेरा यह डंडा, लेकर जा। उस मुर्दे को जोर से मारना। यदि जिन्दा होगा तो चिल्लाएगा....हिलेगा.... कुछ न कुछ चेष्टा करेगा।' लक्ष्मीदास ने लड़के को डंडा दिया। लड़का डंडा लेकर जाता है। For Private And Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-२८ ४३ उधर वह ठग सेठ की बात सुनता है। वह सोचता है : 'यदि मुझे माल चाहिए तो मार खानी ही होगी.... मुर्दा होने का अभिनय पूरा करना पड़ेगा।' और वह वैसा ही पड़ा रहा। लड़के ने जाते ही उस पर डंडे से प्रहार कर दिया। परन्तु ठग ने मुर्दे का सफल अभिनय किया। जरा भी चिल्लाया नहीं, हिला भी नहीं....जरा सा उंहकार भी नहीं किया। लड़का उसके पिता के पास लौट गया और पिता को बता दिया कि वह मुर्दा ही है, जिन्दा आदमी नहीं है। परन्तु लक्ष्मीदास ऐसे कैसे मान ले लड़के की बात? उसने कहा : 'बेटा, डंडा रख दे यहाँ, यह छुरी ले जा और उसका नाक काट ले। जिन्दा होगा तो नाक नहीं काटने देगा।' आत्मरक्षा के लिए सोचते हो कभी? देखी लक्ष्मीदास की सावधानी? धनमाल की सुरक्षा के लिए कितनी सावधानी बरतता है? इतनी सावधानी आप लोग आत्मरक्षा के लिए बरतो तो काम हो जाए न? परन्तु जितना प्रेम धन संपत्ति से है उतना प्रेम आत्मा से हो तो आत्मा की सुरक्षा का विचार करोगे न? है आत्मा के प्रति प्रेम? कैसे होगा? इस मानव जीवन में आत्मा को पापपिशाचों से बचा लो। पुराने पापकर्मों का नाश करो और नये पापकर्म आत्मा में प्रविष्ट न हो जाएँ इसलिए जाग्रत रहो। यदि पापों से आत्मा को नहीं बचाया तो दुःखों से किसी हालत में नहीं बच पाओगे। दुःखों से बचना है तो पापों से बचा लो आत्मा को | आत्मा को बचा लेने का पुरुषार्थ तभी हो सकेगा, जब आत्मा से प्रेम होगा। लक्ष्मीदास को अपने धन के प्रति प्रेम था, इसलिए उस धन को बचा लेने का प्रयत्न करता था। मार खाये बगैर माल मिले कैसे? उस ठग की बहादुरी भी कैसी है? उसको लक्ष्मीदास का माल पार कर जाना है, लक्ष्मीदास का खजाना हाथ करना है, इसलिए डंडे का प्रहार सहन कर लिया और नाक भी कटवा लिया। हाँ, लड़का छुरी ले कर गया और नाक काट दिया। डाकू ने मुर्दे का कैसा अद्भुत अभिनय किया होगा? चूंकि उसने अपने मन में सोच लिया कि 'मार खाये बिना माल नहीं मिलता। मार खानी ही पड़ेगी। दुःख सहन किये बिना सुख नहीं मिलता है।' यदि इस सिद्धान्त को आत्मविकास की दृष्टि से अपनाया जाए तो धर्मपुरुषार्थ कितना प्रबल हो जाये? आप लोगों को धर्मआराधना करनी है For Private And Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-२८ ४४ परन्तु दुःख सहन करना पड़े वैसी धर्मआराधना नहीं करनी है। आराम से... मजे से... जितना धर्म हो सके उतना करना है, कष्ट पड़े, दुःख सहन करना पड़े वैसा धर्म आपको पसन्द है क्या? स्वेच्छा से दुःख सहन करोगे तभी पापकर्मों का नाश होगा। जरा भी आर्तध्यान किये बिना, समता से यदि दुःख सहन किये जाएँ तो आत्मा पर लगे हुए अनन्त जन्मों के पापों की निर्जरा हो जाए | जानते हो न कि श्रमण भगवान महावीर ने साढ़े बारह वर्ष तक घोर कष्ट जानबूझ कर सहन किये थे? मोक्ष ऐसे आराम करने से, मौजमजा करने से नहीं मिलेगा। मोक्ष का माल चाहिए तो दुःखों की मार सहर्ष खानी पड़ेगी। यदि मोक्ष में जाना है तो! मुक्ति पाना है तो! संसार की गतियों में ही भटकना है तो माल खाया करो! और मार भी खाया करो। जो मानवजीवन में वैषयिक सुखों का भोग-उपभोग करता रहता है, वैषयिक सुखों का त्याग नहीं करता है, उसको दुर्गति में जाना पड़ता है और इच्छा नहीं होने पर भी दुःख सहन करने पड़ते हैं। हमें अपने पुण्यकर्म के उदय से सुख मिले हैं तो क्यों नहीं भोगे? मन में प्रश्न उठता है न? परन्तु यही अज्ञानता है। मिले हुए सुख भोगने से पुनः-पुनः भोगने से, पुण्यकर्म समाप्त हो जाता है और जीवात्मा को, पुण्यहीन जीवात्मा को दुर्गति में जाना पड़ता है। प्राप्त सुखों का त्याग करने से पुण्यकर्म बढ़ता है और जीवात्मा को सद्गति प्राप्त होती है, वहाँ जीवात्मा को विपुल सुख-वैभव प्राप्त होते हैं। इसलिए कहता हूँ कि जो सुख आपको मिले हैं उन सुखों में आसक्त मत बनो, सुखभोग में लीन मत बनो। सुखों का त्याग करने के लिए तत्पर बनो। लक्ष्मीदास का धन गया : सेठ धन-माल बचाने के लिए तत्पर बना है और ठग सेठ का धन-माल किसी भी प्रकार हड़पने के लिए तत्पर बना है। जब लड़के ने खून से सनी हुई छुरी पिता के हाथ में थमाते हुए कहा : 'मैंने उसकी नाक काट डाली तो भी वह हिला नहीं, चिल्लाया नहीं, वह मर गया है, आप शंका नहीं करें।' सेठ को विश्वास हो गया। खड्डे को मिट्टी और पत्थरों से भरकर, निशानी लगा कर, बाप-बेटे वहाँ से अपने घर लौट गये। कुछ समय बाद वह ठग खड़ा हुआ, पास में उगी हुई वनस्पति का रस निकालकर अपनी नाक पर लगा दिया। बहता हुआ खून बन्द हो गया। वह धीरे से उस खड्डे के पास गया। मिट्टी और पत्थर खोद कर उसने उस डिब्बे को बाहर निकाला और कपड़े में लपेट कर सीधा अपने घर पर पहुँच गया । For Private And Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- २८ ४५ लक्ष्मीदास का बेईमानी से, अन्याय से कमाया हुआ धन चला गया। वह मानता है कि श्मशान में उसका धन सलामत है । परन्तु कैसे सलामत रहता वह धन? अन्याय और अनीति से कमाया हुआ धन सलामत नहीं रह सकता। हाँ, ठग के पास भी वह धन सलामत नहीं रहने का। चूँकि उसने भी बेईमानी से ही वह धन पाया है न । कुछ समय के लिए भले वह राजी हो जाए, खुश हो जाए परन्तु यह खुशी क्षणिक होती है। जब एक दिन लक्ष्मीदास ने श्मशान में जाकर अपने डिब्बे को देखना चाहा, वह गया, खड्डा खोदने की जरूरत नहीं थी, खड्डा खाली ही पड़ा था। वह अपना सर पीटने लगा। फूट-फूटकर रोने लगा। दुकान पर पहुँचा । लड़के को कोसने लगा । अपने आपको धिक्कारने लगा.....। मैं कैसा मूर्ख ? मैंने उस आदमी का नाक कटवाया.... अरे, गला ही कटवा दिया होता तो यह आफत नहीं आती । अवश्य वह नकटा ही मेरा डिब्बा ले गया....। अन्याय अनीति से दोनों भव बिगड़ते हैं : अन्याय से, बेईमानी से कमाया हुआ धन दोनों भवों में दुःखी बना डालता है। वर्तमान जीवन दुःखमय बनता है, आगामी जन्म भी दुःखमय बनता है । इस जीवन में बदनामी, सजा, अशांति, चोरी.... वगैरह अनिष्ट पैदा हो जाते हैं और अन्याय-अनीति करने से जो पापकर्म बंधते हैं, उससे आने वाला जन्म भी दुःखमय बन जाता है । यदि मनुष्य न्याय से, ईमानदारी से अर्थोपार्जन करता है तो वर्तमान जीवन सुखमय बनता है और आने वाला जन्म भी सुखमय बनता है । न्याय नीति और ईमानदारी से अर्थोपार्जन करने वालों की संघ-समाज में प्रसिद्धि होती है, मन में शांति बनी रहती है, निर्भयता और प्रसन्नता बनी रहती है। न किसीको शंका होती है कि 'इसके पास दो नम्बर के पैसे हैं..... इसने किसी का धन हड़प लिया है...।' यदि आपने न्याय से, नीति से, प्रमाणिकता से धन कमाया हुआ है तो आप उस धन-सम्पत्ति का निर्भयता से उपभोग कर सकते हैं। निर्भयता जैसा सुख दुनिया में दूसरा कोई नहीं है। निर्भय मनुष्य ही निराकुल होता है यानी व्याकुलतारहित होता है । निराकुल मनुष्य की अन्तःपरिणति ...... विचारधारा प्रशस्त-पवित्र बनी रहती है और यही तो श्रेष्ठ सुख है । फैशन, व्यसन, अनुकरण : सभा में से आपकी बात सर्वथा सत्य है, परन्तु न्याय-नीति से अर्थोपार्जन : For Private And Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६ प्रवचन-२८ करने जाए तो घर का गुजारा होना भी मुश्किल हो जाए | आजकल घर का खर्च काफी बढ़ गया है। महाराजश्री : जीवन में कभी ६-१२ महीने के लिए भी प्रयोग किया है न्याय-नीति से अर्थोपार्जन करने का? बिना प्रयोग किये आपने कैसे मान लिया कि न्याय नीति से कम रूपये मिलते हैं? आप प्रयोग करके देखो। १-२ साल या ४-५ साल प्रयोग करें। मान लो कि 'लाभान्तराय कर्म' का उदय होगा तो कम रूपये मिलेंगे, तो खर्च कम कर देना। आय के अनुसार व्यय करना चाहिए, नहीं कि व्यय के अनुसार आय का पुरुषार्थ! कितने फालतू खर्च आप लोग कर रहे हो? 'फैशन' व्यसन और अनुकरण ने आज लोगों के 'टेंशन' बढ़ा दिये हैं। सतत 'टेंशन' में जीने वाले लोग क्या खाक धर्माराधना करेंगे? 'फैशन' व्यसन और अनुकरण में कितने रूपये खर्च हो जाते हैं? फिर वे रूपये कमाने के लिए कोई भी बुरे से बुरा धंधा करने को तैयार होते हैं! सच बात है ना! घर की सजावट 'लेटेस्ट फैशन' की! 'फैशनेबल' कपड़े! 'फैशनेबल हेयर-ड्रेसिंग' | 'फैशनेबल' जूते । 'फैशनेबल हेन्ड बैग' | चूँकि आप लोगों को ज्ञानी पुरुषों के मार्गदर्शन के अनुसार नहीं चलना है, दुनिया के लोगों का अनुकरण करना है। पश्चिम के देशों का अनुकरण करना है।' सिनेमा के 'एक्टर' और 'एक्ट्रेसों' का अनुकरण करना है। ऐसे अनेक प्रकार के अनुकरण करने के लिए पैसे तो ढेर सारे चाहिए | न्याय-नीति और प्रामाणिकता से संभव है इतने सारे पैसे नहीं मिल सकते, यदि लाभान्तराय कर्म का उदय हो तो। सिनेमा : भयंकर पाप : कितने व्यसन प्रविष्ट हो गये हैं आपके जीवन में | चाय, बीड़ी और सिगरेट के व्यसन तो अब मामूली व्यसन गिने जाते हैं। नये व्यसन हैं क्लबों में जाकर जुआ खेलने का | पार्टियों में जाकर 'ड्रिंक्स' करने का यानी शराब पीने का | ___ मांसाहारी होटलों में जाकर अंडे... आमलेट वगैरह खाने का! वेश्याओं के वहाँ रातें बिताने का! ये सारे शुभ कार्य करने वालों को रूपये तो चाहिए! रूपयों के बिना ये सारे विलास नहीं हो सकते हैं। ये रूपये कमाने के लिए गोरखधंधे करने पड़ते हैं। परन्तु सच कहूँ तो ऐसे पापकर्म करने वालों के लिए ऐसे फैशनपरस्त, व्यसनग्रस्त और अनुकरणशील जीवों के लिए यह मोक्षमार्ग है ही नहीं। जिन लोगों की दृष्टि ही भोगदृष्टि है, जिन लोगों को दुनियादारी For Private And Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४७ प्रवचन-२८ का ही जीवन जीना है, ऐसे लोगों के लिये यह धर्मोपदेश है ही नहीं। भोगासक्त जीवों को अन्याय अनीति और बेईमानी अखरती ही नहीं है। उनको तो रूपये चाहिए। किसी भी रास्ते मिलने चाहिए। वेश्यागृह चलाने से रूपये मिलते हों तो वेश्यागृह भी चला लें। सिनेमागृह तो कुछ जैन भी चलाते हैं ऐसा मैंने सुना है! कितना निंदनीय धंधा है सिनेमागृह और वेश्यागृह चलाने का, क्या आप लोग जानते हो? प्रश्न : वेश्यागृह चलाना तो बुरा धंधा है, मानते हैं, परन्तु सिनेमागृह चलाना क्यों बुरा है? उत्तर : वेश्यागृह में जाने की प्रेरणा सिनेमागृह से मिलती है! चोरी, बदमाशी, डाकूगिरी जैसे अनेक पापों की प्रेरणा सिनेमागृह से मिलती है। पापों की प्रेरणा-प्याऊ है सिनेमागृह! 'फाउन्टेन ऑफ ऑल सिन्स'! समझे? सिनेमा जैसा पाप दूसरा नहीं है। सिनेमाओं ने करोड़ों लोगों के शील भ्रष्ट किये हैं, करोड़ों लोगों को चोर बनाया है, डाकू बनाया है, आवारा बनाया है, ऐसे सिनेमागृह चलाने का धंधा क्या अच्छा धंधा है? धन के लोभी लोग ही ऐसा धंधा कर सकते हैं। दुनिया का, दुनिया के जीवों का कितना भयंकर अहित होता है सिनेमा देखने से, यह विचार जिनको नहीं हैं, वे लोग ही सिनेमागृह चला सकते हैं। ऐसे पापपूर्ण व्यवसाय से मान लो कि दो चार लाख रूपये कमा भी लिये, परन्तु वे रूपये टिकने वाले नहीं होते। मान लो कि कुछ बरस टिक भी गये, पर उन रूपयों से सत्कार्य होने वाले नहीं! दुष्कर्म ही होंगे। गलत धंधे से प्राप्त रूपये गलत काम ही करवाते हैं। सेवाभक्ति की तीर्थयात्रा करते रहो : न्याय, नीति और ईमानदारी से कमाया हुआ धन मनुष्य में सद्बुद्धि पैदा करता है। कमाने वाले का चित्त स्वस्थ और प्रसन्न रहता है। धर्म-आराधना में उसका मन लगता है। अपने धन का सदुपयोग करने की इच्छा जगती है। धन का सब से श्रेष्ठ सदुपयोग होता है दीन, अनाथ, गरीब और रोगी जीवों की सेवा करने का दूसरा श्रेष्ठ उपयोग होता है परमात्मभक्ति का, सद्गुरु की सेवा का और साधर्मिक भाई-बहनों की भक्ति का। ग्रन्थकार आचार्यश्री ने इसी को तीर्थयात्रा कहा है! जो तारे....दुःख से तारे... भवसागर से तारे..... उसका नाम तीर्थ! दीन-दुःखी जीवों की सेवा करने से, उनका उद्धार करने से अपनी आत्मा भवसागर तैर जाती है। दुःखों For Private And Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-२८ ४८ का दरिया तैर जाती है। परन्तु यह दीन-दु:खी की सेवा होनी चाहिए विधिपूर्वक! यानी उन दीन-दुःखी जीवों की सेवा सद्भावनापूर्वक, स्नेहसहित होनी चाहिए। तिरस्कार या अहंकार से नहीं। परमात्मा की, गुरुजनों की और धार्मिक लोगों की सेवा-भक्ति पूज्यभाव से सत्कारपूर्वक, सन्मानसहित होनी चाहिए। साधुपुरुष तो 'मोबाईल' तीर्थ है : ऐसी निराली तीर्थयात्रा करने से पारलौकिक हित होता है। न्याय नीति से कमाया हुआ थोड़ा भी धन ऐसी तीर्थयात्रा में खर्च करने से आपको बहुत बड़ा आत्मसंतोष भी होगा। दीन, अनाथ, रोगी, अपाहिज जीवों को सहानुभूति से सहयोग देने से, सहाय करने से उनकी दुःखी आत्मा को कितनी शान्ति मिलती है! दूसरे जीवों को सुखशान्ति और समाधि देने जैसा सत्कार्य दुनिया में दूसरा नहीं है। ‘पर उपकार समो नहीं सुकृत; धर समता सुख की, ___ पाप वली परप्राणीपीड़न हर हिंसा दुःख की.... परोपकार जैसा कोई सुकृत नहीं है। परपीड़न जैसा कोई पाप नहीं है। परोपकार बहुत बड़ी तीर्थयात्रा है। प्रतिदिन घर पर बैठे-बैठे आप ऐसी तीर्थयात्रा करके पुण्यधन कमा सकते हो। वैसे, जो पवित्र पुरुष हैं, गुणवान पुरुष हैं, संयमी-त्यागी-तपस्वी साधक पुरुष हैं, उनका सत्कार करते रहो, उनकी सेवा-भक्ति करते रहो। चूंकि ऐसे पुरुष जंगम तीर्थ हैं! 'मोबाईल' तीर्थ हैं ये पुरुष! पारिवारिक आवश्यकताएँ पहले सोच लेना : परन्तु इस प्रकार तीर्थयात्रा करते समय एक खयाल रखना है। आपके परिवार के पालन में, आप पर जिन-जिन के पालन-पोषण की, योगक्षेम की जिम्मेदारी हो, उसमें बाधा नहीं पहुँचनी चाहिए | मान लो कि आप महीने के हजार रूपये कमाते हो, आपके घर का मासिक खर्च आठ सौ रूपया है, आपके पास दो सौ रूपये बचते हैं, आपको दीन-अनाथ वगैरह के लिए और साधुपुरुषों के लिए दो सौ से ज्यादा खर्च नहीं करना चाहिए। यदि आप ज्यादा खर्च कर दोगे तो परिवार के लोगों को तकलीफ पड़ेगी, इससे वे नाराज होंगे! चूंकि सभी मनुष्यों की यह क्षमता नहीं होती है कि वे स्वयं For Private And Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४९ प्रवचन-२८ तकलीफें सहन कर दूसरों का भला करें! आप में हो सकती है क्षमता, परन्तु आपकी पत्नी में नहीं हो सकती! आपकी पत्नी में हो सकती है क्षमता, परन्तु आपके लड़कों में नहीं हो सकती है! तो परिवार वालों के मन की प्रसन्नता सुरक्षित रखना भी आवश्यक है! अन्यथा वे लोग आपको शांति से नहीं जीने देंगे! हाँ, आप उनको पर्याप्त सुख-सुविधा दोगे तभी वे आपको सुख-शांति देंगे! सभा में से : पूरी सुख-सुविधा देने पर भी शांति से नहीं जीने देते हैं! महाराजश्री : यह बात तो खूब कही! उन लोगों से आप ज्यादा सुख भोगते होंगे....इसकी ईर्ष्या आती होगी उन लोगों को! अथवा जितना सुख उनको मिलता होगा पर्याप्त नहीं लगता होगा! चूँकि भौतिक सुखों में कभी तृप्ति नहीं होती है। अतृप्ति की आग सुलगती ही रहती है। मेरे कहने का तात्पर्य तो इतना ही है कि परिवारवालों को जीवनयापन के लिए जो प्राथमिक आवश्यकताएँ होती हैं, उन आवश्यकताओं में बाधा पैदा नहीं होनी चाहिए। इस प्रकार आप दीन-अनाथों की सेवा करते रहें, गुणवान् पुरुषों की भक्ति करते रहें। यदि परिवार के लोग, उनकी आवश्यकताएँ पूर्ण होने पर भी आपको तीर्थयात्रा नहीं करने दें तो आप परिवार वालों की बातें नहीं सुनना। आपको परेशान करें तो भी आप मत झुकना। करना भी नहीं : करने देना भी नहीं : हाँ, कुछ लोगों की ऐसी आदत होती है, वे स्वयं दीन-अनाथों की सेवा करते नहीं और दूसरों को करने देते नहीं! पैसा कमानेवाला कमाता है और सत्कार्य में खर्च करता है, नाराज दूसरे लोग होते हैं! कहते हैं : 'क्या इतना खर्च कर देते हो गरीबों के लिए, कुछ रूपये बैंक में जमा कराते रहो, आगे काम आयेंगे! इस प्रकार हर महीने आप साधुसन्तों की भक्ति में सौ-दो सौ रूपये खर्च करते रहोगे तो बचेगा क्या? जब लड़की बड़ी होगी.... शादी करनी होगी.... तब रूपये कहाँ से लाओगे?' ___ करते हैं न ऐसी बातें घरवाले लोग? आपको जंचती भी होंगी ऐसी बातें? क्या आप उनको कहते हो कि 'यदि रूपये बचाने हों तो सिनेमा देखना बंद करो, होटलों में जाना बंद करो, पिकनिकें बंद करो, नये-नये कपड़े सिलवाने बंद करो! सौन्दर्य प्रसाधन खरीदने बंद करो.... जो रूपये बचे, बैंक में जमा कराते रहो! मैं तीर्थयात्रा करके पारलौकिक बैंक में जमा कराता रहता For Private And Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५० प्रवचन-२९ हूँ.....आप लोग 'बैंक आफ इन्डिया' में जमा करते रहो!' कहते हो क्या? यदि कहो, तो भी आपकी बात वे लोग मानेंगे सही....? __ परिवार के जीवनयापन में बाधा न पहुँचे उतना लक्ष्य रखते हुए आप यह अभिनव तीर्थयात्रा में कुछ रूपये खर्च करते रहें। अर्थोपार्जन में न्याय-नीति और ईमानदारी को कभी न भूलें। आप विश्वास करें कि न्याय-नीति के मार्ग पर चलने से आपको जीवननिर्वाह हेतु पर्याप्त धन मिलेगा ही। चूँकि न्यायनीति का भाव 'लाभान्तराय कर्म' का क्षयोपशम करता है। यह सिद्धान्त विस्तार से आगे बताऊंगा। आज, बस इतना ही। For Private And Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-२९ ५१ म. अन्याय और अनीति से इकट्ठे किये हुए पैसे आपको सुख से' जीने नहीं देंगे। आपको वे चैन की नींद सोने नहीं देंगे? लाखों रुपये की संपत्ति के बीच भी बेचैनी आपका पीछा नहीं छोड़ेगी। अशांति की आग में रात-दिन आपको जलना पड़ेगा। स्त्री में एक विशेष प्रकार की शक्ति रही हुई है। इसलिए तो उसे 'शक्तिरूपा' कहा जाता है। वह चाहे तो अपने पुरुष को परमात्मा भी बना दे...और चाहे तो शैतान से भी नीचे उतार दे। आज तो राष्ट्र की अर्थव्यवस्था ही इतनी उलझन भरी और परेशानी भरी हो गई है कि प्रजा तो तौबा कर चुकी है। रोजरोज नये-नये कर डालना और प्रजा को चूसना यही जैसे सरकार का मुख्य काम रह गया है। इसलिए करचोरी या टैक्स की चोरी को लोग पाप मानते ही नहीं हैं। प्रवचन : २९ महान् श्रुतधर आचार्य श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी स्वरचित 'धर्मबिन्दु' ग्रंथ में गृहस्थ का सामान्य धर्म बता रहे हैं | गृहस्थजीवन की तमाम क्रियाएँ न्यायोचित होनी चाहिए, यह बात ग्रन्थकार ने बड़े विस्तार से बतायी है। गृहस्थजीवन की आधारशिला है अर्थ-सम्पत्ति । हर गृहस्थ को अपने जीवननिर्वाह हेतु अर्थोपार्जन करना ही पड़ता है। इसलिए अर्थोपार्जन का पुरुषार्थ गृहस्थजीवन का एक अनिवार्य पुरुषार्थ मानना ही पड़ेगा। परन्तु इस पुरुषार्थ की दिशा यदि गलत है, अन्याय, अनीति, जालसाजी, प्रपंच, बेईमानी.......से यदि यह अर्थपुरुषार्थ किया जाता है, धनवान् बनने की वासना से यदि अर्थपुरूषार्थ किया जाता है तो यह पुरुषार्थ पापमय बन जाएगा। यह पुरुषार्थ दुःखदायी बन जायेगा। अन्याय-अनीति-बेईमानी से मान लो कि आपने रूपये कमा लिये, ढेर सारे रूपये कमा लिए, परन्तु वे रूपये आपको शान्ति से जीने नहीं देंगे! शान्ति से सोने नहीं देंगे! आपके पास लाखों-करोड़ों रूपये होने पर भी आप सुख नहीं पायेंगे। For Private And Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-२९ ___ ५२ अनीति का धन : घर के नीचे गाड़ी हुई हड्डी-सा : ___ ग्रन्थकार आचार्यश्री मात्र धर्मग्रन्थों के ही विद्वान नहीं थे, वे मानवजीवन को स्पर्श करने वाले दूसरे भी अन्य ग्रन्थों के भी विद्वान थे! उन्होंने अन्यायोपार्जित धन-सम्पत्ति का तत्काल विनाश बताया है-एक बहुत ही अच्छा-सा उदाहरण देकर | उन्होंने कहा है कि जैसे जमीन में हड्डियाँ वगैरह शल्य हों और उस पर गृह बनाया जाय तो उस घर में रहनेवालों का अहित होता है, अशुभअमंगल होता है वैसे अन्यायोपार्जित धन-सम्पत्ति का अहित होता है या उसकी सम्पत्ति नष्ट हो जाती है। ___ मैंने भी एक शहर में देखा था, एक मकान ऐसा था कि उसमें जो-जो व्यक्ति रहने जाते, उस परिवार में से किसी की मृत्यु अवश्य हो जाती! तीन परिवारों में ऐसी ही घटना घटी। बाद में जब एक व्यक्ति ने उस मकान को खरीदकर गिरा दिया, पुराना था वह मकान, गिरा कर जब फिर से नया मकान बनाना शुरू किया, जमीन को खोदा तो उसमें से बहुत सी पुरानी हड्डियाँ निकलीं। उन दुर्घटनाओं का कारण लोगों की समझ में आ गया। जमीन का भी असर होता है : मकान बनाने में क्षेत्रशुद्धि होना अति आवश्यक है। अशुद्ध भूमि पर बने हुए मकानों में रहने वाले लोग दुःख पाते हैं। भूमिशुद्धि के लिए अपने देश में भूमिपूजन किया जाता है। जहाँ मकान का निर्माण करना होता है, उस भूमि का पूजन किया जाता है। परन्तु आजकल बड़ी गड़बड़ियाँ चालू हो गई हैं। जहाँ जमीन मिलती हो, वहाँ मकान बनाये जा रहे हैं। श्मशान भूमि यदि बिकती है तो उसे लेकर उस पर भी मकान बनाये जाते हैं! ऐसे मकानों में रहने वालों को सुख शान्ति नहीं मिल सकती। क्षेत्र के भी अपने प्रभाव होते हैं। निश्चित रूप से होते हैं। एक ही व्यक्ति एक गाँव में भीख माँगता फिरता है, दुर्भाग्य का शिकार बना हुआ होता है, वही व्यक्ति दूसरे गाँव में जाकर श्रीमंत बन जाता है! उसके सौभाग्य का चन्द्र प्रकाशित हो जाता है! क्षेत्र का भी प्रभाव होता है और कुछ पुण्यकर्म और पापकर्म ऐसे होते हैं जो क्षेत्र के माध्यम से उदय में आते हैं। कुछ पुण्यकर्म और पापकर्म ऐसे होते हैं जो काल के माध्यम से उदय में आते हैं! अन्याय से अर्थोपार्जन मत करो। आप मुझे बताइये कि आप अर्थोपार्जन किसलिए करते हैं? सुख पाने के लिए न? यदि अर्थोपार्जन करने पर भी, For Private And Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५३ प्रवचन-२९ बहुत रूपये कमाने पर भी सुख नहीं मिलता हो, तो वे रूपये किस काम के? आज के जमाने की एक घटना : एक आदर्शवादी लड़का था। उसकी माता ने उसको बहुत ही अच्छे संस्कार दिये थे। लड़का ग्रेज्युएट हो गया। एक सरकारी विभाग में उसको सर्विस मिल गई। अच्छा दफ्तर मिला था उसको। यदि वह चाहे तो बेइमानी से प्रतिदिन पचास-सौ रूपये प्राप्त कर सके । परन्तु यह लड़का तो आदर्शवादी था। एक पैसे की भी रिश्वत वह नहीं लेता है। उसको सरकार से जो तनख्वाह मिलती है उसमें सन्तोष करता है। परन्तु उसकी पत्नी को यह आदर्श पसन्द नहीं आया। उसको तो अच्छा बंगला चाहिए था! अच्छा फर्नीचर.... अच्छे कपड़े.... सुन्दर जेवर और सुन्दर कार चाहिए थी। यह सब ज्यादा रूपये से ही प्राप्त हो सकता था? उसने अपने पति को रिश्वत लेने के लिए मजबूर किया। एक-दो वर्ष तो उस युवक ने पत्नी की बात पर ध्यान नहीं दिया, परन्तु पत्नी के प्रतिदिन के आग्रह से, झगड़े से वह तंग आ गया और उसने रिश्वत लेने की बात स्वीकार कर ली। उसने अपनी पत्नी को कह दिया कि 'अन्याय से कमाया हुआ धन सुखी नहीं करेगा, दुःखी करेगा.... इसलिए आग्रह छोड़ दे....' परन्तु पत्नी नहीं मानी सो नहीं ही मानी। सभा में से : हम लोगों की भी यही दशा है! औरतों की आकांक्षाएँ बढ़ती जा रही हैं, आवश्यकताएँ काफी बढ़ रही हैं.....। उनकी आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए हम लोगों को अन्याय-अनीति करके भी रूपये कमाने पड़ते हैं। पत्नी का बहाना बनाकर छूट जाना है आपको? महाराजश्री : और आप लोगों की यानी पुरुषों की आवश्यकताएँ नहीं बढ़ी हैं.... आकांक्षाएं नहीं बढ़ी हैं, यही आपका कहने का मतलब है न? महिलाओं की वजह से ही आप अन्याय-अनीति से अर्थोपार्जन करने जाते हो? बड़े बेईमान हो आप लोग! दोषारोपण कर दिया महिलाओं पर, आप बन गये संत पुरुष! मैं जानता हूँ आप लोगों को....लाखों रूपये जमा कर बैठे हो, फिर भी दुकान की माया नहीं छूटती है! दो-चार बंगले बना कर बैठे हो फिर भी व्यापार धंधा नहीं छोड़ते हो! कहिए, आपकी धर्मपत्नी आपको कह दे कि 'अब मैं आपसे जेवर नहीं मांगूंगी.... नये कपड़े मुझे नहीं चाहिए.... नया मकान.... नयी गाड़ी नहीं चाहिए....' तो आप नया धन कमाना छोड़ देंगे? अन्यायअनीति छोड़ देंगे? For Private And Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५४ प्रवचन-२९ हाँ, होती हैं, कुछ ऐसी महिलाएँ, जो अपने पतिदेवों को अन्याय अनीति से धनोपार्जन करने के लिए मजबूर करती हैं, परन्तु सभी महिलाएँ ऐसी नहीं होती हैं। दूसरी बात यह भी है कि यदि बुद्धिमान पत्नी जान ले कि 'मुझे मेरे पति को अन्याय-अनीति से धन कमाने देना नहीं है....' तो वह कर भी सकती है यह काम! सभा में से : ऐसा कहती तो है वह परन्तु हम लोग मानते नहीं हैं। केवल वर्तमान जीवन के बारे में मत सोचो : महाराजश्री : यदि वह विचक्षण है, बुद्धिमान है, तो अपना प्रयत्न छोड़ेगी नहीं। किसी भी उपाय से एक दिन आपको न्याय-नीति के मार्ग पर वह ले आयेगी। स्त्री में विशेष प्रकार की शक्ति होती है। पुरुष को वह देव बना सकती है और शैतान भी बना सकती है। परन्तु आजकल तो व्यसन और फैशन ने स्त्री और पुरुष.... सभी को कर्तव्यमार्ग से भ्रष्ट कर दिया है। विकार और वासना के परवश बने स्त्री-पुरुष अन्याय-अनीति और अप्रमाणिकता के गलत रास्ते पर चल पड़े हैं। किसी भी तरीके से धन चाहिए.....संपत्ति चाहिए | यदि हमारे पास ढेर सारे रूपये होंगे तो हम बंगला बना सकेंगे, कार खरीद सकेंगे क्लबों में जा सकेंगे....हमारी सामाजिक 'पोजिशन' बढ़ जायेगी... समाज में हमारी गिनती होगी... हमें अच्छे घराने की लड़की मिलेगी, लड़का मिलेगा। ऐसा ही सोचते हो न? मात्र वर्तमान क्षणिक जीवन का ही विचार करते हो। यह सुयोग्य विचार नहीं। पुख्त विचार नहीं! पारलौकिक विचार तो आता ही नहीं होगा कि 'आगामी भव में मेरा जन्म कहाँ होगा? वहाँ मुझे कौनसे दुःख मिलेंगे?' ऐसे विचार तो नहीं सही, वर्तमान जीवन को भी सुखी बनाने का सच्चा विचार नहीं आता है! अन्याय से, अनीति से कमाया हुआ धन वर्तमान जीवन को भी दुःखी कर देता है। न्याय-नीति की बातें बचकानी लगती हैं! उस युवक ने अपनी पत्नी को समझाने का भरसक प्रयत्न किया परन्तु वह नहीं मानी। मानती भी कैसे? उसकी नजर में श्रीमंताई थी.... उसको तो हजारों रूपये चाहिए। यदि पति बेईमानी से कमा सकता है बहुत धन, तो उसको कमाना ही चाहिए। आजकल कौन बेईमानी नहीं करता है? न्यायनीति की पूँछ पकड़कर जीने से तो कभी भी हमारा 'लिविंग स्टान्डर्ड' ऊँचा नहीं उठ सकता.....गरीबी में ही सड़ते रहो। यह थी उस स्त्री की विचारधारा । For Private And Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- २९ ५५ विपुल धनसंपत्ति में वह सुख का दर्शन करती थी । न्याय-अन्याय, नीतिअनीति के भेद उसे मंजूर नहीं थे । प्रमाणिकता से उसे लेना-देना नहीं था ! उस युवक ने अनीति का धन लेने की बात स्वीकार कर ली। वह अपनी ऑफिस में गया। एक व्यक्ति से उसने दो सौ रूपये की रिश्वत ले ली। रूपये जेब में डाल दिये। उसके मन में बहुत ही दुःख होता है । अशुभ की आशंका घेर लेती है उसे । रिश्वत ली और दूसरी मंजिल पर से बच्चा गिरा : शाम को जब वह अपने घर पहुँचा, घर बंद था। पड़ौसी ने बताया कि 'आपका लड़का आज दोपहर को दूसरी मंजिल से जमीन पर गिर गया है, उसको लेकर आपकी पत्नी अस्पताल गई हुई है ।' वह युवक वहाँ से सीधा अपनी सायकल पर हॉस्पीटल पहुँचा। अस्पताल के द्वार पर ही उसकी पत्नी खड़ी थी। जाते ही युवक ने पूछा : 'मुन्ने को कैसा है?' पत्नी रो पड़ी। रोते रोते उसने कहा : 'डॉक्टर ने बताया है कि मुन्ना भगवान की दया से ही बच सकता है, हमारे उपाय चालू हैं पर .......' किसने बचाया बच्चे को ? युवक ने क्षणभर विचार कर लिया । पत्नी से कहा : 'तुम चिंता मत करो, यहाँ खड़ी रहो.... अथवा मुन्ने के पास चली जाओ, मैं अभी आता हूँ।' वह सायकल पर सवार हुआ और शहर में चल पड़ा। जिस व्यक्ति से उसने दो सौ रूपये की रिश्वत ली थी, उसके घर जाकर उसने दो सौ रूपये वापस दे दिये और एक क्षण का भी विलंब किये बिना वह अस्पताल पहुँच गया। उसके पहुँचते ही पत्नी ने कहा : 'अपना मुन्ना ठीक है, होश में आ गया है ।' युवक ने आँखें मूँद कर परमात्मा से क्षमा माँग ली। पत्नी कुछ समझी नहीं। डॉक्टर ने कह दिया, 'आप अपने मुन्ने को ले जा सकते हो, भगवान ने बचा लिया है उसको ।' मुन्ने को लेकर पति-पत्नी अपने घर आये । भोजन के बाद पत्नी ने पूछा : ‘आप अस्पताल से वापस कहाँ गये थे?' युवक ने कहा : 'मुन्ने की दवाई लेने गया था।' 'मुन्ने की दवाई ? कौन सी दवाई ? कहाँ है वह दवाई ?' पत्नी पति की बात का मर्म नहीं समझ रही थी । जब पति ने बतायी सारी बात .... तब पत्नी को For Private And Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-२९ होश आ गया। उसने कह दिया : 'हम सुखी हैं, मुझे ज्यादा धन नहीं चाहिए | आप कभी भी अन्याय-अनीति के रूपये नहीं लेना। आपकी नीति का धन ही मेरे मन लाखों रूपये बराबर हैं।' उस युवक को कितना आनन्द हुआ होगा? याद रखना, यह कोई काल्पनिक कहानी नहीं है। सत्य घटना है। यदि आप लोग कुछ समझो तो अच्छा है। परन्तु मेरे खयाल से आप दूसरा ही विचार करते होंगे। ___ सभा में से : आपका अनुमान सही है। हम लोग तो यह सोचते हैं कि ऐसे किसी एकाध व्यक्ति के जीवन में किस्सा बन गया होगा, हम लोगों को ऐसा कोई अनुभव नहीं हुआ है। महाराजश्री : इसका अर्थ यह है कि आपको अनुभव होगा तभी आप अन्याय-अनीति छोड़ेंगे? मेरा खयाल तो यह है कि आपको इससे भी ज्यादा कटु अनुभव होंगे तो भी आप अन्याय-अनीति का मार्ग नहीं छोड़ेंगे। जब तक अन्याय से रूपये मिलते रहेंगे, अनीति से धन मिलता रहेगा, तब तक आप न्याय-नीति की बात नहीं मानेंगे। दूसरों के अनुभव से आप सबक नहीं लेंगे। ठीक है, होने दो वैसे विनाशकारी अनुभव आपको स्वयं को। तब तक करते रहो अन्याय और अनीति | ज्यादा क्या कहूँ आप लोगों को? पापानुबंधी पुण्य का उदय : संभव है कि प्रबल पापानुबन्धी पुण्य का उदय हो तो अन्यायोपार्जित द्रव्य जीवनपर्यंत नष्ट न हों, जीवनपर्यंत बना रहे, फिर भी उसके भयानक परिणाम भवांतर में भोगने पड़ेंगे ही अवश्यमेव! प्रबल पापानुबंधी पुण्य के उदय में मेरी बात आपके गले नहीं उतरेगी....चूँकि पापानुबंधी पुण्य का उदय मनुष्य की बुद्धि को मलिन कर देता है। मलिन बुद्धि में ज्ञानी पुरुषों की बात उतर नहीं सकती। सच्ची और अच्छी बात भी निर्मल बुद्धि में ही उतर सकती। पापानुबंधी पुण्य ने आजकल ज्यादातर लोगों की बुद्धि मलिन कर डाली है। द्रौपदी एवं भीष्म पितामह का रोचक संवाद : महाभारत की एक रोचक कहानी है। शरशय्या पर सोये हुए भीष्म पितामह पांडवों को उपदेश दे रहे थे। द्रौपदी भी वहाँ खड़ी थी। द्रौपदी को हंसी आ गई। भीष्म ने पूछा : 'बेटी, हँसने का क्या कारण है? द्रौपदीने कहा : 'ऐसा कोई कारण नहीं है।' भीष्म ने कहा 'नहीं बेटी, जो भी कारण हो, तू बता दे ।' For Private And Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- २९ ५७ भीष्म का अति आग्रह होने पर द्रौपदी ने कहा : 'हे पूजनीय ! आप हमारे पितामह हैं, आपका उपदेश सुनते-सुनते मुझे बार-बार याद आया कि जब भरी राजसभा के बीच कौरव मेरी लाज लूट रहे थे तब आप वहाँ मौन धारण किये हुए थे! तो क्या ज्ञान मात्र कोरा उपदेश देने के लिए ही है? आपके उपदेश की निःसारता पर मुझे हँसी आ गई । ' भीष्म पितामह ने कहा : 'वत्से, तू सच कहती है। ज्ञान मात्र उपदेश देने के लिए नहीं है, व्यवहार में, आचरण में उतारने के लिए है। मुझे उस समय.... राजसभा में ज्ञान था परन्तु दुर्योधन का अन्यायपूर्ण अन्न खा-खाकर मेरी बुद्धि इतनी मलिन हो गई थी कि मेरा ज्ञान व्यवहार में नहीं आ सका, मैं देखता रह गया.... परन्तु अब अर्जुन के तीर मेरे शरीर में लगने से, मेरे शरीर में जो दूषित अन्न से बना हुआ खून था, वह निकल गया, अब मैं निर्विकार हूँ, मेरी बुद्धि शुद्ध है, मैं शान्त हूँ ।' जैसा होगा भोजन, वैसा बनेगा मन ! भीष्म पितामह की बात आप लोग समझे क्या ? अन्याय से प्राप्त धनवैभव का उपभोग करने से मनुष्य की बुद्धि मलिन हो जाती है। मलिन बुद्धि वाले मनुष्य में सद्धर्म का जन्म ही नहीं हो सकता! राजसभा में जब दुःशासन ने द्रौपदी के वस्त्र खींचे थे उस समय वहाँ भीष्म बैठे हुए ही थे, परन्तु उन्होंने इस दुष्कृत्य का विरोध नहीं किया । मौन रहे और तमाशा देखते रहे! कैसे वे विरोध करते? वे दुर्योधन के आश्रित थे ! दुर्योधन का अन्न जो खाते थे न! वह अन्न, सुख-सुविधा अन्यायोपार्जित थी । दुर्योधन स्वयं अन्याय अनीति की प्रतिकृति था । 'जैसा खाये अन्न वैसा होता मन !' सुनी है न यह कहावत ? आप जैसा अन्न खाओगे वैसे विचार आपके मनमें उभरेंगे। इसलिए हमारे भारतीय सभी धर्मों में आहारशुद्धि को महत्व दिया गया है। जैन धर्म में आहारशुद्धि को महत्त्व दिया गया है। जैन धर्म में तो आहारशुद्धि के प्रति काफी लक्ष्य दिया गया है। परन्तु दुर्भाग्य है कि आजकल जैन लोग भी आहारशुद्धि के प्रति बड़े उदासीन बन गये हैं। अनीति का पैसा मंदिर को भी अपवित्र करेगा : सभा में से : अन्यायोपार्जित रूपयों का उपभोग करने से, उपभोग करने For Private And Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५८ प्रवचन-२९ वालों की बुद्धि मलिन होती है, वैसे अन्यायोपार्जित धन मंदिरों के निर्माण में लगाया जाये तो क्या मंदिर पर उसका दुष्प्रभाव पड़ सकता है? महाराजश्री : जिन मंदिर का निर्माण न्यायोपार्जित द्रव्य से ही करना चाहिए। शास्त्रों में भी वैसा ही विधान है। अन्यायोपार्जित द्रव्य जिस मंदिर में लगता है, उस मंदिर में परमात्म-भक्ति के भाव उतने नहीं उल्लसित होंगे; जितने न्यायोपार्जित द्रव्य से निर्मित मंदिर में उल्लसित होते हैं। आजकल बहुत से लोग पूछते हैं कि 'मंदिर में जाने पर भी मन परमात्मा में जमता नहीं है, वहाँ पर भी मन की चंचलता बनी रहती है....' वगैरह। हालाँकि इस रोग के कारण अनेक हो सकते हैं, फिर भी मंदिर में लगा हुआ अशुद्ध द्रव्य भी एक कारण है! दूसरी बात यह भी है कि आज कितने लोगों के पास न्यायोपार्जित द्रव्य होगा? धनवानों से, श्रीमन्तों से पूछो कि उनके पास न्यायोपार्जित द्रव्य है कि अन्यायोपार्जित द्रव्य है? बस, इतनी ही अच्छी बात है कि अन्यायोपार्जित द्रव्य का भी सदुपयोग करने का भाव जगता है! अच्छे कार्यों में अपने रूपये खर्च करने का भाव सभी को नहीं जगता है! पापानुबंधी पुण्य के उदय से जो धनसंपत्ति मिलती है, यह संपत्ति मनुष्य में दुर्बुद्धि पैदा करती है, बुद्धि को मलिन कर देती है, इससे मनुष्य उन्मार्गगामी बन जाता है। उसकी संपत्ति बुरे कार्यों में ही चली जाती है। पुण्य के उदय से धन मिलता है। परन्तु उसका उपयोग पापाचरण में करता है.... तो वह पुण्योदय पापानुबंधी हो गया! पुण्य के दो प्रकार : ___ पुण्योदय के दो प्रकार होते हैं। पुण्यानुबन्धी और पापानुबंधी । निर्मल.....पवित्र बुद्धिवालों का पुण्योदय पुण्यानुबंधी होता है। मलिन और अपवित्र बुद्धिवालों का पुण्योदय पापानुबंधी होता है। पवित्र बुद्धि मनुष्य को अच्छे कार्यों के प्रति प्रेरित करती है, मलिन बुद्धि मनुष्य को बुरे कार्यों के प्रति प्रेरित करती है। यदि मनुष्य का पापानुबंधी पुण्य उदय में आता है तो पवित्र बुद्धि नष्ट हो जाती है! बुद्धि मलिन हो जाती है! वैसे पुण्यानुबंधी पुण्य का उदय होने से मलिन बुद्धिवाला मनुष्य पवित्र बुद्धिवाला बन जाता है! हाँ, कर्मों का यह प्रभाव है। बुद्धि पर भी कर्मों का प्रभाव होता है। ___ यदि आप अन्याय-अनीति करते हो, अन्याय अनीति करने का आपके हृदय में दुःख भी नहीं है और 'मुझे' अन्याय-अनीति नहीं करना चाहिए, मेरा For Private And Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५९ प्रवचन-२९ व्यवहार शुद्ध होना चाहिए, इतना विचार भी नहीं आता है तो समझ लो कि गृहस्थधर्म के पहले सोपान पर भी आप नहीं चढ़े हो। आपके पापोदय से ऐसी सरकार मिली है : आप लोगों के दुर्भाग्य की सीमा नहीं है! आपको सरकार भी वैसी ही मिली है! अर्थव्यवस्था ऐसी दोषपूर्ण बन गई है कि देश की प्रजा परेशान हो गई है। इतने सारे 'टैक्स' लगाये गये हैं और लगाये जा रहे हैं कि मनुष्य का न्यायनीति के मार्ग पर चलना मुश्किल हो गया है। लाख रूपया कमाने वाले से सरकार ६५ हजार रूपये माँगती है! कौन देगा ६५ हजार सरकार को? इसलिए आज ज्यादातर व्यापारी वर्ग 'टैक्स' की चोरी करता है। 'टैक्स' के रूपये बचाने के लिए अनीति करता है। सरकार में बैठे नेता लोग क्या यह बात नहीं जानते हैं? जानते हैं... और उनमें से भी कई नेता स्वयं 'टैक्स' बचाने की प्रवृत्ति करते हैं। ऐसी दोषपूर्ण अर्थनीतिवाला राज्यशासन मिलना यह भी पापकर्म का उदय है! __ इन बातों का सार यह है कि यदि आप कम आवश्यकताओं में जियो और धनवान् बनने की लालसा छोड़ो, तो ही आप न्याय-नीति के मार्ग पर चल सकते हो। दूसरी बात यह है कि आप यदि व्यापारी हैं तो आपके ग्राहकों के साथ अन्याय न करें। ग्राहकों के साथ धोखाधड़ी नहीं करें| माल में मिलावट नहीं करें। सरकार के साथ आप ईमानदारी से व्यवहार नहीं कर सकते परन्तु प्रजा के साथ बेईमानी नहीं करें। यदि आपने प्रजा के साथ अन्याय किया तो प्रजा आपके साथ अन्याय करेगी ही! आप दूसरों को लूटेंगे तो कभी न कभी आप भी लूटे जाओगे। जैसा दो वैसा ही लो : ___ एक गाँव था | गाँव में एक सेठ की अनाज किराने की दुकान थी। दुकान में अनाज मसाला, गुड़ इत्यादि सेठ बेचता था। एक अनपढ़ महिला इस दुकान से ही धान्य वगैरह लेती थी। एक दिन उसने सेठ की दुकान से एक किलो गुड़ खरीदा। गुड़ लेकर वह अपने घर चली गई। इधर सेठ के घर मेहमान आये, घर में घी नहीं था। सेठानी ने लड़के को घी लेने उसी महिला के घर भेजा | महिला के घर पर गायें थीं, गाय का शुद्ध घी उसके घर मिलता For Private And Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६० प्रवचन-२९ था। सेठ के लड़के ने महिला से एक किलो घी माँगा | महिला के पास तोलने के लिए वजन नहीं था। उसने तराजू में सेठ की दुकान से लाया हुआ गुड़ रख दिया और एक किलो घी तोल दिया। लड़का घी लेकर घर पर आया। सेठ भी घर पर ही थे। उन्होंने अपने तराजू में एक किलो का वजन रखकर घी को तोला, घी दो छटांक कम था! सेठ ने लड़के से कहा : 'जा, उस औरत को बुला ला।' लड़का गया और उस औरत को बुला लाया। सेठ ने कहा, 'इतनी बेईमानी करती है मेरे साथ? एक किलो के पैसे लिये हैं और घी दो छटांक कम दिया?' औरत ने कहा : 'सेठ साहब, मेरे पास तो किलो का वजन ही नहीं है! मैंने तो आपकी दुकान से दिये हुए एक किलो गुड़ से तोलकर घी दिया है! जितना आपने गुड़ दिया, उतना मैंने घी दिया!' ___ सेठ के घर बैठे हुए मेहमान एक दूसरे के सामने देखकर हँसने लगे! सेठ का मुँह काला पड़ गया! वास्तव में सेठ ने ही बेईमानी की थी। उस महिला को गुड़ कम दिया था, पैसा पूरा एक किलो का लिया था! एक दूजे का शोषण करने की स्पर्धा हो रही है : ___'मत्स्यगलागल' न्याय जानते हो? एक मछली दूसरी मछली को खाती है तो उससे बड़ा मत्स्य उसको निगल जाता है! वैसा ही यहाँ बन रहा है। आप मानो कि कपड़े के व्यापारी हैं, आपके पास घी का व्यापारी कपड़ा खरीदने आया, आपने उसके साथ धोखा किया। अब आप घी खरीदने उसकी दुकान पर गये, उसने आपके साथ धोखा किया! अब आप घी खरीदने उसकी दुकान पर गये, उसने आपके साथ धोखा किया! फिर वह घी का व्यापारी अनाज खरीदने अनाज की दुकान पर गया, वहाँ उस व्यापारी ने बेईमानी की! वह अनाज का व्यापारी दवाई की दुकान पर गया तो दवाइयों के व्यापारी ने उसको लूटा! दवाइयों का व्यापारी जौहरी बाजार में गया...तो जौहरी ने उसको लूटा! चल रहा है न ऐसा विषचक्र आपके संसार में? इससे समग्र मानव-व्यवहार प्रपंचमय हो गया है। मानवता मृतप्राय हो गई है। एक दूसरे का शोषण करने पर उतारू हो गया है आज का आदमी। _ इससे आप लोगों को क्या मिल रहा है? आपने आत्मशान्ति खो दी, विश्वसनीयता खो दी, धर्मआराधना खो दी, पवित्र बुद्धि खो दी। कितना कितना खो दिया है, सोचा है कभी? परन्तु आपको तो ढेर सारे रूपये चाहिए! For Private And Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-२९ रूपये मिलते हों और पत्नी भी खो जाय तो आपको चिन्ता नहीं है! पांडवों ने जुआ खेलते-खेलते द्रौपदी को खो दिया था न? परन्तु आप लोग जुआ तो नहीं खेलते होंगे? सभा में से : यूं रास्ते में बैठकर या घर में नहीं खेलते हैं....क्लबों में जाकर खेलते हैं। महाराजश्री : क्लबों में जुआ खेलने जाते हो? आप लोग जैन हो? अपने आपको जैन कहलाते हो और जुआ खेलते हो? क्यों जैनत्व को बदनाम करते हो? यदि ऐसे ही अनैतिक धंधे करते हो तो अपने आपको जैन कहलाना बन्द कर दो। जुआ खेलकर लखपति बन जाना है क्या? कोई जुआरी लखपति बना है क्या? ध्यान रखिए, लखपति हो तो दुःखपति बन जाओगे | बहुत बुरा धन्धा है यह । स्वयं बरबाद हो जाओगे, परिवार को भी बरबाद कर दोगे। दो धंधे बुरे हैं : जुआ और तस्करी : __ जैसे जुआ खेलना अत्यन्त खराब धंधा है वैसे 'स्मगलिंग' का धंधा भी बहुत ही खराब है। आजकाल यह धंधा बड़े-बड़े शहरों में व्यापक बनता जा रहा है। यह चोरी का धंधा है। अनीतिपूर्ण धंधा है। इस 'बिजनेस' में अच्छे, समाज के लोग भी प्रविष्ट हो गये हैं। कुछ लोगों ने इस धंधे में लाखों रूपये कमा लिये हैं... यह देखकर दूसरों के मन में भी इस धंधे का आकर्षण जगा है। लोग तो गतानुगतिक हैं। परन्तु इसका नतीजा अच्छा नहीं है स्मगलरों-तस्करों की जिन्दगी कितनी तनावपूर्ण व भयभीत होती है, यह मैं जानता हूँ। मैंने ऐसे कुछ तस्करों की जिन्दगी देखी है। पास में लाखों रूपये होने पर भी वे निरन्तर अशान्त और व्याकुल होते हैं। उनके रूपये ज्यादातर बुरे कार्यों में ही खर्च हो जाते हैं। कभी न कभी उनकी संपत्ति नष्ट हो के रहेगी। उनका जीवन संकटों में बुरी तरह फँस जायेगा। उनको कोई बचानेवाला नहीं मिलेगा। जरा मोह कम करो : जिस 'बिजनेस' में अनीति-अन्याय और बेईमानी करनी पड़ती हो, वैसा 'बिजनेस' मत करो। वैसी 'सर्विस' भी मत करो। मानोगे मेरी बात? गलत रास्ते धन कमाने का मोह छोड़ दो। सीधे रास्ते चलो, न्याय-नीति के मार्ग पर चलते हुए जितने रूपये मिलें, उतने रूपयों में गुजारा कर लो। अपने परिवार For Private And Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६२ प्रवचन-३० को भी समझा दो ये सारी बातें। यदि ये बातें आप नहीं मानोगे और गलत रास्ते चलते रहोगे तो जीवन हार जाओगे। मृत्यु के समय पछतावा होगा। पारलौकिक जीवन बरबाद हो जाएगा। पशुयोनि या नरकयोनि में चले गये तो क्या होगा? सोचो, शान्ति से सोचो । भेड़ की तरह गतानुगतिक चलते रहे तो दुर्गति की गहरी खाई में गिर पड़ोगे | धन-संपत्ति यहीं पर पड़ी रह जायेगी और आत्मा भयानक दुःखों की आग में फँस जायेगी। धन संपत्ति की तीव्र आसक्ति से मुक्त हुए बिना न्याय-नीति के मार्ग पर चलना असंभव है। आज, बस इतना ही For Private And Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३० मा. पैसे प्राप्त करने के लिए कोई जाप या ध्यान या होम-हवन करने mms की आवश्यकता नहीं है... न किसी प्रकार की मानता मानने की या डोरा-धागा करने-करवाने की जरूरत है... आवश्यकता है केवल न्याय-नीति के रास्ते पर कदम रखने की। .परिग्रह संज्ञा-पैसे एकत्र करने की तीव्र लालसा जीवात्मा को क्रूर बना डालती है। उसका दिल कठोर और निर्दय हो जाता है। कठोर बने हुए हृदय में आत्मविशुद्धि के फूल नहीं खिल सकते! जिनशासन की रक्षा केवल प्रभावशाली भाषण झाइने से या पत्र-पत्रिकाएँ छपवाने मात्र से नहीं हो जाती! इसके लिए चाहिए कर्तव्यपालन की पूरी समर्पितता! अपना सर्वस्व लुटा देने की तैयारी! • प्रवचन : ३० महान श्रुतधर, पूज्य आचार्यदेव श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी अपने स्वविरचित 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ में गृहस्थजीवन के सामान्य धर्म का स्वरूप समझाते हैं। सर्वप्रथम उन्होंने अर्थोपार्जन की चर्चा की है। अन्याय, अनीति और बेईमानी से अर्थोपार्जन करने का मार्ग गलत है, अयोग्य है और अर्थप्राप्ति में प्रतिबंधक है, यह बात सिद्ध करके वे आगे कहते हैं कि न्याय-नीति ही अर्थप्राप्ति का सच्चा मार्ग है! अर्थप्राप्ति का यह अत्यन्त रहस्यभूत उपाय है। धनप्राप्ति का सच्चा रास्ता : अर्थप्राप्ति के लिए कोई दूसरा मंत्रजाप करने की आवश्यकता नहीं है, कोई देव-देवी की मानता मानने की जरूरत नहीं है। जरूरत है न्याय-नीति के मार्ग पर दृढ़ता से चलने की। दुर्भाग्य तो आप लोगों का यह है कि आप लोग अन्याय-अनीति और चोरी से अर्थप्राप्ति करना चाहते हो और उसमें सफलता प्राप्त करने के लिए देव-देवी की प्रार्थना करते हो! अनेक प्रकार के मंत्रजाप करते हो! सभा में से : यदि इस प्रकार आप अन्याय-अनीति का निषेध करेंगे और हम लोग अन्याय-अनीति का त्याग कर देंगे तो हमें अर्थप्राप्ति ही नहीं होगी! For Private And Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६४ प्रवचन-३० तो फिर हमारा जीवननिर्वाह कैसे होगा? चित्तसमाधि कैसे रहेगी? धर्मआराधना कैसे होगी? आज तो सबको 'इन्स्टंट' श्रीमंत हो जाना है : ___ महाराजश्री : आप लोग पहले अन्याय-अनीति का त्याग कर थोड़े समय के लिए अनुभव तो करें! मात्र कल्पना करने से नहीं चलेगा | न्याय-नीति पर आप लोगों की श्रद्धा ही नष्ट हो गई है। अन्याय एवं अनीति पर दृढ़ श्रद्धा स्थापित हो गई है। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आप न्याय-नीति से व्यापार करेंगे तो जीवननिर्वाह होगा ही, चित्तसमाधि रहेगी ही और धर्मआराधना भी होती रहेगी। परन्तु आप लोगों को मात्र जीवननिर्वाह के लिए ही अर्थोपार्जन करना है? नहीं रे नहीं, आप लोगों को तो श्रीमंत बनना है, धनवान् बनना है! सुन्दर बंगला बनाना है, बंगले को लाख-दो लाख के फर्निचर से सजाना है, एक-दो कार चाहिए आपको, बढ़िया से बढ़िया वस्त्र चाहिए, श्रेष्ठ अलंकार चाहिए, दुनिया में प्रतिष्ठा चाहिए! यह सब श्रीमंत बने बिना असंभव है! श्रीमंत बनने के लिए चाहिए पुण्यकर्म का उदय! यदि न्याय-नीति के रास्ते वैसा पुण्यकर्म उदय में नहीं आता है तो अन्याय-अनीति के मार्ग पर पुण्यकर्म को खोजते हो! खोजते हो न? पापानुबंधी पुण्योदय से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है : यह मात्र मन की भ्रमणा है। पुण्यकर्म का उदय आ जाये तो भी क्या? जो पुण्योदय पापकर्मों का बंधन करवाता है, जो पुण्योदय अयोग्य अनुचित पापाचरण में प्रवृत्ति करवाता है, जो पुण्योदय जीवात्मा को दुर्गति में ले जाता है.... वैसा पुण्योदय किस काम का? पूर्व जन्मों में उपार्जित पापानुबंधी पुण्यकर्म का यहाँ उदय होने पर, अन्याय एवं अनीति करने पर भी अर्थप्राप्ति होती है, परन्तु वह अर्थप्राप्ति ही अनर्थपरंपरा की प्राप्ति करवाती है। पापानुबंधी पुण्य के उदय से जैसे मनुष्य को अनेक प्रकार के भौतिक सुख प्राप्त होते हैं वैसे उसको भ्रष्ट बुद्धि भी प्राप्त होती है। भ्रष्ट बुद्धि में विवेक नहीं होता है। भ्रष्ट बुद्धि मनुष्य को पापाचरण के प्रति प्रेरित करती है। भ्रष्ट बुद्धि जीव को परिग्रह में आसक्त बनाती है। परिग्रह को जानते हो न? परिग्रह पाप है या पुण्य? आपकी स्थावर-जंगम संपत्ति क्या है? उसको परिग्रह मानते हो क्या? परिग्रह यानी पाप! आपकी सम्पत्ति पाप है- जानते हो? ध्यान रखना, यह परिग्रह-संज्ञा राक्षसी है। इस For Private And Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३० राक्षसी ने तीनों लोक पर अपना आधिपत्य स्थापित कर दिया है। उपाध्याय श्री यशोविजयजी ने 'ज्ञानसार' में कहा है : 'परिग्रहग्रहः कोऽयं विडम्बितजगत्त्रया?' 'परिग्रह' नाम का यह कौन-सा ग्रह है, जिसने तीनों लोक को विडंबित कर रखा है? 'परिग्रह' की परिभाषा करते हुए ज्ञानी पुरुषों ने कहा है : 'मूच्छा परिग्गहो वुत्तो' मूर्छा-ममत्व ही परिग्रह है। आपको जिस-जिस व्यक्ति पर ममत्व है- वह आपके लिए परिग्रह है। अब आत्मसाक्षी से सोच लो कि किस-किस वस्तु पर, किस-किस व्यक्ति पर आपकी ममता है। जिस वस्तु के प्रति ममता-आसक्ति बंध जाती है, उस वस्तु को पाने के लिए मनुष्य क्या नहीं करता है? पायी हुई प्रिय वस्तु की रक्षा के लिए क्या-क्या करता है? जिस वस्तु पर आपको गहरी ममता है, वह वस्तु यदि चली गई तो आपके हृदय में क्या होगा? सभा में से : 'हार्ट-एटेक' ही आ जाय! महाराजश्री : परिग्रह संज्ञा से पीड़ित-व्यथित मनुष्यों को ही ज्यादातर 'हार्ट-एटेक' आता है। पागलपन भी इन लोगों को ही ज्यादातर आता है। यदि ऐसे गंभीर रोगों से बचना है तो परिग्रह की संज्ञा को तोड़ दो, नष्ट कर दो। धन-संपत्ति के प्रति प्रचुर ममता-आसक्ति होने से ही मनुष्य धन-संपत्ति पाने के लिए अन्याय-अनीति करता है। बेईमानी और अप्रामाणिकता से व्यवसाय करता है। द्रव्यासक्ति में डूबा हुआ मनुष्य अन्याय-अनीति के परिणाम को सोच नहीं सकता। द्रव्यासक्ति मनुष्य की सद्बुद्धि को, सूक्ष्म बुद्धि को नष्ट कर देती है। परिग्रह की वासना को अंकुश में रखो : धन-वैभव की तीव्र ममता जिस हृदय में होती है उस हृदय में पवित्र विचार नहीं टिक सकते। 'पुण्यकर्म के उदय से प्राप्त होनेवाली संपत्ति चंचल होती है, विनाशी होती है.... क्षणिक होती है, मुझे ऐसी चंचल संपत्ति पर ममता नहीं करनी चाहिए, ऐसी क्षणिक संपत्ति के प्रति रागी नहीं बनना चाहिए। जड़भौतिक संपत्ति का राग जीवात्मा को दुर्गति में ले जाता है। पशुयोनि में पटक देता है। आगे दुर्गति की परंपरा शुरू हो जाती है। 'मुझे अब दुर्गतियों में नहीं भटकना है, दुर्गति के दुःख अब नहीं भोगने हैं। अब भौतिक सम्पत्ति का राग नहीं करूँगा, अब मैं परिग्रह संज्ञा के वश नहीं रहूँगा।' For Private And Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- ३० ६६ यह है पवित्र विचारधारा ! बहती है न यह विचारधारा आपके हृदय में? परिग्रह संज्ञा के दारुण विपाक सोच सके वैसी दीर्घ- दृष्टि है न अखंडित ? परिग्रह की संज्ञा की कुटिलता को पहचान सके वैसी सूक्ष्म बुद्धि है न सलामत? एक बात कभी न भूलें कि संपत्ति की ममता यानी परिग्रह की संज्ञा छूमन्तर हुए बिना न्याय - नीति का पालन होना असम्भव है । अन्याय और अनीति नहीं करने का कितना भी जोरदार उपदेश हम लोग आपको दें, परन्तु तब तक आप पर उपदेश का असर नहीं होगा जब तक आपकी परिग्रह संज्ञा पुष्ट है, दृढ़ है, प्रबल है । पैसे कमाने के गलत तरीके छोड़ोगे सही? आप लोगों ने परिग्रह को तो सुख का साधन मान रखा है ! आप बोलते भले हों कि ‘परिग्रह पाप है, परन्तु आप मानते हो परिग्रह को पुण्यकर्म का फल! पुण्यकर्म के उदय से जो-जो वैषयिक सुख के साधन आपको मिले हैं, आप उन साधनों के प्रति तीव्र अनुरागी बने हो । आपकी दृढ़ मान्यता हो गई है कि 'हमारे पास जितनी ज्यादा संपत्ति होगी, हम उतने ही ज्यादा सुख के साधन प्राप्त कर सकेंगे .... इसलिए ज्यादा से ज्यादा धन कमा लो ! धन कमाने में नीति-अनीति का विचार नहीं करना चाहिए। जिस रास्ते से, जिस उपाय से धन मिलता हो, ले लेना चाहिए, कमा लेना चाहिए ! ' है न ऐसी विचारधारा? ऐसी विचारधारा वालों पर उपदेश का असर कैसे हो सकता है? एक गाँव में हम गये, एक श्रीमंत गृहस्थ मेरे पास आया। उससे मेरी जो बात हुई, मुझे ज्ञात हुआ कि उसका व्यवसाय न्यायपूर्ण नहीं था। हालाँकि वह कुछ धर्मक्रियाएँ जरूर करता था परन्तु अन्याय - अनीति छोड़ने को तैयार नहीं था। अन्याय-अनीति करनेवालों के हृदय कोमल नहीं होते, कठोर होते हैं। मैंने उस श्रीमन्त से कहा : 'अन्याय-अनीति करने से हृदय क्रूर बनता है और हृदय में धर्म नहीं रह सकता, इसलिए आप यह गलत रास्ता छोड़ दो।' जब मैंने उसकी धर्मक्रियाओं की प्रशंसा नहीं की, उसकी अनीति और बेईमानी को दूर करने का उपदेश दिया, उसको पसन्द नहीं आया, वह चला गया ! जिस रास्ते से आप लोगों को धन मिलता है, वह रास्ता गलत हो और हम आपको वह रास्ता छोड़ने का उपदेश दें, क्या आपको उपदेश पसन्द आयेगा? क्या आप वह रास्ता छोड़ देंगे ? For Private And Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३० ___ ६७ परिग्रह संज्ञा क्रूरता में से पैदा होती है : __परिग्रह संज्ञा की सबसे बड़ी खराबी यह है कि यह संज्ञा जीवात्मा को क्रूर बना देती है। हृदय की क्रूरता कठोरता कभी भी आत्मविशुद्धि नहीं होने देती। आत्मदृष्टि खुलने ही नहीं देती। उदायी राजा की हत्या का कारण क्या था? जानते हो उस वेषधारी विनयरत्न मुनि को? उदायी राजा की उसने क्यों हत्या की थी? उदायी के शत्रु राजा ने घोषित किया था कि 'जो कोई उदायी राजा की हत्या करेगा उसको मैं श्रेष्ठ इनाम दूंगा। श्रेष्ठ उपहार दूंगा।' एक युवक को इनाम की आकांक्षा जगी! 'मुझे लाखों रूपये मिलेंगे यदि उदायी राजा की हत्या कर दूँ तो!' लाखों रूपये की लालच से प्रेरित होकर उस युवक ने उदायी राजा की हत्या करने का निश्चय किया, 'प्लान' भी बनाया। उसने जानकारी प्राप्त कर ली कि उदायी राजा का पूर्ण विश्वास किस व्यक्ति पर है और राजा कहाँ पर निःशस्त्र होकर जाता है। उसको ज्ञात हुआ कि उदायी राजा जैनाचार्य श्री कालिकसूरिजी का अनन्य भक्त है और कालिकसूरि पर पूर्ण विश्वास रखता है। पर्व के दिनों में वह रात्रि का समय कालिकसूरि के सान्निध्य में व्यतीत करता है। विनय का अभिनय : रजोहरण में छुरी : ___ उस युवक ने कालिकसूरिजी का शिष्य बन जाने का सोचा। गया वह कालिकसूरिजी के पास और वैरागी बन गया! वैरागी होने का ऐसा सफल अभिनय उसने किया कि कालिकसूरिजी जैसे महान ज्ञानी आचार्य भी उसके चक्कर में आ गये! उन्होंने उस युवक को दीक्षा दे दी, अपना शिष्य बना लिया। उस युवक की एक योजना सफल हो गई। उसने काफी होशियारी से अपने रजोहरण में, जो साधु को जीव-रक्षा के लिए अपने पास ही रखना होता है, उसमें छुरी छिपा के रख ली। हालाँकि साध्वाचार के अनुसार साधु को दिन में दो बार रजोहरण खोलकर उसकी प्रतिलेखन क्रिया करनी होती है, वह युवक करता है वह क्रिया, परन्तु इतनी सावधानी से करता है कि सहवर्ती किसी साधु को छुरी का खयाल तक नहीं आता है। दीक्षा के दिन से ही वह युवक-साधु कालिकसूरिजी का श्रेष्ठ विनय करता For Private And Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३० है, उत्तम सेवा करता है। कालिकसरिजी भी उस पर प्रसन्न हुए। उसका नाम रखा विनयरत्न! विनय और सेवा जादू का काम करती है। विनय श्रेष्ठ जादू टोना है। विनयरत्न ने विनय से कालिकसूरिजी को खुश कर दिया। आचार्य का विश्वास भी संपादन कर लिया । आचार्य का विश्वास संपादन करना उसके लिए अत्यन्त जरूरी था। क्योंकि पर्वतिथि के दिन, जब राजा उदायी को पौषध व्रत करना होता था, आचार्य अपने विश्वासपात्र शिष्य को साथ लेकर राजमहल में जाते थे और रात्रि वहीं पर व्यतीत करते थे। राजमहल में राजा ने अपनी पौषधशाला बनायी थी, उसमें आचार्य भगवन्त स्थिरता करते थे और राजा पौषध व्रत धारण करता था। उदायी की हत्या कर दी : बारह वर्ष व्यतीत हो गये इस तरह । एक दिन कालिकसूरिजी विनयरत्न को लेकर राजमहल में गये। विनयरत्न का मन नाचने लगा। उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। आज उसकी योजना पूर्ण सफल होनेवाली थी। संध्या के समय राजा उदायी ने पौषध व्रत धारण कर लिया। पौषध व्रत में कोई भी शस्त्र पास में नहीं रखा जाता है। राजा संपूर्ण निःशस्त्र था। रात्रि के समय धर्मक्रियाएँ और धर्मध्यान कर राजा आचार्य के पास ही सो गया । आचार्यदेव भी निद्राधीन हो गये। विनयरत्न जगता है! हालाँकि सो जाने का अभिनय तो किया उसने, परन्तु वह सोया नहीं, नींद नहीं आयी उसको । कैसे आती नींद उसको? जिस दिन का, जिस समय का वह इन्तजार करता था, वह दिन, वह समय उसके सामने था! उसकी कल्पना में लाखों रूपयों का ढेर था! परिग्रह संज्ञा ने उसका गला दबोच लिया था। उसका हृदय अत्यंत क्रूर बना हुआ था। बारह साल से उदायी राजा की हत्या का विचार करता आया था। वह धीरे से खड़ा हुआ । रजोहरण से छुरी बाहर निकाली। कमरे में अन्धेरा था। एकदम चुप्पी साधे वह राजा के पास पहुँचा। राजा के गले पर छुरी चला दी, हत्या कर दी.... और वहीं पर छुरी छोड़कर राजमहल से बाहर निकल गया, नगर छोड़कर, रात्रि के अन्धकार में अदृश्य हो गया। उदायी राजा.... जो कि राजर्षि-अवस्था में था, उसकी निर्मम हत्या करके वह भाग गया। किसने करवाई यह घोर हत्या? परिग्रह संज्ञा ने! परिग्रह संज्ञा ने आचार्य के साथ वंचना करवाई, साधुता का दंभ करवाया, विश्वासघात का घोर पाप करवाया, राजा की हत्या करवाई....। ऐसी भयानक है परिग्रह की वासना । For Private And Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३० आचार्यदेव की समयज्ञता : छुरी से राजा का गला कट गया था, खून की धारा बह रही थी, खून से आचार्यदेव का संस्तारक गीला हो गया। आचार्यदेव जग गये। अन्धेरा था, कुछ स्पष्ट दिखाई देता नहीं था। हाथ फेरकर देखा, हाथ खूनवाला हो गया। उन्होंने 'विनयरत्न....विनयरत्न' करके विनयरत्न को आवाज दी, परन्तु विनयरत्न हो तो बोले न? जब विनयरत्न का प्रत्युत्तर नहीं मिला, उसका संस्तारक खाली पड़ा था, तब आचार्यदेव खड़े हुए और राजा उदायी को ध्यान से देखा तो वे स्तब्ध हो गये। 'राजा की हत्या? किसने की होगी?' वे सोचने लगे। जब विनयरत्न देर तक नहीं आया.... वे समझ गये! 'विनयरत्न के वेष में वह उदायी का शत्रु ही था। मैं धोखे में आ गया। परन्तु अब क्या किया जाय? प्रातः जब राजमहल में और नगर में राजा की हत्या का समाचार फैल जाएगा, तब हत्या का आरोप मुझ पर ही आएगा....' जैनाचार्य ने उदायी राजा की हत्या कर दी....' इससे मेरे धर्म की घोर निन्दा होगी। लोगों को साधुओं पर विश्वास नहीं रहेगा। साधु-साध्वी को संयमपालन करना दुष्कर हो जाएगा.... घोर अनर्थ हो जाएगा।' जिनशासन के लिए बलिदान : कालिकसरिजी गंभीरता से सोचते हैं। 'दुनिया विनयरत्न को नहीं जानती है, कालिकसूरि को जानती है-रात्रि के समय राजा मेरे पास पौषध व्रत करता है, यह बात सब लोग जानते हैं। यहाँ दूसरा कोई व्यक्ति बाहर से आया नहीं है, इसके साक्षी हैं महल के रक्षक सैनिक। आरोप मुझ पर ही आएगा। इससे परमात्मा जिनेश्वर देव का जिनशासन कलंकित होगा। यह नहीं होना चाहिए।' 'जिनशासन की निंदा नहीं होनी चाहिए, इसकी गहन चिंता हो आयी आचार्यदेव को। जिनशासन को निंदा से बचा लेने का एक ही उपाय उनको हाथ लगा.... और वह उपाय था अपना स्वयं का बलिदान! 'यदि इस छुरी से मैं आत्महत्या कर लूँ तो जिनशासन निंदा से बच सकता है। लोग जानेंगे कि किसी दुष्ट ने राजा और आचार्य दोनों की हत्या कर दी....।' ___ आचार्यदेव अपने शरीर के प्रति भी निःस्पृह थे। शरीर पर उनकी कोई ममता नहीं थी, आसक्ति नहीं थी। उन्होंने छुरी हाथ में ली और एक झटके से आत्महत्या कर डाली। धर्मशासन को निंदा से बचा लेने के लिए अपना बलिदान दे दिया! For Private And Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७० प्रवचन-३० जिनशासन की परंपरा में ऐसे महान आचार्य हो गये हैं। आचार्य अपनी जिम्मेदारियों को निभानेवाले सत्त्वशील महापुरुष होते हैं। शरीर के प्रति भी निःस्पृह! निर्मम! शरीर पर कोई राग नहीं, कोई आसक्ति नहीं। यदि शरीर पर ममता होती कालिकसूरिजी को तो क्या करते वे? भव्य बलिदान का इतिहास नहीं रचा जाता। शरीर का मोह होता तो वे सोचते कि 'क्या करें अब? जो होना था वह हो गया। उस विनयरत्न ने विश्वासघात कर दिया । साधु के वेष में डाकू था वह, हत्या कर भाग गया। अब सुबह राजपरिवार को मैं सत्य बात बता दूंगा। लोगों को भी समझाने का प्रयत्न करूँगा। जो होनेवाला होता है वह होकर रहता है। कोई मिथ्या नहीं कर सकता। बहुत बड़ी दुर्घटना हो गई....।' जिनशासन की रक्षा के मुखौटे में आशातना, निंदा : निःसत्त्व, निर्बल और देहासक्त मनुष्य अपनी सुरक्षा पहले सोचता है और सिद्धान्तों का सहारा लेकर आत्मवंचना करता है। कर्तव्यपालन, जिम्मेदारी का पालन करने के लिए मनुष्य में सत्त्व चाहिए, निःस्पृहता और निर्ममता चाहिए। जिनशासन की रक्षा मात्र भाषणबाजी करने से या अखबारबाजी करने से नहीं होती। विश्वास में धैर्य रहता है : धन-संपत्ति की ममता, मनुष्य का वर्तमान जीवन और पारलौकिक जीवन, दोनों जीवन को नष्ट कर देती है। अन्याय, अनीति से धनप्राप्ति करने का पुरुषार्थ परिग्रह संज्ञा करवाती है। 'धनप्राप्ति का सच्चा उपाय न्याय-नीति ही है', यह सत्य, परिग्रह संज्ञा से बेहोश जीवात्मा नहीं समझ पाता है। धनप्राप्ति का सच्चा उपाय न्याय-नीति ही है। चाहिए विश्वास और धीरता! हालाँकि विश्वास में से धैर्य उत्पन्न होता है। विश्वास उठ जाता है तो धैर्य भी चला जाता है। सुनो एक छोटी-सी घटना : ___ करीबन चालीस वर्ष पुरानी एक सत्य घटना है | बम्बई में यह घटना घटी थी। बम्बई के जौहरी बाजार में एक युवक दलाली करता था | ज्वेलरी का 'ब्रोकर' था | बड़ा प्रामाणिक था। कभी भी उसने बेईमानी नहीं की थी। बाजार में उसकी अच्छी प्रतिष्ठा जम गई थी। बड़े-बड़े व्यापारी इस युवक को लाखों For Private And Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७१ प्रवचन-३० रूपयों का माल बेचने के लिए दिया करते थे। यह युवक अपनी दलाली भी बड़ी प्रामाणिकता से लेता था। एक दिन एक व्यापारी से लाख रूपये के जवाहरात लेकर यह युवक दूसरे व्यापारी के वहाँ जा रहा था। रास्ते में एक अनजान परन्तु सज्जन गृहस्थ मिल गया। उसने कहा : 'मैंने आपकी तारीफ सुनी है, आप न्याय-नीति से व्यापार करते हैं। मुझे एक हार की आवश्यकता है, यदि आप दिलवा सको तो, आप जो दलाली चाहेंगे दे दूंगा।' इस युवक ने कहा : 'मेरे पास हार है, यदि आपको चाहिए तो उसका जो मूल्य है, दे दो और माल ले जाओ।' इस गृहस्थ ने कहा : 'हार की पसंदगी मेरी पत्नी करेगी, आप मेरे घर पर पधारें, वहाँ मेरी पत्नी हार देख लेगी और मैं रूपये भी वहाँ दे दूंगा। दलाल ने बात मान ली, तुरंत ही किराये की टैक्सी कर ली और दोनों उसमें बैठ गये। गाड़ी दौड़ने लगी। दादर गया, खार गया, अंधेरी गया..... गाड़ी रुकती ही नहीं है। अंधेरी से आगे गाड़ी जंगल में दौड़ने लगी।' दलाल को शंका हो गई। उसने ड्राइवर को गाड़ी रोकने के लिए बार-बार कहा, परन्तु ड्राइवर ने गाड़ी नहीं रोकी। उस सज्जन दिखने वाले गृहस्थ ने अपनी जेब में से रिवोल्वर निकाली और दलाल के कान पर रिवोल्वर रखकर बोला : 'चुप मर, यदि चिल्लाया तो खोपड़ी फट जाएगी....।' दलाल के साथ धोखा : दलाल स्तब्ध रह गया। उसके जीवन में ऐसी भयानक घटना पहली बार ही घट रही थी। गाड़ी जंगल में एक मकान के आगे जाकर रुक गई। डाकू ने दलाल को गाड़ी से उतारा और मकान में ले गया। तीन मंजिला मकान था। वह डाकू दलाल को तीसरी मंजिल पर ले गया और कहा : 'यहाँ बैठना थोड़ी देर, मैं वापस आता हूँ।' डाकू नीचे उतर गया। दलाल अपने मन में सोचता है : 'अब यहाँ से बचकर निकलना असंभव-सा लगता है। उधर बाजार में जब व्यापारी मुझे नहीं देखेंगे, तब क्या सोचेंगे? जिस पार्टी का माल मेरे पास है, वह पार्टी मेरे लिए क्या सोचेगी? मेरी नीतिमत्ता और न्यायपरायणता पर उनको अविश्वास हो जाएगा। दूसरे नीतिमान लोगों पर भी लोग विश्वास नहीं करेंगे.... बड़ा अनर्थ हो जाएगा....। यदि यह डाकू मेरा माल लेकर, मुझे यहाँ से जिन्दा जाने दे, तो भी मैं उसका एहसान मानूँगा, परन्तु यह मुझे यहाँ से जिन्दा नहीं जाने देगा।' For Private And Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-30 ७२ वह सोचता है और इधर-उधर देखता है। तीसरी मंजिल पर सिर्फ एक खिड़की है। उसने खिड़की से नीचे देखा | पीछे जंगल था । जंगल में से एक रास्ता गुजरता था। उसके दिमाग में एक विचार आया, परन्तु यदि योजना सफल न हुई तो प्राण का खतरा था। परन्तु साहस के बिना सिद्धि प्राप्त नहीं होती है। उसने साहस करने का संकल्प किया। लाख रूपये का माल अभी उस के पास में ही है। दलाल को रास्ता सूझता है : वह पानी पीने के बहाने नीचे आया। वह डाकू वहाँ भोजन कर रहा था। उसने पूछा : 'क्यों नीचे आया?' इसने कहा : 'मुझे बड़ी प्यास लगी है, पानी पीना है।' नौकर ने उसको पानी दिया, इसने पानी पी लिया और चढ़ने लगा। वह डाकू भोजन करने में व्यस्त था। उसने.... उस दलाल ने ऊपर चढ़कर पहली मंजिल का दरवाजा भीतर से बंद कर दिया, धीरे से...जरा भी आवाज न हो वैसे बंद किया। फिर दूसरी मंजिल का दरवाजा बंद कर दिया और तीसरी मंजिल पर पहुँच कर उसके दरवाजे भी भीतर से बंद कर दिये। अब नीचे से जिसको आना हो, उसको तीन दरवाजे तोड़ने पड़ते, तो ही ऊपर जाया जा सकता था। दलाल ने तीसरी मंजिल की उस खिड़की से नीचे गिरने की तैयारी कर ली। जवाहरात को अपने कोट में बराबर रख लिया, कोट में से माल गिर न जाय, वैसे पैक कर लिया और भगवान का नाम लेकर के नीचे कूद पड़ा। देखो उस प्रामाणिक दलाल का भाग्य! जब वह नीचे गिरा, नीचे उस रास्ते से ट्रक अनाज से भरी हुई जा रही थी। एक पारसी बाबा की ट्रक थी वह । दलाल सीधा उस ट्रक में जा गिरा! धबांग-सी आवाज हुई। ट्रक का ड्राइवर घबराया। जंगल था...अचानक ट्रक में किसी के गिरने की आवाज सुनकर पारसी बाबा बोला, 'ट्रक रोको मत । स्पीड बढ़ा दो। गाड़ी को सीधी बम्बई में खड़ी कर दो।' दलाल बच जाता है : ड्राइवर ने गाड़ी की स्पीड बढ़ा दी । वह दलाल तो ट्रक में गिरते ही बेहोश हो गया था। पारसी बाबा घबरा रहा था। क्या पता.... ट्रक में क्या गिरा है, कौन गिरा है....? उसने ट्रक को बम्बई में पायधुनी पुलिस स्टेशन के सामने लाकर खड़ा कर दिया । ड्राइवर और मालिक दोनों ट्रक के ऊपर चढ़े, देखा For Private And Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३० ७३ तो एक आदमी बेहोश पड़ा है। दोनों ने उसको नीचे उतारा । उसको होश में लाये। पूछा : 'तुम कौन हो? हमारी ट्रक में कहाँ से गिरे?'.... बहुत प्रश्न किये। दलाल ने कहा : 'भाई साहब, मैं आपको सारी बात बताऊँगा, पहले मुझे मेरे बाजार में जाने दो, मेरा काम निपटाकर अभी मैं आता हूँ।' दलाल गया सीधा जौहरी बाजार में | संध्या हो गई थी। जिस व्यापारी का माल था, उसको जाकर माल दे दिया और कहा : 'आप अपना माल देख लें, मैं इस माल को नहीं बेच सकता।' वह पारसी बाबा भी उसके साथ आये थे। दलाल ने उस जौहरी और पारसी बाबा के सामने जब सारी घटना सुनायी....जौहरी और पारसी बाबा हक्के-बक्के से रह गये। दलाल ने पारसी बाबा का बड़ा उपकार माना। 'यदि आपकी ट्रक में नहीं गिरता तो मैं वहीं पर ही मर जाता...' पारसी बाबा ने कहा : 'भाई, भगवान ने तुम्हें सहायता की है! भगवान का उपकार मानो!' जौहरी ने कहा : 'तुम्हारी नीतिमत्ता और न्यायपरायणता की यह जीत है। तुम्हारे न्यायधर्म ने, नीतिधर्म ने तुम्हें बचा लिया।' न्यायशीलता से निर्भयता आती ही है : न्याय और नीति पर विश्वास होगा आप लोगों को? ग्रन्थकार महर्षि ने तो धनप्राप्ति का उपाय ही बताया है न्याय को! नीति को! आप धीरता से न्यायनीति के मार्ग पर चलते रहो, आपको अवश्य धनप्राप्ति होगी। हाँ, जल्दबाजी मत करना । न्याय-नीति के साथ आपका भाग्य भी चाहिएगा न? 'लाभान्तराय' कर्म का क्षयोपशम भी चाहिएगा। अलबत्ता, न्याय-नीति से लाभान्तराय कर्म टूटेगा जरूर, परन्तु समय लग सकता है। देर हो सकती है, अन्धेर नहीं है। __ अर्थप्राप्ति के विषय में ज्ञानी पुरुषों ने कितना सम्यक मार्गदर्शन दिया है? अर्थपुरुषार्थ को गृहस्थजीवन का मान्य धर्म बनाने के लिए न्यायसंपन्नता का आदर करना नितान्त आवश्यक है। चित्तशान्ति और भीतरी आनन्द के लिए भी न्यायसंपन्नता बहुत ही आवश्यक है। न्यायसंपन्नता से आप निर्भय बने रहेंगे। निर्भयता बहुत बड़ा सुख है। न्यायपरायणता से 'लाभान्तराय' कर्म का नाश कैसे होता है, यह आगे बताऊँगा। आज बस, इतना ही। For Private And Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७४ प्रवचन-३१ • यदि आप अपनी आवश्यकताएँ कम कर दें, तो अवश्य न्याय-नीति एवं प्रामाणिकता से अपनी आजीविका मजे से चला सकते हो! .आत्मा और कर्म का संयोग ही तो संसार है! आत्मा जब कर्मों के पाश से मुक्त बनती है... बस, वही मोक्ष है, वही निर्वाण है। • अज्ञानता, यह जीवात्मा की सबसे बड़ी दुश्मन है। अज्ञानता जीव से न करवाने के कार्य करवाती है और दुःख की परंपरा खड़ी करके रख देती है। • जीवन में यदि कुछ करने जैसा है तो वह यही कि कर्मों के भार तले दबी हुई हमारी आत्मा को बाहर निकाल कर उसे उजली बनाएँ... यही परम एवं पवित्र कर्तव्य है। . किसी से कुछ मांगने पर भी वह नहीं दे तो उस पर गुस्सा करने के बजाय अपने 'लाभान्तराय कर्म' के बारे में सोचो। प्रवचन : ३१ महान श्रुतधर आचार्यश्री हरीभद्रसूरीश्वरजी 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ में गृहस्थजीवन का सामान्य धर्म बता रहे हैं। इसमें पहला धर्म बता रहे हैं 'न्यायसंपन्न वैभव ।' गृहस्थ को न्याय-नीति और प्रामाणिकता से धनप्राप्ति का पुरुषार्थ करना चाहिए | आज तो लोग ऐसा कहते हैं कि 'न्याय-नीति से यदि व्यापार करते हैं तो हमारी आवश्यकतानुसार हम धनप्राप्ति नहीं कर सकते हैं।' __पहली बात तो यह है कि आप लोगों की आवश्यकताएँ दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही हैं। उन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए आपको दिनप्रतिदिन आय भी बढ़ानी होती है! न्याय-नीति से आय बढ़ती नहीं है इसलिए अन्याय-अनीति से आय बढ़ाने का प्रयत्न करते हो और विषचक्र में उलझ जाते हो। उलझ गये हो न? चिन्ताएँ और अशान्ति बढ़ गई हैं न? सुख-दुःख की आधारशिला है कर्म : जरा स्वस्थ दिमाग से सोचो कि अन्याय-अनीति से धन ज्यादा मिलता होता तो इस संसार में कौन निर्धन होता? सभी अन्याय-अनीति करनेवाले धनवान् होते! मात्र न्याय-नीति से व्यापार करनेवाले निर्धन होते! क्या है ऐसा For Private And Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७५ प्रवचन-३१ संसार में? दिखता है ऐसा संसार में? धनप्राप्ति का आधार, मूल कारण दूसरा ही है! आज मुझे वह कारण बताना है। वह कारण बताने के लिए मुझे 'कर्मसिद्धान्त' बताना होगा | आप लोग शायद कर्मसिद्धान्त नहीं जानते | जीव मात्र के सुख-दुःख के आधार ये कर्म हैं! अनादि काल से प्रत्येक जीवात्मा कर्मों से आवृत्त है, कर्मों से अभिभूत है। सभा में से : पर आत्मा को कर्म लगे कब? महाराजश्री : जिस प्रकार आत्मा अनादि है, उसी प्रकार आत्मा और कर्मों का संयोग भी अनादि है। कभी भी आत्मा कर्मरहित नहीं थी। कभी भी आत्मा विशुद्ध नहीं थी। हाँ, कर्मरहित हो सकती है आत्मा। परन्तु आत्मा को कर्मरहित करना आसान काम नहीं है। अनेक जन्मों का पुरुषार्थ होने पर आत्मा परम विशुद्ध बन सकती है। यों तो कर्म अनन्त हैं, परन्तु मुख्य प्रकार मात्र आठ ही हैं : (१) ज्ञानावरण (५) नाम (२) दर्शनावरण (६) गोत्र (३) मोहनीय (७) आयुष्य और (४) अन्तराय (८) वेदनीय। कर्मों की पराधीनता : आत्मा के अपने स्वाभाविक गुण इन कर्मों से दब गये हैं, आवृत्त हो गये हैं। आत्मा स्वयं पूर्ण ज्ञानी है, केवलज्ञानी है, परन्तु ज्ञानावरण कर्म से आत्मा का पूर्ण ज्ञान आवृत्त हो गया है और आत्मा अज्ञानी बनी हुई है। आत्मा का अपना गुण है अनंत दर्शन और पूर्ण जागृति! दर्शनावरण कर्म से वह गुण अभिभूत हो गया है और आत्मा निद्रा वगैरह दोषों की शिकार बनी हुई है। आत्मा स्वयं में वीतराग है, परन्तु मोहनीय कर्म की वजह से राग-द्वेष वगैरह दोष आत्मा में बने हुए हैं। आत्मा स्वयं में अनन्त शक्ति से संपन्न है, परन्तु अन्तराय कर्म के प्रभाव से उसमें दुर्बलता वगैरह दोष दिखायी देते हैं। आत्मा अनामी, अशरीरी है, यश-अपयश, सौभाग्य-दुर्भाग्य वगैरह आत्मा के स्वाभाविक गुणदोष नहीं हैं; परन्तु नामकर्म के प्रभाव से नाम, शरीर वगैरह हैं। आत्मा के विशुद्ध स्वरूप में ऊँचता-नीचता नहीं है, गोत्र कर्म के प्रभाव से कभी आत्मा उच्च कहलाती है, कभी नीच कहलाती है। आत्मा की स्वाभाविक स्थिति में For Private And Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३१ ७६ जन्म, जीवन और मृत्यु नहीं है। परन्तु आयुष्य कर्म की वजह से उसका जन्म वगैरह होता है। आत्मा में सुख-दुःख के द्वन्द्व नहीं हैं परन्तु वेदनीय कर्म के प्रभाव से आत्मा को सुख-दुःख का अनुभव करना पड़ता है। ___ सभा में से : इस प्रकार देखा जाये तो संसार की हर बात कर्मजन्य लगती है। ___महाराजश्री : हाँ, आत्मा और कर्मों के संयोग से ही तो यह सारा संसार है! संसार में जीव के साथ अच्छी-बुरी जो कुछ बात बनती है, जो कोई घटना घटती है, जो कोई परिस्थिति पैदा होती है वह सब कर्मप्रेरित होती है। जो मनुष्य इस तत्त्वज्ञान को नहीं जानता है वह जीव में ही कर्तृत्व का आरोप करता है। 'मैंने ऐसा किया, उसने ऐसा किया....।' इस प्रकार राग-द्वेष में उलझ जाता है। राग-द्वेष में उलझकर कर्मबंध करता है। अनादिकाल से जीव यह गलती कर रहा है। यदि कर्म का सिद्धान्त समझ ले तो यह गलती सुधर सकती है। अंतराय कर्म की समझ : आठ कर्मों में जो अंतराय कर्म हैं, वे पाँच प्रकार के हैं : (१) दानांतराय (२) लाभान्तराय (३) भोगान्तराय (४) उपभोगान्तराय और (५) वीर्यान्तराय बड़े समझने जैसे हैं ये पाँचों अन्तराय कर्म! पहला है दानांतराय कर्म : मनुष्य के पास दान देने योग्य वस्तु हो और सामने लेनेवाला योग्य पात्र हो, तो भी देने की इच्छा नहीं होती। दानांतराय कर्म देने की इच्छा नहीं होने देता। 'मैं दान दूँ,' ऐसी इच्छा नहीं होने देता। लेनेवाला अच्छा हो या बुरा, सुपात्र हो या कुपात्र, उसको देने की भावना ही नहीं जगती। दुनिया ऐसे मनुष्यों को कंजूस कहती है, कृपण कहती है! परन्तु दुनिया के लोगों को यह ज्ञान नहीं है कि कृपणता को जन्म देनेवाला दानांतराय कर्म है! यदि आप इस तत्त्वज्ञान को पा लो तो कृपण लोगों के प्रति आपके हृदय में तिरस्कार पैदा For Private And Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७७ प्रवचन-३१ नहीं होगा। आपके हृदय में ऐसे जीवों के प्रति करुणा पैदा होगी। "कैसा दानांतराय कर्म का उदय है कि पास में देने योग्य सामग्री होने पर भी, दानधर्म की आराधना नहीं कर सकता....।' सभा में से : ऐसा दानान्तराय कर्म मनुष्य कैसे बांधता है? महाराजश्री : दूसरा कोई भी मनुष्य दान देता हो और आप उसे दान नहीं देने देते हैं तो दानान्तराय कर्म बंधता है। दान देनेवालों की ईर्ष्या करो तो भी यह कर्म बंधता है। दान देने के बाद पश्चात्ताप करो : 'अरे रे.... मैंने कहाँ दान दे दिया? नहीं देता तो अच्छा होता....' वगैरह से भी यह कर्म बंधता है। दिया हुआ दान वापस ले लो तो भी यह कर्म बंधता है। जो लोग यह तत्त्वज्ञान नहीं जानते वे लोग इस प्रकार प्रवृत्ति करते हैं। दानांतराय कर्म बांधते रहते हैं। सावधान रहना! अज्ञानता जीव का सबसे बड़ा शत्रु है। अज्ञान दशा में जीव इस प्रकार कर्म बांध लेता है और दुःखी होता है। दानांतराय कर्म के उदय से जीव कृपण बनता है इतना ही नहीं, उसके पास जो कुछ धन-संपत्ति होती है, उस पर आसक्त बनता है! ममत्ववाला बनता है। यह आसक्ति और ममता जीव को संसार में रुलाती है। कृपणता के साथ ममता-आसक्ति जुड़ी हुई होती है। दूसरा अन्तराय कर्म है लाभान्तराय : लाभ यानी प्राप्ति । प्राप्ति में रुकावट करनेवाला यह कर्म है। मनुष्य के प्रिय, अभिलषित सुख की प्राप्ति नहीं होने देता है यह कर्म | आप धनप्राप्ति का प्रयत्न करते हों, परन्तु धनप्राप्ति नहीं होती है, तो मानना कि लाभान्तराय कर्म उदय में है। आपकी इच्छा मकान, वस्त्र, स्त्री इत्यादि प्राप्त करने की है; परन्तु यदि ये सुख के साधन आपको नहीं मिल रहे हैं तो मानना कि लाभान्तराय कर्म का उदय है। जो मनुष्य इस तत्त्वज्ञान को नहीं जानता है अथवा नहीं मानता है वह दूसरे जीवों पर आक्रोश करता है : 'इसने मुझे धनप्राप्ति नहीं होने दी, इसने मुझ से शत्रुता की और मकान नहीं मिलने दिया, इस शत्रु ने उस लड़की के साथ मेरी शादी नहीं होने दी....' इस प्रकार जीवों पर आरोप लगाता रहता है। यदि आपका लाभान्तराय कर्म उदय में होगा तो लाख उपाय करने पर भी आप इच्छित धन-संपत्ति प्राप्त नहीं कर सकेंगे। सुबह से रात के बारह बजे तक मेहनत-मजदूरी करने पर भी आपको धन-संपत्ति नहीं मिलेगी। For Private And Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३१ __७८ राजगृही का भिखारी : राजगृही नगर के उस भिखारी का उदाहरण आप जानते हो न? तीन दिन तक नगर में भिक्षा के लिए भटकने पर भी उसको भिक्षा नहीं मिली थी। क्या लोग खराब थे? क्या सारा नगर खराब था? क्यों लोगों ने उस भिखारी को भिक्षा नहीं दी? दूसरे भिखारियों को भिक्षा मिलती थी, लोग उनको देते थे भिक्षा, इसको क्यों नहीं देते थे? भिखारी को सभी नगरजनों के प्रति गुस्सा हो आया था, 'सभी लोग निकम्मे हैं....तीन तीन दिन से भटक रहा हूँ फिर भी रोटी का टुकड़ा भी नहीं देते हैं.... मेरी चले तो सभी को मार डालूँ....!' भिखारी को ज्ञान नहीं था कि 'मेरे पापकर्म का यानी लाभान्तराय कर्म का उदय है, इसलिए मुझे भिक्षा नहीं मिल रही है। जिस भिक्षुक का पापकर्म का उदय नहीं है उसको भिक्षा मिल रही है। लोग खराब नहीं हैं अपितु मेरे कर्म खराब है.... इसलिए लोगों के प्रति मुझे रोष नहीं करना चाहिए......।' अज्ञानदशा में उस भिक्षुक ने लोगों के प्रति तीव्र रोष किया, तीव्र रौद्रध्यान करने लगा। जब नगरवासी लोग एक दिन नगर के बाहर 'पिकनिक'-गोठ मनाने गये, वह भिक्षुक भी गया। उसने सोचा कि 'लोग जब घर से बाहर जाते हैं, ऐसी गोठं मनाते हैं.... तब कुछ उदार बन जाते हैं। याचक को दान दे देते हैं....।' भिखारी की धारणा बिलकुल गलत तो नहीं थी। आज भी कभी-कभी ऐसा देखने में आता है कि अपने घर पर कृपणता प्रदर्शित करनेवाले लोग जब तीर्थयात्रा करने अथवा पर्यटन करने निकलते हैं तब उनमें कुछ उदारता दिखाई देती है। परन्तु यदि याचक का घोर पापोदय होता है, तीव्र लाभान्तराय कर्म उदय में होता है तो याचना करने पर भी उसको कुछ नहीं मिलता । उदार मनुष्य भी उसको कुछ नहीं देता। ऐसे व्यक्ति के सामने आने पर उदार व्यक्ति के भी मनोभाव बदल जाते हैं। पूर्वग्रहबद्धता खतरनाक है : एक व्यक्ति ने मुझे कहा : 'महाराजश्री मैंने सुना था कि वे बड़े दानवीर हैं, उदार हैं। जो कोई उनके द्वार पर जाता है, खाली हाथ नहीं लौटता है। मैं भी गया उनके बंगले पर | मैंने अपनी आर्थिक परिस्थिति बतायी और कुछ सहायता करने की विनती की, परन्तु उन्होंने मुझे एक रूपया भी नहीं दिया। मैं खाली हाथ लौट आया। ऐसे लोग तो मात्र कीर्तिदान ही देते हैं... अपना नाम हो, वहाँ दान देते हैं | गरीब साधर्मिकों की सहायता करने में उनका नाम For Private And Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३१ ७९ अमर नहीं होता है....।' वगैरह बहुत बातें आक्रोश में वह बोला | उसको ज्ञान ही नहीं था कर्मसिद्धान्त का! मैंने उसको समझाने का प्रयत्न किया, कहा : 'तुम्हारा लाभान्तराय कर्म उदय में हो तो उदार और दानवीर मनुष्य को भी तुम्हें कुछ देने की भावना नहीं होगी। मैं जानता हूँ कि उस दानवीर ने सैंकड़ों साधर्मिक भाई-बहनों को सहायता दी है और देते हैं, तुम्हें सहायता नहीं मिली, इसमें उनका दोष मत देखो, तुम्हारे पापकर्म का दोष देखो।' उसको मेरी बात से संतोष हुआ या नहीं, मैं नहीं जानता, वह तो उठ कर चला गया! संभव है कि उसने मेरे लिए भी गलत धारणा बना ली हो। 'साधुमहात्मा भी श्रीमन्तों का ही पक्ष लेते हैं....' वगैरह। __ यदि लाभान्तराय कर्म का 'क्षयोपशम' हो तो इष्ट और प्रिय पदार्थ अल्प प्रयत्न से मिल जाते हैं। कर्मों की तीन प्रक्रियाएँ : सभा में से : 'क्षयोपशम' का अर्थ क्या है? महाराजश्री : कर्म का कुछ नाश होना और कुछ शान्त होना, उसको क्षयोपशम कहते हैं। 'क्षय' यानी नाश और 'उपशम' यानी शान्त होना । आत्मा के साथ लगे हुए कर्मों में तीन प्रक्रियाएँ होती हैं : ० उपशम ० क्षयोपशम ० क्षय जिस प्रकार पानी में गिरा हुआ कचरा, पानी का बर्तन स्थिर रखने पर पानी में नीचे बैठ जाता है वैसे आत्मा में रहे हुए कर्म जब शान्त हो जाते हैं, तब 'कर्मों का उपशम हुआ' कहा जाता है। यह उपशम कुछ समय के लिए ही होता है। __ वैसे, कर्म कुछ नष्ट हो और कुछ शान्त हो उसको क्षयोपशम कहते हैं। कर्मों का क्षयोपशम-काल दीर्घ भी हो सकता है। ___कर्मों का क्षय यानी नाश। सभी कर्मों का नाश होने पर आत्मा का मोक्ष होता है। न्याय-नीति से लाभांतराय कर्म टूटता है : लाभान्तराय कर्म का क्षयोपशम करना है? संपूर्ण नाश तो तभी होगा जब For Private And Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३१ __ ८० संपूर्ण अन्तराय कर्म का नाश होगा। अन्तराय कर्म का समूल नाश तभी होगा जब मोहनीय कर्म का समूल उच्छेद होगा। यदि क्षयोपशम करना हो तो हो सकता है। लाभान्तराय कर्म का क्षयोपशम करने का उपाय है न्याय और नीति! न्याय-नीति से लाभान्तराय कर्म टूटते हैं। न्यायाद् हि नियमतः भवान्तरोपात्तस्य लाभान्तरायकर्मणो विनाशः। 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ के टीकाकार आचार्यश्री ने यह बात कही है। इसमें दो बातें महत्त्वपूर्ण कही गई हैं। न्याय से ही लाभान्तराय कर्म का नाश होता है, यह एक बात है और दूसरी बात है न्याय से अवश्य लाभान्तराय कर्म का नाश होता है। ___ यदि आपको लाभान्तराय कर्म का नाश करना है और इच्छित सुखसाधन प्राप्त करने हैं, तो आपको न्याय-नीति का पालन करना ही पड़ेगा। अन्याय-अनीति का त्याग करना ही पड़ेगा। अन्याय-अनीति के प्रलोभनों से दूर रहना पड़ेगा। ___ यदि इस जीवन में, न्याय-नीति से व्यवसाय करने पर आपको अभिलषित अर्थ की प्राप्ति नहीं होती है तो समझना कि लाभान्तराय कर्म का उदय है, परन्तु फिर भी यदि आप न्याय-नीति के मार्ग को छोड़ते नहीं हो, न्याय-नीति से जितना मिलता है उसमें संतोष करते हो, तो अवश्य लाभान्तराय कर्म का नाश होगा और आपको अवश्य धन-संपत्ति की प्राप्ति होगी। यह बात बँचती है आपको? किसी भी संयोग में अन्याय-अनीति नहीं करने का संकल्प करोगे? यदि आप वैषयिक सुखों के प्रति उदासीन बनोगे तो ही ऐसा संकल्प कर पाओगे। क्योंकि वैषयिक सुखों की तीव्र स्पृहा ही अन्याय-अनीति करवाती है। 'न्याय-नीति से मुझे जितना धन मिलेगा, उसमें मैं अपना गुजारा कर लूँगा; परन्तु अन्याय-अनीति तो नहीं ही करूँगा।' ऐसा संकल्प विषयों से विरक्त जीवात्मा ही कर सकती है | वह भिखारी, नगर के बाहर उद्यान में भिक्षा लेने गया। तीन दिन का वह भूखा था, कड़ाके की भूख लगी थी। पिकनिक पर आये हुए लोगों ने वहाँ भी उस भिखारी को भिक्षा नहीं दी। अब वह भिखारी आगबबूला हो गया। उसको नगरवासियों के प्रति घोर तिरस्कार पैदा हुआ। 'ये सब मजे से माल-मेवा उड़ा रहे हैं, दिनभर खाते रहते हैं और मैं तीन-तीन दिन का भूखा हूँ, मुझे एक-दो रोटी भी नहीं देते हैं। अभी मैं उन सब को बता देता हूँ| पहाड़ पर से चट्टान गिराकर सबको मार डालूँगा.... किसी को जिंदा नहीं छोडूंगा....।' For Private And Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रवचन- ३१ अज्ञानता तीव्र राग-द्वेष को पैदा करती है : Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८१ भिखारी कितना तीव्र रौद्रध्यान करता है ? अज्ञानी है | अज्ञान से राग-द्वेष पैदा होते हैं। ज्यों-ज्यों सम्यक्ज्ञान का प्रकाश बढ़ता है त्यों त्यों राग-द्वेष मंद पड़ते हैं-आर्तध्यान और रौद्रध्यान मंद पड़ता है। बचना है तीव्र रागद्वेष से ? बचना है आर्तध्यान और रौद्रध्यान से? तो अज्ञानता को मिटाओ । सम्यक्ज्ञान प्राप्त करो। कर्मसिद्धान्त का ज्ञान प्राप्त करो, फिर जीवन की हर घटना को कर्मसिद्धान्त के माध्यम से सोचो । इस भिखारी के पास ऐसा ज्ञान नहीं था, वह नहीं सोच पाया कि 'मेरा लाभान्तराय कर्म प्रबल है इसलिए वे लोग मुझे भिक्षा नहीं देते हैं।' तो नगरवासी लोगों के प्रति रोष नहीं आता । भिखारी राजगृही के उस पहाड़ पर चढ़ा, जिस पहाड़ की तलहटी में नगरवासी लोग ‘पिकनिक' मना रहे थे। पहाड़ पर बड़ी बड़ी चट्टाने थीं । उसने अपनी पूरी ताकत लगाकर एक चट्टान को धक्का दिया । चट्टान नीचे की ओर लुढ़की, परन्तु साथ-साथ भिखारी खुद भी लुढ़कने लगा । उसी चट्टान के नीचे आ गया, दब गया और मर गया ! चट्टान वहीं पर रुक गई। भिखारी नगरवासियों को नहीं मार सका, बल्कि वह स्वयं मर गया ! रौद्रध्यान में मरा, मरकर नरक गति में चला गया। लाभान्तराय कर्म के उदयवाले जीवों को काफी सावधान रहना चाहिए । उनको अपनी इच्छा के अनुसार वस्तुएँ प्राप्त नहीं होती, उस समय दूसरों के प्रति दुर्भाव नहीं आना चाहिए। उनको इच्छानुसार धनप्राप्ति नहीं होगी, उस समय दूसरों के प्रति घृणा नहीं करनी चाहिए । साधु-साध्वीजी भी कोई पूर्ण ज्ञानी तो नहीं हैं : यह लाभान्तराय कर्म जिस प्रकार आप लोगों को उदय में आ सकता है वैसे हम लोगों को यानी साधुओं को भी उदय में आ सकता है। जिस साधु को इस कर्म का उदय हो, वह साधु भिक्षा के लिए घर-घर फिरे, उसको भिक्षा नहीं मिलेगी! यदि साधु ज्ञानी होगा तो अपने लाभान्तराय कर्म का विचार कर, किसी के प्रति रोष नहीं करेगा। यदि अज्ञानी होगा तो लोगों को कोसेगा ! अशान्त बनेगा, क्रोधादि कषायों से अभिभूत हो जाएगा । For Private And Personal Use Only सभा में से : साधु-साध्वीजी तो ज्ञानी ही होते हैं न? उनको गुस्सा कैसे होगा ? महाराजश्री : ऐसा नियम नहीं है कि सभी साधु-साध्वी ज्ञानी ही हों ! मात्र किताबें पढ़ लेने से ज्ञानी नहीं बन सकते। ज्ञानी बनने के लिए आत्मस्पर्शी Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३१ ८२ चिन्तन-मनन चाहिए। अपने मन का समाधान करते आना चाहिए। जब प्रतिकूल परिस्थिति पैदा हो जाय तब मन का समाधान कर, समता-समाधि बनाये रखना, अज्ञानी जीवों के लिए शक्य नहीं है। साधु या साध्वी के पास ऐसा ज्ञान हो कि वे प्रतिकूलताओं में तत्त्वदृष्टि से अपने मन का समाधान करें और दुर्ध्यान से बचें, तो वे ज्ञानी हैं। बहुत मुश्किल काम है, फिर भी इतना ही महत्त्वपूर्ण है। तत्त्वदृष्टि से मन का समाधान करना सीख लो तो काम हो जाय! अन्याय-अनीति करने पर भी पैसे क्यों नहीं मिलते? : 'न्याय-नीति से लाभान्तराय कर्म का नाश होता ही है'- इस बात पर आपका पूर्ण विश्वास हो जाना चाहिए | हो जायेगा न? हो या न हो, आप निश्चित रूप से मानना कि लाभान्तराय कर्म का क्षयोपशम हुए बिना सुखसंपत्ति प्राप्त होनेवाली नहीं है। आज, वर्तमान काल में यदि आपको अन्यायअनीति करने पर धन-संपत्ति मिल रही हो, तो समझना कि आपका लाभान्तराय कर्म का क्षयोपशम है, इसलिए मिल रही है। परन्तु आप अन्याय-अनीति कर रहे हो इसलिए नया लाभान्तराय कर्म बंध रहा है। जब वह कर्म उदय में आयेगा तब अन्याय-अनीति करने पर भी धन-वैभव नहीं मिलेगा। आप देखते हो न संसार में, कि अनेक लोग अन्याय-अनीति करते हैं, फिर भी उनको रूपये नहीं मिल रहे हैं। अनेक बुरे धंधे करने पर भी निर्धन ही बने रहते हैं। इसका कारण कभी भी आप लोगों ने सोचा है? दुनिया तो समझदार को भी पागल कहती है : दिमाग में जंचती है यह बात? अर्थपुरुषार्थ में पागल बने हुए लोगों के दिमाग में यह लाभान्तराय कर्मवाली बात अँचनेवाली नहीं है। पागल कभी तत्त्वज्ञानी बन सकता है क्या? हाँ, तत्त्वज्ञानी पागल बन सकता है। यदि आप तत्त्वज्ञानी बन जायें तो घर वाले लोग आपको पागल समझने लगेंगे! प्रयोग करना हो तो आज घर पर जाकर कर लेना! पिताजी को, भाई को, पार्टनर को, कह देना कि 'आज से दो नंबर का धंधा बंद कर देना है। अन्याय-अनीति का धंधा अब नहीं करना है!' देखना, वे लोग क्या कहते हैं और क्या करते हैं? वे लोग कहेंगे : 'तुम पागल हो गये हो क्या? दो नम्बर का धंधा बंद कर देंगे तो क्या कमायेंगे खाक? दो नंबर के धंधे से तो इस वर्ष दो लाख मिले हैं, तभी तो नया बंगला बन रहा है। आजकल कौन दो नम्बर का धंधा नहीं करता है? वह तो करना ही होगा। अन्याय-अनीति किये बिना कौन-सा धन्धा For Private And Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- ३१ ८३ हो सकता है, बताओगे ? नीति - अनीति की बातें छोड़ो, आज कहाँ से ले आये हो ये फालतू बातें? दिमाग खराब हो जायेगा.....।' ऐसी ऐसी बातें सुनायेंगे न? इन संसारियों ने कई तत्त्वज्ञानियों को पागल मानकर पत्थर भी मारे हैं! गालियाँ भी दी हैं! अनेक उपद्रव भी किये हैं! यह कर्म भी संबंधित है : लाभान्तराय कर्म का क्षयोपशम होने से पाँच इन्द्रियों के विषय-सुख मिल गये हों, परन्तु यदि भोगान्तराय और उपभोगान्तराय कर्म का उदय होगा तो प्राप्त विषय-सुखों का भोग-उपभोग नहीं कर पायेंगे। प्राप्त वैषयिक सुखों का भोग-उपभोग वे ही जीव कर सकते हैं कि जिनके भोगान्तराय-उपभोगान्तराय कर्म का क्षयोपशम हुआ हो । कुछ उदाहरण : मान लो कि गीत-संगीत और दुनिया के समाचार सुनने के लिए आपने रेड़ियो घर में बसाया, लाभान्तराय कर्म का क्षयोपशम था, इसलिए रेड़ियो मिल गया, परन्तु अचानक आपके कान में दर्द हो गया, डॉक्टर को बताया, डॉक्टर ने ऑपरेशन करा लेने का सुझाव दिया, ऑपरेशन कराने पर भीतर का पर्दा फट गया..... संपूर्ण बहरापन आ गया ! अब रेड़ियो कैसे सुन सकेंगे? उपभोगांतराय कर्म का उदय ! वैसे, आपको टी.वी. सेट बसाने की इच्छा हुई, आप बाजार से खरीद लाये, लाभान्तराय कर्म का क्षयोपशम होने से टी.वी. सेट आपको मिला । परन्तु घर में जिस दिन टी.वी. आया, आपकी आँखों में दर्द हो गया, डॉक्टर ने टी.वी. देखने की मनाही कर दी ! उपभोगांतराय कर्म का उदय! घर में टी.वी. होने पर भी आप नहीं देख पाते । मान लो कि हजार-दो हजार रूपये के बढ़िया कपड़े सिलवायें । सोचा था कि दोस्त की शादी में पहनकर जायेंगे, परन्तु अचानक शरीर में 'एलर्जी' हो गई, शरीर पर फोड़े-फफोले हो आये.....! शरीर पर सूती मलमल के कपड़े के अलावा दूसरा कोई कपड़ा नहीं पहन सकते ! टेरेलिन के, पोलियेस्टर के कपड़े होने पर भी, सिन्थेटिक, रेशमी कपड़े होने पर भी आप नहीं पहन सकते! यह है उपभोगांतराय कर्म का उदय ! मनपसंद लड़की के साथ शादी हुई हो, परन्तु शादी होते ही मनमुटाव हो गया! पत्नी चली जाती है अपने मायके ! पत्नी होते हुए भी उसका सुख नहीं For Private And Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८४ प्रवचन-३१ मिलता है! उपभोगांतराय कर्म का उदय! २२-२२ वर्ष तक पवनंजय को अंजना का सुख नहीं मिला था! अंजना को पवनंजय का सुख नहीं मिला था... दोनों को उपभोगांतराय कर्म का उदय था। एक महिला के पास मानो कि हीरे के, सोने के उत्तम जेवर हैं, परन्तु उसका पति उसको पहनने नहीं देता है! 'जेवर पहन कर बाहर नहीं जाना, कभी कोई डाकू लूट लेगा....!' उस महिला को लाभांतराय कर्म का क्षयोपशम है इसलिए मनपसंद जेवर मिले तो सही, परंतु उपभोगांतराय कर्म का उदय होने से पहन नहीं सकती! और उस मम्मण सेठ के पास कितना धन था? पुरे मगधदेश का साम्राज्य खरीद ले, उतना धन था मम्मण के पास, परन्तु उस धन का उपभोग कर सका क्या? न मकान बनाया, न अच्छा भोजन किया, न अच्छे वस्त्र पहने, न परिवारवालों को अच्छा खिलाया-पिलाया। न उसने दान दिया! बस, उस संपत्ति को देख-देखकर खुश होता रहा! ममता और आसक्ति बढ़ाता रहा....संरक्षण करता रहा! भोगांतराय और उपभोगांतराय कर्म का घोर उदय जो था उसको! __घर में आपका मनपसंद भोजन बना है, आपने भी सोचा है कि आज जी भर के भोजन करेंगे, परन्तु अचानक पेट में दर्द हो गया और अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। भोजन मिला परन्तु भोजन कर नहीं सके! भोगांतराय कर्म का उदय! ___ कई ऐसे बड़े-बड़े श्रीमंत लोग हैं, जिनके पास अच्छे अच्छे पलंग हैं, परन्तु उनको लकड़ी की खाट पर सोना पड़ रहा है। कइयों को मात्र दूध और फलाहार पर ही जीवन पूरा करना पड़ रहा है। कुछ श्रीमन्तों को अनिच्छा से भी ब्रह्मचर्य का पालन करना पड़ रहा है | भोगांतराय और उपभोगांतराय कर्म का उदय होने से इस प्रकार की परिस्थितियाँ पैदा हो सकती हैं। पाँचवाँ अंतराय कर्म है वीर्यान्तराय : वीर्य यानी शक्ति, वीर्य यानी भीतरी उल्लास, उत्साह उमंग! निर्बलता, निर्वीर्यता कर्म का विपाक है। कोई थोड़ी-सी मेहनत करते थक जाता है, किसी को अच्छा काम करने का उत्साह नहीं जगता है, किसी को 'मूड' ही नहीं बनता, 'मूडलेस' बना रहता है..... यह भी वीर्यान्तराय कर्म के उदय से बनता है। वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम होने पर शारीरिक शक्ति प्राप्त होती है। चक्रवर्ती को भी पराजित कर देने का बल, वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम For Private And Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- ३१ ८५ से प्राप्त होता है। यदि वीर्यान्तराय कर्म का उदय है और मनुष्य अपनी दुर्बलता मिटाने के लिए चाहे कितनी भी दवाईयाँ करे, कितने भी 'विटामिन्स’ खाए, उसको शक्ति प्राप्त नहीं होगी। डॉक्टरों को हजारों रूपये दे दें, उसकी निर्बलता जाने की नहीं । जब तक वीर्यान्तराय कर्म का नाश नहीं करता, उसको शक्ति प्राप्त होने वाली नहीं । क्या सोच रहे हो ? : है न अंतराय कर्म का जीवात्मा के ऊपर व्यापक प्रभाव ? देना, लेना, भोगना.... जीवन की ये महत्त्वपूर्ण प्रवृत्तियाँ इसी कर्म से संचालित हैं । निर्धनता-दरिद्रता और श्रीमंताई.... इस अंतराय कर्म पर आधारित हैं । इसलिए, कर्मों का क्षय करने का पुरुषार्थ करना चाहिए । नये अन्तराय कर्म नहीं बंध जायें, इसलिए जाग्रत रहना चाहिए | इतना ज्ञान तो प्राप्त कर लेना चाहिए कि क्या-क्या करने से कौन - कौन - सा अंतराय कर्म बंधता है? कैसा कैसा धर्मपुरुषार्थ करने से कौन-कौन- सा अंतराय कर्म टूटता है ? प्राप्त करना है न ऐसा ज्ञान ? 'न्याय-नीति से रुपये नहीं मिलते हैं तो अन्याय - अनीति से रुपये कमा लें,' इस भ्रमणा को दिमाग से निकाल दें। 'रुपये अनीति - अन्याय से नहीं मिलते हैं, रूपये लाभांतराय कर्म के क्षयोपशम से मिलते हैं,' इस वास्तविकता को स्वीकार कर लिया जाये और उस कर्म का नाश करने का धर्मपुरुषार्थ किया जाये तो रुपयों के लिए आपको नहीं भटकना पड़ेगा, रुपये आपको खोजते आयेंगे। एक सावधानी रखना, अंतराय कर्म के क्षयोपशम के साथ मोहनीय कर्म का क्षयोपशम अवश्य होना चाहिए । यदि मोहनीय कर्म का क्षयोपशम नहीं हुआ है और अन्तराय कर्म का, लाभान्तराय कर्म का क्षयोपशम हुआ, तो वह क्षयोपशम विघातक बन जाएगा। लाभान्तराय कर्म के क्षयोपशम से बहुत सारे वैषयिक सुख प्राप्त होंगे और राग-द्वेष (मोहनीय कर्म) प्रबल होंगे, तो अनन्त पापकर्म बंधवायेंगे । 'न्याय और नीति से लाभान्तराय कर्म का नाश होता है' - इस सत्य को हृदय में स्थिर करें, विशेष बातें आगे करूँगा । आज बस, इतना ही । For Private And Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३१ -. छल-कपट और दगाबाजी करनेवाला मरकर अक्सर तो. जानवरों की दुनिया में पहुँच जाता है कि जहाँ पर दुःख के भार से जीवात्मा कुचली जाती है। बाहर जिस अनाज का दाना भी नसीब न होता हो उसे तो न जेल की मोटी-मोटी रोटियाँ भी मीठी लगती हैं। उसके लिए जेल भी महल बन जाता है कि जिसके पास रहने के लिए न तो झोंपड़ी है, न ही कोई छप्पर है! धंधा करते समय इतना तो जरुर सोचना कि 'मैं जैन हूँ, मुझे। ऐसा धंधा नहीं करना चाहिए कि जिससे मेरा धर्म बदनाम हो!' पापों से यदि बचना है तो परलोक को आँखों के सामने रखकर जियो! धंधा भी धर्म हो सकता है यदि हम उसके लिए निश्चित नियम एवं आचारसंहिता का कड़ा पालन करें, अन्यथा तो धर्म को भी हम व्यापार बना के रख देंगे। प्रवचन : ३२ महान श्रुतधर, पूज्य आचार्यश्री हरिभद्रसूरीश्वरजी स्वरचित 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ के माध्यम से गृहस्थजीवन का सामान्य धर्म समझा रहे हैं! धनार्जन करने में न्याय-नीति और प्रामाणिकता का पालन करना सर्वप्रथम गृहस्थ धर्म है। अन्याय-अनीति करनेवाले मरकर तिर्यंचगति में : आचार्यदेव ने एक बात अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बताई कि न्याय-नीति से लाभान्तराय कर्म का नाश होता है। यह बात बड़ी 'टेक्निकल' बात है। काफी समझने की बात है। वैसी ही एक दूसरी 'टेक्निकल' बात आज बताता हूँ| अन्याय-अनीति करनेवाला मरकर तिर्यंचगति में जन्म पाता है। यानी कि पशु-पक्षी की योनि में जन्म पाता है। क्या यह बात महत्त्वपूर्ण नहीं है? 'रेड सिग्नल' है, अनीतिअन्याय करनेवालों के लिए। श्रीमद् विमलाचार्यजी ने पउमचरिउं में बताया है : मायाकुडिलसहावा कूडतुलाकूडमाणववहारा । धम्मं असद्दहंता तिरिक्खजोणी उवणमन्ति ।। For Private And Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३१ अनीति-अन्याय, माया-कपट के बिना हो नहीं सकते। माया-कपट बड़े खतरनाक तत्त्व हैं। यदि आपके स्वभाव में माया-कुटिलता घुलमिल गये तो आपको गिराये बिना नहीं छोड़ेगे। अनीति-अन्याय मायाप्रेरित तो होते हैं। अनीति-अन्याय करने में माया किये बिना, कपट किये बिना, विश्वासघात किये बिना चल नहीं सकता। यदि व्यापारी मिलावट करता है-यानी कि दूध में पानी मिलाता है, घी में चर्बी की मिलावट करता है, केसर के नाम पर रंगा हुआ घास बेचता है, क्या यह सब माया-कपट के बिना होता है? क्या इसमें विश्वासघात नहीं है? व्यापार में गलत नाप-तौल रखना क्या माया-कपट नहीं है? बराबर याद रखना, यह सब करने से तिर्यंचगति का आयुष्य-कर्म बंध जायेगा और मरकर पशु-पक्षी की योनि में जन्म लेना पड़ेगा। मनुष्य का विशेषाधिकार : चाहे जिस गति में जा सकता है : आप यह बात तो जानते हो न कि वर्तमान भव में जीव जिस गति का आयुष्य-कर्म बाँधता है, उसी गति में उसको जन्म लेना पड़ता है। इस बात का अर्थ समझे? आनेवाले जीवन का निर्णय वर्तमान जीवन में हो जाता है। आनेवाले जीवन का आयुष्य-कर्म वर्तमान जीवन में बंध जाता है। मनुष्य चारों गति का आयुष्य-कर्म बाँध सकता है। देवगति का, मनुष्यगति का, तिर्यंचगति का अथवा नरकगति का। चारों में से कोई भी एक गति का आयुष्य-कर्म बाँधता है। कब बाँधता है? ऐसा मत पूछना । बाँधनेवाला भी नहीं जान सकता कि उसने कब और कौन-सा आयुष्य-कर्म बाँधा है? जीवन के किसी भी क्षण में आयुष्य-कर्म बंध सकता है। आगामी गति का आयुष्य-कर्म बाँधे बिना जीवात्मा की मृत्यु नहीं होती है। जीवात्मा किसी भी गति में हो, यह नियम सभी जीवों के लिए समान है। मनुष्य और कुछ पशु-पक्षी चार गति में से कोई भी गति का आयुष्य-कर्म बाँध सकते हैं। जो देव-देवी होते हैं, वे देवगति और नरकगति का आयुष्य-कर्म नहीं बाँध सकते। वैसे जो नारकी के जीव होते हैं, वे देवगति और नरकगति का आयुष्य-कर्म नहीं बाँध सकते। देव मरकर मनुष्ययोनि अथवा तिर्यंचयोनि में जाते हैं, नारक मरकर मनुष्ययोनि अथवा तिर्यंचयोनि में जाते हैं। मनुष्य किसी भी योनि में जा सकता है। मनुष्य का यह विशेषाधिकार है। कहिए, कौन-सी गति में जाना है? अथवा यह कहें कि कौन-सी गति में नहीं जाना है? For Private And Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रवचन- ३२ क्या चाहते हो आप ? www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८८ सभा में से : भावना तो ऐसी होती है कि सद्गति में ही जायँ और दुर्गति में नहीं जायँ, परन्तु हमारे काम ऐसे हैं कि हम सद्गति में नहीं जा सकेंगे। महाराजश्री : तो आपको लगता है कि आप दुर्गति में जायेंगे? यानी नरक अथवा तिर्यंचयोनि में जायेंगे ? जानते हो नरकयोनि का स्वरूप? सात नरक की घोर वेदनाओं का ज्ञान है? यदि आपको ज्ञान हो कि 'ऐसा काम करूँगा तो जेल में जाना पड़ेगा ही,' तो क्या आप वैसा काम करेंगे? यदि आपको जेल की जिंदगी का ज्ञान होगा तो वैसा काम नहीं करेंगे। नरकगति और तिर्यंचगति के दुःखों का जिसको ज्ञान हो वह वैसे काम करेगा क्या? विराट पशुगति-तिर्यंचगति का कभी गंभीरता से चिंतन किया है? उस गति के भयानक दर्द और भरपूर दुःखों का कभी विचार किया है ? क्यों जानबूझकर अपने भविष्य को दुःखमय बनाते हो ? हाँ, तिर्यंचगति के दुःखों से भी ज्यादा दु:ख इस जीवन में हों और उस गति में जाना चाहते हों तो भले अनीति- - अन्याय करो। भले माया और कपट करो । आदिवासी को जेल में भी मजा आ गया ! अभी-अभी एक कहानी पढ़ने में आयी । बड़ी दिलचस्प कहानी थी । उड़ीसा प्रान्त में भीषण दुष्काल अकाल का आतंक छा गया था । आदिवासी- प्रदेश में लोगों के पास खाने को अन्न का, धान्य का एक दाना भी नहीं रहा था। पहनने को पूरे वस्त्र भी नहीं थे । वहाँ की महिलाएँ भी अर्धनग्न दशा में जी रही थीं। एक आदिवासी पुरुष अत्यंत भूखा .... एक खेत में जमीन खोद रहा था ! जमीन में से वह कंद निकाल रहा था ! इतने में उस खेत का मालिक वहाँ पहुँच गया। आदिवासी को पकड़ा, बहुत पीटा और जाकर पुलिस को सुपुर्द कर दिया। पुलिसवाला उसको जेल में ले गया, उसको एक महीने की सजा मिली। आदिवासी बहुत खुश हो गया। क्योंकि उसको रहने के लिए पक्का मकान मिला। खाने को पेटभर भोजन मिला। कितने दिनों से उसने रोटी के दर्शन नहीं किये थे! वह तो उस खेत के मालिक का उपकार मानने लगा, उस पुलिसवाले को भी धन्यवाद देने लगा ! For Private And Personal Use Only एक दिन वह पुलिसवाला जेल में आया हुआ था, इस आदिवासी ने पुलिसवाले को देख लिया । दौड़कर पहुँचा पुलिसवाले के पास ! उसके पैरों में Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३२ पड़ा.... बहुत बहुत शुक्रिया अदा करने लगा और कहा : 'अब मुझे यहाँ ही रहना है, मेरे घर नहीं जाना है। आपने मुझ पर बड़ी कृपा की है। पुलिसवाला हँसने लगा और वहाँ से चला गया। वह आदिवासी सोचता है : 'मैं तो यहाँ आराम से रहता हूँ, मुझे पेटभर दाल-रोटी का भोजन मिल जाता है, परन्तु घर पर मेरी पत्नी, मेरे बच्चे.... बेचारे भूखे मरते होंगे। यदि मैं उनको भी यहाँ ले आऊँ तो? यहाँ रहने को पक्का मकान मिल जाएगा, पेटभर भोजन मिल जाएगा। पहनने को वस्त्र मिल जाएंगे। उनको यहाँ लाने का उपाय तो वह ही है। मैं जिस प्रकार उस खेत में गया था.... ठीक उसी प्रकार मेरी पत्नी और बच्चों को भी वहाँ ले जाना पड़ेगा.... फिर वह आदमी आएगा, हम सबको पीटेगा, पुलिस को सुपुर्द करेगा.... पुलिसवाला हमें यहाँ ले आएगा।' समझते हो न इस कहानी का मर्म? भारत में ऐसे करोड़ों लोग इस प्रकार जीते हैं कि जिनको पूरा भोजन नहीं मिल रहा है, जिनको पूरे कपड़े नहीं मिल रहे हैं.... जिनको रहने को मकान नहीं मिल रहा है। उन लोगों से बहुत कुछ अच्छा जीवन जेल के कैदियों का जीवन है। उस आदिवासी को जेल का जीवन पसन्द आ गया इसलिए उसने जेल में जाने का रास्ता भी पसन्द कर लिया। आपको यदि तिर्यंचगति का जीवन पसन्द आ गया हो तो अन्याय-अनीति एवं माया-कपट का रास्ता ठीक ही है। आप लोगों को जो मानवजीवन मिला है, क्या इससे तिर्यंच का जीवन बहुत अच्छा जीवन लगता है? तिर्यंचगति के दुःखों से मानवजीवन के दुःख क्या ज्यादा लगते हैं? न्याय-नीति के धर्म पर विश्वास है? न्याय-नीतिपूर्ण व्यवहार से लाभान्तराय कर्म का नाश होता है, इस सिद्धान्त पर विश्वास है? यदि नहीं है तो अन्यायअनीति का मार्ग छोड़ोगे नहीं। अन्याय-अनीति का मार्ग कहाँ जाता है, यह बता दिया! तिर्यंचगति में वह मार्ग जाता है। यदि वहाँ जाना है, वहाँ जाने में डर नहीं लगता है, तो आपसे मुझे कुछ कहना नहीं है। __ग्रन्थकार आचार्यदेव कहते हैं कि न्याय-नीति से लाभान्तराय कर्म का नाश होता है और आगे जीवन में अल्प प्रयत्न से अर्थप्राप्ति होती है। इस वर्तमान जीवन में यदि लाभान्तराय कर्म का नाश हुआ होगा तो ही अर्थप्राप्ति होगी। यदि उस कर्म का नाश नहीं हुआ है तो लाख प्रयत्न करने पर भी अर्थप्राप्ति नहीं होगी। अन्याय-अनीति करने पर भी अर्थप्राप्ति नहीं होगी। For Private And Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३२ ___९० तीन प्रकार : पाप नहीं करनेवालों के : दूसरी एक महत्त्वपूर्ण बात भी सुन लो । अन्याय-अनीति का मार्ग खतरे से खाली नहीं है। राज्य व्यवस्था में भी अन्याय-अनीति वर्ण्य है। अन्याय-अनीति करनेवाले अपराधी माने जाते हैं, यदि वे पकड़े जाते हैं तो सजा होती है, उनको जेल में जाना पड़ता है। उनकी बेइज्जती होती है। उनके परिवार को अनेक कष्ट सहन करने पड़ते हैं। राजदंड के भय से भी अन्याय-अनीति का मार्ग छोड़ना चाहिए। हालाँकि उत्तम पुरुष तो स्वभाव से ही ऐसे पाप नहीं करते हैं। पाप नहीं करनेवालों के भी तीन प्रकार बताये गये हैं। (१) राजदंड के भय से पाप नहीं करनेवाले, (२) परलोक के भय से पाप नहीं करनेवाले, (३) स्वभाव से ही पाप नहीं करनेवाले। राजदंड के भय से पाप नहीं करनेवाले अधम कक्षा के जीव होते हैं। परलोक के भय से पाप नहीं करनेवाले मध्यम कक्षा के जीव होते हैं और स्वभाव से ही पाप नहीं करनेवाले उत्तम कक्षा के जीव होते हैं। जिसको राजदंड का भी भय नहीं होता है और पाप करते हैं, उनको कौन-सी कक्षा में डालेंगे? सभा में से : अधमाधम कक्षा में! महाराजश्री : अच्छी कक्षा खोज निकाली! ऐसी निम्नतर कक्षा में जैन तो नहीं आ सकते न? आप लोग जैन हो न? जिनेश्वर के अनुयायी हो न? रागद्वेष को जिन्होंने जीत लिया वे जिनेश्वर और राग-द्वेष को जीतने का प्रयत्न करनेवाले जैन! चल रहा है न राग-द्वेष को जीतने का प्रयत्न? जैनत्व को कलंकित न करें : धन-संपत्ति का इतना लोभ तो नहीं ही होना चाहिए कि धन-संपत्ति पाने के लिए अन्याय-अनीति करनी पड़े | माया-कपट करना पड़े। इतनी आसक्ति नहीं होनी चाहिए | आप लोगों के स्वभाव में अनीति-अन्याय नहीं होने चाहिए | 'मैं जैन हूँ, जिनेश्वर परमात्मा का अनुयायी हूँ, मैं किसी हालत में अन्यायअनीति से धनोपार्जन नहीं कर सकता। यदि मैं अन्याय-अनीति करूँगा तो मेरा धर्म कलंकित होगा, मेरे निमित्त धर्म की निन्दा होगी।' ऐसे विचार आते For Private And Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३२ ९१ __ मेरे सामने कई बार मैंने कुछ लोगों को निन्दा करते पाये हैं। जो लोग मंदिर जाते हैं, साधु-संतों के पास जाते हैं, कुछ धर्मक्रियाएँ करते हैं और फिर बाजार में जाकर लोगों के साथ अन्याय-अनीतिपूर्ण व्यवहार करते हैं। ऐसे लोगों की अवश्य निन्दा होती है। ऐसे लोगों के सामने लोग अच्छी निगाहों से नहीं देखते। उनकी धर्मक्रियाओं की प्रशंसा नहीं करते। कभी कभी ऐसा बोलते हैं कि 'ऐसे धर्म करनेवालों से तो हम लोग अच्छे हैं कि जो मन्दिर-उपाश्रय नहीं जाते! धर्मक्रियाएँ नहीं करते!' विश्वासघात से धर्म बदनाम होता है : कुछ लोग कहते हैं : 'ऐसे लोग परमात्मभक्त और गुरुभक्त होने का दिखावा इसलिए करते हैं क्योंकि लोगों का उन पर विश्वास हो जाये। लोग उन भक्तों पर विश्वास करें तो ही वे भक्त लोग अच्छी तरह बेईमानी कर सकें ना आज भी लोगों का मानस, धर्म करनेवालों के प्रति विश्वास करता है! "भाई, इतना धर्म करनेवाला कभी विश्वासघात नहीं कर सकता..... कभी अपने साथ धोखेबाजी नहीं कर सकता'.... वगैरह। हालाँकि ऐसे भद्र.... सरल जीवों के साथ विश्वासघात होता है, धोखेबाजी होती है.... फिर भी कुछ विश्वास टिका हुआ है। यदि धार्मिक लोगों ने अन्याय-अनीति का शीघ्र त्याग नहीं कर दिया तो रहासहा विश्वास भी नष्ट हो जाएगा। __ परन्तु दुर्भाग्य है कि धर्मस्थानों में आनेवाले ज्यादातर लोग अपना ही स्वार्थ देखते हैं, अपने ही भौतिक सुखों विचार करते हैं। वे परमात्मा का, सद्गुरुओं का, सद्धर्म का विचार ही नहीं करते। 'मेरे निमित्त परमात्मा की निन्दा नहीं होनी चाहिए, गुरुजनों की निन्दा नहीं होनी चाहिए... सद्धर्म की निन्दा नहीं होनी चाहिए..।' यह विचार आप लोगों को आता है? नहीं, आप लोगों को तो ढेर सारे रूपये चाहिए। किसी भी रास्ते रूपये मिलने चाहिए! न्याय-अन्याय, नीति-अनीति का विचार ही नहीं। अच्छा धंधा हो या बुरा धंधा हो, कोई विचार ही नहीं! जिस धंधे में बहुत सारे रूपये मिलते हों, वह धंधा अच्छा! सही बात है न? आपको किसी का भय भी नहीं लगता? आप लोग राज्यविरुद्ध धंधे भी करते हो न? निर्भय होकर करते हो न? For Private And Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९२ प्रवचन-३२ सभा में से : सरकार का तंत्र ही भ्रष्ट हो गया है.... सरकारी लोग भी तो हम लोगों के धंधे में सहयोगी बन जाते हैं। महाराजश्री : जब तक पुण्यकर्म का उदय होगा तब तक वे लोग सहयोगी बनेंगे, जब पुण्यकर्म समाप्त होगा, वे लोग ही आपके शत्रु बन जायेंगे। दूसरी बात यह है कि गलत धंधा करनेवाले हमेशा अशान्त बने रहते हैं, चिन्ताग्रस्त बने रहते हैं....इसलिए आजकल 'हार्टएटेक' जैसे हृदयरोग बढ़ गये हैं। निरन्तर चिन्ताओं से व्यग्र रहनेवालों को हृदय के रोग हो जाते हैं। गलत काम करनेवालों को भय बना रहता है और वे रोग के शिकार बन जाते हैं। क्या तुम्हें परलोक का विचार आता है? : मान लो कि आपको सरकार का भय नहीं लगता है, परन्तु परलोक का भय तो लगता है न? परलोक का विचार तो आता है न? 'इस जीवन में मैं अनीति, अन्याय, बेईमानी करता हूँ, इससे जो पापकर्म बंधते हैं, उन पापकर्मों का परलोक में जब उदय होगा तब कैसे-कैसे दुःख आयेंगे?' इस प्रकार परलोक-विषयक विचार आते हैं या नहीं? दुःखों का भय नहीं लगता है? सभा में से : इस जीवन में आनेवाले दुःखों का भय तो लगता है, परन्तु परलोक में आनेवाले दुःखों का भय नहीं लगता है। महाराजश्री : परलोक का विचार नहीं आता है तो फिर परलोक में आनेवाले दुःखों का विचार कहाँ से आयेगा? और परलोक का विचार ही नहीं आता है तो पापों से बचना असंभव है। क्योंकि पापों का फल विशेषकर आनेवाले जन्मों में मिलता है। वर्तमान जीवन में यदि पुण्यकर्मों का उदय होता है तो पापाचरण का बुरा फल यहाँ नहीं मिलता है। पाप करने से सुख का अनुभव होता है! फिर मनुष्य पापों का त्याग क्यों करेगा? 'पाप करने से पापकर्म बंधते हैं और जब वे पापकर्म उदय में आते हैं तब जीव को दुःख देते हैं, इस सिद्धान्त को समझे और माने तो ही पापाचरण से जीव छुटकारा पा सके। ___ अन्याय-अनीति से अर्थलाभ का होना निश्चित नहीं होता, अनर्थ तो अवश्य होगा ही। अनर्थ होने में कोई शंका नहीं, कोई संदेह नहीं। अनर्थ का अर्थ मात्र दरिद्रता या निर्धनता मत समझना, अनर्थ अनेक प्रकार के हो सकते हैं। धनप्राप्ति नहीं होना, राजदंड होना, बीमारियाँ आना, परिवार में किसी की मृत्यु होना, स्वयं की मौत होना, चोर-डाकुओं का आतंक होना.... वगैरह For Private And Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९३ प्रवचन-३२ असंख्य प्रकार के अनर्थ हो सकते हैं । बम्बई में कुछ वर्ष पूर्व एक सत्य घटना घटी थी, मैंने जिस प्रकार सुनी है आपको बताता हूँ। सभी अनर्थों की जड़ : अनीति : दो मित्र थे। एक मित्र सर्विस करता था, दूसरा मित्र जौहरी बाजार में दलाली करता था। जो सर्विस करता था उसके पास रहने की जगह थी यानी एक कमरा था, वह पायधुनी-विस्तार में रहता था। दलाल मित्र को रहने की जगह नहीं थी। वह लॉज में भोजन करता था और अपने सम्बन्धी व्यापारी की पेढ़ी पर सो जाया करता था। परन्तु भोजन के बाद आराम करने वह अपने मित्र के घर जाया करता था। यह उसका प्रतिदिन का कार्यक्रम था। दलाली का काम अच्छा चलता था। वह अपने 'बिजनेस' की सारी बातें अपने मित्र से किया करता था। उसके मित्र की सर्विस तो अच्छी थी परन्तु दलाल के जितना वह नहीं कमा सकता था। ___ एक दिन की बात है। छुट्टी का दिन था उस सर्विस वाले मित्र का। उसके घर पर वह अकेला ही था। उसकी पत्नी और बच्चे बाहर कहीं गये हुए थे। मध्याह्न का समय हुआ, वह दलाल मित्र के घर पहुंचा। उसने जाते ही अपने मित्र से कहा : 'आज मैं आधा घंटा ही आराम करूँगा... मुझे एक व्यापारी के पास एक बजे पहुँचना है, अच्छा सौदा होनेवाला है।' उसने अपना कोट निकाला, खूटी पर लटका दिया और मित्र को कहा : 'आज सावधानी रखना, कोई मेरे कोट को छुए नहीं, एक लाख रुपये का माल है उसमें ।' __मित्र ने कहा : 'अपन दोनों कमरे भीतर से बन्द करके ही सोते हैं.... फिर किसी के आने का प्रश्न ही नहीं उठता।' उसने कमरा भीतर से बन्द कर दिया और दोनों मित्र सो गये। जौहरी दलाल तो तुरन्त ही निद्राधीन हो गया। उसके मित्र को निद्रा नहीं आती है। उसके मन में अन्याय के, विश्वासघात के अनेक विचार उमड़ने लगे | वह सोचने लगा : 'यदि यह एक लाख रुपये का माल मेरे पास आ जाय तो? मुझे नौकरी नहीं करनी पड़ेगी.... मेरी जिन्दगी आराम से कटेगी.... मैं वतन में चला जाऊँगा और सुख से जीवन बसर करूँगा....।' ___ 'परन्तु यह मेरा मित्र है, मेरे प्रति उसको पूर्ण विश्वास है। यदि मैं उसकी जेब से माल निकाल लूँगा तो विश्वासघात होगा... जब वह जानेगा कि 'मेरे For Private And Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३२ ९४ कोट में से माल गायब हो गया है, तो उसके मन में मेरे प्रति ही शंका होगी... और संभव है कि पुलिस में रिपोर्ट भी कर दे...' पैसे के लिए खून भी कर दिया : वह कुछ क्षण सोचता रहा.... शीघ्रता से सोचता रहा, मित्र जाग उठे इसके पहले ही काम निपटाना था! एक लाख रूपये की लालच ने उसको घोर विश्वासघात का पाप करने को उत्तेजित कर दिया । इतना ही नहीं, उसने अपने मित्र की हत्या कर डालने का भी भयानक विचार कर लिया। 'यदि यह जिन्दा रहेगा तो मेरे लिए आफत पैदा कर सकता है। इसको जिन्दा ही नहीं रखना चाहिए।' विश्वासघात और मित्रवध! लाख रुपये पाने के लिए वह दोनों पाप करने तैयार हो गया। उसने अपने सोये हुए मित्र की ओर देखा.... तीक्ष्ण शस्त्र हाथ में लिया, मित्र के गले पर चला दिया। दो क्षण में भयानक दुर्घटना घट गई। पहला काम उसने लाख रुपये की उस 'ज्वेलरी' को छुपाने का किया । फिर कमरे से बाहर निकल कर, कमरे को ताला लगाकर बाजार चला गया। लोहे की एक मजबूत पेटी खरीद कर लाया । एक किराये की टैक्सी भी तय कर ली। टैक्सीवाले से कहा : 'तुम इस बिल्डिंग के नीचे खड़े रहो, मैं इस पेटी में पुरानी बहियाँ भरकर, रस्सी से नीचे उतारूँगा | पेटी गाड़ी के अन्दर रख देना, फिर अपन जुहू चलेंगे, वहाँ समुद्र में पेटी डालकर वापस लौटेंगे। तुम्हें पूरा किराया मिल जायेगा।' टेक्सीवाले ने ज्यादा किराया माँगा। इसने मंजूर कर लिया और कहा कि वापस लौटने पर उसका किराया मिल जायेगा। क्रूरता कितनी खतरनाक है : लोहे की पेटी लेकर वह अपने कमरे में आया । उसने कमरा भीतर से बन्द कर दिया। मित्र के मृतदेह के उसने टुकड़े किये और उस पेटी में भर दिये। पेटी बन्द कर दी, ताला लगा दिया और कमरे को साफ कर दिया । खून से सने हुए कपड़ों को भी उसने उस पेटी में डाल दिया था। हत्या का एक भी सबूत घर में उसने नहीं छोड़ा। पेटी को उसने रस्सी से बाधा और सीधे नीचे रोड़ पर उतार दिया। ड्राइवर ने पेटी गाड़ी में रख दी। वह हत्यारा नीचे आया और गाड़ी में बैठ For Private And Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- ३२ ९५ गया। ड्राइवर ने 'फुल स्पीड़' से गाड़ी जुहू की ओर दौड़ायी । जुहू पहुँचकर, पेटी निकाल कर, दोनों ने समुद्र में डाल दी। वापस गाड़ी में बैठकर वे पायधुनी पर आये । ड्राइवर ने गाड़ी रोकी और अपना किराया माँगा । उसने कहा कि 'इतना किराया नहीं मिलेगा । ' ड्राइवर के साथ झगड़ा हो गया। ड्राइवर को कुछ शंका तो हो ही गई थी.... उसने तुरन्त ही गाड़ी स्टार्ट कर दी और पुलिस स्टेशन पर ले जाकर गाड़ी खड़ी कर दी। पुलिस स्टेशन के बाहर ही गोरा पुलिस सार्जंट खड़ा था। ड्राइवर ने सार्जंट से कहा : 'प्लीज, आप इस आदमी को 'एरेस्ट' कर लीजिए, मुझे शंका है कि इसने किसी की हत्या की है ..... ।' पुलिस सार्जंट ने शीघ्र ही उसको पकड़ लिया, उसके हाथ-पैर बाँध दिये गये । ड्राइवर ने कहा : 'यदि आप अभी मेरे साथ जुहू चलें तो जो पेटी इसने समुद्र में डाल दी है, उस पेटी को खोल कर देखें.... आप मेरी गाड़ी में पड़े खून के निशान भी देख सकते हैं। पेटी समुद्र में डालने के बाद ये निशान मेरे देखने में आये हैं ।' पुलिस ने तुरंत ही टैक्सी में पड़े खून के निशान देखे और अंग्रेज सार्जंट उसी टैक्सी में बैठकर जुहू की ओर दौड़ पड़ा। वह पेटी समुद्र के किनारे के पानी में ही डाली हुई थी.... सो ड्राइवर ने आसानी से पेटी निकाल ली । ताला तोड़ दिया गया। पेटी खोली, मृतदेह के टुकड़े दिखाई दिये । पेटी को टैक्सी में डलवा कर सार्जंट पुलिस स्टेशन पर आ गया । गलत काम का फल तो भुगतना ही होगा ! उस मित्र ने मित्र-हत्या की बात स्वीकार कर ली। पुलिस ने उसके घर की तलाशी ली.... एक पानी से भरे मिट्टी के बरतन में से लाख रूपये की 'ज्वेलरी' पुलिस ने प्राप्त कर ली। केस चला, उस हत्यारे को आजीवन कारावास की सजा हो गई। जिस लाख रुपये के लोभ में आकर उसने मित्रद्रोह किया, मित्रहत्या की, क्या अंजाम आया? क्या लाख रुपये उसको मिल गये ? लखपति बन गया ? सारी जिन्दगी अब उसको कारावास में गुजारनी होगी न? क्या हुआ उसकी पत्नी का ? क्या हुआ होगा उसके बच्चों का ? अन्याय - अनीति से उत्पन्न होनेवाले अनर्थों की परंपरा का खयाल करो । दिमाग से सोचो। For Private And Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- ३२ ९६ शायद आप सोचते होंगे कि 'उनको ऐसे अनर्थों का भोग होना पड़ा, हम लोगों को वैसे अनर्थ नहीं होंगे।' क्यों ऐसा ही सोचते हो न? कोई भी हो, जो मनुष्य बेईमानी करता है, उसको बुरा फल मिलता ही है। कुदरत के इन्साफ में कोई लाग-लपेट नहीं चलता है। अनीति नहीं करने का संकल्प कर लो : इसलिए कहता हूँ कि न्याय - नीति और प्रामाणिकता के मार्ग पर चलते रहो । न्याय-नीति से जो कुछ मिले, जितना मिले, उसमें संतोष करो। अपनी जीवन-व्यवस्था वैसी बना लो । यदि आप न्याययुक्त धनार्जन करेंगे तो आपका जीवन कष्टपूर्ण नहीं बनेगा। आप शान्ति से सादगीपूर्ण जीवन व्यतीत कर सकेंगे। जँचती है मेरी बात ? निर्णय करोगे कि 'अब हम अन्याय से धन नहीं कमायेंगे, बेईमानी कभी नहीं करेंगे।' ऐसा कुछ निर्णय तो कर ही लो । यदि आपके मन में शंका हो कि 'लड़के नहीं मानेंगे, लड़कों की माँ नहीं मानेगी.... क्योंकि अन्याय से प्राप्त होनेवाले हजारों रूपये का लोभ वे नहीं छोड़ सकेंगे....।' तो आप उनको मेरे पास ले आयें। मैं उनको समझाऊँगा, मुझे श्रद्धा है कि वे समझेंगे और अन्यायपूर्ण व्यवसाय - व्यवहार का त्याग करेंगे। पहले आप लोगों के दिमाग में यह बात जँचनी चाहिए । आज मैं सामान्य गृहस्थ धर्म के पहले धर्म 'न्यायसंपन्न वैभव' का विवेचन पूर्ण करता हूँ। सात दिनों से इस प्रथम धर्म पर विवेचन चला रहा है, आज आठवां दिन है। आठ दिनों में इस सामान्य धर्म के अनेक पहलुओं पर विचार किया है। आप अन्याय-अनीति का त्याग करना असंभव बात नहीं समझें। आप न्याय-नीतिपूर्ण व्यवसाय - व्यवहार को अशक्य नहीं समझें। सत्त्वशील मनुष्य के लिए कोई बात अशक्य नहीं होती है । चाहिए सही दिशा में सही पुरुषार्थ । यदि आप इस दिशा में ठोस पुरुषार्थ शुरू कर दें तो आपको सफलता मिलेगी। आज फिर से मैं कुछ बातें याद दिलाता हूँ : १. कोई भी खाद्य पदार्थ में या दवाइयों में मिलावट नहीं करें। २. वस्तु लेने-देने में गलत नाप-तौल नहीं रखें । ३. जैसा सेम्पल दिखायें, वैसा ही माल सप्लाई करें। ४. ज्यादा पैसा लेकर कम माल नहीं दें, पूरा माल दें। For Private And Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- ३२ ५. किसी की अमानत आपके पास हो, उसको हड़पना नहीं । ६. यदि ब्याज का धंधा करते हो, तो ज्यादा ब्याज नहीं लें । For Private And Personal Use Only ९७ ७. किसी से रुपये वसूल करते समय क्रूर नहीं बनें। ८. स्मगलिंग तस्करी ( अवैध धंधा ) जैसे धंधे नहीं करें। ९. जुआ नहीं खेलें । यदि दृढ़ मनोबल से ये सारी बातें जीवनव्यवहार में लाने का प्रयत्न करोगे तो गृहस्थधर्म की नींव मजबूत बन जायेगी। आपका धार्मिक जीवन दूसरे मनुष्यों का आदर्श बन जायेगा। लोगों के हृदय में परमात्मा के प्रति, सद्गुरुओं के प्रति और सद्धर्म के प्रति सद्भाव पैदा होगा। धर्म की सच्ची प्रभावना इस प्रकार होती है । मात्र पेड़े या बतासे बाँटकर धर्मप्रभावना नहीं की जाती । न्यायपूर्ण व्यवहार से उपार्जित धन-सम्पत्ति आपके मन में पवित्र विचार पैदा करेगी। जहाँ-जहाँ भी आप उस धन का दान दोगे, वहाँ भी उन्नति होगी। न्याय-संपन्नता को अखंड रखते हुए, गृहस्थजीवन के दूसरे सामान्य धर्मों का पालन कर मोक्षमार्ग की आराधना करते रहो, यही मंगल कामना । आज बस, इतना ही । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रवचन- ३२ www.kobatirth.org विजातीय आकर्षण Attraction of Opposite Sex की समस्या आदि अनादि से परेशान कर रही है हर एक जीव को ! * दुन्यवो तमाम पुरुषार्थों का एक ही लक्ष्य हो जाता है कि पाँच इंद्रियों के विषयसुख प्राप्त करना ! नरकगति में जीवात्मा को मैथुन-वासना सुषुप्त रहती है, क्योंकि वहां पर मानसिक-शारीरिक वेदना हो असहनीय होती है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ● 'मैं किसी के लिए कुछ कर रहा हूँ' इस तरह के कर्तृत्व के अभिमान में कभी भी खिंच मत जाना | सबसे पहले शादी व्यवस्था भगवान ऋषभदेव के समय में अस्तित्त्व में आई है। शादी में भी एक दूसरे के सुख-दुःख में सहभागी बने रहने का आदर्श जीवंत रखना होगा। एक दूसरे के लिए परस्पर विश्वास, सहनशीलता, उदारता और गंभीरता का स्वीकार होना जरूरी है। प्रवचन : ३३ ९८ anur में महान श्रुतधर, पूज्य आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी ने स्वरचित 'धर्मबिंदु' ग्रंथ गृहस्थ जीवन का सामान्य धर्म बताया है । इसी ग्रन्थ में आगे गृहस्थ जीवन का विशेष धर्म और साधुधर्म भी बताया है। इस समय यहाँ गृहस्थ के सामान्य धर्म का विवेचन हो रहा है। For Private And Personal Use Only गृहस्थ जीवन पैसे के बिना नहीं चल सकता, इसलिए अर्थप्राप्ति का पुरुषार्थ करना अनिवार्य होता है । वह अर्थपुरुषार्थ किस प्रकार करना चाहिए, इस विषय पर विस्तार से आपको समझाया है। आज से अपन गृहस्थ जीवन के कामपुरुषार्थ पर विवेचन प्रारम्भ करेंगे। कामवासना : मनुष्य में साहजिक : मनुष्य धन इसलिए कमाता है कि वह पाँच इंद्रियों के विषयसुख प्राप्त कर सके और भोग-उपभोग कर सके । वैषयिक सुखों को भोगना ही कामपुरुषार्थ कहलाता है। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३२ कानों से प्रिय गीत-संगीत सुनना! आँखों से प्रिय रूप का दर्शन करना! नाक से प्रिय सुवास-सुगंध का आस्वाद करना! जिह्वा से प्रिय रसों का अनुभव करना! स्पर्शेन्द्रिय से प्रिय सुखदायी स्पर्श का अनुभव करना! पुरुष को स्त्री का स्पर्श-सुख और स्त्री को पुरुष का स्पर्शसुख प्रिय लगता है। पुरुष को स्त्री के प्रति और स्त्री को पुरुष के प्रति सहज आकर्षण होता है। देवलोक के देव-देवी हों, तिर्यंचगति के पशु-पक्षी हों या मनुष्यगति के स्त्री-पुरुष हों, विजातीय का आकर्षण होता ही है। क्योंकि संसार के सभी जीवों में 'मैथुन संज्ञा' होती ही है। किसी जीव में मैथुन संज्ञा जाग्रत होती है तो किसी जीव में सुषुप्त होती है। मैथुन संज्ञा : शास्त्रीय परिभाषा में पुरुष की मैथुन संज्ञा 'पुरुषवेद' कहलाती है, स्त्री की मैथुन संज्ञा स्त्रीवेद' कहलाती है और नपुंसक की मैथुन संज्ञा 'नपुंसकवेद' कहलाती है। ये पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद मोहनीय-कर्म के ही प्रकार हैं। सभी संसारी जीव 'मोहनीय-कर्म' के प्रभाव से प्रभावित हैं। जो जीवात्मा आत्मज्ञानी बनता है और मोहनीय-कर्म के प्रभावों से प्रभावित नहीं होता है, अर्थात् तप, त्याग, ज्ञान, ध्यान और संयम से आत्मनिग्रह करता है, वह मैथुन संज्ञा से पराभूत नहीं बनता है। ___ नरक गति में जीवों को इतनी प्रबल शारीरिक और मानसिक वेदनाएँ होती हैं कि वहाँ उनकी मैथुन संज्ञा जाग्रत ही नहीं हो पाती है। यों भी, मनुष्य के जीवन में भी घोर वेदनाएँ और भयानक व्याधियाँ उभरती हैं तब मैथुन संज्ञा जाग्रत नहीं होती है, यानी जातीय वृत्तियाँ सुषुप्त रह जाती हैं। देवगति में देव और देवियों में मैथुन संज्ञा जाग्रत होती है और वहाँ तो जन्म होते ही देव-देवियों का संबंध शुरू हो जाता है। जिन-जिन देवलोकों में देवियां नहीं होती हैं वहाँ देवों की मैथुन संज्ञा सुषुप्त होती है और उनमें देवियों के प्रति आकर्षण ही पैदा नहीं होता है। उच्चतम देवलोकों में देवों की आत्मस्थिति निर्विकार होती है। परन्तु जिन-जिन देवलोकों में देवियाँ होती हैं वहाँ देव-देवी के शारीरिक संबंध होते ही हैं, वे लोग ब्रह्मचारी नहीं बन For Private And Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०० प्रवचन-३३ सकते। ब्रह्मचर्य को अच्छा मानने पर भी वे ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकते। मैथुन संज्ञा पर विजय पाना उनके लिए अशक्य होता है। ___ जो देव-देवी सम्यकदृष्टि होते हैं, वे समझते हैं कि अब्रह्म का सेवन पाप है, ब्रह्मचर्य का पालन धर्म है, फिर भी वे अब्रह्म का त्याग नहीं कर सकते और ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकते! उन पर मैथुन संज्ञा का उतना प्रबल असर होता है। तिर्यंचयोनि में यानी पशु-पक्षी की योनि में भी मैथुन संज्ञा का व्यापक असर होता है। जिन पशु-पक्षी और कीड़ों में मन नहीं होता है, जो जीव पंचेन्द्रिय नहीं होते हैं उन जीवों में मैथुन संज्ञा जाग्रत नहीं होती है, सुषुप्त होती है। परन्तु जो तिर्यंच पंचेन्द्रिय हैं और मनवाले हैं उनमें यह संज्ञा जाग्रत होती है। ये जीव भी अविकारी बनने का पुरुषार्थ नहीं कर सकते हैं, संज्ञानिग्रह नहीं कर सकते हैं। हाँ, शारीरिक वेदना से ग्रस्त होने पर उनकी जातीय वासना शान्त हो जाती हैं। सशक्त और निरोगी शरीर में जातीय वासना की उत्तेजना विशेष रूप में होती है, इसलिए मुमुक्षु आत्मा जो अविकारी बनना चाहता है उसके लिए तप और त्याग का मार्ग बताया गया है। तप-त्याग से शरीर दुर्बल और अशक्त बनता है, ऐसे शरीर में मैथुन संज्ञा की उत्तेजनाएँ कम होती हैं। मन की वासना ज्ञान-ध्यान से शान्त हो जाती है। परन्तु ये तप-त्याग और ज्ञान-ध्यान नरक में और तिर्यंचयोनि में संभव नहीं हैं! यह साधना तो मात्र मनुष्यजीवन में ही हो सकती है। मनुष्य को तीन वेदों में से किसी भी वेद का उदय हो सकता है। किसी को पुरुषवेद का उदय, किसी को स्त्रीवेद का उदय, किसी को नपुंसकवेद का उदय! जब पुरुषवेद का उदय होता है तब स्त्रीस्पर्श की इच्छा होती है और जिसको नपुंसकवेद का उदय होता है उसको स्त्रीस्पर्श और पुरुषस्पर्श-दोनों की इच्छा होती है। मोहनीय-कर्म को नष्ट करने का लक्ष्य चाहिए : ___ मैंने आपको पहले ही बता दिया कि ये तीनों वेद मोहनीय-कर्म के प्रकार हैं। मनुष्य मोहनीय-कर्म का नाश कर सकता है! यदि करना हो तो! एक बात अच्छी तरह से ध्यान में रखना कि मोहनीय-कर्म का नाश किये बिना, उपशम किये बिना चित्तशान्ति, आत्मशुद्धि, मन की स्थिरता प्राप्त होनेवाली नहीं है। For Private And Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३३ १०१ यदि आप चाहते हो चित्तशान्ति, आत्मशुद्धि और मनःस्थिरता, तो मोहनीयकर्म का क्षय-उपशम करने का प्रयत्न करना ही पड़ेगा। आपकी धर्मआराधना का लक्ष्य मोहनीय-कर्म का नाश ही होना चाहिए। मोहनीय का मायाजाल : आठों कर्मों में यह मोहनीय-कर्म ही अति प्रबल है। जीवात्मा पर पूरा छा गया है! जीव रागी बनता है, द्वेषी बनता है, क्रोध करता है, अभिमान करता है, माया-कपट करता है, लोभ करता है, हँसता है, शोक-आक्रन्द करता है, खुश होता है, नाखुश होता है, भयभीत होता है, किसकी वजह से यह सब होता है? कौन नचाता है? मोहनीय-कर्म! यह सब आपको पसन्द है। राग-द्वेष वगैरह करने में मज़ा आता है? क्षण में हँसना, क्षण में रोना! क्षण में खुश होना, क्षण में नाखुश होना! क्षण में प्रेम करना, क्षण में घृणा करना, यह एक नाटक नहीं लगता है? लज्जास्पद नाटक है यह। एक सामान्य जड़ पदार्थ अनन्त शक्तिवाले आत्मा को नचाता है, यह क्या लज्जास्पद नहीं है? 'मैं चैतन्यस्वरूप अनन्त शक्ति-सम्पन्न आत्मा हूँ और मुझे जड़ पदार्थ नचाये? मैं वीतराग स्वरूप हूँ और राग-द्वेष मुझे नचाये?' आता है ऐसा विचार? कैसे आयें ऐसे विचार? नाचने में मजा लूट रहे हो न? नाचते रहो! अनन्तकाल से संसार में नाचते आये हो। भिन्न-भिन्न रूप और भिन्न-भिन्न वेश धारण कर जीव नाचते रहे हैं, नचानेवाला है मोहनीय-कर्म! नाचनेवाले हैं मोहमूढ़ जीव! एक कहानी रामलीला की : ___ एक छोटे गाँव में रामलीला करनेवाली एक मंडली आयी। गाँव में लोगों को मालूम हो गया कि आज रात को रामलीला होनेवाली है। रामलीला करनेवाले के पास दूसरा तो सब सामान था परन्तु राजा को पहनने का कोट नहीं था! कोट होना अनिवार्य था, कोट के बिना राजा का अभिनय नहीं हो सकता था। तुरंत ही वह नट-अभिनय करनेवाला गाँव के दरजी के पास गया। गाँव में एक ही दरजी था और शादी का मौसम था! दरजी के पास ढेर सारा काम था। नट ने जाकर नम्रता से दरजी को कहा : 'भाई, आज रात को मुझे नाटक करना है और मैं कोट भूल आया हूँ, तो मुझे राजा पहनता है वैसा कोट शाम तक तैयार करके दो, तुम जितना रूपया लेना चाहो ले लेना।' दरजी ने कहा : 'मुझे इन दिनों में मरने की भी फुरसत नहीं है.... इतना सारा काम पड़ा है, दिखता नहीं है? मैं कोट नहीं बना सकता।' दरजी ने For Private And Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३३ १०२ आँख उठाकर उस नट के सामने देखा तक नहीं, वह अपना काम करता रहा। नट ने फिर से दरजी को बड़ी नम्रता से कहा : 'मेरे भैया, इस गाँव में दूसरा दरजी नहीं है.... दूसरे गाँव जाने में समय लगता है और शाम तक कोट तैयार नहीं हो सकता है, इसलिए कृपा करके इतना काम कर दो।' दरजी ने झुंझलाकर कहा : 'एक बार मैंने मना कर दिया न? मैं कोट नहीं बना सकता, मेरा सर मत खपाओ!' नट को दरजी की बात बहुत अखरी। उसने भी तैश में आकर कहा : 'देखो, तुम दरजी हो तो मैं भी नाटक करनेवाला हूँ.... मेरा अपमान करके सार नहीं निकालोगे| एक बार और प्रार्थना करता हूँ कि मेरा कोट सी दो।' दरजी गुस्से में आ गया, खड़ा हो गया और जोर-जोर से बोलने लगा : 'चला जा यहाँ से, तू नट है तो तेरे घर का, मैं तेरा कोट नहीं सीऊँगा, नहीं सीऊँगा.... तेरे से हो सो कर लेना.... क्या तू मुझे गाँव से निकाल देगा?' 'हाँ हाँ! मैं नट हूँ, मैं चाहूँ तो गाँव से भी निकाल दूँ!' नट ने भी गुस्से में आकर कह दिया। 'निकाल देना, तेरे से मैं डरता नहीं हूँ, चला जा यहाँ से....।' नट तो चला गया अपनी धर्मशाला में। दरजी कुछ समय बड़बड़ करता रहा। गाँव में एक ही दरजी था, सारे गाँव के कपड़े यही दरजी सीता था। वह अपनी महत्ता जानता था। लोगों की गरज को जानता था, इसलिए वह निर्भय था। 'मेरे बिना गाँव को चल ही नहीं सकता! गाँव को मेरी गरज है, मुझे गाँव की गरज नहीं है।' ऐसे विचारवाले लोग कभी न कभी ठोकर खाते हैं, कभी दुःखी होते हैं। संसार में सभी क्षेत्रों में ऐसा दिखाई देता है! अज्ञानी, मूर्ख और मूढ़ जीवों की ऐसी ही दशा होती है। घर में एक ही व्यक्ति कमाता है, यदि वह समझदार नहीं है तो क्या मानता है, जानते हो न? क्या बोलता है घरवालों के सामने? 'मैं कमाता हूँ तो घर चलता है, यह सारी सुख-सुविधा मैं हूँ तो मिलती है....तुम्हारे लिए इतनाइतना करता हूँ फिर भी तुम्हें मेरी कोई कद्र ही नहीं है...।' सभा में से : ऐसा तो हम लोग भी बोलते हैं! महाराजश्री : क्योंकि आपने मान लिया है कि आपके बिना सभी घरवाले भूखे मरेंगे! आपके बिना वे लोग बेघर बन जायेंगे! यह आपका मिथ्या अभिमान है। यह आपकी घोर अज्ञानता है। आप नहीं जानते कि सभी जीव अपन अपने For Private And Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३३ १०३ कर्म लेकर जनमते हैं? सब के अपने-अपने पुण्यकर्म और पापकर्म हैं। आप भूल जायें कि आप ही सब के सुखदाता हैं! आप भूल जायें कि आप ही सब का सहारा हो! मान लो कि कल आप परलोक के यात्री बन गये तो क्या परिवार पर आसमान गिर जायेगा? आपके पीछे सारा परिवार जलसमाधि ले लेगा? दरजी मानता है कि 'यदि मैं चला जाऊँ इस गाँव से तो गाँव के सभी लोग नंगे हो जायेंगे! उनको कौन कपड़े सी कर देगा?' है न घोर अज्ञानता? वह गाँव से चला जायेगा तो दुनिया में दूसरा दरजी नहीं मिलेगा क्या? वह नट अपने स्थान पर पहुँचा और उसने अपने साथियों से कहा : 'आज रात को अपन रामलीला नहीं करेंगे परन्तु दरजीलीला करेंगे!' उसने दरजी के घर को, उसकी पत्नी को, उसके बच्चों को - सबको देख लिया था...। पास वाले गाँव में जाकर दरजी की कैंची वगैरह सामान ले आया। रात को रामलीला देखने सारा गाँव इकट्ठा हो गया। वह दरजी भी अपने परिवार के साथ रामलीला देखने आ गया था। स्टेज का परदा उठा और मंगलाचरण शुरू हुआ। मंगलाचरण पूरा होते ही दरजीलीला का प्रारंभ हो गया । एक तरफ से दरजी स्टेज पर आया और दूसरी तरफ से दरजी की पत्नी आयी। संवाद शुरू हो गया। लोगों को तो मज़ा आ गया! गाँव के दरजी जैसा ही अभिनय हो रहा था । दरजी की पत्नी का अभिनय भी वैसा ही बढ़िया हो रहा था! लोग तो पेट पकड़कर हँसने लगे! कुछ लोग तो गाँव का दरजी जहाँ बैठा था उसकी ओर देखकर हँसने लगे! दरजी की पत्नी दरजी के पास ही बैठी थी, उसने दरजी से कहा : 'क्या देखते हो? अपनी लीला हो रही है.... लोग अपनी ओर देखकर हँस रहे हैं। चलो उठो, अपन को नहीं रहना है इस गाँव में...।' __ दरजी अपनी पत्नी के साथ उठकर घर पर आ गया। बैलगाड़ी में सामान भरने लगा और गाँव छोड़कर जाने की तैयारी करने लगा। लोगों को बात मालूम हो गई। लोगों में आपस में कानाफुसी शुरू हो गई.... उधर उस नट को खयाल आ गया कि कुछ बात जरूर बनी है। उसने गाँव के मुखिया को पूछा : 'क्यों भाई, नाटक देखने आये हो या बातें करने?' । ___ मुखिया ने कहा : 'तुमने यह दरजीलीला का खेल किया और हमारा दरजी रूठ गया... गाँव छोड़कर जा रहा है।' For Private And Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३३ ___ १०४ 'तो जाने दो उसको! हम लोग तो कोई भी नाटक कर सकते हैं।' 'लेकिन अभी वह चला जायेगा तो हमारा काम बिगड़ जायेगा। गाँव में पाँच-पचीस शादियाँ हैं, सारे कपड़े उसको सीने के लिये दिये हैं।' 'तो क्या करना है आपको? दरजी को वापस लाना है?' 'हाँ, वापस लाना ही होगा, हम लोग जाकर उसको मनाते हैं।' गाँव का मुखिया ४-५ दूसरे लोगों को लेकर दरजी के घर पर पहुँचा। दरजी और उसकी पत्नी तो बैलगाड़ी में बैठ गये थे और चलने की तैयारी थी.... ____ मुखिया ने दरजी से कहा : 'भाई, ऐसे तुम्हें गुस्सा नहीं करना चाहिए | तुम मत जाओ, तुम्हारे जाने से हमारा काम बिगड़ जायेगा।' 'नहीं, मैं तो जाऊँगा ही! तुम लोग मेरा नाटक देखो और हँसते रहो! मुझे अब इस गाँव में नहीं रहना है।' मुखिया ने बहुत समझाया परन्तु दरजी नहीं माना और उसने अपनी गाड़ी चला दी। मुखिया वगैरह नट के पास पहुंचे और कहा : 'वह तो जा रहा है, हमने बहुत समझाया परन्तु माना नहीं।' नट ने कहा : 'आप लोग कहें तो मैं जा कर वापस ला सकता हूँ! मुझे बताओ कि वह गाँव के किस दरवाजे से निकलेगा?' गाँव के लोगों ने रास्ता बताया, दरवाजा बताया । नट तुरंत ही निकल पड़ा और उस दरवाजे के पास आकर खड़ा रहा। थोड़ी देर में दरजी की बैलगाड़ी वहाँ आ गई। दरवाजे में ज्यों ही बैलगाड़ी आई। नट सामने आकर खड़ा रह गया। दरजी ने पूछा : 'कौन है? रास्ते से हट जाओ।' __ नट ने कहा : 'यह तो मैं हूँ....तुम्हारा नाटक करनेवाला! मैंने सुबह ही कहा था न कि मैं तुझे गाँव से निकाल दूंगा! निकाला न?' गाड़ी के पास जाकर नट ने चुटकी लेते हुए कहा । दरजी गुस्से में आ गया और बोला : 'तू कौन होता है मुझे गाँव में से निकालनेवाला?' अपनी पत्नी को कहा : 'चलो वापस, नहीं जाना है अपन को दूसरे गाँव, यह कौन होता है अपन को निकालनेवाला? चलो घर, वापस चलें।' दरजी ने बैलगाड़ी को वापस लिया और शीघ्रता से घर की ओर चला। नट जोर-जोर से हँसने लगा। ऐसा ही है मोहनीय-कर्म : नट ने दरजी को कैसा नचाया? कैसा मूर्ख बनाया? वैसे मोहनीय-कर्म For Private And Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३३ १०५ जीवात्मा को नचाता है। कभी हँसता है तो कभी रुलाता है! कभी क्रोधी बनाता है तो कभी दीन-हीन बनाता है! जातीय वासना से उत्तेजित भी यही मोहनीयकर्म करता है। समझ लो इस कर्म और उसके व्यापक प्रभावों को। यदि मोहनीय-कर्म के प्रभावों को रोकने का प्रयत्न नहीं किया तो आत्मा की दुर्दशा हो जायेगी। यदि यह प्रयत्न नहीं किया तो अनन्त पापकर्मों से आत्मा बँध जायेगी और दुर्गति में चली जायेगी। मानवजीवन में आप मोहनीय-कर्म का नाश कर सकते हो, उसके प्रभावों को रोक सकते हो। ___ अब्रह्म का सेवन, मैथुन की क्रिया मोहनीय-कर्म-प्रेरित होती है | यदि आप अब्रह्मसेवन करना नहीं चाहते हैं तो आप ब्रह्मचर्य का पालन करें। यदि आप अपनी जातीय वासनाओं पर संपूर्ण संयम रखने में समर्थ नहीं हैं, संपूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करने में समर्थ नहीं हैं तो आपको किसी योग्य व्यक्ति से शादी कर लेनी चाहिए। शादी से संबद्ध व्यक्ति से ही आप अपनी स्पर्श-वासना को शांत कर सकते हैं। युगलिकों का समय : __ भारत में शादी की प्रथा इस हेतु से शुरू हुई है। अपनी जैन-परम्परा के अनुसार भगवान ऋषभदेव से शादी की परम्परा शुरू हुई है। उसके पहले युगलिक मनुष्यों की सृष्टि थी। युगल यानी जोड़ा। लड़का और लड़की का युगल जन्म लेता था, दोनों साथ में बड़े होते थे और पति-पत्नी का संबंध भी उन दोनों में होता था। हालाँकि शादी की क्रिया संपन्न नहीं होती थी, स्वाभाविक रूप से ही उन दोनों का जातीय संबंध हो जाता था। युगलिक स्त्री-पुरुष बड़े प्रामाणिक, संतोषी और प्रशान्त होते थे। कभी भी पुरुष परस्त्री का अभिलाषी नहीं बनता था, कभी स्त्री पर-पुरुष का संग नहीं करती थी। हर युगलिक एक जोड़े को जन्म दे देता था और उनका आपस में सम्बन्ध हो जाता था। स्त्री और धन के नाम कोई लड़ाई नहीं थी, कोई झगड़ा नहीं था। इसलिए उस काल में राज्यव्यवस्था नहीं थी, न्यायालय नहीं थे। सभी मानव प्रकृति के नियमों का अनुसरण करते थे। वही उनका धर्म था। वे लोग किसी भी जीव की हिंसा नहीं करते थे, कभी असत्य नहीं बोलते थे, कभी चोरी नहीं करते थे, कभी व्यभिचारी नहीं बनते थे और परिग्रह भी नहीं रखते थे। है न यह महान धर्म? इसके प्रभाव से सभी युगलिक मनुष्य मरकर स्वर्ग में जाते थे। कोई भी युगलिक नरकगति, तिर्यंचगति और मनुष्य गति में नहीं जाता था। उस काल में मनुष्य ही नहीं पशु भी प्रशान्त होते थे। For Private And Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०६ प्रवचन-३३ जब भगवान ऋषभदेव हुए उस समय एक दुर्घटना हुई। एक युगल में से पुरुष मर गया, स्त्री जिंदा रह गई। लोगों ने सोचा कि 'इस स्त्री का क्या किया जाय?' वे उस लड़की को लेकर भगवान ऋषभदेव के पिताजी नाभिकुलकर के पास गये। नाभिकुलकर को बात बतायी। उन्होंने कहा कि उस लड़की की शादी ऋषभ से कर दी जाय | और लड़की की शादी ऋषभकुमार से कर दी गई! इस प्रकार इस भारत में सर्व प्रथम शादी रचायी गई और पुरुष को दो पत्नी भी प्रथम बार ही हुई। भगवान ऋषभदेव की दो पत्नियाँ थीं - सुनन्दा और सुमंगला | युगलिक पुरुषों को एक ही पत्नी होती थी। शादी क्यों? : एक बात मत भूलना कि मानवजीवन धर्मपुरुषार्थ के द्वारा मोक्ष प्राप्त करने के लिए है। इस धर्मपुरुषार्थ में कषायों की उपशान्ति और जातीय वासनाओं की उपशान्ति अत्यन्त आवश्यक मानी गई है। यदि आप अपनी मैथुन की वासना पर पूर्ण संयम नहीं रख पाते हैं तो ही आपको शादी का, विवाह का मार्ग लेने का है। विवाह से संबद्ध व्यक्ति के साथ विवेक से आप अपनी वासना की आग शान्त कर सकते हो और चित्त-वृत्तियों को स्थिर रख सकते हो। विवाहित स्त्री के अलावा दूसरी किसी भी स्त्री के प्रति रागदृष्टि से देखने का भी नहीं। विवाहित पुरुष के अलावा दूसरे किसी भी पुरुष के प्रति मोहदृष्टि से देखने का भी नहीं। क्योंकि आपको करना है धर्मपुरुषार्थ! उद्दीप्त वासना आपको धर्मध्यान में और धर्मक्रिया में स्थिर नहीं बनने देती है; अस्थिरता, चंचलता पैदा करती है; इसलिए उस वासना को शान्त करना आवश्यक होता है। तप-त्याग से और ज्ञान-ध्यान से उस मैथुन की वासना को आप शान्त नहीं कर पाते हैं तो भोग-संभोग से भी उस वासना को शान्त-उपशान्त करके आपको धर्मपुरुषार्थ में तल्लीन बनना है। उदीप्त वासनाएँ धर्मपुरुषार्थ में बाधक : कोई भी इन्द्रिय, जब तक अपने विषयों के प्रति आकर्षित है, जब तक मनोवृत्तियाँ वैषयिक सुखों में रमती हैं तब तक धर्मपुरुषार्थ नहीं हो सकता है। इसमें भी क्षुधा और भोगेच्छा-ये दो जब उद्दीप्त होते हैं तब तो तन-मन धर्मआराधना में संलग्न हो ही नहीं सकते। अत्यन्त क्षुधातुर मनुष्य, यदि वह महामुनि या महात्मा नहीं है तो भक्ष्य-अभक्ष्य का विवेक नहीं कर सकता। वैसे अत्यन्त कामातुर मनुष्य गम्य-अगम्य का विवेक नहीं कर सकता। अत्यन्त For Private And Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- ३३ १०७ क्षुधातुर और अत्यन्त कामातुर मनुष्य में विवेक टिक ही नहीं सकता । उसको तो अपना विषय चाहिए ! उस विषय का भोग - उपभोग चाहिए ! विषय कैसा भी हो! भक्ष्य हो या अभक्ष्य, गम्य हो या अगम्य ! जीवात्मा की मनोवृत्तियों को देखकर, जानकर पूर्णज्ञानी महापुरुषों ने धर्मपुरुषार्थ का मार्ग बताया है। जिस प्रकार ब्रह्मचर्य का मार्ग बताया उस प्रकार शादी का भी मार्ग बताया । गृहस्थधर्म बताया। यदि आप सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करने में समर्थ नहीं हो तो आप शादी कर, उसी व्यक्ति से आपकी कामेच्छा को शान्त करो, स्वपत्नी में ही संतोष करो । जो तुम्हारी पत्नी नहीं है, जो तुम्हारा पति नहीं है, उसकी कभी इच्छा भी मत करो । यह है गृहस्थधर्म | शादी-विवाह किससे करना, कैसे करना, ये बातें बतानी हैं; परन्तु इसके पहले एक और बात बता दूँ : कामेच्छा .... भोगेच्छा होना स्वाभाविक है परन्तु उस इच्छा को प्रबल मत होने देना । यदि प्रबल भोगेच्छा हो तो उसको 'नोर्मल' बनाने का प्रयत्न करना । इच्छा 'नोर्मल' हो सकती है। यदि भोगेच्छा प्रबल बनी रही तो संभव है कि आप व्यभिचार के मार्ग पर चले जाओगे । परस्त्रीगामी बन जाओगे, वेश्यागामी बन जाओगे। यदि इस गलत रास्ते पर चले गये तो जीवन बरबाद हो जायेगा। जीवन में से धर्म तो चला जायेगा, नैतिकता भी नष्ट हो जायेगी । परस्त्रीगामी और वेश्यगामी पुरुष कभी भी किसी धर्मआराधना में स्थिर नहीं बन सकता । मानो कि वह मन्दिर में भी जायेगा, तो भी वहाँ पर वह स्थिरता नहीं पायेगा, उसका मन चंचल ही बना रहेगा। वह उपाश्रय में प्रवचन सुनने आयेगा तो भी उसका मन तो वेश्याओं में ही भटकता रहेगा । यदि आप अच्छा गृहस्थजीवन जीना चाहते हो, प्रतिष्ठित सामाजिक जीवन चाहते हो, सुखी पारिवारिक जीवन चाहते हो तो आपको तीव्र भोगेच्छा को शान्त करना ही पड़ेगा । भोगेच्छा में से तीव्रता दूर करनी पड़ेगी। सभा में से : भोगेच्छा तीव्र नहीं हो, परन्तु घर की स्त्री भी पुरुष को यदि सन्तोष नहीं देती है तो पुरुष परस्त्रीगामी अथवा वेश्यागामी बन जाते हैं, ऐसे उदाहरण देखने में आते हैं। महाराजश्री : सम्भव है, आपकी बात संभवित है, इसलिए तो ज्ञानी पुरुषों ने, कैसी स्त्री के साथ शादी करनी चाहिए, इस विषय में स्पष्ट और सुचारू मार्गदर्शन दिया है। आप लोगों ने वह मार्गदर्शन लेकर शादी की है न? सभा में से : ऐसा मार्गदर्शन हमको किसी ने आज तक नहीं दिया है। For Private And Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३३ १०८ ___ महाराजश्री : लेकिन ऐसा मार्गदर्शन मिले तो उसी मार्गदर्शन के अनुसार लड़के-लड़कियों की शादी करोगे न? सभा में से : लड़के-लड़कियों की शादी अब हमको नहीं करनी पड़ती है, वे लोग स्वयं कर लेते हैं। महाराजश्री : तो फिर मार्गदर्शन उन लोगों के काम आयेगा। यदि उनको आपस के संघर्षों से बचना है तो। आजकल लड़के-लड़कियाँ जो स्वयं पसन्दगी कर शादी कर लेते हैं, उनमें से नब्बे प्रतिशत शादियाँ निष्फल जा रही हैं, क्योंकि उनको पसन्दगी करना ही नहीं आता है। शादी कोई पैसे कमाने का तरीका थोड़े ही है! यह गलत परम्परा जो शुरू हुई है उसमें निमित्त तो आप लोग ही बने हो। आप लोगों ने अपनी लड़की की शादी मात्र धन-संपत्ति के माध्यम से करना शुरू कर दिया । कन्याविक्रय और वरविक्रय क्या है? किसी प्रदेश में कन्याविक्रय होता है तो किसी प्रदेश में वरविक्रय होता है। यह 'विक्रय' क्या है? भयानक विकृति! मात्र रूपये के माध्यम से कन्या बेची जाती है, लड़का बेचा जाता है। इस प्रकार की शादियाँ कैसे सफल हो सकती हैं? शादी के बाद जब पति और पत्नी के बीच तनाव पैदा हो जाता है, मनमुटाव हो जाता है, झगड़ा होने लगता है, मारपीट शुरू हो जाती है; तब दोनों के जीवन में घोर अभाव, घोर अशान्ति पैदा हो जाती है। एक-दूसरे से असन्तुष्ट वे लोग गलत रास्ते पर चले जाते हैं। शादी कोई पैसा कमाने का व्यापार नहीं है। शादी मात्र मनोरंजन और जातीय सुख का ही मार्ग नहीं है, शादी जिस स्त्री-पुरुष के बीच होती है उन दोनों के जीवन सदाचारी बने रहने चाहिए। दोनों का धर्मपुरुषार्थ सुचारू रूप से होना चाहिए। उनकी संतति भी संस्कारी और सद्गुणोंवाली होनी चाहिए। रूप और रुपयों की रामायण है : ___ पति-पत्नी के बीच जहाँ-जहाँ भी वैर-विरोध और विद्वेष पैदा होता है वहाँ वे दोनों गलत मार्ग पर चले जाते हैं। शायद ही कोई स्त्री या पुरुष ऐसे व्यभिचार से बचता होगा। इसलिए, स्त्री-पुरुष का आपस में अच्छा स्नेहसद्भाव होना चाहिए। यह स्नेह-सद्भाव स्वार्थमूलक नहीं होना चाहिए। एकदूसरे के सुख-दुःख में सहभागी बनने का आदर्श होना चाहिए | एक-दूसरे के प्रति सहनशील, उदार और गंभीर बने रहना चाहिए | For Private And Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३३ ___१०९ __ आजकल जो लड़के और लड़कियाँ स्वयं पसन्दगी कर शादी कर लेते हैं वहाँ रुपये से भी ज्यादा रूप का माध्यम रहता है। पुराने लोग रूपये को माध्यम बनाते थे, वर्तमान समाज ने रूप को पसन्दगी का माध्यम बनाया है। इनमें भी दो विभाग हैं। लड़के विशेष कर रूपवती लड़की पसन्द करते हैं तो लड़कियाँ विशेष कर श्रीमन्त लड़के पसन्द करती हैं। ये दोनों माध्यम, पसन्दगी के विषय में अपूर्ण हैं। रूप और रुपये ही सुखी जीवन के आधार नहीं हैं। रूप और रुपये से स्नेह, प्रेम और सद्भाव प्राप्त नहीं होता है। स्नेह, प्रेम और पारस्परिक सद्भाव ही सुखी गृहस्थ जीवन के आधारस्तंभ हैं | रूप देखकर शादी की, शादी के बाद उस स्त्री का ऐसा दर्द हुआ कि उसका रूप चला गया। फिर क्या होगा? उसको पति का प्यार मिलेगा क्या? नहीं, पति को तो रूप का मोह था, पत्नी में अब रूप नहीं रहा। बस, पत्नी घर में मजदूरी करती रहेगी और पति दूसरी रूपवतियों के पीछे भटकता फिरेगा। वैसे स्त्री ने रुपये देखकर पति पसन्द किया, शादी के पश्चात् पति को व्यापार में नुकसान हुआ, रुपये चले गये, बंगला बेच देना पड़ा, कार भी चली गई.... अब क्या उस पत्नी को अपने पति में रस रहेगा? नहीं, दूसरा जो कोई पुरुष उसको मौज-मजा कराता होगा, सिनेमा दिखाने ले जाता होगा, 'मार्केटिंग' करने रुपये देता होगा.... उस पुरुष की रखैल बन जायेगी। आजकल सभ्य समाज जो कहलाता है, उस समाज में ऐसी प्रच्छन्न वेश्याओं की संख्या बढ़ रही है। वैसे आवारा युवानों की संख्या भी बढ़ रही है। ___ आजकल मनुष्य का व्यक्तिगत जीवन, पारिवारिक जीवन, सामाजिक जीवन और राष्ट्रीय जीवन कितना गिरता जा रहा है? कितना अशान्त बनता जा रहा है? कितना हिंसामय, क्लेशमय और पापमय बन गया है? क्योंकि शादी के आदर्श ही टूट गये हैं | स्त्री-पुरुष के संबंध अत्यन्त निम्नस्तर के बने हैं। धर्मपुरुषार्थ और मोक्षदृष्टि जीवन से बहिष्कृत हो गये हैं। ग्रन्थकार आचार्यदेव गृहस्थधर्म का विवेचन करते हुए दूसरा धर्म बता रहे हैं विवाह के औचित्य का | औचित्य का विचार आगे करेंगे.... आज बस, इतना ही। For Private And Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३४ ११० '. स्त्री-पुरुषों के बीच के संबंध धर्म-आराधना में क्षति पहुँचानेवाले नहीं होने चाहिए! आराधना-उपासना के रास्ते पर परस्पर सभा एक-दूसरे के पूरक-सहायक बनकर उन्हें जीना चाहिए। 'मिस्टर' और 'मिसिस' दोनों यदि 'क्वालिफाइड' - डिग्रीधारी होंगे, दोनों के दिमाग यदि तेज तर्रार होंगे तो उनका जीवन अशांति, क्लेश और संताप का शिकार बन जाएगा। आजकल तो मजदूर से लेकर 'मिनिस्टर' तक में शराब की बुराई फैली हुई है....मांसाहार और अंडा-आहार भी आजकल तंदुरुस्ती एवं ताकत के नाम पर किये जाने लगे हैं! . समाज में आजकल पढ़े-लिखे बेवकूफों का और श्रीमंताई के नशे में चूर हुए गरीबों का बोलबाला हो रहा है! न जाने यह सब समाज को कहाँ पर ले जाकर पटकेगा? प्रवचन : ३४ महान श्रुतधर, पूज्य आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी 'धर्मबिंदु' ग्रन्थ के माध्यम से गृहस्थ जीवन के सामान्य धर्म का विवेचन कर रहे हैं। शादी-विवाह की क्रिया गृहस्थ जीवन की एक प्रमुख क्रिया मानी गई है। असंख्य वर्षों से स्त्रीपुरुष के विवाह की परम्परा चली आ रही है। कैसे-कैसे स्त्री-पुरुष के बीच विवाह-संबंध होना चाहिए, ये सारी बातें आचार्यश्री ने स्पष्ट की हैं। स्त्री-पुरुष का संबंध ऐसा नहीं होना चाहिए कि उनकी धर्मआराधना में क्षति पहुँचे। उनकी मोक्षयात्रा में विक्षेप पैदा हो जायें। संबंध ऐसा होना चाहिए कि मोक्षयात्रा में एक दूसरे को सहायक बन सकें, एक-दूसरे के लिए प्रेरणास्त्रोत बन सकें। स्त्री-पुरुष के बीच पाँच बातों की समानता होनी चाहिए, विवाह से पूर्व इन पाँच बातों की समानता देखनी ही चाहिए। १. कुल की समानता, २. शील की समानता, ३. वैभव की समानता, For Private And Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १११ प्रवचन-३४ ४. वेष की समानता, ५. भाषा की समानता। कुल की समानता : पहली समानता देखनी चाहिए कुल की। कुल कहो या वंश कहो, उसकी समानता होनी चाहिए। जो कुल पुरुष का हो, वही कुल स्त्री का होना चाहिए। अपने देश में अनेक प्रकार के कुल, अनेक प्रकार के वंश चले आ रहे हैं। प्राचीनकाल में उग्रकुल, राजन्यकुल, क्षत्रियकुल, भोगकुल जैसे अनेक कुल अस्तित्व में थे। वैसे सूर्यवंश, चंद्रवंश जैसे वंशो का भी अस्तित्व था। आज शायद आपको खयाल नहीं होगा कि आप कौन-से कुल-वंश के हैं! राजस्थान, मध्यप्रदेश जैसे प्रदेशों में ओसवाल, पोरवाल, श्रीमाल जैसे वंश देखे जाते हैं। कोई कहता है 'हम ओसवाल वंश के हैं, कोई कहता है 'हम पोरवाल वंश के हैं'.... कोई कहता है 'हम श्रीमाल हैं!' कोई कुल-वंश उच्च गिने जाते थे, कोई कुल-वंश नीच गिने जाते थे। समाज में कुल-वंश की उच्चता-नीचता की कल्पनाएँ मान्य थी और कुल-वंश के माध्यम से व्यक्तित्व मापा जाता था। वहाँ कुल की समानता देखकर शादीविवाह करना समुचित था। आज भी जहाँ, जिस प्रदेश में कुल-वंश या वंशपरंपरागत खानदानी के माध्यम से मनुष्य की उच्चता-नीचता की कल्पना प्रचलित हों वहाँ कुल-वंश की समानता देखकर ही शादी करनी चाहिए। एक गाँव में एक वणिक परिवार का दो या तीन पीढ़ी से राजघराने के साथ संबंध था। उस परिवार के पिता....पितामह राजा के मंत्री रहे हुए थे। यह परिवार आज भी अपने को उच्च परिवार मानता है, जब कि राजा चले गये और मंत्रीपद भी चला गया! उस परिवार का लड़का कॉलेज में पढ़ता था, वहाँ किसी लड़की से परिचय हुआ, परिचय से प्रेम हुआ और शादी कर लेने का निर्णय कर लिया। लड़की भी थी वणिक परिवार की, परन्तु वह परिवार आर्थिक दृष्टि से मध्यम कक्षा का था, श्रीमंत नहीं था और उसकी वंशपरंपरा में कोई पूर्वज सत्ता के सिंहासन पर बैठा हुआ नहीं था। परन्तु लड़का तो लड़की को देखता था, उसको लड़की पसन्द थी, उसने अपने माता-पिता को बात बता दी। माता-पिता ने पहले तो मना कर दिया। परन्तु लड़के का दृढ़ निर्णय देखकर सम्मति दे दी। शादी हो गई। लड़की ससुराल में आ गई। आठ-दस दिन बीते होंगे और सास के उद्गार निकलने लगे : 'देखो बहू, For Private And Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- ३४ ११२ यह तुम्हारे बाप का घर नहीं है, हमारा तो तीन पीढ़ी से राजघराने के साथ संबंध है, यहाँ तो बड़े-बड़े लोग आया करते हैं, इसलिए यहाँ ढंग से रहो.... बोलने का खयाल करो।' बस, फिर तो बात-बात में सास पुत्रवधू को यह बताती रहती है कि हमारी वंशपरंपरा उच्च है और तुम्हारे पिता की वंशपरंपरा ही है! कभी कभी ससुरजी भी अपने पिता की, पितामह की कथा इस प्रकार पुत्रवधू को बताते हैं कि पुत्रवधू के स्वमान को आघात लगे। कभी कभी उसका पति भी उसका तिरस्कार कर देता है : 'तूंने तेरे पिता के घर क्या देखा है? क्या है तेरे पिता के घर ? हमारा खानदान कहाँ, तुम्हारा कहाँ....?' उस लड़की का घर में कोई मान-सम्मान न रहा, सब लोग उसको हीन दृष्टि से देखते थे। मानसिक त्रास इतना असह्य हो गया कि एक दिन उसने अग्निस्नान कर लिया । सभा में से : आजकल तो इस प्रकार शादी करनेवाले शादी के बाद अलग ही रहने लगते हैं, सास और ससुर से अलग! महाराजश्री : सास और ससुर से अलग रहते होंगे, परन्तु पति - पत्नी तो साथ रहते हैं न? यदि पति के दिमाग पर अपने वंश का गौरव छाया हुआ होगा तो? कभी न कभी अपने कुल वंश की उच्चता के गुणगान वह करेगा ही? पत्नी के पितृपक्ष की निन्दा करेगा ही ! तब क्या होगा ? झगड़ा होगा या नहीं ? मनमुटाव होगा या नहीं ! और आज की 'क्वालिफाइड' पत्नी पति की ऐसी हरकतें सहन कर लेगी? 'क्वालिफाइड...' डिग्रीवाली पत्नियाँ ज्यादातर स्वमानी होगी ही! उनमें नम्रता और सहनशीलता आप शायद ही देखोगे । यदि पति-पत्नी दोनों अंग्रेजी डिग्रीवाले होंगे, दोनों स्वमानी होंगे, दोनों तेज-तर्रार दिमाग के होंगे तो सारा काम तमाम समझो ! एक-दूसरे का एक भी कटु शब्द, एक भी आक्षेप, एक भी कटाक्ष सहन नहीं करेंगे ! प्रेम की बातें हवा में उड़ जायेंगी! ‘डाइवर्स' लेने तैयार हो जायेंगे । जिस प्रकार पति का कुल उच्च हो और पत्नी का कुल मध्यम, तो पतिपत्नी के संबंध अच्छे नहीं रह पाते, वैसे पत्नी का कुल वंश उच्च हो और पति का नीच हो या मध्यम हो, तो भी दोनों के संबंध बिगड़ते देर नहीं होगी । मनुष्य का मन बड़ा विचित्र है । मन के विचार बड़े परिवर्तनशील हैं। बहुत प्रेम करनेवाले पति को नीचा दिखानेवाली पत्नियाँ आपने देखी हैं? मैंने प्रायः देखी तो नहीं, सुनी अवश्य हैं। अपने पितृवंश की बात-बात में बिरुदावली गाती रहती हैं। 'मेरे पिताजी के वंश में ऐसे ऐसे महापुरुष हुए, हमारी For Private And Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३४ ११३ कुलपरंपरा यानी श्रेष्ठ कुलपरंपरा...।' अपनी श्रेष्ठता के गीत स्वयं गाने जैसी मूर्खता दूसरी है क्या? परन्तु मन को ऐसी मूर्खता भी पसंद आ जाती है! कभी मन बड़ा बुद्धिमान बनता है तो कभी मूर्खता भी कर देता है। मानव-मन को जाननेवाले ज्ञानी पुरुषों ने इसलिए स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध में कुल-वंश की समानता देखने की आवश्यकता समझी। यदि आप लोग ज्ञानी पुरुषों का मार्गदर्शन लेकर जीवन जियो तो आपका जीवन अनेक अनर्थों से बच जाय। शील की समानता : ___ शादी में स्त्री-पुरुष की दूसरी समानता देखने की है शील की। 'शील' का अर्थ यहाँ एक पत्नीव्रत या एक पतिव्रत नहीं किया गया है। अपने यहाँ शील का यह अर्थ विशेष प्रचलित है। शील का अर्थ ब्रह्मचर्य भी किया जाता है। यहाँ वह अर्थ भी नहीं लिया गया है। यहाँ शील का अर्थ है मांस-भक्षण का त्याग, मद्यपान का त्याग, रात्रिभोजन का त्याग । __ पति-पत्नी के जीवन में यह समानता होना काफी आवश्यक है। दोनों के जीवन में मांस-भक्षण का, मद्यपान का और रात्रिभोजन का त्याग होना चाहिए। आर्यदेश की संस्कृति और सभ्यता के अनुसार भी ये तीन पाप नहीं होने चाहिए। फिर भी मान लो कि किसी कुल या वंश में मांसाहार होता है और आपके परिवार में मांसाहार पूर्णतया वर्ण्य है तो आपको उस परिवार के साथ शादी का संबंध नहीं बाँधना चाहिए। आपके घर में शराब वर्ण्य है तो शराब पीनेवाले परिवार के साथ शादी का संबंध नहीं करना चाहिए। वैसे आपके घर में रात्रिभोजन नहीं होता है तो रात्रिभोजन करनेवालों के साथ शादी का संबंध नहीं रचाना चाहिए। एक दुःखद घटना : ___ एक शहर में थोड़े वर्ष पूर्व ही एक करुण घटना बनी थी। एक वणिक परिवार की लड़की जो मांसाहार और मद्यपान को सर्वथा वर्ण्य मानती थी और कभी भी उसने अपने जीवन में मांसाहार किया नहीं था, मद्यपान किया हुआ नहीं था, उस लड़की ने एक सिन्धी लड़के के साथ शादी कर ली, मातापिता के विरोध को उसने नहीं माना। हालाँकि लड़की ने उस सिन्धी लड़के को शादी से पूर्व कह दिया था कि तुझे मांसाहार छोड़ना होगा। लड़के ने बात को स्वीकार भी किया था। परन्तु शादी के बाद कुछ समय बीता और लड़के ने मांसाहार करना शुरू कर दिया! लड़की को मालूम पड़ गया। उसने विरोध For Private And Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३४ ११४ किया परन्तु लड़का नहीं माना । आपस में झगड़ा होने लगा, लड़की को बहुत दुःख होने लगा। पति को उसने समझाया... परन्तु वह नहीं माना। ऊपर से उस लड़के ने पत्नी को भी मांसाहार करने का आग्रह किया। लड़की ने तो कह दिया : 'प्राण जाये तो भले जाये, मैं मांसाहार नहीं कर सकती।' वातावरण इतना तंग होता चला कि लड़की का जीना मुश्किल हो गया । एक दिन उसने अग्निस्नान करके जीवन का अन्त ला दिया। कैसा करुण अंत आया? उसने शादी से पूर्व शील की समानता नहीं देखी। उसने विश्वास कर लिया कि यह मांसाहार छोड़ देगा! परन्तु जिसकी वंश-परंपरा में मांसाहार चला आया हो, वह कैसे मांसाहार छोड़ सकता है? लाख में से कोई एक छोड़नेवाला मिल जाये तो किस्मत! वैसा ही शराब के विषय में है। यदि लड़की शराब नहीं पीती है, तो उसको शराबी के साथ शादी नहीं करनी चाहिए। भले शराबी आश्वासन दे, विश्वास दिलाये कि 'मैं तुझे शराब पीने के लिए मजबूर नहीं करूँगा अथवा मैं शराब छोड़ दूंगा....' परन्तु वह विश्वास का पालन नहीं कर पायेगा। एक दिन पत्नी को भी शराब पीने के लिए आग्रह करेगा। पत्नी मना करेगी तो वह शराबी मारपीट भी कर सकता है। पति-पत्नी के जीवन में क्लेश, संघर्ष और वैर बढ़ता रहेगा। या तो लग्नविच्छेद होगा अथवा घर से पत्नी का निष्कासन होगा या पत्नी आत्महत्या कर लेगी। शादी से पूर्व गलत आश्वासन देना, झूठा विश्वास दिलाना तो आज साधारण बात हो गई है। मांसाहार में अंडों का उपयोग तो कितना व्यापक बनता जा रहा है। सरकारी शिक्षा में अंडों का भक्षण करना उचित बताया जा रहा है। मांसाहार का जोरों से प्रचार हो रहा है। सरकार मद्यपान का निषेध कर रही है परन्तु मद्यपान इतना ही व्यापक बन रहा है। श्रीमन्त परिवारों में और मजदूर वर्ग में, कॉलेज के छात्रों में और छात्राओं में शराब पीना स्वाभाविक हो गया है। आज ऐसी सामाजिक मर्यादा तो रही ही नहीं कि जो मांसाहार करेगा और शराब-पान करेगा उसको समाज में स्थान नहीं रहेगा! समाज में तो धनवानों का और पढ़े-लिखे 'क्वालिफाइड' लोगों का स्थान बन गया है। भले वे मांसाहार करते हों और शराब भी पीते हों! समाज में उनको रोकनेवाली कोई शक्ति बची नहीं है। धर्मगुरुओं का उपदेश थोड़ा बहुत असर करता है परन्तु इस भयानक बाढ़ को रोकने में वह भी असमर्थ रहा है। परिस्थिति इतनी For Private And Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११५ प्रवचन-३४ स्फोटक बन गई है कि व्यक्ति को स्वयं अपने आपको बचा लेना ही शेष रहा है। दूसरों के सामने देखे बिना, सुज्ञ पुरुष अपनी आत्मा को इन बुराइयों से बचा ले वही उचित है। ___ आप लोगों को सावधान हो जाना चाहिए। यदि ये दो बुराइयाँ आपके परिवार में, आपके जीवन में प्रविष्ट नहीं हुई है तो आप पुण्यशाली हो। आनेवाले समय में विशेष सावधान रहें....किसी भी परिस्थिति में इन बुराइयों को जीवन में प्रवेश नहीं होने दें। शाकाहारी अंडों के नाम पर मांसाहार का प्रचार : आपके लड़के और लड़कियों को कम से कम इतना तो समझा दो कि वे मांसाहार से और मद्यपान से दूर रहें। अंडे भी नहीं खायें । शाकाहारी अंडों की बात अभी-अभी चली है। अंडा और शाकाहारी? शाक-सब्जी जैसे जमीन में पैदा होती है वैसे अंडे भी जमीन में पैदा होते होंगे? मुर्गी को घोर त्रास देकर कृत्रिम अंडे पैदा करवाकर, उन अंडों पर 'शाकाहार' का लेबल मार देने से अंडे शाकाहार नहीं बन सकते। भले उन अंडों से बच्चे पैदा नहीं होते हों, इतने मात्र से अंडे शाकाहार नहीं कहला सकते। तमाशा तो देखो! 'दूध मांसाहार है' ऐसा प्रचार करनेवाले 'अंडे का आहार शाकाहार है' वैसा प्रचार करते हैं! दूध गाय-भैंस के शरीर से निकलता है इसलिए मांसाहार!! और अंडे कहाँ से निकलते हैं? जमीन में से निकलते हैं? वृक्ष पर पैदा होते हैं? मुर्गी के पेट से निकलनेवाले अंडे शाकाहार और गायभैंस के शरीर से निकलनेवाला दूध मांसाहार!! है न बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन? है न मांसाहार के समर्थकों का भ्रामक जाल? दूध में जीवत्व नहीं होता है फिर भी उसको मांसाहार कहकर उसका त्याग करवाना और अंडे में जीवत्व होने पर भी उसको निर्जीव कहकर उसका उपयोग करवाना यह लोगों को पथभ्रष्ट करने की चाल नहीं है तो क्या है? लोगों को गुमराह करने की सुनियोजित चाल नहीं है तो क्या है? नशा बुरी बात है : आज लड़कियों की शादी करते समय बड़ी सावधानी से जाँच करना कि लड़का नशा तो नहीं करता है न? मांसाहारी तो नहीं बना है न? लड़के के माता-पिता को, संभव है कि खयाल न भी हो, लड़के के मित्रों से ही सही जानकारी मिल सकती है। मान लो कि लड़के की पसन्दगी आपको नहीं For Private And Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३४ ___ ११६ करनी है, लड़की स्वयं पसन्दगी करती है, तो लड़की को समझा देना, गंभीरता से समझा देना कि 'सोच-विचार करके उससे शादी का निर्णय करना । 'प्राइवेट' जाँच करना कि वह शराब तो नहीं पीता है न? मांसाहार तो नहीं करता है न? यदि करता है वह मद्यपान और मांसाहार, तो उसके साथ शादी मत कर, यदि कर ली शादी तो बाद में पछतायेगी। तेरा जीवन नष्ट हो जायेगा | वह तुझे सुखी नहीं करेगा, दुःखी करेगा। वह तुझे शराब पीने को कहेगा, तू शराब पियेगी क्या? वह तुझे उसके साथ अंडा खाने को कहेगा, तू खायेगी क्या?' इस प्रकार आप लड़कियों को सावधान तो कर सकते हो न? वह मानती है तो अच्छा है, नहीं मानती है तो उसकी बात वह जाने । संभवित है कि रागदशा में, विकारपरवश अवस्था में जीवात्मा सच्ची और अच्छी बात नहीं मानता है। ठीक है, मानना न मानना उसकी मर्जी, अपना कर्तव्य है सही रास्ता बताने का! शील की समानता विवाहित-जीवन में अति आवश्यक है। स्त्री-पुरुष दोनों के जीवन में मांसाहार और मद्यपान का त्याग होना चाहिए। तीसरा शील है रात्रिभोजन का त्याग। रात्रिभोजन का पाप : रात्रिभोजन भी बड़ा पाप है, यह बात जानते हो? रात्रिभोजन का निषेध मात्र जैन धर्म में ही है ऐसा नहीं, वैदिक धर्म में भी रात्रिभोजन का निषेध किया गया है। धर्मशास्त्र और धर्मगुरु भले ही निषेध करें लेकिन क्या आप लोग रात्रिभोजन का त्याग करोगे? 'रात्रिभोजन करना बड़ा पाप है, इतनी बात गंभीरता से मानोगे? किस घर में रात्रिभोजन नहीं होता है? रात्रिभोजन नहीं होता हो ऐसे घर कितने प्रतिशत मिलेंगे आपके समाज में? जैन-समाज के सभी संप्रदायों के, सभी गच्छों के सभी साधु-साध्वी रात्रिभोजन के त्यागी हैं। एक भी साधु या साध्वी रात्रिभोजन करनेवाले नहीं मिलेंगे। ऐसे जैनसमाज के गृहस्थ परिवारों में रात्रिभोजन इतना व्यापक क्यों हो गया? प्रस्तुत में तो है शील की समानता की बात, यानी स्त्री-पुरुष दोनों रात्रिभोजन के त्यागी होने चाहिए! बात बिल्कुल विपरीत है.... स्त्री-पुरुष दोनों रात्रिभोजन करते हैं! यह शील की नहीं, दुःशील की समानता हो गई! यदि लड़की रात्रिभोजन की त्यागी है तो उसकी शादी रात्रिभोजन के त्यागी For Private And Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३४ ___११७ लड़के से होनी चाहिए। वैसे, लड़का यदि रात्रिभोजन का त्यागी है तो रात्रिभोजन की त्यागी लड़की से उसकी शादी होनी चाहिए। यदि पत्नी रात्रिभोजन नहीं करती है और पति रात्रिभोजन करता है तो कभी संघर्ष हो सकता है। पति के पहले सूर्यास्त होने से पूर्व पत्नी भोजन कर लेगी, पति के लिए अलग थाली में भोजन रख लेगी। पति स्वाभाविक रूप से नहीं चाहता है कि पत्नी पहले भोजन कर ले । या तो साथ में करे अथवा बाद में करे, पति प्रायः इसी अभिप्राय का होगा। हाँ, कोई सुज्ञ और विवेकी पुरुष हो तो अलग बात है! 'मेरा तो दुर्भाग्य है कि मुझे रात्रिभोजन करना पड़ता है, मेरा व्यवसाय ही ऐसा है कि मैं सूर्यास्त के पूर्व भोजन कर ही नहीं सकता हूँ, यदि घर में सभी लोग रात्रिभोजन नहीं करें तो अच्छा ही है। ऐसी विचारधारा वाले लोग कितने मिलेंगे? एक औरत को तो ऐसे पतिदेव मिले थे, बड़े विद्वान थे! वह महिला शादी से पूर्व रात्रिभोजन नहीं करती थी। शादी के बाद जब वह रात्रिभोजन नहीं करती है, सूर्यास्त से पहले भोजन कर लिया करती है, एक दिन उसके पतिदेव ने कहा : 'कौन-सा धर्म बड़ा? पति को भोजन कराकर भोजन करना बड़ा धर्म है या रात्रिभोजन नहीं करना बड़ा धर्म है? पतिव्रता स्त्री पति के भोजन के पश्चात् ही भोजन करती है! तू यदि पतिव्रता है तो तुझे मेरे पहले भोजन नहीं करना चाहिए ।' है न बड़ा तत्त्वज्ञानी!! खुद तो रात्रिभोजन करता है, पत्नी को भी वह पाप करने का उपदेश देता है। पत्नी उसके उपदेश का पालन नहीं करती है तो कहता है : 'तेरा मेरे प्रति प्रेम नहीं है! प्रेम होता तो मुझे खिलाये बिना तू कैसे खा सकती है?' फिर भी पत्नी रात्रिभोजन नहीं करती है तो कहता है : 'मेरे लिए भोजन मत रखना, मैं बाहर भोजन कर लूँगा!' जीवन में जब ऐसा एकाध भी संघर्ष शुरू हो जाता है तब उसमें से दूसरे अनेक संघर्ष पैदा हो जाते हैं। एक मतभेद में से असंख्य मतभेद पैदा हो जाते हैं और जब मतभेद मनभेद पैदा कर देता है तब जीवन में तनाव पैदा हो जाता है। धर्मआराधना में मन नहीं लगता है। तत्त्वचिंतन नहीं हो सकता है, सत्संग और शास्त्र अध्ययन नहीं हो सकता है। इसलिए जीवनसाथी की पसन्दगी में शील की समानता का और कुल की समानता का विचार करना आवश्यक बताया है। For Private And Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रवचन- ३४ वैभव की समानता : www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११८ यदि लड़की गरीब घर की है तो उसको श्रीमंत घर का पति कभी भी पसंद नहीं करना चाहिए। वैसे, लड़का यदि गरीब घर का है तो उसको पत्नी कभी भी श्रीमंत घर की पसंद नहीं करनी चाहिए । वर-कन्या में वैभव की असमानता तो घोर अशान्ति का निमित्त बनती है । श्रीमन्ताई के साथ अहंकार और तिरस्कार प्रायः जुड़े हुए ही होते हैं । श्रीमन्त परिवार में आयी हुई गरीब घर की लड़की का किस प्रकार अपमान और तिरस्कार होता है .... वह आप लोग क्या नहीं जानते? शायद ही कोई श्रीमन्त परिवार ऐसा गंभीर और समझदार होगा कि जहाँ गरीब माँ - बाप की बेटी को मान-सम्मान और प्यार मिलता हो । मान लो कि श्रीमन्त पति की ओर से, सास और ससुर की ओर से, देवर और ननद की ओर से सम्मान मिलता है, प्यार मिलता है, परन्तु मानवमन की विचित्रता है ! वह पुत्रवधू स्वयं हीन भावना से भर गई तो ? 'मैं तो गरीब घर की लड़की हूँ...ये सब श्रीमन्त हैं, जैसे मेरे प्रति दया भाव रखते हो वैसे मुझे देखते हैं।' अपनी गरीबी का खयाल मनुष्य को उदास कर देता है। कभी भूल से भी किसी ने उसके साथ घृणापूर्ण व्यवहार कर दिया तो उसके दिल को गहरी चोट पहुँचेगी। वैसे, श्रीमन्त घर की लड़की ने गरीब घर के अथवा मध्यम कक्षा के घर के लड़के से शादी की तो भी विषमता पैदा होगी। यदि लड़की में श्रीमन्ताई का अभिमान होगा तो ससुराल में सबके साथ अभद्र व्यवहार करेगी, सबको नीचा दिखाने की प्रवृत्ति करेगी, कभी अपने पति का भी अपमान कर बैठेगी। और इस दुर्व्यवहार से वह ससुराल में अप्रिय बन जायेगी। ससुराल में उसको किसी का प्रेम नहीं मिलेगा। पति के साथ उसका आन्तरिक प्रेम-संबंध नहीं रहेगा। झगड़ा करती रहेगी, अशान्ति पैदा करेगी। सभा में से : आजकल लड़कियों की शादी का प्रश्न तो अति विकट बन गया है। आप बताते हैं वैसे लड़के कहाँ खोजने जायँ ? ठीक ठीक पढ़े-लिखे और कमाकर खानेवाले लड़के भी २५-३० हजार से कम नहीं लेते! श्रीमन्त घर की लड़की के बाप को तो लाख-लाख रुपये देने पड़ते हैं। For Private And Personal Use Only महाराजश्री : लाख रुपये देने के बाद भी क्या वह लड़का अपनी पत्नी को, आपकी लड़की को सुखी ही करेगा, वैसा विश्वास कर सकते हो ? नहीं Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३४ ११९ न? लड़की के साथ-साथ लाख रूपये देने पर भी लड़की का जीवन सलामत नहीं है! श्रीमन्त परिवार लड़की के लिए जब श्रीमन्त परिवार का लड़का नहीं मिलता है, गरीब परिवार के लड़के तब महंगे हो जाते हैं.... लाख रुपये दो तो तुम्हारी लड़की से शादी कर सकता हूँ!' 'पचास हजार दो तो शादी करूँगा....।' शादी भी हो जाती है, परन्तु इस प्रकार की शादियों में लड़की का उत्पीड़न ही होता रहता है। पति समझता हो कि पत्नी का पिता मालदार है! जब-जब चाहिए पत्नी को तंग करता है : 'जा तेरे पिता से रुपये दस हजार ले आ, पाँच हजार ले आ!' यदि पत्नी पिता से लाकर देती है तो ठीक है, यदि नहीं ला देती है तो पत्नी को परेशान करता रहता है। ___ अभी-अभी मैंने सुना है कि बम्बई में एक लड़के की श्रीमन्त परिवार की लड़की के साथ शादी हुई। लड़का पढ़ा-लिखा तो था परन्तु आवारा था। उसके पिता महीने के ५००/६०० रूपये कमाते थे। लड़का कोई काम-धन्धा नहीं करता था। ससुर ने शादी में ५० हजार रुपये का फ्लेट दिया और ५० हजार नगद दिये। शादी के बाद तीन-चार महीने तो सुख-शान्ति से व्यतीत हुए | उसके बाद पत्नी को उसके पिता के घर भेज दिया। दो महीने बीत गये परन्तु पत्नी को वह लेने नहीं गया। पत्नी स्वयं चलकर आयी तो तुरंत ही निकाल दी....पिता के घर भेज दिया। लड़की के पिता ने जब पूछा कि 'मेरी बेटी को क्यों भेज दिया? तो उसने गलत आरोप लगाये पत्नी पर, और कह दिया कि अब कभी भी मैं उसको अपने घर में नहीं रखूगा.... आप चाहें तो दूसरे किसी के साथ उसकी शादी कर दो!' लड़की के पिता ने कहा : 'तो यह फ्लेट खाली कर दो और ५० हजार रुपये वापस कर दो।' लड़के ने निर्लज्ज होकर कह दिया : 'यदि यहाँ आकर अब कभी भी फ्लेट की या रुपये की बात की है तो यह देख लेना।' कहकर कमर से बड़ा चाकू निकाला! बेचारा वह सद्गृहस्थ-लड़की का पिता तो स्तब्ध रह गया, कुछ बोला नहीं.... चुपचाप अपने घर लौट आया। ___ परिस्थिति तो काफी स्फोटक बन गई है । पाँचों प्रकार की समानतावाला शादी-संबंध काफी दुर्लभ है । अनन्त पुण्य का उदय हो तब ही ऐसा संबंध हो सकता है। कुल-वंश की समानता मिलती है तो शील की समानता नहीं मिलती! शील की समानता मिलती है तो वैभव की समानता नहीं मिलती! वैभव की समानता मिलती है तो शील की समानता नहीं मिलती! बड़ी समस्या है न? हालाँकि संसार ही सबसे बड़ी समस्या है! अनन्त विषमताओं से भरा For Private And Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- ३४ १२० हुआ यह संसार है। विषमताओं में समानता पाना कितना मुश्किल काम है ? हालाँकि आप लोग वैभव की समानता तो देखते होंगे ? समानता देखते हो कि अधिकता ? यदि धन-संपत्ति के माध्यम से लड़के-लड़कियों की पसन्दगी करते होंगे तो धन की अधिकता ही देखते होंगे? भोगदृष्टिवाले जीवों की पसन्दगी का माध्यम तो रूप और रूपया ही होता है। धर्मपुरुषार्थ की दृष्टि से यदि पसन्दगी हो, तो कुल - शील- वैभव वगैरह की समानता देखने का प्रयत्न होगा। सभा में से : पसन्दगी बराबर करने पर भी सुख - दुःख का आधार तो शुभाशुभ कर्म ही मानने पड़ेंगे न? महाराजश्री : शुभाशुभ कर्म तो प्रधान कारण है ही, परन्तु यदि समुचित पसंदगी होती है तो इतना आश्वासन रहता कि पसन्दगी में तो भूल नहीं हुई है, हो सके इतना प्रयत्न कर लिया है.... फिर भी अच्छा परिणाम नहीं आया, तो अशुभ कर्म का उदय ही कारण है।' दूसरी बात : 'शुभाशुभ कर्म के उदय से सुख-दुःख आते हैं,' इस सिद्धान्त की श्रद्धा होने से, दुःखों को समता भाव से सहन करने की शक्ति मिलती है। पहले ज्ञानी पुरुषों के मार्गदर्शन अनुसार पुरुषार्थ करना चाहिए। वैसा पुरुषार्थ करने पर भी सानुकूल परिणाम नहीं आता है तो अशुभ कर्म का उदय मानकर समताभाव बनाये रखना है। पहले से ही कर्म के सहारे सब छोड़कर पुरुषार्थ नहीं किया तो बड़ी भूल होगी । ऐसी भूल नहीं करना । आज, शादी-विवाह के विषय में तीन बातों की समानता के विषय में विवेचन किया, शेष दो बातों की समानता के विषय में आगे विवेचन करेंगे। आज, बस इतना ही । For Private And Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३४ 6. शादी करते समय भी, सहजीवन जीते समय भी भीतर में लगन तो संयम की ही रखना है। .सांसारिक क्रिया में भी यदि औचित्य का ध्यान रखा जाये और ज्ञानीपुरुषों के मार्गदर्शन के मुताबिक जीवन जिया जाये तो वह धर्म बन जाता है। धर्मक्रिया का रुप हो जाता है। पली की सच्ची और अच्छी बात भी खुले दिल व खुले दिमाग से मान लेनेवाले पति आजकल कितने मिलेंगे? शायद खोजने जाना होगा.... दीया लेकर नहीं पर 'फ्लडलाईट' लेकर खोजना होगा। सर्विस करनेवाली पत्नियाँ बहुधा अपने पति या अपने परिवार से भी ज्यादा ध्यान अपने 'बॉस' या सेठ का रखती हैं....क्योंकि नोट तो वह देता है! • किसी की भी रुचि या आदत का परिवर्तन झुंझलाकर या बौखलाकर नहीं करवा सकोगे आप! इसके लिए आपको शांत, स्वस्थ एवं समझदार होना होगा। प्रवचन : ३५ महान श्रुतधर, पूज्य आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी 'धर्मबिन्दु' ग्रंथ के माध्यम से गृहस्थ जीवन का सामान्य धर्म बता रहे हैं। सामान्य धर्म विशेष धर्म की आधारशिला है। व्रत-नियम और धर्मानुष्ठानरूप विशेष धर्म तभी आत्मसात हो सकता है जब सामान्य धर्म का जीवन में समुचित पालन हो। सामान्य धर्म की उपेक्षा करके विशेष धर्म की आराधना करना वस्त्ररहित शरीर पर आभूषण पहनाने जैसा है। नंगे शरीर पर आभूषण शोभते हैं क्या? वैसे सामान्य धर्म का पालन किये बिना विशेष धर्म की आराधना शोभा नहीं बढ़ाती है। लोगों की निगाहों में विशेष धर्माराधना हास्यास्पद बनती है | न्यायनीति और प्रामाणिकता की उपेक्षा कर धन कमानेवाले लोग जब परमात्ममंदिर में जाते हैं, सामायिक प्रतिक्रमण की धर्मक्रियाएँ करते हैं, उपधानतप, वरसीतप जैसी तपश्चर्याएँ करते हैं... ये लोग शोभते नहीं हैं। उनसे पूछना, उनका मन धर्मक्रियाओं में स्थिर रहता नहीं होगा। धर्मक्रियाएँ करने पर भी आत्मानन्द का अनुभव नहीं होता होगा। For Private And Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३५ १२२ शादी में भी आदर संयम का : __सामान्य धर्म के ३५ प्रकार बताये गये हैं। इनमें पहला धर्म, न्यायसम्पन्न वैभव का आपको बताया। दूसरा धर्म है समान कुल, शीलवालों के साथ विवाह | यदि आप संपूर्ण ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन नहीं कर सकते हो तो आपको शादी करनी पड़ेगी, शादी करना वह धर्म नहीं है, शादी में औचित्य का पालन और ज्ञानी पुरुषों की आज्ञा का पालन करो, वह धर्म है। धर्मपुरुषार्थ का ध्येय, वह धर्म है। शादी करते समय भी आपका ध्येय तो मोक्षमार्ग की आराधना का ही होना चाहिए। शादी करके भी विषयोपभोग में डूब जाना नहीं है, भोगविलास में लीन हो जाना नहीं है। क्रिया भले मैथुन की हो, लक्ष्य ब्रह्मचर्य का रखना है। 'कब मैं अपनी विषय-वासना पर संपूर्ण संयम कर सकूँ और कब ब्रह्मचर्य का पालन करूँ...' यह विचार बना रहना चाहिए। जिस व्यक्ति से शादी करना हो उनमें पाँच बातों की समानता देखने की है। कुल-वंश की, शील की, वैभव की, वेश की और भाषा की। यदि इन पाँच बातों की विषमता रही तो जीवन विषमताओं से भर जायेगा। क्लेश, संताप और अशान्ति के शिकार बन जाओगे। वेश की समानता : जिस प्रदेश में आप रहते हो, जिस समाज में आप रहते हो, जिस परिवार में आपको जीना है, उसके अनुरूप वेश-भूषा होनी चाहिए | हालाँकि आजकल वेश-भूषा के विषय में तो कोई नियम या मर्यादाएँ रही ही नहीं हैं, सामाजिक बंधन भी नहीं रहे हैं। जिसको जो वेश पसन्द आता है, पहनता है! गुजराती महाराष्ट्रियन वेश भी पहन सकता है और पंजाबी वेश-भूषा भी धारण कर सकता है! राजस्थानी सिन्धी या पंजाबी वेश पहन सकता है | पंजाबी गुजराती या राजस्थानी....मनचाहा वेश धारण कर लेता है। अंग्रेजी वेश-भूषा तो देशव्यापी ही नहीं, विश्वव्यापी बन गई है। वेश-भूषा में, अपनी संस्कृति के अनुसार जो पारिवारिक और सामाजिक मर्यादाओं का लक्ष्य रखने का था, वह अब नहीं रहा। शारीरिक स्वास्थ्य का लक्ष भी नहीं रहा। शारीरिक सुविधा का लक्ष्य भी नहीं रहा। लक्ष्य हो गया है मात्र सौंदर्य का, फैशन का और फिल्मी अनुकरण का। वेश-परिधान में मनुष्य ऐसा मूढ हो गया है कि 'ऐसा वेश पहनने से मैं अच्छा लगता हूँ या भद्दा....' यह भी सोच नहीं सकता है। For Private And Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रवचन- ३५ कपड़े भी करवा देते हैं झगड़े : Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२३ वेश-भूषा को लेकर कभी-कभी पति-पत्नी में मतभेद पैदा हो जाता है.. झगड़ा हो जाता है। पुरुष चाहता है कि उसको जो पसन्द है वह वेश पत्नी पहने। पत्नी यह चाहती है कि उसको जो पसन्द है वह वेश पति पहने! एकदूसरे को पसन्द वेश पहनें तो तो कोई बात नहीं, परन्तु अपने अपने 'चोइस' के कपड़े पहनें और एक-दूसरे को पसन्द नहीं आयें तो झगड़ा होगा! इतना ही नहीं, पति-पत्नी ने एक-दूसरे की पसन्द के कपड़े पहने, परन्तु माता-पिता को वह वेश-भूषा पसन्द नहीं होगी अथवा मर्यादाहीन वेश-भूषा होगी तो घर में विरोध होगा, तकरार होगी, कहा- सुनी होगी । आन्तर्प्रान्तीय और आन्तरराष्ट्रीय 'मेरेज' करनेवालों के जीवन में इस प्रकार के झगड़े होने की संभावना ज्यादा होती है । प्रान्त - प्रान्त की और देशदेश की वेश-भूषा भिन्न होती है। जब तक शादी नहीं होती है, जब तक दोनों अलग रहते हैं, तब तक वेशपरिधान का प्रश्न नहीं उठता है, परन्तु शादी के बाद सहजीवन में कभी न कभी यह प्रश्न उठता है और संघर्ष शुरू हो जाता है। एक युगल के जीवन में वेश-भूषा को लेकर संघर्ष इतना बढ़ गया कि पुरुष आत्महत्या करने को तैयार हो गया ! पुरुष अच्छा वकील था, सुप्रिम कोर्ट का वकील था । पत्नी का यह आग्रह था कि वकील को कोर्ट में 'पेन्ट शूट' में जाना चाहिए। वकील सादगी पसन्द करता था, वह पायजामा और कमीज पहनकर कोर्ट में जाया करता था । पत्नी का वकील पर स्नेह भरपूर था, परन्तु आग्रह भी उतना ही भरपूर था ! रोजाना पत्नी इस बात को लेकर झगड़ा करती रहती। वकील परेशान हो जाता .... वह भी गुस्सा करने लगा । बात काफी बढ़ गई और वकील की मानसिक स्थिति अस्वस्थ बन गई। आत्महत्या करने तैयार हो गये ! भाग्यवश एक दिन वे मेरे परिचय में आये .... दोनों को समझाया और समाधान किया । For Private And Personal Use Only एक संस्कारी और धार्मिक परिवार की लड़की थी । एक श्रीमन्त परिवार में वह पुत्रवधू बनकर आयी । लज्जा, मर्यादा, विनय - विवेक वगैरह गुणों की मूर्ति थी वह लड़की। जिसके साथ शादी हुई वह लड़का भारत में पढ़ाई करने के बाद दो वर्ष विदेश में पढ़ाई करके आया था । विदेश की विकृति को लेकर आया था साथ में। यों तो लड़की भी 'ग्रेज्युएट' थी, परन्तु विनम्र थी । बुद्धिमान Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३५ १२४ थी परन्तु बहुत कम बोलती थी। लड़के ने पत्नी को बिल्कुल 'मोर्डन' आधुनिक नारी बनाने का सोचा । आधुनिकता तभी प्रदर्शित हो सकती थी कि जब वह स्त्री अपनी भारतीय वेश-भूषा छोड़कर विदेशी और फिल्मी वेशभूषा पहने! 'हेर-स्टाईल' बदले और लिप्स्टिक एवं पाउडर वगैरह सौन्दर्य के प्रसाधनों का उपयोग करे | उस लड़के ने अपनी पत्नी से कहा : 'यह तेरी वेशभूषा मुझे जरा भी पसन्द नहीं है। मैं चाहता हूँ कि तू क्लब में मेरे साथ चले, सिनेमा में भी साथ चले.... पार्टियों में भी मेरे साथ ले चलूँ। मेरे मित्र भी अपनी-अपनी पत्नियों के साथ आते हैं.... मुझे भी कहते हैं : तू तेरी 'वाइफ' को लेकर क्यों नहीं आता? मैं उनकी बात को टाल देता हूँ| अब तू तेरे पुराने खयाल छोड़ दे। यह पुरानी वेशभूषा घर में करनी हो तो करना, मेरे साथ बाहर चले तब बिल्कुल 'मोर्डन' बनकर चलना होगा। मेरे मित्रों के साथ वैसा ही मुक्त व्यवहार करना चाहिए कि उनको लगे : ये दोनों मुक्त विचार के और मुक्त व्यवहार के लोग हैं।' उस समय तो लड़की ने पति की बात सुन ली शान्ति से, परन्तु एक दिन अवसर देखकर उसने अपने पति से कहा : 'आपकी हर बात मैं मानने को तैयार हूँ परन्तु पहले मेरी कुछ बातें आप सुनो और विचार करो। बाद में आप जो कहेंगे वही मैं करूँगी। आप मुझे 'मोर्डन' वेशभूषा में देखना चाहते हो तो वैसी वेशभूषा कर मैं आपके सामने आ सकती हूँ.... परन्तु वैसी वेशभूषा पहन कर दुनिया के सामने जाना मैं पसन्द नहीं करती हूँ | मुझे मेरा रूप आपको बताना है, दुनिया को नहीं। दुनिया रूप की शिकारी है। मैंने शादी आपसे की है, आपका मुझ पर संपूर्ण अधिकार है। मैं जानती हूँ कि आपका मेरे प्रति अनन्य स्नेह है, मैं भी आपको पूर्ण वफादार रहना चाहती हूँ| आपके मित्रों का अपने घर पर मैं उचित आदर-सत्कार करूँगी, परन्तु मेरे शील और सदाचार की रक्षा का मेरा लक्ष्य रहेगा | मैं एक भारतीय नारी हूँ, एक संस्कारी जैनपरिवार की लड़की हूँ....मैं मर्यादापूर्ण जीवन पसन्द करती हूँ, आपके साथ आ सकती हूँ, परन्तु ऐसे स्थानों में अपन को नहीं जाना चाहिए कि जहाँ अपने विचार बिगड़ते हों। आप कहिये, मैं जो भारतीय वेशभूषा पहनती हूँ उसमें मेरा सौन्दर्य आपको दिखता है न? आप कृपा कर मुझे आधुनिकता में नहीं खींचें और मेरी मर्यादाओं का पालन करने दें।' लड़का तो पत्नी की बात सुनता ही रहा। उसको पत्नी की बात में सच्चाई For Private And Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३५ १२५ दिखायी दी। उसने अपना आग्रह छोड़ दिया, इतना ही नहीं उसने स्वयं धीरे धीरे क्लबों में और पार्टियों में जाना कम कर दिया। उसने भी भारतीय वेशभूषा पसन्द कर ली। परन्तु ऐसे पुरुष कितने मिलेंगे? पत्नी की सच्ची बात को कितने पति स्वीकार करते होंगे? 'मैं ही समझदार हूँ,' ऐसा अभिमान रखने वाले पुरुष पत्नी की सच्ची बात को भी स्वीकार नहीं करते। 'तू कुछ नहीं समझती है, तू उन्नीसवीं शताब्दि में जी रही है, समाज के साथ रहना चाहिए, दुनिया कितनी आगे बढ़ रही है तू नहीं जानती है।' ऐसी तो अनेक बातें आज के आधुनिक पति करते रहते हैं। __ इससे विपरीत, ऐसे पुरुष आज हैं कि जो मर्यादावाली वेश-भूषा पसन्द करते हैं, परन्तु उनकी पत्नियाँ आधुनिक वेश पसन्द करती हैं। हालाँकि शादी के पूर्व यह बात सोचने की होती है। परन्तु मानों की इस बात पर ध्यान नहीं गया और शादी कर ली, बाद में वेश-भूषा का प्रश्न खड़ा हुआ और झगड़ा चालू! स्त्रियों को नौकरी नहीं करनी चाहिए : शादी के बाद जो पत्नियाँ सर्विस करती हैं यानी नौकरी करती हैं वे पत्नियाँ ज्यादातर वैसी वेश-भूषा पसन्द करती हैं, जो वेशभूषा उनके 'बॉस' को पसन्द आती हो! वे पत्नियाँ ऐसी 'हेयर स्टाइल' पसन्द करती हैं जो उनके 'बॉस' को प्रिय होती है! पत्नियाँ अपने पति से भी ज्यादा अपने 'बॉस' को खुश रखने को तत्पर रहती है! क्योंकि रुपये 'बॉस' देता है! सभा में से : तो क्या पत्नियों को नौकरी नहीं करनी चाहिए? महाराजश्री : क्यों करनी चाहिए? स्त्री को ऐसा पति पसन्द करना चाहिए कि जो पत्नी का पालन कर सकता हो । मान लो कि शादी के बाद परिस्थिति बदल गई और पति अर्थोपार्जन करने में समर्थ नहीं रहा, उस समय पत्नी को अर्थोपार्जन का प्रयत्न करना चाहिए | परन्तु वैसा व्यवसाय अथवा वैसी सर्विस पसन्द करनी चाहिए कि उसको पुरुषों के संपर्क में नहीं आना पड़े। अपने शील और सदाचार की सुरक्षा पहले सोचनी चाहिए। सर्विस के बहाने क्या-क्या चल रहा है? : आजकल तो सुखी और श्रीमंत घराने की महिलाएं भी नौकरी करती हैं! कहती है : 'घर पर टाइम पास नहीं होता है।' कैसे 'टाइम पास' होगा? घर For Private And Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२६ प्रवचन- ३५ का काम तो करती नहीं ! घर का और पति का काम तो नौकर करते हैं! पत्नी तो सेठानी बनी रहती है। कोई काम करती नहीं इसलिए 'काम' उसको सताता है! फिर इधर-उधर भटकती है । 'मैं सर्विस करती हूँ' कहकर 'बॉस' के साथ पिक्चर देखना, क्लबों में जाकर नाचना, गार्डनों में घूमना वगैरह अनुचित और विघातक प्रवृत्तियाँ करती हैं। पति की तो परवाह ही नहीं करती हैं। रुपये कमानेवाली महिला प्रायः पति का अनादर ही करेगी । प्रसन्न दाम्पत्य जीवन आज किसका रहा है ? प्रसन्न दाम्पत्य जीवन का आदर्श भी किसको याद है ? आज मनुष्य स्वकेन्द्रित बनता जा रहा है। पति को पत्नी के सुख-दुःख का विचार नहीं, पत्नी को पति के सुख - दुःख का विचार नहीं! सन्तानों को माता-पिता का विचार नहीं और माता-पिता को सन्तानों की चिन्ता नहीं ! सब अपने-अपने सुख की खोज में पथभ्रष्ट हो रहे हैं । वेश-भूषा की पसन्दगी हर व्यक्ति स्वयं कर रहा है। स्नेही स्वजनों की पसन्दगी नहीं चलती है। पति को पसन्द हो या न हो, पत्नी अपनी इच्छा के अनुसार वेशभूषा पहनने लगी है। पत्नी की पसन्दगी की परवाह किये बिना पति अपनी इच्छा के अनुसार वेश-भूषा पहनने लगा है। फिर एक-दूसरे पर अपनी पसन्दगी का आग्रह थोपने का प्रयत्न करते हैं- परिणाम ? क्लेश और झगड़ा! यदि पति-पत्नी के मन इस प्रकार अशान्त, असंतुष्ट रहे तो उनका मन धर्मआराधना में लगेगा नहीं । उनके भीतर आराधना करने का उल्लास भी रहेगा नहीं। कुलाचार से मन्दिर में जायेगा तो भी परमात्मा में उसका मन स्थिर बनेगा नहीं । जीवन नीरस बन जाने पर किसी धर्मआराधना में उसको आनन्द आयेगा नहीं । इतना ही नहीं, गृहस्थ धर्मों के पालन में भी असमर्थ बन जायेंगे । अपनेअपने कर्तव्यों का पालन नहीं करेंगे। इतना बहुत खराब प्रभाव सन्तानों पर गिरता है। बच्चे जब अपने माता-पिता के आपस के झगड़े देखते हैं, कटु शब्द सुनते हैं, दुर्व्यवहार देखते हैं... उनके कोमल मन पर कैसा बुरा असर पड़ता है, आप लोगों ने कभी सोचा है ? पति-पत्नी की वेश-भूषा के विषय में इतनी बातें क्यों कही जाती हैं ? क्योंकि वेश-भूषा के निमित्त आपस में कोई मतभेद खड़ा न हो । वेशश-भूषा के निमित्त आपस में झगड़ा न हो, तकरार न हो । जिस प्रकार ऊँच-नीच कुल के निमित्त विसंवाद नहीं होना चाहिए, जिस प्रकार खाने-पीने की बात को लेकर For Private And Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३५ १२७ मनमुटाव नहीं होना चाहिए, जिस प्रकार वैभव-संपत्ति के निमित्त क्लेश नहीं होना चाहिए; वैसे वेश-भूषा के कारण आपस में टकराव नहीं होना चाहिए। भाषा की समानता : पति-पत्नी के बीच भाषा की समानता होना भी अत्यन्त आवश्यक होता है। भाषा की विषमता कभी बहुत बड़ी गलतफहमी पैदा कर सकती है। मान लो कि आप गुजराती हैं, आपके लड़के को पंजाब की लड़की से शादी करना है। लड़की पंजाबी भाषा बोलती है अथवा हिन्दी भाषा बोलती है, लड़के को पंजाबी भाषा का या हिन्दी भाषा का पूरा ज्ञान होना चाहिए और लड़की को गुजराती भाषा का ठीक-ठीक ज्ञान होना चाहिए। क्योंकि लड़का तो हिन्दी या पंजाबी भाषा जानता है, परन्तु लड़के के माता-पिता और भाई-बहन नहीं जानते हैं, तो पुत्रवधू का उन लोगों के साथ बोलना मुश्किल बन जायेगा। सास-ससुर वगैरह भी पुत्रवधू से बात नहीं कर सकेंगे। पुत्र और पुत्रवधू कोई बात पंजाबी भाषा में करते होंगे तब लड़के के माता-पिता शंका की दृष्टि से देख सकते हैं! 'ये दोनों क्या बात करते होंगे? अपने से विरुद्ध तो कोई बात नहीं करते होंगे?' वे लोग लड़के के साथ संघर्ष में आ सकते हैं। कम से कम, पत्नी जितनी भाषाएँ जानती हो उतनी भाषाओं का ज्ञान पति को होना चाहिए ही। पत्नी पंजाबी भाषा जानती है और पति नहीं जानता है, कोई समय किसी पंजाबी पुरूष से पत्नी पंजाबी भाषा में बात करती है, पति भाषा नहीं जानता है तो उसके मन में शंका होगी : 'इसने पंजाबी भाषा में उस पुरुष के साथ क्या बात की होगी? कोई प्रेम की बातें तो नहीं की होगी?' यों भी मनुष्य का मन शंकाशील तो होता ही है! पति को पत्नी के विषय में जल्दी शंका आ जाती है। समान भाषा में, समान मातृभाषा में बात करने का आनन्द विशेष होता है बनिस्बत् दूसरी भाषा में। पति-पत्नी दोनों की मातृभाषा एक हो और उस भाषा में वे बातें करेंगे तो एक-दूसरे की बात समझने में सरलता रहेगी। दूसरी भाषा में उतनी सरलता नहीं रहती है। स्नेही-स्वजनों के साथ और मित्रवर्ग के साथ भी वार्तालाप में और व्यवहार में सरलता रहती है। भिन्न भाषावालों के साथ, उनकी भाषा में बात करने पर भी कभी समझने-समझाने में दिक्कत पैदा होती है। इसलिए शादी से पूर्व भाषा की समानता का भी लक्ष्य रखना आवश्यक है। For Private And Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३५ १२८ ग्रन्थकार आचार्यदेव ने कुल और शील की समानता देखने को कहा; टीकाकार आचार्यश्री ने वैभव की, वेश और भाषा की भी समानता देखने का निर्देश किया, मैं और तीन बातों की समानता देखना आवश्यक मानता हूँ| वर्तमानकाल में समग्र समाज-व्यवस्था बदलती जा रही है, अथवा तो समाजव्यवस्था ही ध्वस्त हो गई है। ऐसी विषम परिस्थिति में स्त्री-पुरुष को बड़ी सावधानी से पति-पत्नी की पसन्दगी करनी चाहिए कि जिससे दाम्पत्य जीवन में परस्पर की कटुता न उभरे और धर्मआराधना में प्रगति हो सके। दूसरी तीन समानताएँ जो मैं बताना चाहता हूँ, वे हैं १. रूप की समानता २. रुचि की समानता ३. रस की समानता पहले जो पाँच प्रकार की समानताएँ बतायी हैं वे तो देखने की हैं ही, साथ ही ये तीन समानताएँ भी उतनी ही अपेक्षित हैं। रूप की समानता : ___ पति रूपवान है तो पत्नी का रूपवान होना जरूरी है। पति रूपवान है और पत्नी रूपवान नहीं है, तो पत्नी के मन में कभी भी पति के विषय में शंका पैदा हो सकती है... जब किसी रूपवती स्त्री के साथ पति बात करेगा, हँसेगा या किसी वस्तु का आदान-प्रदान करेगा तब पत्नी के मन में ईर्ष्या....शंका पैदा हो सकती है। ___संभव है कि पति को वैसी रूपहीन पत्नी पसन्द न आये । धन-दौलत या शिक्षा के माध्यम से शादी तो कर ली, परन्तु बाद में पत्नी के प्रति अनुराग न रहे और दूसरी कोई रूपवती स्त्री से प्रेम कर ले! क्योंकि आजकल मनुष्य में रूप का आकर्षण काफी बढ़ गया है। पहले रूप का आकर्षण नहीं था, वैसा मेरा कहना नहीं है, पहले भी रूप का आकर्षण तो था ही, परन्तु आज जितना है, उतना नहीं था। आज तो रूपहीन, सौन्दर्यहीन पत्नी का त्याग करके दूसरी रूपवती स्त्री से संबंध कर लेना मामूली बात हो गयी है। वैसे, पति रूपहीन है, सौन्दर्यरहित है और पत्नी रूपवती है तो भी जीवन में विषमता पैदा हो सकती है। बंगला-मोटर-धन-संपत्ति वगैरह देखकर शादी तो कर ली रूपहीन पुरुष से, परन्तु रूपहीन पति पसन्द नहीं है.... उसके प्रति प्रीति-अनुराग पैदा नहीं होता है.... तब दूसरे रूपवान पुरुषों के प्रति For Private And Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३५ १२९ पत्नी का आकर्षण बन जाता है। यदि वैसे किसी रूपवान पुरुष से परिचय हो गया तो संभव है कि वह चरित्रहीन बन जाये। अपने पति को धोखा दे दे। यदि पति रूपवान है तो रूपवती पत्नी को दूसरे रूपवान पुरुषों के प्रति प्रायः आकर्षण नहीं होगा रूप के माध्यम से! दूसरे किसी माध्यम से परपुरुष के सम्पर्क में जाय, वह दूसरी बात है। पति रूपवान है परन्तु निर्धन है, तो संभव है कि उसकी पत्नी किसी श्रीमन्त रूपवान पुरुष के चक्कर में जाय! इसलिए ज्ञानी पुरुषों ने वैभव-संपत्ति की समानता को महत्त्व दिया है। __ पति रूपवान हो, धनवान् हो, कुलवान् हो और शीलवान् भी हो, परन्तु फिर भी अति कामातुर पत्नी परपुरुष का संग कर लेती है! अपने रूप और सौन्दर्य से परपुरुष को आकर्षित कर लेती है। वैसे अति कामासक्त पुरुष भी अपनी सुन्दर पत्नी के अलावा दूसरी रूपवती महिलाओं में आसक्त बन जाता है। अति कामासक्ति, स्त्री हो या पुरुष हो, उसका पतन करवाती है। भर्तृहरी राजा की पत्नी पिंगला क्यों परपुरुषगामिनी बनी थी? क्या भर्तृहरी में रूप नहीं था? भर्तृहरी क्या बलवान नहीं था? भर्तृहरी कुलवान नहीं था? शीलवान नहीं था? सब कुछ था फिर भी पिंगला उससे संतुष्ट न हो पायी थी और परपुरुष का संग किया था न? व्यभिचारिणी बन गई थी। संसार की ये विषमताएँ तो कभी भी टलनेवाली नहीं हैं, फिर भी इसी संसार में रह कर मोक्षमार्ग की आराधना की जाती है, इसलिए धर्मपुरुषार्थ के लिए अनुकूल परिवार की अपेक्षा की जाती है। यदि पुण्य का उदय हो तो पसन्दगी का परिवार मिलता है, अन्यथा नहीं। जहाँ तक अपनी बुद्धि, अपना ज्ञान पहुँचे वहाँ तक ज्ञानी पुरुषों के मार्गदर्शन के अनुसार पात्र की खोज करनी है, बाद में तो भाग्य ही निर्णायक बनता है। गंदा एवं बुरा है यह संसार : संसार तो ऐसी विषमताओं से भरा हुआ है कि अपन को आश्चर्य हो जाय! रूपवान् पति को छोड़कर कुरूप पुरुष का संग करनेवाली रूपवतियाँ होती हैं! पूर्वकाल में थीं और वर्तमानकाल में भी हैं! वैसे, घर में रूपवती और शीलवती पत्नी होते हुए भी वेश्याओं के वहाँ जानेवाले पुरुष पूर्वकाल में थे और वर्तमानकाल में भी हैं! यह संसार है! बुराइयों से, असंख्य बुराइयों से भरा हुआ यह संसार है। पसन्द आ गया है न? कुछ गंभीरता से सोचते हो या नहीं? अपने सर्वज्ञ वीतराग परमात्मा ने संसार को क्यों त्याज्य बताया? चारित्र्यधर्म को क्यों उपादेय बताया? यदि संसार विषमताओं से परिपूर्ण नहीं For Private And Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३५ १३० होता तो मोक्ष में जाने की मैं बात ही नहीं करता! मात्र एक ही जगह है कि जहाँ एक भी विषमता नहीं है, वह है मोक्ष! __ मोक्षमार्ग है सम्यकदर्शन-ज्ञान और चारित्र्य का। उस मार्ग पर चलने की सच्ची भावना को हृदय में सलामत रखना। आज उस मार्ग पर चलने की शक्ति न हो और संसार में रहना पड़े तो भी संसार के भ्रामक जाल में फँसना मत | शादी करनी हो तो भी संभल के करना! यदि अज्ञान दशा में कुपात्र से शादी हो गई हो तो अब कुपात्र को सुपात्र बनाने का प्रयत्न करना! सुपात्र नहीं बने तो त्याग करके हमारे पास आ जाना! रुचि की समानता : एक-दूसरे की रुचि-अभिरुचि की समानता बहुत जरूरी है। जो पति की रुचि वही पत्नी की रुचि। जो पत्नी की रुचि वही पति की रुचि! तो शान्ति रहेगी, प्रसन्नता रहेगी। रुचि की भिन्नता तो बड़ा अनर्थ कर देती है। पति की सिनेमा देखने की रुचि है.... पत्नी की सिनेमा देखने की अरुचि है; पति की गार्डन में घूमने की रुचि है, पत्नी को घूमने जाने की ही अरुचि है | पति को तीर्थयात्रा करना पसन्द है, पत्नी को कश्मीर का सफर करना पसन्द है.... फिर देखना तमाशा! एक-दूसरे की अभिरुचि एक-दूसरे पर थोपने का प्रयत्न होगा, एक-दूसरे का विरोध करेगा! फिर क्लेश झगड़ा और मनमुटाव का विषचक्र शुरू हो जायेगा। पति-पत्नी की अभिरुचियाँ, उनके 'चॉईस' यदि भिन्न होते हैं तो प्रतिदिन दोनों परेशान रहते हैं। __ पति को सम्पत्ति का प्रदर्शन प्रिय हो और पत्नी सादगी पसन्द हो तो संघर्ष! पति को बढ़िया खाना-पीना प्रिय हो और पत्नी को तपश्चर्या प्रिय हो तो संघर्ष! पति को मंदिर-उपाश्रय में जाना पसन्द हो और पत्नी को सिनेमा...नाटक और सर्कस देखना पसन्द हो तो संघर्ष! इसलिए कहता हूँ कि रुचि की समानता देखो। ___ हाँ, आप मनोवैज्ञानिक हैं और भिन्न रुचिवाली पत्नी को आपकी रुचि के अनुसार बना सकते हैं तो कोई चिन्ता नहीं, परन्तु है आपके पास मनोविज्ञान का ज्ञान? दूसरों को अपनी अभिरुचिवाला कैसे बनाया जाये, उसकी शिक्षा पायी है क्या? ध्यान रखना, गालियाँ बकने से या चिल्लाने से दूसरों का जीवन-परिवर्तन या रुचि-परिवर्तन नहीं कर सकोगे। सजा करने से या मारने से दूसरों की अभिरुचियाँ नहीं बदल सकोगे। For Private And Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- ३५ सभा में से : हम लोगों के घर में तो ऐसा ही हो रहा है! १३१ महाराजश्री : इससे क्या दूसरों की रुचि में परिवर्तन आया ? नहीं आया है न? फिर भी गलत मार्ग आप छोड़ने को तैयार नहीं हैं! अभी-अभी एक भाई ने मुझे कहा था कि उसकी पत्नी उसको तपश्चर्या करने का इतना आग्रह करती है कि तौबा उससे ! 'मैं तप करती हूँ तो आप भी मेरे साथ तप करो, करना ही पड़ेगा!' वह भाई तप नहीं कर सकता था, उसकी तप में रुचि ही नहीं थी। उसने पत्नी से कहा : तू तप कर सकती है, मैं मना नहीं करता, परन्तु मैं तप नहीं कर सकता हूँ... मुझे तप करने का आग्रह मत कर। तेरी तपश्चर्या पूर्ण होने पर तू कहेगी तो दो-चार हजार रूपये अच्छे कार्य में खर्च कर दूँगा...पर तप नहीं कर सकता ।' परन्तु पत्नी रोज परेशान करती है! पति को शान्ति से भोजन भी नहीं करने देती है! कटु शब्दों में पति को लताड़ती रहती है ! पति बेचारा शान्त दिमाग का है सुन लेता है... जवाब ही नहीं देता है ! परन्तु यदि पत्नी नहीं समझेगी और दुराग्रह नहीं छोड़ेगी तो मुझे भय लगता है कि उसका पति घर छोड़कर भाग जायेगा कहीं पर । For Private And Personal Use Only पति की रुचि का परिवर्तन इस प्रकार नहीं किया जा सकता । प्रिय व्यवहार से और मधुर शब्दों से, धैर्य से और बुद्धिमत्ता से रुचि का परिवर्तन सम्भवित बन सकता है । परन्तु कौन समझाये आप लोगों को ? रस की समानता : जिस प्रकार रूप की और रुचि की समानता देखते है वैसे रस की समानता भी देखनी चाहिए। रस की समानता का अर्थ है खाने-पीने की समानता । खाने-पीने की रसवृत्ति में यदि विरोधाभास होता है तो पति-पत्नी के बीच झगड़ा हो जाता है । इस विषय में पति की रसवृत्ति का ख्याल पत्नी को रखना होता है। जो पत्नियाँ पति के 'टेस्ट' को जानकर भोजन बनाती हैं और प्रेम से खिलाती हैं उनको पति की ओर से विशेष स्नेह प्राप्त होता है। जहाँ भक्ष्य और अभक्ष्य का प्रश्न हो वहाँ पत्नी को बड़ी शान्ति से, धैर्य से और समता से काम लेना चाहिए। हालाँकि यह बात तो शादी से पूर्व ही सोचने की होती है। यदि स्त्री स्वयं अभक्ष्य नहीं खाती है तो उसको ऐसा पति पसंद करना चाहिए कि जो अभक्ष्य नहीं खाता हो ! अभक्ष्य भक्षी पति पसंद किया तो फिर सहनशील बनना होगा। पत्नी अथवा पति से रसवृत्ति का शान्ति से Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३५ १३२ परिवर्तन करना होगा। दाम्पत्य जीवन में ये सारी बातों की समानता क्यों अपेक्षित हैं, यह बात समझ गये न? यह मानव-जीवन है, धर्मपुरुषार्थ कर लेने का श्रेष्ठ जीवनकाल है। चारित्र्यधर्म स्वीकार करने की क्षमता नहीं है, गृहस्थ जीवन जीना पड़ता है तो गृहस्थ जीवन इस प्रकार जीना चाहिए कि थोड़ा भी धर्मपुरुषार्थ हो सके। वह तभी हो सकता है जब मनुष्य की चित्तवृत्तियाँ उपशान्त हो। विषय-वासना से या क्रोधादि कषायों से चित्तवृत्तियाँ उत्तेजित होती हैं। इसलिए वासना की तीव्रता से बचना चाहिए एवं क्रोधादि कषायों से बचना है। ऐसे निमित्त ही पैदा नहीं करने चाहिए कि कषाय से चित्त चंचल बने। इन सारी समानताओं का ध्यान रखते हुए शादी-विवाह करनेवाले ज्यादातर लोग कषायों की तीव्रता से बच सकते हैं एवं विषमताओं के बीच समता रख सकते हैं। गृहस्थ जीवन के ३५ सामान्य धर्मों की विवेचना करनी है। यह दूसरा गृहस्थ धर्म है विवाह-औचित्य का । सामान्य धर्मों की उपेक्षा करके विशेष धर्म की क्रियाएँ करनेवाले वास्तव में धर्माराधक नहीं बन पाते हैं! आज बस, इतना ही। For Private And Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३५ १३३ H.पहले के जमाने में सामाजिक व्यवस्था में विनय और मर्यादा, - औचित्य एवं जिम्मेदारी का बड़ा ही महत्त्वपूर्ण स्थान था। . आज का सामाजिक जीवन तो इतना विकृत हुआ जा रहा । है कि जिसकी चर्चा करने में भी शरम महसूस होती है! .आजकल मर्यादाएँ तो मरने पड़ी हैं... औचित्य-विवेक जैसे - कि कहीं खो गये हैं। • अच्छे संबंधों को देखो, कभी भी तोड़ मत देना! अच्छे संबंधों का सेतु बड़ी कठिनाई से बनता है! उस संबंध की कीमत समझकर उसे बचाये रखने की कोशिश करना। . सद्गुरुजनों का परिचय सच्चा करना होगा! उनका ज्ञान, उनकी करुणा, उनका वात्सल्य-इन सबका परिचय यही सच्चा परिचय है। लोकप्रियता-जनप्रियता यह तो लाखों की दौलत प्राप्त करने का तरीका है। सभी के दिल में जगह कर लेना कोई सरल बात नहीं है। प्रवचन : ३६ महान श्रुतधर, १४४४ धर्मग्रन्थों के रचयिता आचार्यदेव श्री हरिभद्रसूरिजी ने स्वरचित 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ में गृहस्थ के सामान्य धर्म का निरूपण करते हुए दूसरा सामान्य धर्म बताया है शादी-विवाह के औचित्य का। समान कुल और समान शील वगैरह वाले स्त्री-पुरुष के बीच शादी हो तो पति-पत्नी के जीवन में संवादिता रह सकती है और परिवार का धर्मपुरुषार्थ उल्लास से संपन्न हो सकता है। ये सारी बातें विस्तार से आपको बताई गई हैं। आज ये बातें बतानी हैं कि किस किस प्रकार के परिवारों के साथ शादी का संबंध नहीं जोड़ना चाहिए। पारस्परिक एवं पारंपरिक मर्यादा की आवश्यकता : ग्रन्थकार आचार्यश्री कहते हैं कि समान गोत्रवाले परिवार के साथ शादी नहीं करनी चाहिए। समान गोत्र की परिभाषा करते हुए टीकाकार आचार्य देव श्री मुनिचन्द्रसूरिजी कहते हैं : एक पुरुष की परम्परा को समान गोत्र कहते हैं। जैसे एक पुरुष के चार लड़के हैं, चारों के घर में चार-चार लड़के हुए उनके For Private And Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३६ १३४ वहाँ भी चार-चार लड़के हुए, उनके परिवारों में लड़के-लड़कियाँ पैदा हुए तो उनके आपस में शादी-संबंध नहीं होने चाहिए....। एक पिता की, पितामह की, प्रपितामह की परम्परा को समान गोत्र कहते हैं। समान गोत्रवालों को आपस में शादी-सम्बन्ध करने में छोटे-बड़ों के उचित व्यवहार में क्षति होती है। मान लो कि कन्या का पिता बड़ा है, सब परिवारवाले और गोत्रवाले उनके साथ पूज्य का व्यवहार करते हैं, उम्र में और वैभवादि में वह बड़ा है, जमाई का पिता उम्र में और वैभवादि से छोटा है, अब क्या होगा? कन्या के पिता को, छोटे समधी के आगे यानी जमाई के पिता के सामने भी विनम्र होना पड़ेगा! पहले कन्या का पिता पूज्य माना जाता था, अब उस पूज्य पुरुष को जमाई के पिता के सामने हाथ जोड़ने पड़ेंगे। पूजा का पात्र पूजक बन जायेगा, पूजक पूज्य बन जायेगा! ऐसा होने में सामाजिक मर्यादाओं का भंग हो जाता है और वह भंग अनर्थकारी बनता है। ___ समान गोत्रवालों के साथ शादी नहीं करने का विधान किसलिए किया गया है, आप लोग समझे न? प्राचीनकाल की सामाजिक व्यवस्था में विनय और मर्यादा का कितना महत्त्व होगा? छोटे-बड़ों में पूज्य-पूजक भाव कितना महत्त्व रखता होगा? एक पिता की संतान-परंपरा में एक-दूसरे के साथ कितना औचित्यपूर्ण व्यवहार होगा? उस औचित्यपूर्ण मर्यादाओं के पालन को अखंड रखने के लिए परस्पर का शादी-संबंध निषिद्ध था। कन्या के पिता को विनम्र होना चाहिए : दूसरी एक बात यह फलित होती है कि पूर्वकालीन सामाजिक व्यवहारों में दामाद के पिता का स्थान, कन्या के पिता से बढ़कर होता था। दामाद का पिता कन्या के पिता से विशेष महत्त्व रखता था। कन्या के पिता को दामाद के पिता की विशेष खातिरदारी करनी पड़ती थी! अपनी लड़की को शादी के बाद कोई कष्ट न हो, कोई तकलीफ न हो इसलिए दामाद को, दामाद के पिता को, दामाद की माता को, बहनों को... कन्या का पिता सबको खुश रखना चाहे, वह स्वाभाविक भी है। ___ कहने का तात्पर्य यह है कि समान गोत्रवालों में शादी करने से, उनके परस्पर के व्यवहारों में, परस्पर के छोटे-बड़े के सम्बन्धों में बाधा आती है, मानहानि एवं स्वमानभंग आदि होने की संभावना होती है.... इसलिए समान गोत्रवालों के साथ शादी का सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए। सामाजिक जीवन में हर व्यक्ति मान-अपमान को विशेष महत्त्व देता है। For Private And Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३५ प्रवचन-३६ संपत्ति का स्रोत : स्नेहभरे संबंध : आजकल सामाजिक जीवन इतना विकृत हो गया है कि जिसकी चर्चा करना भी शोभा नहीं देता। बहुत थोड़े समाजों में कुछ नियम और मर्यादाएँ चल रही हैं। ज्यादातर समाजों में छोटे-बड़ों की मर्यादाएँ नष्ट हो गई हैं। इससे व्यक्ति को कोई विशेष लाभ होता हो, ऐसा भी दिखता नहीं है। मर्यादाभंग अनर्थ ही पैदा करता है। आवेश में आकर मनुष्य अविनय एवं औद्धत्यपूर्ण आचरण करके अच्छे सम्बन्धों का विच्छेद कर डालता है, परन्तु सोचता नहीं है कि संसार में अच्छे सम्बन्धों का कितना महान मूल्य है! अच्छे स्नेहपूर्ण सम्बन्धों को तो सभी संपत्तियों का मूल बताया गया है। 'जनानुरागप्रभवत्वात् संपत्तिनाम्' । दूसरी बात इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण बतायी है। ऐसे लोगों के साथ शादी नहीं करनी चाहिए कि जो लोग राज्य के अपराधी हों। जो लोग समाज की दृष्टि में अपराधी हों, नगर में, देश में कुख्यात हों। गाँव-नगर में जिनके बहुत विरोधी लोग हों, जो चोरी जैसे धंधे करते हों। ऐसे लोगों के साथ शादी-विवाह करने से आपकी प्रतिष्ठा भी आहत होती है। संभव है कि आप भी अपराधी बन जाओ। आप पर मिथ्या आरोप आ सकता है। आपके विषय में लोग शंकाशील बन सकते हैं | आप पर संकट आ सकता है। सरकार जब अपराधी को पकड़ती है तब उसके संबंधियों की भी तलाशी लेती है। भले, कुल की समानता हो और शील वगैरह की समानता हो, यदि वह भूतकालीन अपराधी है अथवा वर्तमानकाल का आरोपी है तो उसके साथ शादी तो नहीं, मित्रता का भी संबंध नहीं रखना चाहिए। ___ सभा में से : क्या कुलवान् और शीलवान् व्यक्ति ऐसे अपराधी हो सकते शादी का नाता किसके साथ नहीं करना : महाराजश्री : कुलवान् इसलिए कहा जा सकता है कि उसके पूर्वजों का इतिहास उज्ज्वल है, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि कुलवान् पुरुषों की परम्परा में सभी कुलवान ही पैदा हों। कुलांगार भी पैदा होते हैं न? पूर्वजों की उज्ज्वल कीर्ति को कलंकित करनेवाले पुत्रों को नहीं देखा है क्या? पूर्वजों के For Private And Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३६ ___ १३६ परोपकारी कार्यों से, उच्चतम बलिदानों से समाज में 'कुलवान्' की प्रतिष्ठा जम गई होती है....परन्तु अज्ञानी, लोभी एवं मायावी पुरुष अपने कुल की प्रतिष्ठा को नहीं देखते, वे तो रूप अथवा रुपये के लिए बुरे से बुरे काम करेंगे। वैसे, शीलवान् का अर्थ इतना ही है कि वह मांस-भक्षण नहीं करता हो, मद्यपान नहीं करता हो, रात्रिभोजन नहीं करता हो। खाने-पीने की इतनी परहेज करनेवाले लोग भी जब लोभदशा में अन्ध बनते हैं तब करचोरी, तस्करसहायता, अवैध व्यापार जैसे दुष्कर्म करते हैं, ऐसा देखने में आता है। इसलिए ज्ञानी पुरुष कहते हैं कि कुल-शीलादि की समानता होने पर भी, यदि व्यक्ति गलत कार्यों में संलग्न है और लोगों की दृष्टि में गिरा हुआ है तो उससे शादी नहीं करनी चाहिए। यदि आप अपनी उज्ज्वल प्रतिष्ठा बनाये रखना चाहते हो तो यह बात है। सद्गुरुओं का परिचय पापों से बचायेगा : सभा में से : आज तो हम लोग सभी छोटे-बड़े अपराधों में फंसे हुए हैं। भाग्य से कोई बचा हुआ हो! 'करचोरी और स्मगलिंग' तो बहुत व्यापक बन गया है। ___ महाराजश्री : तब तो कोई बात नहीं। चोरों की चोरों से समानता हो जायेगी! यदि समाज इतना गिरा हुआ है तो मोक्षमार्ग की आराधना कहाँ देखने मिलेगी? यदि सदगुरुओं के परिचय में रहनेवाले और उनका धर्मोपदेश सुनने वालों की भी यह शोचनीय दशा हो जाय... तो दूसरों की निन्दा कैसे करें? दूसरों के दोष कैसे देखें? वास्तव में देखा जाय तो आप लोगों को सद्गुरु का परिचय ही नहीं हुआ है! धर्मोपदेश सुनते हुए भी नहीं सुनते! सद्गुरु का परिचय आपके पापोंका नाश किये बिना नहीं रहे! आपके दुराचरणों को मिटाये बिना नहीं रहे। होना चाहिए सही अर्थ में परिचय। ___ सद्गुरु का नाम जानना और काम जानना इतना ही परिचय नहीं है। सद्गुरु की सेवा-भक्ति और पूजा कर लेना ही परिचय नहीं है.... सद्गुरु के उपदेश से दो रूपये खर्च कर देना मात्र ही परिचय नहीं है। परिचय इन सब बातों से ऊपर की भावनात्मक बात है। सद्गुरु का परिचय उनके निष्पाप जीवन का परिचय है। उनकी ज्ञानदृष्टि का परिचय है। उनकी निःस्वार्थवृत्ति और करुणा का परिचय है। किया है सदगुरु का ऐसा परिचय? ऐसा परिचय होने पर डाकू भी साधु बन गये! ऐसे परिचय के अभाव में श्रावक भी डाकू जैसे बन गये। For Private And Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३६ १३७ राष्ट्र के, प्रजा के, समाज के अपराधी बनो वैसे काम छोड़ दो। जीवन निर्मल और निष्पाप बना लो। प्रामाणिकता से और सज्जनता से जितने सुख के साधन मिलें, उनमें संतुष्ट रहो । गलत काम कर सुख पाने का इरादा छोड़ दो। यदि एक परिवार, एक समाज भी ऐसा आदर्श स्थापित करे तो देश को, दुनिया को बताया जा सके कि इस प्रकार का पवित्र जीवन इस काल में जीया जा सकता है। तृप्ति और संतोष के बिना निष्पाप-निर्मल जीवन संभवित नहीं है। जो सदैव अतृप्त और असंतुष्ट रहते हैं वे निष्पाप नहीं बन पायेंगे। पैदा होती है निष्पाप जीवन जीने की प्रबल भावना? __ आप स्वयं दुष्कार्यों का त्याग करें, लोकविरुद्ध प्रवृत्तियों का त्याग करें और वैसे जनप्रिय, समाजप्रिय, नगरप्रिय लोगों के साथ शादी का संबंध स्थापित करें। आप यदि ऐसे निंदनीय कार्यों का त्याग करेंगे तो आप भी जनप्रिय बनेंगे। जनप्रियता, लोकप्रियता एक ऐसा तत्त्व है कि सम्पत्ति को वह खींच लाता है। आप अपनी जनप्रियता को अखंड बनाये रखें, कभी भी जनप्रियता को खोयें नहीं। यह बात अच्छी तरह समझ लें। आप सम्पत्ति चाहते हो न? आपको धनवैभव चाहिए न? इसलिए आप, अनुचित प्रवृत्ति करते हो न? आप छोड़ दें अनुचित प्रवृत्ति और जनप्रियता प्राप्त करने का प्रयत्न करें। लोगों का स्नेह सम्पादन करें, लोगों का विश्वास प्राप्त करें.... फिर आप देखना कि धनसंपत्ति प्राप्त होती है या नहीं? लोकप्रियता लखपति भी बना दे : अभी थोड़े दिन पहले एक भाई ने किस्सा सुनाया। गुजरात का एक युवक व्यवसाय के लिए बम्बई आया । बम्बई में जिस स्नेही के घर वह ठहरा था, उस घर में यह युवक सबका प्रिय बन गया.... दो-चार दिन में ही। उस स्नेही ने इस युवक को शेअर बाजार में सर्विस दिला दी। जिस सेठ के वहाँ सर्विस मिली वह सेठ वैष्णव धर्म का अनुयायी था। लड़के का ऑफिस में सबके साथ इतना अच्छा व्यवहार रहा कि १०-१५ दिन में सबका प्रिय बन गया । इतनी प्रमाणिकता से वह काम करने लगा कि सेठ का अत्यन्त विश्वासपात्र बन गया। यह युवक जैन था। रात्रिभोजन नहीं करता था, रात में पानी भी नहीं पीता था। सूर्यास्त के पहले ऑफिस में ही एक जगह बैठकर, नमस्कार मंत्र का स्मरण कर पानी पी लेता था। जब सेठ को मालूम हुआ कि यह युवक शाम को भोजन नहीं करता है.... भूखा रहता है और ऑफिस का काम करता For Private And Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३६ १३८ है। शीघ्र ही युवक को अपने पास बुलाकर कह दिया : 'तुम पाँच बजे ऑफिस से छुट्टी ले लेना, भोजन कर लेना।' युवक ने कहा कि 'ऑफिस का मेरा काम पाँच बजे पूरा नहीं होता है, अधूरा काम छोड़कर कैसे जाऊँगा? आप चिन्ता नहीं करें, मुझे शाम को भोजन करने की आदत नहीं है... मैं ऑफिस का अपनाकाम पूरा करके ही जाऊँगा।' सेठ ने कहा : 'ऑफिस का काम अधूरा रहे तो दूसरे दिन आकर करना, परन्तु मेरे यहाँ रहनेवाला व्यक्ति एक समय भी भूखा रहे, वह मैं नहीं चाहता।' युवक ने कहा : 'आपकी कृपा है, आप उदार हृदय के हैं, इसलिए आप मुझे पाँच बजे छुट्टी देते हैं। परन्तु मैं जो आपसे तनख्वाह लेता हूँ वह तो पूरे समय की लेता हूँ.... तो काम भी मुझे पूरे समय का करना चाहिए। मेरे धर्म ने मुझे सिखाया है कि अनीति का धन नहीं लेना। यह अनीति होगी.... रुपये पूरे समय के लेने और काम अधूरा करना.... आप मुझे क्षमा करें, मैं शाम को सात बजे ही जाऊँगा।' सेठ तो युवक की नीतिमत्ता से इतने प्रभावित हो गये कि शाम का अपना भोजन उन्होंने ऑफिस में मँगवाना शुरू किया और उस युवक को अपने साथ भोजन कराने लगे। धीरे-धीरे यह युवक सारे बाजार में प्रिय बन गया। सेठ ने उसको धंधे में अपना साझी बनाया... और जब सेठ ने व्यापार से निवृत्ति ले ली तब इस युवक को शेअर बाजार की अपनी ऑफिस दे दी। इस युवक ने लाखों रूपये कमाये । आज तो वह युवक वृद्ध बन गया है और उसने भी व्यापार से निवृत्ति ले ली है। धर्मक्षेत्र में भी उसकी आज अच्छी लोकप्रियता है। लोकप्रियता ने उसको सम्पत्ति दी और प्रतिष्ठा भी दी। आप कहेंगे कि 'पुण्य का उदय होता है तो संपत्ति मिलती है। परन्तु पुण्य को उदय में लाने के रास्ते आप जानते हो? सदाचरण से पुण्य उदय में आता है। परोपकार के कार्यों से पुण्य उदय में आता है। दुराचरण से पुण्य उदय में नहीं आता। कभी तत्काल आपको पुण्य उदय में आता हुआ दिखता होगा, परन्तु वह पुण्योदय क्षणिक होता है। दुष्ट और अधम कार्य करनेवालों के पुण्योदय नष्ट होते आपने नहीं देखे क्या? इसलिए कहते हैं ज्ञानी पुरुष कि दुराचरण छोड़ो और सदाचारों का पालन करो। जनप्रिय बने रहो, जनप्रिय व्यक्ति से ही शादी-संबंध करो। इससे आपकी इज्जत बढ़ेगी, प्रतिष्ठा बढ़ेगी और सम्पत्ति भी बढ़ेगी। ये सब सुख के साधनों का धर्मपुरुषार्थ में उपयोग करना होगा। For Private And Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- ३६ १३९ टीकाकार आचार्यश्री मुनिचन्द्रसूरिजी ने प्रस्तुत में जैनेतर विचारधारा को भी बताया है यानी वैदिक परम्परा के शास्त्र शादी-विवाह के विषय में क्या मार्गदर्शन देते हैं, वह भी बताया है । शादी की उम्र : स्त्री १२ बरस की, पुरुष १६ बरस का : वैदिक परम्परा के शास्त्रों में सर्वप्रथम वयमर्यादा बतायी गई है। स्त्री की बारह वर्ष और पुरुष की सोलह वर्ष की उम्र शादीयोग्य बतायी है। वर्तमानकाल में यह उम्र शादी योग्य नहीं मानी गई है। शादी के आदर्शों में ही अन्तर पड़ गया है। किसी भी परम्परा के धर्मग्रन्थ आत्मविकास और आत्मविशुद्धि की दृष्टि से हर बात में मार्गदर्शन देते हैं, जबकि सामाजिक विचारधारा में 'आत्मतत्त्व' को स्थान नहीं होता है। सामाजिक शास्त्र और मनोविज्ञान, मनुष्य की शारीरिक और मानसिक, आर्थिक और भौतिक परिस्थिति को ही लक्ष्य में लेता है। ऋषि-मुनियों ने अपनी ज्ञानदृष्टि में, स्त्री को बारह वर्ष की उम्र में शादी योग्य देखी होगी। बारह वर्ष की लड़की में इतनी जातीय वासना..... कामभोग की वासना जाग्रत होती हुई देखी होगी, यदि उसकी वह भोगवासना संतुष्ट न हो तो संभव है कि वह किसी भी पुरुष से संभोग कर अपने शील का भंग कर दे। जब तक उसकी शादी न हो, वह अनेक पुरुषों से संभोग कर, भोगासक्त बनकर धर्मआराधना से वंचित रहेगी, चरित्रभ्रष्ट होकर जीवन को बरबाद कर देगी। सामाजिक विचारधारा ऐसी बनी हुई है कि कौमार्यव्रत अखण्ड रहना चाहिए। शादी से पूर्व स्त्री या पुरुष को मैथुन से दूर रहना चाहिए, यानी स्त्री-पुरुष की संभोगक्रिया नहीं होनी चाहिए । जो स्त्री-पुरुष शादी से पूर्व मैथुनसेवन करते हैं, समाज की दृष्टि में हीन - पापी माने जाते हैं। लोग उनकी ओर घृणा की दृष्टि से देखते हैं। शादी से पूर्व, जो लड़की अपनी कामवासना पर संयम नहीं रख पाती वह स्त्री छिप कर भी किसी पुरुष से मैथुनसेवन कर ही लेगी। यदि समाज को उसका दुराचरण मालूम हो गया तो फिर उस लड़की से कोई शादी करने को तैयार नहीं होता। शादी से पूर्व यदि लड़की किसी पुरुष के संभोग से गर्भवती हो गई तो उस पर बड़ी आपत्ति आ जाती है। सभा में से : अब कुमारिकाओं को यह भय नहीं रहा है। सरकार ने संतति-नियमन के साधन उपलब्ध करा दिये हैं.... जिसके उपयोग से स्त्री गर्भवती नहीं बनती । For Private And Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- ३६ १४० महाराजश्री : आज की बात अभी नहीं करना है, अभी तो अपन अपनी प्राचीन परम्परा को लेकर सोच रहे हैं। क्यों ऋषि-मुनियों ने बारह वर्ष की उम्र में स्त्री को शादी योग्य माना, उस पर चिंतन कर रहे हैं। शादी से पूर्व स्त्री का संपूर्ण ब्रह्मचारिणी होना अनिवार्य माना गया है। आप लोग मानते हो न कि आपकी लड़कियाँ शादी से पूर्व ब्रह्मचारिणी बनी रहें? परन्तु ब्रह्मचारी बने रहने के लिए कितना दृढ़ मनोबल चाहिए, कितना पवित्र वातावरण चाहिए, कितना सात्त्विक भोजन चाहिए, कैसी वेश-भूषा चाहिए यह सब आपने सोचा है ? उद्दीप्त कामवासना पर संयम रखना, मैथुनसेवन नहीं करना, यह मामूली बात नहीं है। सभी स्त्री-पुरुष वैसे संयमी नहीं हो सकते । पाँच प्रतिशत ऐसे संयमी स्त्री-पुरुष हों तो भी बहुत है । यों भी मैथुनसंज्ञा मनुष्य में प्रबल होती है। पशुओं से भी ज्यादा प्रबल मैथुनसंज्ञा मनुष्य में होती है। देवों की कामवासना से ज्यादा प्रबल कामवासना मनुष्य में होती है। ऐसी वास्तविक परिस्थिति में मनुष्य को कुछ वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करना, दिव्यदृष्टा ऋषि-मुनियों ने सरल पाया। बारह वर्ष की उम्र में स्त्री की पाँचों इन्द्रियों का पूर्ण विकास होता है, मानसिक विकास भी पर्याप्त मात्रा में होता है, यदि उसकी शादी सोलह वर्ष के पुरुष के साथ हो तो वह स्त्री पत्नी के कर्तव्यों का पालन करने में सक्षम बन सकती हैं । उसकी कामवासना शान्त होती है और पथभ्रष्ट, चरित्रभ्रष्ट होने से बच सकती है । जिस स्त्री का शादी से पूर्व संपूर्ण ब्रह्मचर्यपालन होता है और शादी के बाद अपना पतिव्रत अखंड होता है, उस स्त्री की संतान प्रायः सात्त्विक, गुणवान और शीलवान् होती हैं। ऐसी प्रजा से ही मोक्षमार्ग बना रहता है। आत्मज्ञानी दिव्यदृष्टा ऋषि-मुनियों की दृष्टि में, जब कन्या रजस्वला बनती है, तब वह शादी योग्य बनती है । स्त्री का रजस्वला होना, शादी की योग्यता का सूचक माना गया है। शिक्षा की दृष्टि से, स्त्री के जीवन में जितनी आवश्यक शिक्षा चाहिए, उतनी शिक्षा उसको बारह वर्ष की उम्र में मिल सकती है। स्त्री को व्यापार नहीं करना होता है, नौकरी नहीं करनी होती है । उसकी संपूर्ण जिम्मेदारी पति की होती है। T भारतीय जीवन व्यवस्था के अनुसार आर्थिक जिम्मेदारी पुरुष की होती है और घर की जिम्मेदारी स्त्री की होती है। घर को स्वच्छ रखना; परिवार को समय पर भोजनादि देना; वस्त्र धोना; संतानों की सेवा, शिक्षा और पालन करना; अतिथि का सत्कार करना; घर की शोभा बढ़ाना; परिवार को स्नेह से, For Private And Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३६ १४१ वात्सल्य से हराभरा रखना और धर्मपुरुषार्थ में जाग्रत रखना वगैरह स्त्री के कर्तव्य होते हैं। धन कमाने की, परिवार की सुरक्षा करने की, परिवार की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने की, सन्तानों की शिक्षा से शादी तक की जिम्मेदारी पुरुष की होती है। इस प्रकार स्त्री-पुरुष अपनी अपनी जिम्मेदारी प्रेम से, कर्तव्य से निभाते हैं। वर्तमान में शादी बड़ी उम्र में क्यों? : __ कुछ वर्षों से इस विषय में बहुत बड़ा परिवर्तन आ गया है। शादी की उम्र बढ़ गई है। लड़कियों की शादी १८ वर्ष से कम उम्र में नहीं होती हैं और लड़कों की २०-२२ वर्ष पहले नहीं होती है। छोटे गाँवों में छोटी उम्र में कहीं कहीं पर होती हैं शादियाँ, परन्तु प्रायः अपने जैनसमाज में नहीं होती हैं। ___'मोडर्न' गिने जानेवाले लोगों में तो लड़कियाँ पचीस-पचीस वर्ष की आयु में शादी करती हैं! लड़के २८-२८ वर्ष की उम्र में शादी करते हैं! चूँकि शादी से पूर्व प्रायः इन लोगों में मैथुन-प्रवृत्ति प्रविष्ट हो ही गई होती है। कामवासना को शांत करने के लिए, भिन्न-भिन्न प्रकार के सजातीय-विजातीय संबंध ये लोग करते रहते हैं। कालेज में लड़के-लड़कियों की सह-शिक्षा होती है। यौवनकाल में स्त्री-पुरुषों का मुक्त सहचार मैत्री तक मर्यादित नहीं रह सकता है, वे वासनाविवश बन ही जाते हैं और अंततोगत्वा शारीरिक संबंध हो जाता है। स्त्री को भी वही शिक्षा दी जा रही है जो पुरुष को दी जाती है! स्त्री के जीवन में अनुपयोगी शिक्षा पाने के लिए ५-७ वर्ष ऐसे ही बेकार व्यतीत हो जाते हैं। शिक्षा का तो मात्र नाम होता है, लड़की 'डिग्री' लेकर और ब्रह्मचर्य गँवाकर कालेज से बाहर निकलती है। फिर वह नौकरी खोजने लगती है। रुपये पाने के लिए आजकल लड़कियाँ कैसी निम्नस्तर की नौकरियाँ करती हैं, आप लोग जानते होंगे? कुछ बोलने जैसा नहीं है। चरित्रभ्रष्टता की भयानक खाई में स्त्री गिर गई है। ___ आज स्वयं के चारित्र की दृष्टि से शादी के विषय में सोचा नहीं जाता है, आज सोचा जाता है सुख-सुविधा की दृष्टि से! स्वतंत्रता की दृष्टि से! शादी के बाद भी आज स्त्री परपुरुष के साथ घूमने जाने की, घंटों तक एकांत में बैठने की, क्लबों में जाने की रेस्टरन्टों में भोजन करने की स्वतंत्रता चाहती है। For Private And Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रवचन- ३६ स्त्री-स्वातंत्र्य के नाम पर शील की होली : Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४२ पुरुष भी वैसी स्वतंत्रता ले रहा है । वह भी दूसरी स्त्रियों के साथ भटकता रहता है! फिर दोनों एक-दूसरे के ऊपर आरोप मढ़ते रहते हैं....लड़तेझगड़ते रहते हैं। 'स्त्री-स्वातंत्र्य' के मोहक नाम पर स्त्रियों का शील-सदाचार लूटने का ही काम हो रहा है। नौकरी के माध्यम से पैसेवाले लोग नौकरी करनेवाली स्त्रियों के शरीर को ही खरीद लेते हैं। धन की लालच में स्त्री अपनी देह बेच रही है। स्त्री-स्वातंत्र्य की हिमायत करनेवाले क्या स्त्री के शील की चिन्ता करते हैं ? 'स्त्री का शीलपालन होना चाहिए, यह विचार है उनको ? नहीं, उनको स्त्री के भौतिक सुखों का विचार है । स्त्री - स्वातंत्र्य की कल्पना में स्त्री-पुरुष के प्रेमपूर्ण संबंधों की कल्पना खो गई है। स्त्री - स्वातंत्र्य की कल्पना में स्त्री अपने पति का प्रेम, अपने सन्तानों का प्रेम खोती जा रही है। इससे पारिवारिक प्रेम और पारिवारिक व्यवस्था नष्ट होती जा रही है। कहते हैं कि 'यह युग स्त्रियों की गुलामी का नहीं है, स्त्री को गुलाम नहीं रहना चाहिए, स्त्री को चार दीवारों के बीच जीवन पूरा नहीं करना चाहिए....!' ऐसा कहनेवाले लोग स्त्री को बीभत्स विज्ञापन का माध्यम बना रहे हैं। ऐसा बोलनेवाले लोग स्त्री को पुरुष की कामवासना संतुष्ट करनेवाला यंत्र मान रहे हैं। कहाँ है स्त्रीत्व का गौरव ? कहाँ है स्त्रियों के प्रति आदर और सद्भाव ? क्या इसे स्त्री-स्वातंत्र्य कहेंगे? स्त्री अपने पति की और परिवार की निस्वार्थ सेवा करे, क्या यह गुलामी है? स्त्री अपने घर का काम करे, क्या यह गुलामी है ? स्त्री अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देकर अच्छा मानव बनाये, क्या यह गुलामी है ? घर में रसोई बनाने का काम नौकर को सौंपकर स्त्री क्लबों में घूमती फिरे, यह स्वतंत्रता है क्या? स्त्री अपने बच्चों के नौकर के हाथों में सौंप कर सिनेमागृहों में जाकर बैठे वही स्वतन्त्रता है? स्त्री अपने पति को छोड़कर दूसरे पुरुष के साथ हिल स्टेशनों पर चली जाये वही स्वतन्त्रता है ? For Private And Personal Use Only कहते हैं : 'छोटी उम्र में शादी करने से लड़की को स्कूल-कालेज की शिक्षा नहीं मिल पाती । क्या करना है कालेज की शिक्षा को ? कालेज की शिक्षा मनुष्य को प्रायः अभिमानी बना देती है । स्त्री का हृदय तो विनम्र और स्नेह से भरा हुआ चाहिए । आधुनिक शिक्षा ने स्त्री के स्नेहपूर्ण और वात्सल्यमय Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३६ १४३ व्यक्तित्व का नाश कर दिया है। आधुनिक शिक्षा ने स्त्री का निःस्वार्थ पत्नी का रूप खंडित कर दिया है। आप लोगों को अनुभव है या नहीं? व्यक्तिगत परिवर्तन हो सकता है : __ मैं यह नहीं कहता कि छोटी उम्र में ही शादी करनी चाहिए | मेरा कहना यह है कि शादी से पूर्व स्त्री का ब्रह्मचर्य अखंड रहना चाहिए। पुरुष को भी शादी से पूर्व ब्रह्मचारी ही रहना चाहिए। शादी के बाद शादी के आदर्शों का पालन करना चाहिए | सामाजिक व्यवस्था इस प्रकार की होनी चाहिए | मैं जानता हूँ और मानता हूँ कि आज यह परिवर्तन होना असंभव-सा है, फिर भी कोई परिवार, कोई व्यक्ति यदि हिम्मत से ऐसा परिवर्तन करना चाहे तो कर सकता है। उसे कोई रोक नहीं सकता। अच्छा परिवर्तन करने के लिए हिम्मत चाहिए, सत्त्व चाहिए, अपनी बात को सिद्ध करने की बुद्धि चाहिए | लड़कियों को कालेज की शिक्षा देना जरूरी नहीं है : मेरी राय में तो लड़कियों को कालेज में भेजना ही नहीं चाहिए | यदि आप अपनी लड़कियों का जीवन शान्तिमय बनाना चाहते हो तो! ___ सभा में से : यदि लड़कियों को कालेज की पढ़ाई नहीं कराते हैं तो उनसे शादी करनेवाले लड़के नहीं मिलते हैं। ___ महाराजश्री : आपके लड़के भी हैं न? आप अपने लड़के के लिए, जो लड़की कालेज में गई नहीं हो, वैसी लड़की पसन्द करें। आप अपने लड़के के लिए, कालेज पास की हुई लड़की का आग्रह छोड़ दें....तो आपकी लड़की को भी लेनेवाले लड़के मिल जायेंगे! उसमें दूसरी योग्यताओं का अच्छा विकास करते रहें। गुणवान और शीलवान कन्या कभी भी दुःखी नहीं होगी। यदि कोई पापकर्म से दुःख आयेगा तो भी समता से दुःख सहन करेगी परन्तु अपनी चित्तशान्ति को अखंड रखेगी। लड़के और लड़कियों को जो शिक्षा दी जाये, उस शिक्षा का लक्ष्यबिन्दु यही होना चाहिए कि वह दुःखों में दीन न हो, सुखों में लीन न हो। इस केन्द्रबिन्दु के आसपास शिक्षा का प्रसार होना चाहिए। जीवन की सफलता के ये दो मुख्य तत्त्व हैं। दुःख में दीन नहीं होना, सुख में लीन नहीं होना। For Private And Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३६ १४४ अमरीका में अब एक परिवर्तन आया है। जो महिलाएँ बड़ी उम्र तक शादी नहीं करती थीं, उन महिलाओं ने अपने कटु अनुभवों के आधार पर बताया कि 'शादी सोलह वर्ष की आयु में कर लेनी चाहिए।' और आजकल वहाँ लड़कियाँ १६-१७ वर्ष की आयु में शादी करने लगी हैं। ___ जो महिलाएँ घर की जिम्मेदारियों से मुक्त होकर स्वतन्त्रता से जीना पसन्द करती थीं, महिलाएं अपने कटु अनुभवों से बोध लेकर वे 'Return to Home' घर की तरफ चलने लगी हैं। मुझे लगता है कि अपने देश की महिलाएँ भी कटु अनुभव नहीं होगा तब तक वापस नहीं लौटेगी। अभी तो वे घर से दूर-दूर स्वर्ग देख रही हैं और उधर दौड़ रही हैं। मोक्षमार्ग बतानेवाले, मोक्षमार्ग की आराधना बतानेवाले, अध्यात्म का उपदेश देनेवाले ये दोनों महान श्रुतधर आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी और श्री मुनिचन्द्रसूरिजी, गृहस्थ जीवन की विवाह-पद्धति के विषय में जब मार्गदर्शन दे रहे हैं तब अपन को समझना चाहिए कि इस बात का संबंध मोक्षमार्ग से है। धर्मपुरुषार्थ के साथ इसका संबंध है। अन्यथा ऐसे महात्मा, पुरुष शादी-विवाह के विषय को स्पर्श भी नहीं करते। एक महान ज्ञानी पुरुष भगवान उमास्वाती ने कहा है। 'लोकः खलु आधारः सर्वेषां ब्रह्मचारीणाम् ।' लोक यानी समाज, लोक यानी प्रजा, प्रजा तो सभी संयमी पुरुषों का आधार है। सभी संयमी स्त्री-पुरुष का जो आधार है, वह आधार कितना विशुद्ध और सुदृढ़ होना चाहिए? यदि आधार अशुद्ध होगा, ढीला होगा, कमजोर होगा तो कभी आधेय को गिरायेगा। प्रजा यदि कुलवान्, शीलवान् और गुणवान् नहीं होगी तो संयमी स्त्री-पुरुषों का आदर ध्वस्त हो जायेगा। संयमी जीवन का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा। शील और संयम का मूल्यांकन करनेवाले समाज में ही साधुता का, संयम का पालन अच्छी तरह हो सकता है। जिस समाज में शील और संयम का मूल्यांकन नहीं रहा, उस समाज में साधु-साध्वी भी शील और संयम से भ्रष्ट हो गये। प्राचीन भारत में कितने प्रकार के विवाह होते थे, कैसे होते थे....वगैरह बातें आगे बताऊँगा। आज बस, इतना ही। For Private And Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir AN = प्रवचन-३६ १४५ 5. वैदिक परंपरा में शादी-विवाह के आठ प्रकार बतलाये गये हैं... आज के परिवेश में वे सब ज्यों के त्यों प्रस्तुत नहीं हो सकते! . स्त्री को गर्भावस्था के दौरान गर्भ की बड़ी अच्छी तरह देखभाल करनी चाहिए। स्त्री की तमाम वृत्ति या प्रवृत्ति का असर कम या ज्यादा अंश में पेट में रहे हुए बच्चे पर अवश्य पड़ता है। . अपन जो कुछ भी देखते हैं, सुनते हैं या पढ़ते हैं, सोचते हैं... उन सबका असर अपने पूरे व्यक्तित्व पर होता है! . संस्कारी एवं स्नेहभरा परिवार यह तो सबसे ज्यादा कीमती चीज है। परिवार यदि प्रेमसभर, समझदार और सुव्यवस्थित होगा तो आपकी धर्मआराधना निरापद एवं आनंदभरी बनी रहेगी! . घर को नौकरों के भरोसे और बच्चों को नौकरानी के भरोसे छोड़ दोगे तब फिर संस्कार आयेंगे कहाँ से? * प्रवचन : ३७ महान श्रुतधर, पूज्य आचार्य श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी द्वारा विरचित 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ के माध्यम से गृहस्थ के सामान्य धर्म के विषय में अपनी विवेचना चल रही है। शादी-विवाह में औचित्य का पालन, दूसरा सामान्य धर्म है। शादी के विषय में ग्रन्थकार ने काफी स्पष्ट, तर्कसंगत और सर्वांगीण मार्गदर्शन दिया। अब टीकाकार आचार्यश्री इसी संदर्भ में कुछ विशेष बातें बताते हैं। _ विवाह की परिभाषा करते हुए उन्होंने बताया कि 'युक्तितो वरणविधानम् अग्निदेवादिसाक्षिकं च पाणिग्रहणं विवाहः।' कुल-शीलादि की जाँच करना युक्ति है, उस युक्ति से पसन्द कर, अग्नि और देव वगैरह की साक्षी से वर कन्या का पाणिग्रहण करें, उसको विवाह कहते हैं। यह परिभाषा वैदिक परम्परा की है। जैन-परम्परा को भी यह परिभाषा अमान्य नहीं है। प्राचीन भारत में कोई एक प्रकार की विवाह-पद्धति नहीं थी, यहाँ पर टीकाकार आचार्यश्री ने अन्य वैदिक परंपरा के शास्त्रों से उद्धृत करके आठ प्रकार की विवाह-पद्धतियाँ बतायी हैं। संक्षेप में आठों प्रकार के विवाह की पद्धतियाँ बताता हूँ| For Private And Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४६ प्रवचन-३६ १. ब्राह्म-विवाह : कन्या को वस्त्रालंकारों से सजाकर वर को सौंपा जाये, सौंपते समय कन्यादान करनेवाले कन्या को कहे कि : 'तू इस महाभाग पुरुष की सहधर्मचारिणी बन ।' ऐसा कहते हुए जो विवाह किया जाय उसे 'ब्राह्मविवाह' कहते हैं। ___ शादी के बाद स्त्री को अपने पति के साथ जीवन व्यतीत करना होता है। जब पत्नी पति को पूर्ण समर्पित हो जाती है तभी वह सहधर्मचारिणी बन सकती है। पति के पदचिह्नों पर चलनेवाली बनती है। पति के सुख-दुःख में सहभागी बन सकती है। कन्या को शादी के समय जो आशीर्वचन दिया जाता है वह ब्राह्म-विवाह में, दाम्पत्य जीवन की चाबी है। २. प्राजापत्य-विवाह : जब कन्या का पिता कन्या को धन-वैभव के साथ दामाद को कन्यादान देता है तब 'प्राजापत्य-विवाह' कहलाता है। दामाद माँगे या नहीं माँगे, कन्या का पिता अपनी इच्छा से धन प्रदान करता है। अपनी पुत्री के प्रति स्नेह होने से संपन्न पिता लड़की को धन-वैभव दे, यह स्वाभाविक है। ३. आर्ष-विवाह : कन्यादान के साथ साथ कन्या का पिता दो गायों का भी दान दे, उसको 'आर्ष-विवाह' कहते हैं। ४. दैव-विवाह : विवाह के समय जो यज्ञ किया जाता है, वह यज्ञ करने वाले ब्राह्मण को कन्या ही दक्षिणा के रूप में दी जाये यानी उस याज्ञिक के साथ ही कन्या का विवाह किया जाये उसको 'दैव-विवाह' कहते हैं | ये चार प्रकार के विवाह माता-पिता की अनुमति से होते हैं, इसलिए और इन विवाहों में स्त्री-पुरुष के जीवन में गृहस्थोचित देवपूजा वगैरह धार्मिक कर्तव्यों का पालन सरलता से हो सकता है। इसलिए इन विवाहों को धर्मशास्त्रों ने प्रामाणित माना है। अब शेष चार विवाह जो बताता हूँ वे विवाह शास्त्रसंमत नहीं हैं, परन्तु होते थे.... इसलिए बताये गये हैं। ५. गांधर्व-विवाह : स्त्री-पुरुष परस्पर प्रेम हो जाने से शादी कर लें, उस को 'गांधर्व-विवाह' कहते हैं। आज की भाषा में 'लव-मेरेज' यानी 'प्रेमविवाह' कह सकते हैं। ६. आसुर-विवाह : किसी प्रकार की सौदाबाजी करके कन्या दी जाये, उसको 'आसुर-विवाह' कहते हैं। कन्याविक्रय इस प्रकार में आ सकता है। ७. राक्षस-विवाह : कन्या का अपहरण कर, बलात् उसके साथ शादी की जाये, उसको 'राक्षस-विवाह' कहते हैं। For Private And Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३६ १४७ ८. पैशाच-विवाह : सोई हुई अथवा प्रमत्त कन्या का अपहरण कर ले जाना और कन्या की अनिच्छा होते हुए भी उसके साथ शादी करना 'पैशाच-विवाह' है। ये चार प्रकार के विवाह धर्मनिषिद्ध विवाह हैं, परन्तु यदि स्त्री-पुरुष दोनों की परस्पर प्रीति हो तो धर्मविहित है। उस प्रीति में कोई भय अथवा लालच नहीं होनी चाहिए। सहज स्वाभाविक आन्तर प्रीति से विवाह हुआ हो तो अधार्मिक नहीं बनता है। रामायण में एक किस्सा आता है। श्रीकंठ नाम का राजकुमार अपने विमान में आकाश-मार्ग से जा रहा था। एक नगर में बाह्य उद्यान में उसने एक राजकुमारी को देखी। श्रीकंठ विमान को कुछ नीचे लाया, राजकुमारी ने कुमार को देखा....दोनों अनुरागी बन गये । तत्काल श्रीकंठ ने राजकुमारी का अपहरण करने का निर्णय किया। विमान जमीन पर उतार कर, राजकुमारी को लेकर आकाश-मार्ग से भागने लगा। राजकुमार ने अपहरण किया परन्तु राजकुमारी की संमति से किया। जब राजकुमारी के पिता विद्याधर राजा को मालूम पड़ा कि उसकी कन्या का अपहरण हो गया है, शीघ्र ही सेना के साथ आकाश-मार्ग से उसने पीछा किया। श्रीकंठ तो सीधा पहुँच गया लंकाद्वीप पर | लंका का राजा कीर्तिधवल श्रीकंठ का बहनोई था। श्रीकंठ ने जाकर कीर्तिधवल से सारी बात कह दी। कीर्तिधवल ने श्रीकंठ को आश्रय दिया। उसने लंका के द्वार बंद करवा दिये और अपने सैन्य को सजग कर दिया। __कीर्तिधवल ने एक दूत को अपना संदेश लेकर विद्याधर राजा के पास भेजा । दूत ने जाकर लंकापति का संदेश सुनाया : 'आप उपशान्त हों, आपकी लड़की अपनी इच्छा से राजकुमार श्रीकंठ के साथ आई है। श्रीकंठ ने बलप्रयोग से अपहरण नहीं किया है। यों भी कन्या पराया धन है, किसी भी सुयोग्य राजकुमार से उसकी शादी करने की ही होगी, तो फिर जब कन्या ने स्वयं पति का वरण कर लिया है तब आपको गुस्सा नहीं करना चाहिए, परन्तु दोनों को प्रेम से आशीर्वाद देकर शादी कर देनी चाहिए।' दूत ने संदेशा सुनाया, इतने में एक दासी ने आकर राजा से कहा : 'महाराजा, मैं देवी पद्मा का संदेशा लेकर आई हूँ | उसने कहा है कि मैं अपनी इच्छा से श्रीकंठ के साथ आई हूँ, श्रीकंठ का कोई दोष नहीं है। मैं मन से श्रीकंठ की पत्नी बन गई हूँ, इसलिए आप गुस्सा नहीं करें।' राजा ने सोचा कि दोनों ने परस्पर के अनुराग से काम किया है, तो अब For Private And Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३७ १४८ मुझे दोनों की शादी कर देनी चाहिए। उसने लंका में आकर दोनों की शादी कर दी। __ पुरुष की अपेक्षा से शादी का प्रथम फल है विशुद्ध पत्नी की प्राप्ति का। यदि अखंड कौमार्य व्रतवाली पत्नी मिलती है, गुणवान और शीलवान पत्नी मिलती है तो शादी सफल बनती है। गर्भवती स्त्री गर्भ का ध्यान रखे : ऐसी पत्नी प्राप्त होने का फल है अच्छे संतानों की प्राप्ति। यदि माता सशील, संयमी और संस्कारी होगी तो उनकी संतान प्रायः सुशील, संयमी और संस्कारी ही पैदा होगी। जब से स्त्री गर्भवती बनेगी तभी से वह सावधान हो जायेगी। उसको मालूम हो जायेगा कि 'मैं माता बननेवाली हूँ...' तभी से वह अपने समग्र जीवन में परिवर्तन कर देगी। पेट में रहे हुए जीव को किसी प्रकार की शारीरिक और मानसिक पीड़ा न हो, किसी प्रकार के कुसंस्कार उस पर न पड़ें; इसलिए वह सजग बन जाती है। वह अपने आनन्द-प्रमोद और सुखभोग को छोड़कर गर्भस्थ जीव की सुख-शाता का विचार करती है। वह जानती है कि मेरी मन-वचन-काया की हर एक प्रवृत्ति का असर सूक्ष्म रूप से गर्भस्थ जीव पर पड़ेगा ही। उस पर कोई बुरा असर न पड़ें इसलिए वह अपने विचारों को भी पवित्र रखने का प्रयत्न करती है | गर्भस्थ बच्चे का असर माँ के मन पर : ऐसा भी बनता है कि गर्भ में आनेवाला जीव पवित्र आत्मा होती है, महान होनेवाला होता है तो माता को अच्छे स्वप्न आते हैं! इसका अर्थ यह होता है कि गर्भस्थ जीव के अच्छे-बुरे कर्मों का प्रभाव माता के विचारों पर पड़ता है | परन्तु जाग्रत माता समझ लेती है कि मेरे पेट में कैसा जीव आया है। उसका प्रयत्न तो वही रहता है कि सन्तान सुशील और सदाचारी बने। सन्तान निरोगी और स्वस्थ बनी रहे | उसकी पाँचों इन्द्रियाँ परिपूर्ण हों। यदि माता का यह लक्ष्य नहीं हो तो संभव है कि माता की दुष्प्रवृत्तियों से सन्तान रोगी, अस्वस्थ और क्षतियुक्त इन्द्रियोंवाली जन्मे! गर्भवती स्त्री की वृत्ति-प्रवृत्ति का असर बच्चों पर : जो गर्भवती स्त्री रेडियो, रेकार्ड वगैरह सुनती रहती है उसका बच्चा बहरा जन्मता है। जो स्त्री दिनभर सिनेमा, नाटक, सरकस, टी.वी. विडियो वगैरह For Private And Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३७ ___१४९ देखती रहती है, तो उसकी सन्तान अंधी अथवा कमजोर आँखोंवाली पैदा होती है। जो स्त्री बहुत मीठा, तीखा, खट्टा खाती है, बहुत गर्म अथवा बहुत शीतल भोजन करती है उसका बच्चा रोगी, अशक्त और शारीरिक क्षतिवाला पैदा होगा। जो स्त्री दौड़ती है, ज्यादा हँसती है, बहुत बोलती है, उसका बच्चा भी शारीरिक क्षतिवाला पैदा होगा। उसके दांत काले होंगे, उसके होंठ भी काले होंगे... वगैरह | जो स्त्री शरीर पर तेल की मालिश करती रहती है, पावडर वगैरह लगाती है, उसके बच्चे को चर्मरोग होता है | अत्यंत फिट-टाइट वस्त्र से गर्भस्थ जीव के शरीर का विकास रुक जाता है। मैथुन-सेवन तो अत्यंत हानिकर्ता बनता है। यदि स्त्री करुणामयी होगी तो गर्भस्थ जीव को जरा भी कष्ट नहीं होने देगी। गर्भपात का पाप बढ़ रहा है : सभा में से : आजकल तो 'एबोरशन' सामान्य बात हो गई है। समाज में अच्छे कहलाने वाले लोग भी यह घोर पाप करने लगे हैं। ___ महाराजश्री : भ्रूण-हत्या का पाप कैसा भयानक पाप है, मुझे समझाना पड़ेगा क्या? स्त्री-पुरुष में कितनी तीव्र क्रूरता हो तब यह पाप होता है? गर्भस्थ जीव के प्रति इतनी निर्दयतावाले स्त्री-पुरुष धर्मक्षेत्र में प्रवेश करने के लिए योग्य नहीं है, धर्मस्थानों में आने योग्य नहीं हैं। दूसरी बात : जो स्त्री इतनी निर्दय हो सकती है वह सुशील नहीं रह सकती, उसकी कुलीनता नहीं रहती, उसमें धर्माचरण की योग्यता नहीं रहती। ऐसी महिलाओं को प्रायः सन्तान नहीं होती, यदि हो, तो भी वे सन्तान सुशील एवं संस्कारी नहीं हो सकती। सरकार भी पापों को उत्तेजना दे रही है : भारत के इतिहास में आपने कहीं पर भी पढ़ा है कि सरकार ने प्रजा को 'एबोरशन' भ्रूणहत्या करने की इजाजत दी हो? भारत में मुसलमान राजाओं का भी राज्य था, परन्तु उन राजाओं ने भी कभी गर्भपात की इजाजत नहीं दी थी। अंग्रेजों के राज्य में भी गर्भपात करना-कराना अपराध माना जाता था, परन्तु स्वतंत्र भारत के नेताओं ने इस पाप को बढ़ावा दिया है। संतति-नियमन के साधनों का देशव्यापी प्रचार कर दुराचार-व्यभिचार को उत्तेजना दी है। मद्यपान का भी सरकार निषेध नहीं करती है। मांसाहार को बढ़ावा देती है.... ऐसी परिस्थिति में मनुष्य को पापों से मुक्त करना कितना मुश्किल बन गया For Private And Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- ३७ १५० है ? यदि मनुष्य स्वयं जाग्रत हो, स्वयं आत्मज्ञानी बनें और इन बुराइयों से बचना चाहे तो ही बच सकता है, अन्यथा नहीं । स्त्री के लिए गर्भस्थ जीव का पालन करना बड़ा धर्म है । यदि धर्मपालन करें तो अच्छी संतान, अच्छी प्रजा पैदा हो सकती है । सात्त्विक और संस्कारी प्रजा कब पैदा होगी ? ध्यान रखना, मोक्षमार्ग की आराधना सात्त्विक प्रकृति की प्रजा ही कर सकती है। सात्त्विक प्रजा की उत्पत्ति सुशील, संस्कारी और करुणामयी महिलाएँ ही कर सकती हैं। रजोगुणी और तमोगुणी महिलाओं की प्रजा भी रजोगुणी और तमोगुणी होगी । ऐसी प्रजा मोक्षमार्ग का अनुसरण नहीं कर सकती, आत्मतत्त्व की उपलब्धि नहीं कर सकती । अच्छी प्रजा के लिए, सात्त्विक प्रजा के लिए महिलाएँ भी सात्त्विक चाहिए। पुरुष भी सात्त्विक चाहिए। मात्र शारीरिक सुख पाने की दृष्टि से शादी का मार्ग नहीं बताया गया है। वह सुख तो बिना शादी किये भी मनुष्य पा सकता है। शादी का प्रयोजन सात्त्विक प्रजा की उत्पत्ति का है । सात्त्विक का अर्थ शक्तिशाली नहीं है, सात्त्विक का अर्थ है सुशील, सहनशील, स्थिर, धीर और वीर। ऐसी प्रजा कष्टभरपूर धर्मपुरुषार्थ करने में समर्थ होती है। ऐसी प्रजा ही आत्मा को अनंत कठोर कर्मों के बंधनों से मुक्त कराने में समर्थ होती है। निःसत्त्व, कायर और कष्टभीरु प्रजा धर्मपुरुषार्थ तो नहीं, अपने राष्ट्र की रक्षा करने भी समर्थ नहीं होती है । अत्यंत विलासिता मनुष्य को निःसत्त्व, कायर, अस्थिर और चंचल बना देती है। आज के मनुष्य की स्थिति देखो । विलासिता में मनुष्य डूब रहा है। शादी के आदर्शों को भूल गया है । आत्मदृष्टि ही नहीं रही है। मात्र भोगदृष्टि और भोग-उपभोग की सृष्टि में भटकना ! प्रजा निर्वीर्य और निःसत्त्व पैदा हो रही है। शुरूआत स्वयं से होगी : यदि पूरा देश नहीं, प्रान्त नहीं, एक जैन समाज भी इन आदर्शों को सजीवन करें और ज्ञानी पुरुषों के मार्गदर्शन अनुसार जीवन-पद्धति बना दें तो उनका तो आत्मकल्याण होगा ही, देश का भी भला होगा। दूसरी प्रजा को एक भव्य आदर्श मिलेगा । चाहते हो आप लोग वैसा भव्य आदर्श प्रस्थापित करना? आप लोगों से क्या मैं आशा कर सकता हूँ? यदि आप लोग आशा For Private And Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- ३७ १५१ पूर्ण नहीं करोगे तो कौन करेगा? आप ही बताइए, मैं किस समाज के पास जाऊँ और प्रयास करूँ ? धर्म के इन प्राथमिक उपदेशों की उपेक्षा करके, धर्मशासन को बहुत बड़ा नुकसान पहुँचाया गया है। जो धर्म हमारा भला करना चाहता है, हमारा कल्याण करना चाहता है, उस धर्म का हम बुरा कर रहे हैं ! उसको धोखा दे रहे हैं! गृहस्थ जीवन के इन सामान्य धर्मों का अध्ययन करके, समझकर उसे जीवन में स्थान दो, आप विश्वास करें कि इससे आपका हित ही होगा । यदि पत्नी सुशील, सात्त्विक और संस्कारी है, संतान भी सुशील, तेजस्वी और विनयादि गुणवाले हैं; तो आपका चित्त, आपका मन शान्त रहेगा, आपको मानसिक प्रसन्नता मिलेगी। आप स्वस्थ और प्रशान्त बने रहेंगे। चित्त की स्वस्थता और प्रसन्नता बनी रहती है तो फिर दूसरा क्या चाहिए ? यदि वह स्वस्थता प्रसन्नता नहीं है और दुनिया की संपत्ति मिल जाय तो भी किस काम की वह संपत्ति ? अस्वस्थ, अशान्त और उद्विग्न चित्तवाले श्रीमन्तों को पूछो कि 'आप सुखी हो?' क्या जवाब मिलता है, सुनना । परिवार को संस्कारी बनाइए : आत्मकल्याण की आराधना में, आत्मविशुद्धि की आराधना में मनुष्य का मन निराकुल बना रहना अत्यन्त जरूरी होता है । शान्त और स्वस्थ मन से ही धर्माराधना सुचारू रूप से हो सकती है। अच्छा परिवार होने से मन शान्त और स्वस्थ रह सकता है । प्रतिकुल परिवार के बीच रहते हुए मन की शान्ति और स्वस्थता बनाये रखना सरल नहीं है । सभा में से : अच्छा अनुकूल परिवार तो पुण्योदय से प्राप्त होता है न? महाराजश्री : सभी सुख पुण्योदय से प्राप्त होते हैं । आप लोग सुख पाने का पुरुषार्थ नहीं करते हो न ? पुण्योदय के बिना धन-संपत्ति प्राप्त होती है क्या? तो पुरुषार्थ किसलिए करते हो? अच्छा परिवार पुण्योदय से प्राप्त होता है, फिर भी परिवार को अच्छा बनाने का प्रयत्न करना अत्यन्त आवश्यक होता है । परिवार को अच्छी शिक्षा मिले, अच्छे संस्कार मिलें, अच्छा वातावरण मिले, इसलिए कोई प्रबन्ध करते हो? कोई प्रबन्ध नहीं ! वैसे ही पुण्योदय हो जायेगा और परिवार सुधर जायेगा, इस आशा से बैठे रहो और आकाश के तारे गिनते रहो! अच्छा परिवार चाहिए तो सर्वप्रथम कुलवान्, शीलवान् और समझदार स्त्री For Private And Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३७ ___ १५२ से शादी-संबंध करना चाहिए। संतान को गर्भावस्था से सुसंस्कारी बनाने की माता की जाग्रति चाहिए | जन्म होने के बाद बच्चे को कुशलता से शिक्षा देनी चाहिए। आपको अपने दिमाग को 'कन्ट्रोल' में रखते हुए परिवार के साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए। दर्शन-श्रवण-वाचन में सावधान रहना जरूरी है : आपके और आपके परिवार को तीन बातों में पूर्ण सावधानी बरतनी होगी। दर्शन, श्रवण और वाचन में सावधानी होनी चाहिए | मनुष्य में कोई भी अच्छाई या बुराई का प्रवेश तीन द्वारों से होता है। ___ आप जो देखोगे, सुनोगे और पढ़ोगे, आपके मन पर उसका असर होगा ही। तत्काल असर का ख्याल भी नहीं आयेगा, धीरे-धीरे असर बढ़ता जायेगा, आपके आचरण में वह बात आ जायेगी! आप आश्चर्य करोगे कि 'मुझ में यह परिवर्तन कैसे आ गया?' वह परिवर्तन कुछ देखने से अथवा कुछ सुनने से अथवा कुछ पढ़ने से! चोरी करनेवाले कुछ युवक जब पकड़े गये, उन्होंने न्यायाधीश के सामने कबूल किया कि 'फलां सिनेमा देखने से चोरी करने की इच्छा हुई। चोरी करने की पद्धति भी पिक्चर से ही सीखी....!' किसी की हत्या करनेवालों ने कबूल किया है कि 'अमुक व्यक्ति से मैंने सुना कि उस व्यक्ति ने मेरी पत्नी से दुर्व्यवहार किया है, और मुझे तीव्र रोष आया, रिवॉल्वर लेकर पहुँचा उधर और उस व्यक्ति पर गोली छोड़ दी.... मार दिया उसको।। ___ अभी-अभी विदेश का एक किस्सा पढ़ने में आया। एक युवक जासूसी उपन्यास बहुत पढ़ता रहता था। एक उपन्यास में डाकू बैंक लूटता है और लाखों रूपये लेकर भाग जाता है। बस, उस युवक ने भी बैंक लूटने की स्कीम बनाई। जिस पद्धति से उपन्यास के डाकू ने बैंक लूटा था, उसी पद्धति से वह बैंक लूटने चला.... बैंक के आगे पहुँचा और तुरन्त पकड़ा गया! यदि परिवार अच्छा चाहिए तो सिनेमा देखना, टीवी देखना.... परस्त्री को देखना शीघ्र बंद कर दो। परनिन्दा सुनना, फालतू बातें सुनना, गंदे गीत सुनना बंद कर दो। जासूसी उपन्यास पढ़ना, सामाजिक वीभत्स कहानियाँ पढ़ना, फिल्मी मेगेज़ीन पढ़ना छोड़ दो। इतनी सावधानी तो रखनी ही होगी। पति-पत्नी दोनों की विचारधारा समान होगी और दोनों अपनी संतानों को गुणवान्, शीलवान् और संस्कारी बनाने की इच्छावाले होंगे तो ही यह काम For Private And Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३७ १५३ सफल हो सकता है, अन्यथा नहीं। भिन्न विचारवाले पति-पत्नी के लड़केलड़कियों का अच्छा जीवननिर्माण नहीं हो पाता है। माता की शिक्षा अलग, पिता की राय अलग... बच्चे द्विधा में पड़ जाते हैं। दो में से किसी की बात वे मानते नहीं हैं.... अपने मनमाने ढंग से जीवन जीते हैं। यदि परिवार को सानुकूल बनाने का प्रयत्न करोगे तो लाभ आपको ही है। जिस परिवार में स्त्री और सन्तान सुशील, विनयी और विवेकी होती है उस परिवार में सभी लोग प्रसन्नचित्त रहते हैं। सभी के चित्त प्रसन्न रहने से, सभी की राय एक होने से, धर्म की आराधना-उपासना में वे प्रगति करते रहते हैं | धर्माराधना में वे अपूर्व आनन्द का अनुभव करते हैं। कोई अत्यंत तनाव नहींकोई दुराग्रही नहीं, कोई शंका-कुशंका नहीं। एक आदर्श जैन-परिवार : __ ऐसा एक परिवार मेरे देखने में आया। दूसरे भी ऐसे परिवार होंगे। यह तो जो मेरे परिचय में आया उस परिवार की बात करता हूँ। पति-पत्नी और दो संतान - एक लड़का और एक लड़की। दो संतान प्राप्त होने पर पति-पत्नी ने संपूर्ण ब्रह्मचर्य-व्रत धारण कर लिया था। पति 'ग्रेज्युएट' है यानी सुशिक्षित है। लड़के-लड़की को भी पढ़ाया, दोनों ग्रेज्युएट हुए....परन्तु कालेज का एक भी दूषण उनमें नहीं आया। जब भी मैंने इस परिवार को देखा है प्रसन्न और प्रफुल्लित देखा है। कभी किसी के मुख पर गुस्सा या नाराजी तो देखी ही नहीं। कभी न झगड़ा, न मनमुटाव | सबकी अपनी अपनी धर्माराधना चलती रहती है। मैंने उस परिवार को श्रद्धावान्, ज्ञानवान् और सुशील पाया। इससे विपरीत परिवारों की तो कोई सीमा ही नहीं है। वास्तव में देखा जाय तो माता-पिता का लक्ष्य ही नहीं रहा कि परिवार सदाचारी और प्रसन्नचित्त बना रहे। पिता श्रीमन्त बनने की तृष्णा में दौड़ रहा है और माता अपनी साज-सज्जा, मौजमजा और सामाजिक व्यवहारों में उलझी हुई है। समाज में बड़े बनने की, बड़े दिखने की लालसा बढ़ी हुई है। ऐसी जीवनपद्धति में शान्ति, स्वस्थता और प्रसन्नता कहाँ से आयेगी? स्थिर चित्त-धर्माराधना कैसे हो सकती है? ___ शादी की सफलता के विषय में अपनी बात चल रही है। अच्छी पत्नी और अच्छी सन्तान होने पर चित्तप्रसन्नता प्राप्त होती है। घर के सभी गृहस्थोचित कार्य सुचारू रूप से संपन्न होते हैं। घर की व्यवस्था बनी रहती है। भोजनादि समय पर होता है| घर स्वच्छ रहता है... यह भी शादी का एक फल है न? For Private And Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३७ ___१५४ शादी की निष्फलता के कारण : सभा में से : यह फल आजकल हम लोगों को कम मिलता है। घर के बहुत से काम नौकर से करवाये जाते हैं! महाराजश्री : आप लोगों की तो कैसी दुर्दशा हो गई है? इसमें भी जो श्रीमंत हैं उनको तो संभवतः पत्नी का बनाया हुआ भोजन भी किस्मत से ही मिलता होगा! रसोइया ही रसोई बनाता है और शायद वह ही सेठ साहब को परोसता होगा? सेठानी रेडियो सुनती रहेगी या तो अखबार पढ़ती रहेगी अथवा किसी सहेली के वहाँ बैठी होगी। घर का कोई काम शायद ही वह करेगी! इसका परिणाम आप देखते हैं न? मोटा शरीर, 'डबल डेकर बोडी' और दवाइयाँ! फालतू खर्च और दुराचरण! मध्यम स्थिति के परिवारों में और गरीब परिवार में तो फिर भी घर की महिलाएँ घर का काम स्वयं करती हैं। बम्बई जैसे नगरों में मध्यम स्थिति के परिवारों में भी नौकरों का राज्य आ गया है। श्रीमंत परिवारों का अन्धानुकरण चल पड़ा है! __ ऐसी परिस्थिति का निर्माण क्यों हुआ? पहली गलती तो आपकी पसन्दगी में हुई है! दूसरी गलती आपका धन का पागलपन है और तीसरी गलती है धर्माराधना के लक्ष्य का अभाव | जिस प्रकार इस 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ में पत्नी की पसन्दगी का मार्ग बताया है उस प्रकार की पसन्दगी की पत्नी हो और सुशील सन्तान हो तो परिवार में व्यवहारशुद्धि बनी रहेगी। गृहस्थोचित आचारों में शुद्धि बनी रहेगी। व्यवहारशुद्धि गृहस्थ जीवन में महत्त्व की बात होती है। हमारे साधुजीवन में भी व्यवहारशुद्धि महत्त्वपूर्ण बताई गई है न! जब तक व्यवहारदशा में अपन हैं तब तक अपने उचित कर्तव्यों के पालन में तत्परता होनी ही चाहिए। गृहस्थ जीवन में परस्पर के व्यवहारों का पालन बहुधा स्त्री कर सकती है! पुरुष को उतना समय भी नहीं मिल सकता। स्त्री में व्यवहार-कुशलता हो तो वह अपने घर की शान बढ़ाती है, इज्जत बढ़ाती है। स्नेही-सगे-संबंधी के साथ संसार में संबंध रखने पड़ते हैं। संबंधों को बनाये रखने के लिए एक-दूसरे के कुछ कार्य करने के होते हैं। घर की स्त्री का ख्याल होता है कि किसके साथ कब, कितना और कौन-सा काम करना है! पति की अनुपस्थिति में भी वह व्यवहारों को निपटाती रहती है। घर में ऐसी व्यवहारदक्ष पत्नी हो तो व्यवहारशुद्धि बनी रहती है, यह भी शादी का एक लाभ है न? हालाँकि वर्तमानकालीन ध्वस्त पारिवारिक व्यवस्था में व्यवहारशुद्धि नहीं रही है। प्रमाद और विलास ने For Private And Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- ३७ १५५ मनुष्य को कर्तव्य-विमुख बना दिया है । जीवन - व्यवहार में बहुत-सी अशुद्धियाँ प्रविष्ट हो गई हैं। स्त्री का गौरव कैसे बढ़ेगा? T शादी का एक महत्त्वपूर्ण फल बताया है अतिथिसत्कार का ! स्नेही - संबंधी का सत्कार । पुरुष जब अपने व्यवसाय के लिए बाहर होता है, घर पर कोई साधु-संत पधार जाय तो घर की स्त्री उनका उचित सत्कार करती है। स्नेहीसंबंधी आ जाय तो उनका सत्कार करती है। जिस घर में इस प्रकार आगंतुकों का आदर-सत्कार होता है उस घर की शोभा बढ़ती है, प्रतिष्ठा बढ़ती है। आगंतुकों का मधुर शब्दों से सत्कार करना उचित आसन प्रदान करना, भोजनादि से सेवा करना, सभ्यता से बात करना .... वगैरह उचित व्यवहार के पालन से स्त्री का भी गौरव बढ़ता है । देवी अनुपमा की उदारता : जब गुजरात पर राजा वीरधवल राज्य करता था, उसके महामंत्री थे वस्तुपाल और सेनापति थे तेजपाल । वस्तुपाल - तेजपाल गुजरात के इतिहास के अमर पात्र हैं। तेजपाल की पत्नी थी अनुपमादेवी । जिसकी कोई उपमा नहीं मिले वैसी थी वह अनुपमादेवी । एक दिन एक मुनिराज गौचरी लेने तेजपाल की हवेली में पधारे। घर में वस्तुपाल-तेजपाल नहीं थे, अनुपमादेवी थी । मुनिराज का स्वागत किया और भिक्षा स्वयं देने लगी। मुनिराज के पात्र में घी डालते - डालते पात्र बाहर से घीवाला हो गया। अनुपमादेवी अपनी साड़ी से पात्र को पोंछने लगी तब मुनिराज ने कहा : 'देवी, दूसरे वस्त्र से साफ करो, यह साड़ी बिगड़ेगी ।' तब अनुपमादेवी ने कहा : 'गुरुदेव! ऐसा मेरा सौभाग्य कहाँ कि मुनिराज के पात्र का मेरी साड़ी को स्पर्श मिले! साड़ी तो दूसरी भी मिलेगी। जब मेरे सर पर परमात्मा जिनेश्वरदेव हैं, आप जैसे सद्गुरुदेव हैं, महाराजा वीरधवल जैसे मालिक हैं, फिर मुझे किस बात की कमी है?' मुनिराज तो 'धर्मलाभ' का आशीर्वाद देकर पधार गये, परन्तु वहाँ एक दूसरी ही घटना घटी थी ! राजा वीरधवल भेष-परिवर्तन कर तेजपाल की हवेली के द्वार पर खड़ा था, वस्तुपालतेजपाल के विरोधियों ने राजा के कानों में कुछ गलत बातें भरी थीं, राजा स्वयं देखने आया था! उसने द्वार पर खड़े खड़े अनुपमादेवी के शब्द सुने...... वह स्तब्ध रह गया! जिस घर की स्त्री के हृदय में मेरे प्रति इतनी श्रद्धा..... For Private And Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३७ १५६ इतना आदर है उस घर में मेरे विरुद्ध षड्यंत्र नहीं चल सकता.... मुझे जो बातें कही गई है वे सब गलत है....।' राजा का मन निःशंक हो गया! यदि अनुपमादेवी के वैसे शब्द नहीं निकलते तो राजा का मन शंकारहित नहीं बनता! अनुपमादेवी ने तो वस्तुपाल-तेजपाल को आबू-देलवाड़ा पर अमर कर दिया है! उनकी ही प्रेरणा से वस्तुपाल-तेजपाल ने आबू-देलवाड़ा में भव्य जिनमन्दिर बनवाया था। स्त्री प्रेरणा की पावन प्रतिमा बने : __ घर में सुशील पत्नी होती है, बुद्धिमान और विवेकी सन्नारी होती है, तो वह कभी संकट आने पर परिवार को बचा लेती है। रामायण में, श्री राम के पूर्वजों के इतिहास में, राजा नघुष की रानी सिंहिका का वृत्तान्त आता है न? पढ़ी है न जैन-रामायण? जब नघुष दक्षिणापथ के राजाओं के साथ लड़ने गया था, अयोध्या को उत्तरापथ के राजाओं ने घेर लिया था, उस समय रानी सिंहिका ने बहादुरी से सेना के साथ उन राजाओं से युद्ध कर उन्हें भगाया था! अयोध्या की रक्षा की थी! ___ शादी के ये लाभ बताकर टीकाकार आचार्यश्री ने स्त्री की गृहसंसार में कितनी महत्ता होती है वह बता दिया है! स्त्री के कर्तव्यों का निर्देश कर दिया है। पत्नी के भव्य व्यक्तित्व को बता दिया है। यदि महिलाएँ इस प्रकार अपने व्यक्तित्व का विकास करें तो अपने जीवन को तो धन्य बनाएँ, साथ साथ अपने परिवार को धर्मपुरुषार्थ में सहायक बन जाएँ। प्रेरणामूर्ति बन जाएँ। स्त्री के प्रति पुरुष का कैसा व्यवहार होना चाहिए, पत्नी की सुरक्षा किस प्रकार करनी चाहिए और पत्नी के प्रति पति को कैसी वफादारी निभानी चाहिए.... वगैरह बातें आगे करूँगा। आज बस, इतना ही। For Private And Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३७ १५७ .धर्म तो जीने के लिए है! जिन्दगी की हर एक साँस के साथ धर्म की सुवास गुम्फित हो जानी चाहिए। नई बात या नया अभिगम अपनाने के लिए भी सत्त्व चाहिए। निःसत्त्व आदमी कभी क्रांति नहीं कर सकता! क्रांति के लिए तो लौह हृदय, फौलादी व्यक्तित्व चाहिए! वर्ना क्रांति केवल भ्रांति बनकर रह जायेगी! यदि आप परिवार में बड़े हो, बुजुर्ग हो... तो आपके पास समझदारी, गंभीरता, उदारता जैसे मौलिक गुण होने अत्यंत जरुरी हैं! ये बातें होंगी तो ही आप परिवार को पूरा न्याय दे पाओगे! दुनिया के प्रवाह में बहकर यदि जीते रहे तो पतन की गहरी खाई में फिसल जाओगे! जरा सोच-समझकर जीवन जीओ! . स्त्री अपने परिवार की सेवा करे, पूरे परिवार को प्रेम-उष्मा से सराबोर रखे, संस्कारों से सुवासित् करे... क्या यह = दकियानूसी है? • प्रवचन : ३८ महान श्रुतधर, आचार्यश्री हरिभद्रसूरिजी 'धर्मबिन्दु' ग्रंथ में गृहस्थ का सामान्य धर्म बता रहे हैं। सामान्य धर्म वास्तव में देखा जाये तो विशेष धर्म से भी ज्यादा महत्त्व रखता है। पालन की दृष्टि से देखा जाये तो भी सामान्य धर्मों का पालन, विशेष धर्मों के पालन से ज्यादा दुष्कर है। सामान्य धर्म असामान्य... असाधारण धर्म है! क्योंकि सामान्य धर्म जीवनधर्म है | जीवन की हर क्षण का, श्वासोश्वास का धर्म है! सामान्य धर्म जीने का है, करने का नहीं है! आज मनुष्य धर्म करने को फिर भी तैयार हो जाता है, धर्म जीने को तैयार नहीं होता! दान देने को तैयार होता है परन्तु अप्रमाणिक धन्धा छोड़ने को तैयार नहीं होता! सामायिक करने को तैयार होता है परन्तु क्रोध, रोष, वैर को छोड़ना नहीं चाहता! परमात्मा की पूजा करने को तैयार होता है, परन्तु परमात्मा की आज्ञा का पालन करने को तैयार नहीं होता! प्रतिक्रमण करने को तैयार होगा, पापों का त्याग करने को तैयार नहीं होता! For Private And Personal Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५८ प्रवचन-३७ सामान्य धर्म की उपेक्षा न करें : सामान्य धर्म जीने का धर्म है। यदि आप लोग विविध सामान्य धर्मों को समझकर जीने का पुरुषार्थ करोगे तो धर्म की अपार महिमा का अनुभव कर सकते हो। परन्तु दुर्भाग्य यह है कि आपको जीने हैं पाप और करना है धर्म! पसन्द है पापमय जीवन और करना है थोड़ा-सा धर्म! वह भी इसलिए कि पापों के फल भोगने न पड़ें। परन्तु इस प्रकार किया हुआ विशेष धर्म आपको दुर्गति में जाने से बचा नहीं सकेगा | सामान्य धर्म की उपेक्षा करके, विशेष धर्म की कुछ क्रियाएँ करनेवाले दुर्गति से नहीं बच पाते हैं, ऐसे कई उदाहरण शास्त्रों में मिलते हैं। कुछ गंभीरता से सोचो तो काम बन पायेगा। मात्र सुन कर चले जाओगे तो कुछ भी जीवन-परिवर्तन होनेवाला नहीं है। न्याय-नीति और प्रमाणिकता को अर्थपुरुषार्थ में स्थान दो। कुल-शील-वैभव-वेश और भाषा की समानता को कामपुरुषार्थ में स्थान दो। ज्यादा तर्क-वितर्क मत करो। सात्त्विक बनो और हिंमत से परिवर्तन के पथ पर चलो। दाम्पत्य जीवन को लेकर कुछ विशेष बातें यहाँ बताई जा रही हैं, जिससे आपके धर्मपुरुषार्थ का मार्ग निर्बाध, निराकुल और प्रशस्त बन सके। आप प्रसन्नचित्त बनकर आत्मकल्याण की साधना कर सकें। __मान लो कि आपने कुल-शील वगैरह की समानता देखकर भिन्न गोत्र की कन्या के साथ, योग्य उम्र में शादी की, परन्तु उस कन्या की, जो आपकी पत्नी बनकर आई है, उसकी सुरक्षा भी आपको करनी होगी। उसके तन की और उसके मन की चिन्ता करनी होगी, यानी उसके शारीरिक स्वास्थ्य की और मन के विचारों की सद्विचारों की सुरक्षा करने की आपकी जिम्मेदारी होती है। ___ आपकी पत्नी नहीं हो, पुत्रवधू हो तो पुत्रवधू की शारीरिक एवं मानसिक सुरक्षा आपको करनी ही होगी। यदि आप उपेक्षा करोगे तो बड़ा अनर्थ हो सकता है। एक कहानी बहू की : एक बड़े नगर में एक श्रीमन्त परिवार रहता था। सेठ को एक ही पुत्र था। पुत्र सुशील था, संस्कारी था। एक सुयोग्य कन्या से पुत्र की शादी कर दी गई। शादी के बाद एक वर्ष में ही लड़का स्वर्गवासी हो गया, उसकी अकाल मृत्यु हो गई। माता-पिता और पत्नी के दुःख की कोई सीमा न रही.... परन्तु दुःख सहन करे बिना दूसरा कोई रास्ता नहीं था। ज्यों-ज्यों समय बीतता गया For Private And Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३७ १५९ त्यों-त्यों दुःख कम होता गया। सेठ-सेठानी स्वस्थ हुए तब उन्होंने पुत्रवधू का विचार किया। पुत्रवधू का यौवनकाल था । जवानी में वैधव्य आया था.... वैधव्य की कठोर वेदना उसको सहनी थी। उन्होंने उस पुत्रवधू पर पुत्र जैसा ही प्रेम रखा । उसको अच्छी सुख-सुविधा देने लगे। सेठानी तो पुत्रवधू के पास घर का एक भी काम नहीं करवाती है। जब पुत्रवधू काम करने आती है तब सेठानी कहती है - 'बेटी, तुम्हें कोई काम नहीं करना है, मैं कर लूँगी सारा काम | और घर में नौकर भी तो हैं ही, तुम तो आनन्द से रहो, किसी बात की कमी हो तो मुझे कहो!' पुत्रवधू अपने कमरे में बैठी रहती है। दिन और रात वह क्या काम करे? जब कमरे में बैठे-बैठे ऊब जाती है तब हवेली के झरोखे में जाकर खड़ी रहती है। हवेली के आगे राजमार्ग था। राजमार्ग से अनेक स्त्री-पुरुष गुजरते रहते हैं.... रास्ते पर अनेक घटनाएँ भी बनती रहती हैं, वह सब देखती रहती है पुत्रवधू और अपने मन को बहलाती रहती है। फालतू मन खतरनाक है : एक दिन रास्ते पर से गुजरते एक युवक ने झरोखे में खड़ी उस पुत्रवधू को देखा, पुत्रवधू ने भी उस युवक को देखा, दोनों की आँखें मिलीं, परन्तु उस दिन तो पुत्रवधू तुरन्त ही अपने कमरे में चली गई। दूसरे दिन भी झरोखें से पुत्रवधू ने उस युवक को देखा, युवक के मुंह पर मुस्कराहट छा गई, पुत्रवधू भी मुस्करा गई और अपने कमरे में चली गई...। अब तो प्रतिदिन वे दोनों इस प्रकार मिलते रहे | पुत्रवधू के मन पर वह युवक छा गया.... दिन-रात उसके विचारों में डूबी रहती है। दूसरा कोई गृहकार्य तो उसके पास था नहीं। स्वाध्याय, अध्ययन, परमात्मभक्ति जैसी कोई धर्मप्रवृत्ति भी उसके पास नहीं थी। परिणाम यह आया कि पुत्रवधू उस युवक के प्रति आकर्षित हो गई। वासना से व्याकुल बन गई। एक दिन अपनी दासी से कहा - 'मैं तुझे कल सुबह एक युवक बताऊँगी, शाम को अंधेरा होने पर उस युवक को मेरे पास ले आना।' दासी ने हाँ भर ली। दूसरे दिन पुत्रवधू ने दासी को झरोखों से उस युवक की पहचान करा दी। दासी उस परिवार की वफादार दासी थी। उसने सोचा कि 'मुझे यह बात सेठ को बता देनी चाहिए, अन्यथा इस बहू का जीवन नष्ट हो जायेगा।' उसने सेठ को सारी बात बता दी। सेठ बड़े समझदार थे। उन्होंने सारी परिस्थिति का शीघ्रता से अध्ययन कर लिया। पुत्रवधू की शीलरक्षा का उपाय भी सोच For Private And Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३८ ___१६० लिया। शाम को जब सेठ भोजन करने बैठे, भोजन करके उन्होंने सेठानी से कहा - 'मेरा मन पुत्र की मौत के बाद अब इस शहर में, इस हवेली में नहीं लगता है। व्यापार में भी मन नहीं लगता है। मैंने सोचा है कि अपन अपने छोटे गाँव में चले जायँ और शेष जीवन वहीं बितायें! तुम्हारी क्या राय है?' सेठ की बात पुत्रवधू भी सुन रही है। सेठानी ने कहा : 'बात तो आपकी सही है, लड़के की मृत्यु के बाद मेरा मन भी उदास रहता है...अपने छोटे गाँव में जाना मुझे भी पसन्द आयेगा।' सेठ ने कहा : 'तो ऐसा करो कि कल प्रातः ही तुम पुत्रवधू को लेकर गाँव चली जाओ। नौकरों को भी साथ ले जाना, आवश्यक सामग्री भी ले जाओ, मैं दो दिन में दुकान का काम निपटाकर आ जाऊँगा। कल का मुहूर्त अच्छा है गाँव जाने के लिए।' सेठानी ने स्वीकृति दे दी। पुत्रवधू को आश्चर्य तो हुआ कि अचानक ससुर ने ऐसा निर्णय क्यों लिया.... परन्तु वह यह भी जानती थी कि उसके सास-ससुर को पुत्र-मृत्यु का आघात प्रबल लगा था। पुत्र की मृत्यु के बाद वे लोग सादगी से रहते थे, मिष्टान्न का भी त्याग कर दिया था, अच्छे वस्त्र पहनने भी छोड़ दिये थे। उनके मुख पर उदासी छायी रहती थी। वह जब अपने कमरे में पहुँची तो वह दासी वहाँ खड़ी थी। दासी ने कहा 'उस युवक ने कहा है कि दो दिन के बाद वह आयेगा....।' पुत्रवधू मौन रही और अपने पलंग पर जा गिरी। दासी वहाँ से चली गई। सेठानी ने पुत्रवधू के पास आकर कहा - बेटी, कल अपन यहाँ से अपने छोटे गाँव चलेंगे, सो तैयारी करनी है। चलो मेरे साथ, अपन मिल कर तैयारी करें। पुत्रवधू सास के साथ चली गई और आधी रात तक तैयारी करती रही। प्रातःकाल गाड़ी में बैठकर सेठानी पुत्रवधू के साथ वहाँ से अपने गाँव चल पड़ी। सेठ का मन शान्त हुआ। गाँव में जाकर क्या करना है वह भी सेठ ने सोच लिया था। दो दिन में दुकान का काम निपटा कर, मुनिमों को दुकान सँभला कर सेठ भी पहुँच गये अपने वतन के गाँव में| यहाँ घर था, खेत थे, बाड़ी थी। सेठ ने सेठानी से कहा - 'मैंने सोचा है कि यहाँ अपन कुछ गायों और भैंसों को रख लें...छोटा-सा गोकुल बसा लें....! अपने खेत हैं इसलिए घास के पैसे लगेंगे नहीं और आमदनी भी अच्छी होगी...।' ___ सेठानी ने कुछ सोचकर कहा - 'परन्तु गोकुल का काम बहुत रहता है...मेरी अकेली से....।' 'तुम अकेली कहाँ हो? तुम्हारी पुत्रवधू साथ है। आधा काम तो वह For Private And Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- ३८ १६१ सम्हालेगी। वह पढ़ी-लिखी भी है ....सो हिसाब वगैरह भी समझेगी ....' पुत्रवधू वहीं पर थी। उसने सहर्ष स्वीकृति दे दी। सेठ खुश हो गये। घर के पीछे ही सेठ का बड़ा बगीचा था, उसमें ५०-५० गाय और भैंस बसा दीं। नौकर भी रख दिये । गोकुल की पूरी जिम्मेदारी पुत्रवधू पर डाल दी गई। सेठ तो मात्र ऊपर-ऊपर से निगरानी रखते हैं । पुत्रवधू अब सुबह से शाम तक इतनी व्यस्त रहती है कि उसको भोजन करने का भी समय नहीं मिल पाता है। दूसरे फालतू विचार तो आयें ही कैसे ? दूध-दहीं... मक्खन और घी का हिसाब लगाती रहती है। गायों और भैंसों की देखभाल करती रहती है। थकीपकी जब रात को सोती है, तब पलंग में पड़ते ही गहरी निद्रा में लीन हो जाती है! उसके मन से वह युवक निकल गया और उसके तन-मन तंदुरुस्त बन गये। परिश्रम से शरीर स्वस्थ रहता है और बुद्धिपूर्वक गृहकार्य में व्यस्त रहने से बुरे विचार मन में आते नहीं हैं। इसलिए ज्ञानी पुरुष कहते हैं कि स्त्री को गृहकार्य में व्यस्त रखो । यदि स्त्री घर के अनेक कार्यों में व्यस्त रहेगी तो उसके मन में पापविचार प्रवेश नहीं पायेंगे । परिश्रम करने से उसका शरीर रोगी नहीं बनेगा । काम की औषधि काम है। सेठ की गंभीरता और दक्षता : कुछ समझते हो इस उदाहरण से ? 'पुत्रवधू का मन परपुरुष में लगा है,' यह जानकर सेठ घबरा नहीं गये, पुत्रवधू के प्रति क्रोध भी नहीं किया, उसको उपदेश भी नहीं दिया । बुद्धि से, शान्तचित्त से सोचकर कैसा बढ़िया रास्ता निकाला? सेठानी को भी पुत्रवधू की गुप्त बात नहीं बताई । पुत्रवधू को भी नहीं जानने दिया कि वे उसकी गुप्त बात जान गये हैं। कितनी गंभीरता ? परिवार का बुजुर्ग कैसा होना चाहिए! बुजुर्ग हो या युवक हो, यदि वह परिवार का प्रमुख व्यक्ति है तो उसमें गंभीरता होनी ही चाहिए । कार्यक्षमता होनी चाहिए। परिवार के सभ्यों के तन-मन स्वस्थ और पवित्र बने रहें इसलिए उनको सुयोग्य कार्यों में नियोजित करने की बुद्धि और क्षमता होनी चाहिए । तो ही परिवार बुराइयों से बच सकता है। सेवा करने में शरम क्या ? : यौवनप्राप्त पत्नी हो या प्रौढ़ावस्था की पत्नी हो, उसको गृहकार्य में नियोजित करना ही चाहिए। वह स्वयं घर के सारे कार्य करती रहेगी, उल्लास से करती रहेगी तो उसका शरीर स्वस्थ रहेगा और उसका मन भी For Private And Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३८ १६२ बाहर की दुनिया में नहीं भटकेगा। भले आप श्रीमन्त हो, नौकर रख सकते हो, फिर भी सभी गृहकार्य नौकर से नहीं करवायें। अपने परिवार की सेवा करने में स्त्री को शर्म नहीं होनी चाहिए। हाँ, कुछ महिलाओं को गृहकार्य करने में शर्म आती है! किस बात की शर्म? पाप करना हो तो शर्म आये, किसी का बुरा करना हो तो शर्म आये, सेवा करने में शर्म? आश्चर्य की बात है! जो स्त्री परिवार की सेवा करती है, परिवार का उसके प्रति प्रेम बढ़ता है। परस्पर का स्नेह दृढ़ होता है। स्त्री के पास अधिक पैसे नहीं होने चाहिए : स्त्री की योग्यता देखकर ही उसको रुपये देने चाहिए । खर्च करने की उसकी पद्धति देखनी चाहिए | जो स्त्री अपने पति की आय के अनुसार व्यय करती हो, फालतू खर्च नहीं करती हो, जितना आवश्यक हो उतना ही खर्च करती हो, उस महिला को आप तिजोरी सौंप दो तो कोई चिन्ता नहीं। परन्तु ऐसी महिलायें बहुत कम मिलेंगी। ज्यादातर महिलाएँ ऐसी मिलेंगी कि यदि उनके पास पैसे आये तो आवश्यक खर्च के साथ अनावश्यक खर्च भी कर डालेंगी! एक साड़ी की आवश्यकता होगी, खरीदेगी आधा दर्जन साड़ियाँ! लेने गई होगी एक अलंकार, ले आयेगी तीन-चार अलंकार! यदि उसके पास पैसे हैं तो अपने वस्त्र और जेवर में, अपने आनंद-प्रमोद में खर्च कर डालेगी। इसलिए स्त्री के पास थोड़े ही रुपये होने चाहिए। जो महिलाएँ स्वयं धन कमाती हैं, उनके लिए यह नियम नहीं लागू होगा! उसकी कमाई के रुपये का उपयोग वह मनमाने ढंग से करेगी। हाँ, यदि वह किसी जिम्मेदारी को निभाती है, उस पर अपने परिवार के पालन की जिम्मेदारी है तो वह फालतू खर्च नहीं करेगी। जिस महिला पर ऐसी कोई आर्थिक जिम्मेदारी नहीं होती है और रुपये कमाती है, वैसी महिलाएँ, यदि उसमें विवेकदृष्टि नहीं है तो वह व्यर्थ अर्थव्यय करती रहेगी और अपने जीवन को क्षति भी पहुँचायेगी। विवेकी और पारिवारिक जिम्मेदारी को समझनेवाली विचक्षण महिलाएँ तो इस प्रकार धनसंचय करती हैं कि अवसर आने पर अपने पति की सहायक बन जाती हैं, परिवार को आर्थिक संकट से उबार लेती हैं। प्राचीनकाल के ऐसे कुछ उदाहरण पढ़ने में आते हैं। वर्तमानकाल में भी ऐसे कुछ किस्से सुनने में आते हैं। ऐसी स्त्री जिस परिवार में हो, वहाँ संपत्ति सुरक्षित रहती है। पुरुष का विवेक चाहिए। उसको अपनी पत्नी की योग्यता का ख्याल होना चाहिए। For Private And Personal Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६३ प्रवचन-३८ स्त्री को स्वच्छंदता के हद की स्वतंत्रता न दें : तीसरी बात यह बताई गई है कि स्त्री को ज्यादा स्वतंत्रता नहीं देनी चाहिए | स्त्री-स्वातंत्र्य के इस युग में यह बात शायद महिलाओं को पसन्द नहीं आयेगी। परन्तु एक बात ध्यान से सुन लेना कि स्त्री-स्वातंत्र्य की बात करनेवाले मोक्षपुरुषार्थ और धर्मपुरुषार्थ को नहीं मानते! उनकी दृष्टि में मोक्ष नहीं है, धर्म नहीं है। वे सोचते हैं मात्र कामपुरुषार्थ की दृष्टि से! ___ मैं जो बात यहाँ बता रहा हूँ वह धर्मपुरुषार्थ की और मोक्षप्राप्ति की दृष्टि से बता रहा हूँ। यदि स्त्री को अपने शीलधर्म की रक्षा करनी है तो उसको वैसी स्वतंत्रता नहीं लेनी चाहिए। अपने पति की परतंत्रता, परतंत्रता नहीं है परन्तु समर्पण है। समर्पण में दुःख या वेदना नहीं होती, समर्पण में सुख और आनन्द होता है। _ 'भारतीय संस्कृति में स्त्री को गुलाम जैसा बना दिया गया है, यह मिथ्या आरोप है। भारतीय संस्कृति में स्त्री को जो सम्मान दिया गया है, दूसरी किसी संस्कृति में नहीं दिया गया। स्त्री को आत्म-कल्याण की साधना का पूर्ण अधिकार दिया गया है। यदि स्त्री मोक्षपुरुषार्थ की ओर अग्रसर होती है तो वह वंदनीय बन जाती है। इसलिए स्त्री-स्वातंत्र्य की बातें करनेवालों पर जरा भी विश्वास नहीं करना । ऐसी बातें करनेवालों ने पारिवारिक संबंधों पर प्रहार कर दिया है, परस्पर के स्नेह-सम्बन्धों को तोड़ने का पाप किया है। स्त्री को पर-पुरुषों की ओर जाने का रास्ता बताया है, इससे स्त्री के शील और सदाचार का नाश हुआ है। स्त्री अपने पति की, अपने बुजुर्गों की परतंत्र रहे, वही उसके लिए हितकारी है। अलबत्ता, स्त्री का उत्पीड़न नहीं होना चाहिए, उसके साथ मानवतारहित व्यवहार नहीं होना चाहिए। कुछ अविवेकी, तामसी और अभिमानी पुरुष पत्नी के साथ और बच्चों के साथ पशु जैसा व्यवहार करते हैं, वे लोग वास्तव में अपना ही अहित करते हैं। किसी भी जीव के साथ आपका व्यवहार मैत्रीपूर्ण, करुणामय और सौजन्यशील होना चाहिए। जैसे कुछ पुरुष अपने परिवार के साथ दुर्व्यवहार करते हैं वैसे कुछ महिलाएँ भी अपने परिवार के साथ विवेकशून्य और दयाहीन व्यवहार करती हैं। इससे वे अपना महत्त्व खंडित करती हैं। परिवार में और स्नेही-स्वजनों में उनका महत्त्व नहीं रहता। फिर वे दूसरों के प्रति रोष करती हैं, दूसरों के For Private And Personal Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३८ १६४ दोषों के छिद्रों को देखती हैं और दोषानुवाद करने लगती हैं। बहुत तीव्र गति से वे अपना व्यक्तित्व खो देती हैं। अनुचित स्वतंत्रता के नशे में आज लाखों महिलाएँ शराब वगैरह नशे करने लगती हैं। अनेक गलत रास्तों पर चलती हुई महिलाएं अपने आपको विशेष परतंत्र बना रही हैं। कौन समझाये उनको? यदि कुलवधू की रक्षा करनी है, उसको आदर्श गृहिणी बनाना है तो इन बातों पर गंभीरता से सोचना होगा। यदि नहीं सोचेंगे तो आप कुलवधुओं के शील की रक्षा नहीं कर पाओगे, उन कुलवधुओं से सुयोग्य संस्कारी सन्तानों की अपेक्षा नहीं रख सकोगे, उन कुलवधुओं के अयोग्य आचरण से आपके दिमाग पर 'टेन्शन' बना रहेगा, आप सदैव व्यग्र रहोगे। आपके घर के काम सुव्यवस्थित नहीं होंगे। सारा घर नौकरों के भरोसे रह जायेगा। घर पर आनेवाले स्नेही-स्वजनों का उचित आदर-सत्कार नहीं होगा। आचार-व्यवहारों की शुद्धि नहीं रहेगी। स्वतंत्र कुलवधू अतिथि-सत्कार भी नहीं करेगी। उसे तो घर कारावास जैसा लगेगा। स्त्री के पास पैसे हों और स्वतंत्रता हो, फिर क्या चाहिए? ऐसी महिलाओं से सुसंस्कारी परिवार-व्यवस्था नहीं निभ सकती। इसलिए ऐसी आपकी परिवार-व्यवस्था होनी चाहिए कि कुलवधुएँ ही गृहकार्य करें | कुलवधुओं के पास परिमित ही रुपये होने चाहिए। कुलवधुओं को अकेले घूमने-फिरने की स्वतंत्रता नहीं होनी चाहिए। चौथी बात भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है : कुलवधू के पास माता के समान प्रौढ़ एवं वृद्ध महिलाएँ रहनी चाहिए। घर में अकेली एक-दो युवान महिलाएँ नहीं रहनी चाहिए, अकेली युवामहिला तो रहनी ही नहीं चाहिए। यह बात तो आप मानोगे न? युवास्त्री को अकेली मत रखें : थोड़े समय पहले एक भाई मिले। युवान थे, पढ़े-लिखे थे और एक सरकारी कारखाने में नौकरी करते थे। थे राजस्थान के और सर्विस करते थे मध्यप्रदेश में । शादी के बाद वह अपनी पत्नी को अपने साथ मध्यप्रदेश में ले गये। सरकार की तरफ से रहने के लिए मकान मिला था। पत्नी को ले जाकर घर बसाया और आनन्द से रहने लगे। परन्तु जब ये महानुभाव सुबह सर्विस पर चले जाते, तब घर में अकेली उनकी पत्नी रह जाती! आसपास रहनेवाले लोग ऐसे-ऐसे प्रदेश के थे कि एक-दूसरे की भाषा नहीं समझ सकते। सबकी अपनी-अपनी स्वतंत्र जीवनपद्धति थी। कुछ लोग तो मांसाहारी भी थे, शराब भी पीते थे। वह औरत तो हैरान-परेशान होने लगी। शाम को जब उसका पति घर For Private And Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६५ प्रवचन-३८ आता तब जाकर उसको कुछ शान्ति मिलती। परन्तु परिणाम यह आता कि उस स्त्री का मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। शरीर पर भी असर होने लगा। उसने कहा - 'मैं यहाँ नहीं रह सकती, मुझे अपने घर भेज दो, वहाँ आपके माता-पिता के साथ मैं रहूँगी। यहाँ पर तो मैं पागल बन जाऊँगी।' यह परिस्थिति कोई एक-दो परिवारों की है ऐसा मत सोचना, यह परिस्थिति व्यापक बन गई है। शादी के बाद या तो पुत्र अलग रहना चाहता है अथवा पुत्रवधू का आग्रह होता है अलग रहने का | या तो लड़के को अपने माता-पिता के साथ रहना पसन्द नहीं होता या तो पुत्रवधू को सास-ससुर के साथ रहना नहीं सुहाता! अलग हो जाते हैं। पति की अनुपस्थिति में युवान पत्नी अकेली घर में रह जाती है....क्या उसको अकेलापन पसन्द आयेगा? न किसी से बोलना, न किसी से बात करना। वह आसपास के घरों से संबंध रखेगी। वह उनके घर जायेगी, वे लोग उसके घर आयेंगे, सम्बन्ध का प्रारम्भ महिलाओं से होगा.... धीरे-धीरे पुरुषों से होने लगेगा। पुरुषों से बातें करेगी, हँसेगी...घर पर बुलाकर चाय-नास्ता करवायेगी, परिचय बढ़ता जायेगा। दोपहर को फिर परिचित पुरुष के साथ सिनेमा देखने जाया करेगी... परिणाम क्या आता है? वह महिला अपने पति को धोखा देगी। परपुरुष से शारीरिक संबंध बाँध लेगी... यदि उसके पति को इस संबंध का ख्याल आ जायेगा तो वह पत्नी को मारेगा। उस पुरुष के साथ वैर बंध जायेगा। संभव है कि किसी की कोई हत्या भी कर दे! आजकल देश और दुनिया में यह सब हो रहा है। संयुक्त परिवार की जीवन-पद्धति टूटती जा रही है। युवान पुत्रपुत्रवधुओं को परिवार के साथ रहना पसन्द नहीं आता है। अलग हो जाते हैं और अनेक बाह्य-आन्तरिक नुकसान मोल लेते हैं। शादीशुदा पुत्र का अपमान मत करो : युवान कुलवधू को माता समान प्रौढ़ महिलाओं के साथ रखने की बात बड़ी महत्त्वपूर्ण है। कुलवधू को सास की ओर से माता जैसा और ससुर की ओर से पिता जैसा वात्सल्य मिलना चाहिए। यदि ऐसा वात्सल्य मिले तो पुत्रवधू अलग रहने को प्रायः तैयार ही नहीं होगी । पुत्र का भी घर में यथोचित स्थान होना चाहिए। बड़े पुत्रों का दूसरे लोगों के सामने, पुत्रवधू के सामने अपमान नहीं होना चाहिए। माता-पिता को अपने पुत्रों के साथ सौजन्यपूर्ण व्यवहार करना चाहिए। विशेष कार्यों में पुत्रों के साथ परामर्श करना चाहिए। पुत्रों की बात उचित हो तो स्वीकार करना चाहिए | माता-पिता के हृदय में पुत्र For Private And Personal Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३८ १६६ एवं पुत्रवधू के प्रति वैसा स्नेह होना चाहिए कि वे कैसे सुख-शांति से जीवन व्यतीत करें एवं धर्माराधना से अपने जीवन को सफल बनायें । यदि परस्पर का स्नेहपूर्ण और औचित्यपूर्ण सम्बन्ध बना रहे तो बिना प्रयोजन पुत्र को अलग नहीं होना पड़े। विशेष परिस्थिति में अलग रहना पड़े, दूसरे गाँव में रहना पड़े तो पत्नी के साथ माता-पिता को भी अपने साथ ले जाने चाहिए। यदि वे नहीं आ सकते हों तो पत्नी को माता के साथ रख सकता है, वह भी संभव न हो तो किसी स्नेही-स्वजन में से विश्वासपात्र प्रौढ़ या वृद्ध महिला को घर पर रख सकता है। किसी भी परिस्थिति में पत्नी को अकेली घर पर नहीं रखना चाहिए। _शील और सदाचार का श्रेष्ठ मूल्यांकन करोगे तो ही यह बात आपके दिमाग में जंचेगी। धन-संपत्ति और सुख-सुविधाओं से बढ़कर शील और सदाचार है- यह बात ऊंची है हृदय में? यह बात भी जाने दो, आप अपनी पत्नी से यदि मानसिक और शारीरिक संतोष पाना चाहते हो तो भी आपको ये सारी बातें ध्यान में लेनी चाहिए। यदि पत्नी से मानसिक शांति और शारीरिक संतोष प्राप्त न हो, घर के सारे कार्य सुचारु रूप से संपन्न न हों तो फिर शादी किसलिए? यदि पत्नी किसी परपुरुष के प्रेम में बह गई और शारीरिक संबंध कर लिया....तो क्या आप उस पत्नी से शान्ति संतोष पाओगे? उससे आप सुख-सुविधा की अपेक्षा करोगे? दुनिया के सामने मत देखना | दुनिया में तो सब कुछ चलता है....संसार पापमय है। आपको यदि बचना है तो आप बच सकते हो दुनिया की अनेक बुराइयों से । दुनिया के प्रवाह में बहते रहे तो विनाश निश्चित है। आप ज्ञानी पुरुषों का मार्गदर्शन लेते रहो और मार्गदर्शन के अनुसार अपना जीवन बनाने का प्रयत्न करते रहो। सभा में से : इस मार्गदर्शन के अनुसार इस युग में तो जीना मुश्किल लगता है। मार्ग अच्छा है परन्तु देश-काल प्रतिकूल है! ___ महाराजश्री : मुश्किल तो है ही, परन्तु असंभव नहीं है। प्रतिकूल देशकाल में भी अच्छा जीवन जीनेवाले लोग हैं न? सत्त्व चाहिए, दृढ़ता चाहिए और पूर्ण श्रद्धा चाहिए। ज्ञानी पुरुषों के बताये हुए गृहस्थधर्म के अनुसार जीवन जीने से अवश्य सुख-शान्ति मिलेगी और धर्मपुरुषार्थ होगा। वेश्यासंग निकृष्ट है : ___ यदि कोई मनुष्य कहे : शादी-विवाह की इस उलझन में उलझने के बजाय, जब कामवासना जगे तब वेश्या का संग करना अच्छा! पैसा दिया और For Private And Personal Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३८ १६७ काम हो जाय!, कुछ लोग शादी करने पर भी अपनी तीव्र कामवासना को संतुष्ट करने के लिए वेश्यागामी बनते हैं और अपने तन-मन को नष्ट करते हैं। हाँ, वेश्यागामी पुरुष अनेक रोगों के शिकार बन जाते हैं। रुपये-पैसे से भी बरबाद हो जाते हैं। अनेक व्यसनों का सेवन करने लगते हैं। वेश्या : धोबी का पत्थर : एकमात्र शारीरिक सुख पाने की लालसा में ऐसे लोग कितनी बुराइयों में फँस जाते हैं? वेश्या का प्रेम वास्तव में प्रेम नहीं होता....उनको तो मतलब होता है रुपयों से! ज्ञानी पुरुषों की दृष्टि में वेश्या धोबी के पत्थर जैसी होती है! धोबी जिस पत्थर पर कपड़े धोता है, उस पत्थर पर दूसरे भी लोग कपड़े धोते हैं न? वैसे वेश्या कोई एक पुरुष का संग नहीं करती। अनेक पुरुष उससे शारीरिक संबंध करते हैं.... यानी वेश्या अनेक पुरुषों की भोग्या होती है। ऐसी स्त्री के साथ कुलीन और सज्जन पुरुष को संग नहीं करना चाहिए। वेश्या : कुत्तों का झेंपू : ___ कुत्तों का झेंपू देखा है? झेंपू में लोग रोटी के टुकड़े डालते हैं और अनेक कुत्ते उसमें मुँह डालकर खाते हैं! झेंपू एक और कुत्ते अनेक। वैसे स्त्री एक और पुरुष अनेक! क्या बुद्धिमान सज्जन पुरुष ऐसी स्त्री में आसक्त बन सकता है? कभी भूल से भी उस रास्ते मत जाना | इस गलत रास्ते जो-जो लोग गये उन्होंने अपना सब कुछ खो दिया है। प्राचीन काल के भी ऐसे अनेक दृष्टांत पढ़ने में आते हैं कि वेश्या के वहाँ जाकर, वेश्या को खुश करने के लिए लाखों रूपये देने पर भी एक दिन वेश्या के घर से उसको अपमानित कर निकाला गया! वर्तमानकाल के भी ऐसे प्रसंग सुनने को मिलते हैं। __ वेश्या को कितना भी धन दो, उसको कितना भी प्रेम दो, वह तो तुम्हारी होनेवाली नहीं! चूँकि वह वेश्या है! किसी एक पुरुष से वह संतुष्ट रह ही नहीं सकती। यदि वैसे ही जीवन जीना होता तो वह वेश्या का व्यवसाय क्यों अपनाती? उसका मन अनेक पुरुषों का संग चाहता रहता है। जो भी उसके यहाँ जाता है, वेश्या उससे प्रेम करेगी, आदर देगी, पुरुष का मन बहलायेगी....परन्तु यह सब मात्र धनप्राप्ति के लिए करती है। पुरुष को वह अपना शरीर सौंप देगी! उसको धन चाहिए! यदि किसी पुरुष ने आसक्ति कर ली वेश्या में, तो उसकी दुर्दशा ही होगी। या तो अपमानित होगा अथवा मौत ही होगी। पुरुष उस पर कितना भी उपकार करे, वेश्या उसको 'अपना' नहीं For Private And Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३८ १६८ मानेगी। बाह्य रूप, बाह्य कलाएँ और बाह्य स्नेहप्रदर्शन से मोहित हो जाने वाले पुरुषों की घोर कदर्थना होती है। ___ एक बार वेश्यागमन करने पर, उस गलत रास्ते से वापस लौटना मुश्किल बन जाता है। उस पुरुष का मन इतना कामासक्त बन जाता है कि उस पर मूढ़ता छा जाती है। वह अपने कुल की, परिवार की इज्जत का विचार नहीं कर सकता। वह अपने घोर पतन की खाई को देख नहीं सकता। वह अपनी आत्मा की दुर्दशा का विचार नहीं कर सकता | वह तो डूब जाता है विषयवासना के समुद्र में। उसके जीवन में धर्मपुरुषार्थ को स्थान नहीं रहता। ___ वेश्या हो या परस्त्री हो, उस तरफ देखो भी मत | उनके विषय में सोचो भी मत । राग से देखोगे तो मन से सोचोगे ही। इसलिए उनकी तरफ देखना ही नहीं। कामवासना पर संयम रखो । स्व-पत्नी में संतोष रखो। मानवजीवन को धर्मपुरुषार्थ से सफल बनाने का दृढ़ संकल्प करो। यदि आपको अपनी कामवासना पर संयम रखना है तो : १. परस्त्री का परिचय मत करो। २. सिनेमा-नाटक मत देखो। ३. वीभत्स साहित्य मत पढ़ो। ४. गंदे चित्र मत देखो। ५. ज्यादा पौष्टिक भोजन मत करो। ६. रात्रिभोजन का त्याग करो। ७. साधु-संतों का समागम रखो। ८. ब्रह्मचर्य की भावना को पुष्ट करो। ९. स्त्रीविषयक चर्चाएँ मत करो। इतनी सावधानियाँ अवश्य रखो। परमात्मा से हमेशा प्रार्थना करो कि 'हे भगवंत! मुझे अविकारी बना दो। मेरे मन के विकारों को नष्ट कर दो। मुझे आत्मा का शुद्ध स्वरूप प्रदान करो।' ___ शादी-विवाह के औचित्य के विषय में पर्याप्त विवेचन किया है। आप इन बातों पर चिंतन-मनन करें, जो भी नये प्रश्न पैदा हों, आप मेरे पास आकर समाधान कर सकते हैं। इस विषय पर आज विवेचन समाप्त करता हूँ| आज बस, इतना ही। For Private And Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रवचन- ३८ VISIO www.kobatirth.org १६९ BOLLY गृहस्थ का सामान्य धर्म मंदिर - उपाश्रय या धर्म-स्थान में करने का धर्म नहीं है... परन्तु घर पर, दुकान पर और बाजार में, स्वजनों के बीच जोने का यह जीवनधर्म है। * दूसरों के साथ अन्याय करनेवाला स्वयं कभी भी निर्भय नहीं हो सकता। अन्याय करनेवाले के दुश्मन भी होंगे हो । वह सुख-चैन से जो नहीं सकता! कान खोलकर सुन लो : तुमने यदि किसी के भी साथ अन्याय दुर्व्यवहार किया है तो उसका बदला तुम्हें व्याज के साथ चुकाना होगा। कर्मों के राज्य में देर भी नहीं, अंधेर भी नहीं! Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुक्त सहचार के नाम पर जो कुछ हो रहा है.... अपने समाज को तंदुरुस्ती के लिए खतरनाक है। हमें काफी गहराई से सोचने को जरूरत है। प्रवचन : ३९ महान् श्रुतधर पूजनीय आचार्य श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी ने 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ में गृहस्थजीवन का सामान्य धर्म बताया है। सामान्य धर्म यानी प्राथमिक धर्म । व्रत-नियम वगैरह तो विशेष धर्म है, विशेष धर्म की आराधना करने की पात्रता सामान्य धर्म में रही हुई है, यानी सामान्य धर्म को अपने जीवन में जीनेवाला मनुष्य विशेष धर्म की आराधना के लिये पात्र बनता है । सामान्य धर्म की उपेक्षा करने वाला मनुष्य विशेष धर्म की आराधना करने का पात्र नहीं है । रोजरोज जीने का धर्म : सामान्य धर्म की बात गृहस्थ जीवन की हर क्रिया के साथ जुड़ी हुई बात है। सामान्य धर्म मंदिर वगैरह धर्म स्थानों में करने का धर्म नहीं है, घर, दुकान, बाजार और स्वजन - परिवार में जीने का धर्म है। जो मनुष्य अपने जीवन में सामान्य धर्म का यथोचित पालन करता है वह मनुष्य अनेक उपद्रवों से, संकटों से बच जाता है । जिस मनुष्य को स्वस्थता से, प्रसन्नता से जीवन व्यतीत करना है उसको उपद्रवों से बचना चाहिए। संकटों से बचकर जीना चाहिए । For Private And Personal Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- ३८ १७० उपद्रव अनेक प्रकार के होते हैं। आर्थिक, पारिवारिक, सामाजिक, राजकीय, शारीरिक और मानसिक .... कई प्रकार के उपद्रव होते हैं संसार में। किसी भी उपद्रव में आप फंसें नहीं, वैसे सावधान, सतर्क रहना चाहिए । इस सावधानी को, सतर्कता ग्रन्थकार ने 'भय' कहा है । ऐसा भय होना ही चाहिए । कुछ उपद्रव तात्कालिक पैदा होते हैं, कुछ उपद्रव कालान्तर से उत्पन्न होते हैं, तो कुछ उपद्रव जन्मान्तर में आते हैं! इन सभी उपद्रवों से बचने के लिए सावधानी से जीवन जीना होगा। ऐसा एक भी आचरण अपना नहीं होना चाहिए कि जिससे अनेक उपद्रव अपने को घेर लें और जीवन को नष्ट कर डालें। बताऊँगा, जिससे आप उन दुराचरणों से बच सकें और निरूपद्रवी जीवन जी सकें। निरूपद्रवी जीवन पसन्द है न? हाँ, जिन को उपद्रवपूर्ण जीवन पसन्द होगा उनको मेरी बातें पसन्द नहीं आयेगी! अन्याय यानी विपत्ति को निमंत्रण देना : पहली बात है अन्यायपूर्ण व्यवहार की । मान लो कि आपके पास छोटी-बड़ी कोई सत्ता है अथवा आप धनवान हो, आपने यदि दूसरे लोगों के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार किया तो संभव है कि तत्काल आपको सफलता मिल भी जाय, परन्तु एक न एक दिन तो आप संकट में फँस ही जाओगे । चूंकि आपने जिन-जिन के साथ अन्याय किया होगा, दमन किया होगा, अनीति की होगी, उन सभी के मन में आपके प्रति घृणा, द्वेष .... तिरस्कार... भरा हुआ होगा, परन्तु वे शक्ति के अभाव में दबे हुए होंगे, वे चाहते होंगे कि कब ऐसी शक्ति, ऐसे संयोग आयें.... और अन्याय का बदला ले लें! अन्याय करने वाले सत्ताधीश अथवा धनवान् लोग भरोसे में रह जाते हैं और घोर आपत्ति में फँस जाते हैं । जनम से कौन गुनहगार होता है ? चंबल के प्रसिद्ध डाकुओं में मानसिंह और माधोसिंह के नाम आते हैं । वे जन्म से डाकू नहीं थे। उनके साथ गाँव के कुछ धनवानों ने, कुछ ठाकुरों ने अन्याय किया था, दुर्व्यवहार किया था । अत्यंत नम्रता से समझाने पर भी नहीं समझे थे और ‘तेरे से जो हो, कर लेना...' ऐसे शब्द सुनाये थे.... तब उन्होंने बगावत कर दी थी, वे बागी बन गये थे । बागी बनने के बाद उन्होंने सर्वप्रथम उन अन्याय एवं क्रूर व्यवहार करने वालों की ही हत्या कर डाली थी! हत्या के पूर्व जब उन धनवानों को और सत्ताधीशों को पता लग गया था कि 'मानसिंह बागी बन गया है... माधोसिंह बागी बन गया है....' तो वे घबराने लगे थे....। For Private And Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- ३८ १७१ भयभीत बन कर घर में छिपने लगे थे। उसका सारा परिवार भय से व्याकुल बना रहता था। अन्याय बदला लेता है : दूसरों के साथ अन्याय करने वाला निर्भय रह ही नहीं सकता है । अन्याय करने वाले के शत्रु होते ही हैं, कब उन शत्रुओं का हमला आये, पता नहीं ! पता लगने पर भय की सीमा नहीं रहती! ज्यादातर अन्याय करने वाले होते हैं सत्ताधीश और धनवान लोग! सत्ता और धन मनुष्य को प्रायः अभिमानी बना देते हैं। अभिमानी बना सत्ताधीश और धनवान् न्याय-अन्याय का भेद भूल जाता है। ऐसे लोग भ्रमणा में होते हैं कि 'अब हमारी सत्ता शाश्वत् रहेगी, हमारी संपत्ति शाश्वत् रहेगी!' ऐसी भ्रमणा में ये लोग अन्यायपूर्ण व्यवहार करते रहते हैं। गरीबों को सताते रहते हैं । प्रजा का उत्पीड़न करते रहते हैं । परन्तु जब उनकी भ्रमणा टूटती जाती है, सत्ता और संपत्ति चली जाती है..... वे अपने किये हुए अन्यायों की बलि बन जाते हैं । कर्म की वसूली बड़ी तगड़ी होती है : राजा-महाराजाओं ने प्रजा के साथ घोर अन्याय किया तो उन राजाओं की कैसी दुर्दशा हुई ? राज्य तो चले गये, विशेषाधिकार भी चले गये। कई राजा तो बर्बाद हो गये। जमींदारों की वैसी दुर्दशा हुई है। आज जिन-जिन देशों में जुल्मी शासक हैं उनकी भी वैसी ही दुर्दशा होने वाली है । युगान्डा (अफ्रीका) के जुल्मी ईदी अमीन को भागना पड़ा। कितने घोर अत्याचार किये थे उसने ? समाज में भी जो व्यक्ति अपने समाज के लोगों के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार करते हैं, एक दिन वह स्वयं संकटों में फँस जाता है । परिवार में जो व्यक्ति अनुचित-अयोग्य व्यवहार करता है वह भी उपद्रवों को आमंत्रण दे देता है। आप किसी से भी अन्याय करोगे तो एक दिन आप पर भी आपत्ति आने वाली ही है, यह बात कान खोलकर सुन लो। इसलिए ज्ञानी पुरुष कहते हैं कि किसी भी जीवात्मा के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार मत करो। यदि आपको इस मानवजीवन में आत्मशुद्धि का महान् कार्य करना है, आत्म-उत्क्रान्ति के पथ पर चलना है, आत्म के भीतर बज रहा दिव्य संगीत सुनना है....तो व्यवहार मार्ग पर सीधे चलते रहो। किसी के भी साथ दुर्व्यवहार मत करो। ऐसा कोई भी अकार्य मत करो कि जिसके परिणामस्वरूप आपको आफतों के जाल में फँसना पड़े । For Private And Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७२ प्रवचन-३९ जुआ यानी प्रेम-प्रसन्नता को लगा धुआँ : यदि आपको संकटों से बचना है तो दूसरी बात है जुआ खेलने की। जुआ नहीं खेलना चाहिए। जुआरी कभी भी प्रसन्नता से जीवन नहीं जी सकता। जुआरी का मन किसी भी धर्म-आराधना में लीन नहीं हो सकता। जुआरी अपने परिवार में प्रायः अप्रिय बनता है। चूंकि वह परिवार के योगक्षेम की चिन्ता नहीं करता है। आप यदि किसी जुआरी को जानते हो तो आपको खयाल होगा कि वह कभी न कभी किसी आफत में फँसा ही होगा। जुआरी चंदूलाल की दास्तान : हमारे एक दूर के रिश्तेदार थे, उस समय मेरा तो बचपन था, लेकिन मैंने सुना था कि वे जुआ खेलते थे। शुरू-शुरू में उन्होंने कुछ रुपये कमाये थे। घर में जब वे रुपये देते थे घर वाले खुश हो जाते थे....और जुआ खेलने से कोई रोकता नहीं था। गलत रास्ते से रुपये कमाने वाले पति को धनप्रेमी पत्नी कैसे रोक सकती है? इस चन्दूलाल की पत्नी ने चन्दुलाल की पत्नी ने चन्दुलाल को नहीं रोका | चन्दूलाल भी जुआ खेलने का व्यसनी बन गया। जुए खेलने के अड्डे में जाकर रातभर जुआ खेलता था । जुएबाज उसके मित्र बन गये थे। दो-तीन-वर्ष में उसने एक लाख रूपये कमा लिये। उसको यह धंधा अच्छा लगा। हालाँकि कुछ स्वजन-मित्रों ने उसको यह धंधा छोड़ देने को बहुत समझाया था परन्तु वह कहाँ समझने वाला था? ___ जुआ खेलना भयानक व्यसन है। इस व्यसन का नशा युधिष्ठिर जैसे धर्मात्मा पर भी छा गया था तो फिर चन्दूलाल की क्या हैसियत थी। जब तक जुआरी जीतता रहता हो, आप उसको जुआ नहीं छुड़वा सकोगे | यह भी एक तरह का नशा है। नशे में चकचूर मनुष्य को शब्दों से नहीं समझाया जा सकता, उसको तो डंडे से ही समझाया जा सकता है। नशेबाज को होश में लाने के लिए प्रहार करना पड़ता है। चन्दूलाल पर कुदरत ने प्रहार कर दिया। कलजुग का युधिष्ठिर : अब चन्दूलाल हारने लगा। ज्यों-ज्यों हारता जाता है त्यों-त्यों दाव बड़ा बड़ा लगाता जाता है। हजारों रूपये हारने लगा। अब उसका स्वभाव भी चिड़चिड़ा बनने लगा। पत्नी को भी मारने-पीटने लगा। स्नेही-स्वजनों के साथ उसके संबंध बिगड़ने लगे| चन्दूलाल को स्नेही-स्वजनों की कोई परवाह नहीं थी। उस को तो जुआ खेलकर लाखों रुपये बना लेने थे। एक दिन For Private And Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७३ प्रवचन-३९ चन्दूलाल सब कुछ हार गया और अत्यंत मूढ़ बन गया। घर में युवान पत्नी रोती थी बिलखती थी। पति को समझाने जाती तो पति लातों से बात करता। एक दिन चन्दूलाल भी युधिष्ठिर बन गया। उसने भी पत्नी को दाव पर लगा दिया और हार गया...। पत्नी को पता नहीं था पर एक दिन चन्दूलाल पत्नी को लेकर सुरत जाने के लिए निकला। सूरत स्टेशन पर वह अपनी पत्नी को जुआरी के हाथों सौंप देने का तय कर आया था। गाड़ी अहमदाबाद से छूट चुकी थी, इधर चन्दूलाल की पत्नी के भाई को कहीं से भी पता लग गया.... उसने टैक्सी कर ली और पहुँच गया सूरत । जुआरी को पैसा देकर, अपनी बहन को लेकर आ गया अपने घर | बाद में चन्दूलाल ने जुआ खेलना छोड़ दिया और दूसरा धंधा शुरू कर दिया। ऐसे तो जुआरी बने हुए अनेक चन्दूलाल अपना जीवन और अपने परिवार का जीवन नष्ट कर रहे हैं। देश-विदेश में कुछ क्लबें भी ऐसी चल रही हैं... जहाँ जुआ खेला जाता है। शिक्षित कहलाने वाले भी कई लोग क्लबों में जा कर जुआ खेलते हैं। ___ सभा में से : जुआ खेलने की आदत कैसे पड़ जाती है, जब लोग जानते हैं कि जुआ खेलने से पांडव भी सब कुछ हार गये थे....? _महाराजश्री : जुआ खेलने वाले युधिष्ठिर को नहीं देखते, दुर्योधन को देखते हैं। दुर्योधन जीत गया था न! वास्तव में देखा जाय तो मनुष्य की बिना मेहनत धन कमा लेने की वृत्ति ही इस बात में जिम्मेदार है। बिना परिश्रम किये लखपति-करोड़पति बन जाने की लालसा इस बात में जिम्मेदार है। मनुष्य की इस कमजोरी का लाभ कुछ व्यापारी उठाते हैं, वैसे सरकार भी उठा रही है। 'लॉटरी' क्या है? एक प्रकार का जुआ ही है। एक रूपये की टिकट लो और लाख रूपये का इनाम कमाओ । आज देश में लाखों-करोड़ों मनुष्य इस लॉटरी के चक्कर में फँसे हैं। वैसे भिन्न-भिन्न वस्तुओं का सट्टा भी लोग खेलते हैं! सोने का सट्टा, चांदी का सट्टा, रूई का सट्टा, शक्कर का सट्टा....। ऐसे सट्टे खेलकर कौन लखपति बना? मानों कि एक-दो बार लाखों रूपये कमा भी लिये, क्या वे रूपये टिकते हैं? जुआ खेलना बरबादी का मार्ग है। जुआरी-सट्टाखोर कभी भी मानसिक शान्ति, मानसिक स्थिरता नहीं पा सकता। निरन्तर आर्तध्यान में लीन रहता है। हार-जीत की कल्पना निरन्तर उसको उद्विग्न बनाये रखती है। कर्मबन्ध की दृष्टि से सोचें तो रोंगटे खड़े हो जायें। आर्तध्यान में कितने और कैसे पापकर्म बंधते हैं इसका गंभीरता से विचार करना चाहिए | पापकर्म For Private And Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- ३९ १७४ के बन्धन से ड़रते हो तो बात है । परन्तु अज्ञानी जीवों को पापकर्म बांधते समय विचार नहीं आता है कि जब इन कर्मों का उदय आयेगा तब कैसे भयानक दुःख आयेंगे। कैसी घोर वेदनायें अनुभव करनी पड़ेंगी। लालच बड़ी खतरनाक होती है : जब कोई मित्र अथवा स्नेहीजन जो कि जुआ खेलने पर कुछ रुपये कमाया हो, आपके पास आकर बात करे कि 'क्यों इतनी मजदूरी करते हो, मजदूरी करने से जिंदगी में कभी लखपति नहीं बन सकोगे, कभी बंगला नहीं बना सकोगे। देखो, मैंने एक महीने में पचीस हजार कमा लिये....I मेरी मानो तो चलो मेरे साथ.... खेलो मजे से जुआ.... भाग्य चमकेगा....।' ऐसी बातें करने वाले मिल जायेंगे उस समय सावधान रहना! लालच में फँसना नहीं । आपका दृढ़ मनोबल होगा तभी बच सकोगे । अल्प प्रयास में लखपति बन जाने की लालच भारी होती है! इस लालच के सामने अड़िग रहने के लिए जीवन में दृढ़ प्रतिज्ञा होनी चाहिए कि 'किसी भी हालत में जुआ नहीं खेलूँगा ।' यदि कोई जुआ खेलता हो तो शीघ्र वहाँ जाना बंद कर देना। वैसे स्थानों में जाना ही नहीं कि जहाँ जुआ खेला जाता हो। वैसे लोगों के साथ परिचय नहीं रखना कि जो लोग जुआ खेलते हों। मानोगे यह बात ? तन-मन और धन से बरबाद नहीं होना हो तो मानना यह बात ! निर्भयता और निश्चिंतता से जीवन जीना हो तो मानना यह बात । परस्त्री - संबंध से सावधान ! तीसरी बात है परस्त्री की । जो परायी स्त्री है, जो आपकी पत्नी नहीं है, उससे राग नहीं करना, उससे स्नेह संबंध नहीं बांधना । बड़ा खतरा है इस मार्ग पर। स्व-स्त्री से आज लोगों को परायी स्त्री ज्यादा अच्छी लगती है! मनुष्य की मनोवृत्तियाँ अत्यंत विकृत बनती जा रही हैं। हालाँकि इस बात में बदली हुई जीवनपद्धति बहुत जिम्मेदार है, फिर भी जिस मनुष्य को आपत्तियों से बचना है, अनेक भयों से बचना है, उस मनुष्य को अपनी जीवनपद्धति को बदलना होगा । सभा में से : परायी स्त्री से मित्रता तो हो सकती है न? महाराजश्री : क्या पुरुष मित्रों का अकाल पड़ गया है ? आपकी स्त्री मित्र नहीं बन सकती है क्या ? ऐसे फँदे में मत फँसना .... अन्यथा घोर संकट में फँस जाओगे । परस्त्री के सामने मत देखो ! For Private And Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- ३९ १७५ सभा में से : ऑफिसों में काम करने वाली महिलाओं के साथ तो बातें करनी पड़ती हैं..... महाराजश्री : और क्या क्या करना पड़ता है... बोल दो! बातें करते-करते कितने आगे निकल जाते हैं लोग? परस्त्री के साथ आपकी मित्रता का ज्ञान जब आपकी पत्नी को होगा तब क्या प्रतिक्रिया होगी ? जब उस स्त्री के पति को मालूम होगा तब क्या प्रतिक्रिया होगी ? संकट आ सकते हैं या नहीं? घर में क्लेश और बाहर झगड़ा होगा न ? संभव है उस स्त्री का पति स्त्री को अथवा आपको यमलोक में भी पहुँचा दे ! अशांत मन से आराधना असंभव : एक बड़े शहर में एक भाई नियमित प्रवचन सुनने आया करता था । एक दिन रात्रि के समय मेरे पास आकर उन्होंने अपनी दुःखद कहानी सुनायी । उनकी पत्नी दूसरे पुरुष से प्रेम करती थी । उस पुरुष के साथ घूमती-फिरती । पत्नी को इस भाई ने देख लिया था । वह पुरुष 'दादा' टाइप का था । ये महानुभाव व्यापारी थे। अपनी पत्नी को समझाने की भरसक कोशिश करने पर भी पत्नी इन्कार करती रही। तब उनको भयानक क्रोध हो आया ... एक दो बार पत्नी को मारा भी । परन्तु पत्नी ने परपुरुष का त्याग नहीं किया.... तब उनके सामने समस्या खड़ी हो गई.... 'अब क्या करना?' घर में दो बच्चे थे ! समाज में इज्जत और प्रतिष्ठा थी। तलाक ले तो बच्चों का प्रश्न था और इज्जत का प्रश्न था....! स्त्री को लाख बार समझाने पर भी समझने को तैयार नहीं थी । इस भाई का 'टेन्शन' भारी हो गया था । उनको लगता था कि वे शायद पागल बन जायेंगे । दुनिया की निगाहों में वे सुखी थे! बाजार में दुकान थी... पैसे थे.... पत्नी थी, बच्चे थे ! इज्जत थी... प्रतिष्ठा थी....! परन्तु आन्तरिक परिस्थिति विपरीत थी ! बाह्य सुख के साधन उपलब्ध होने पर भी वे दुःखी थे, अशान्त थे, संतप्त थे ! उनको भय था कि कभी क्रोधावेश में वे पत्नी की हत्या न कर डालें ! पत्नी के प्रेमी की हत्या करने की तो शक्ति नहीं थी! भय अवश्य था... कि 'वह 'दादा' कभी मेरी हत्या न कर डाले!' पत्नी यदि उसके प्रेमी को कह दे कि 'मेरे पति को ठिकाने पहुँचा दो,' तो काम हो जाय पूरा ऐसी परिस्थिति में... घोर अशान्ति में वह कैसे धर्मआराधना कर सके ? कैसे आत्मध्यान... परमात्मध्यान कर सके ? कैसे धर्म क्रियाओं में लीनता अनुभव कर सके ? For Private And Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७६ प्रवचन-३९ परपुरुष के परिचय से दूर रहना चाहिए : सुशील और समझदार महिलाओं को यदि भय और चिन्ताओं से मुक्त रहना है तो उनको परपुरुषों के परिचय से दूर रहना चाहिए। पति के मित्रों के साथ भी मर्यादित परिचय ही रखना चाहिए। अपनी मर्यादाओं का दृढ़ता से पालन करना चाहिए | परपुरुष के साथ मुसाफिरी नहीं करनी चाहिए, तीर्थयात्रा भी नहीं करनी चाहिए। परपुरुष के साथ सिनेमा-नाटक देखने या होटल में भी नहीं जाना चाहिए | पुरुष को जैसे परस्त्री के विषय में सावधान रहना है वैसे स्त्री को परपुरूष के विषय में सावधान रहना है। परस्त्री का आकर्षण ही बड़ा खतरा है। सीता के प्रति रावण का आकर्षण ही उसके सर्वनाश का कारण बना। क्या रावण के अन्तःपुर में रानियाँ नहीं थीं? हजारों रानियाँ थीं, फिर भी परस्त्री-सीता के प्रति वह आकर्षित हो गया... और परस्त्री को स्वस्त्री बनाने का दुष्प्रयत्न किया.... परिणाम क्या आया, आप जानते हो। परस्त्री को स्वस्त्री बनाने की इच्छा छोड़ दो। परस्त्री से प्रेम करने की कल्पना भी दिमाग में से निकाल दो। मुक्त सहचार : सर्वनाश की सड़क : __ परिस्थिति गंभीर है। बड़े नगरों में परस्त्री और परपुरुष के साथ घूमना फिरना, बातें करना, हँसना और नाचना... फैशन हो गया है। शारीरिक संबंध भी होने लगे हैं। परन्तु उन लोगों के सामने धर्म और मोक्ष की बात ही नहीं है। आत्मा और परमात्मा की कल्पना भी नहीं है। पाप और पुण्य की बातें शायद उन्होंने सुनी भी नहीं होगी। उनको रंग-राग और भोग-विलास ही जीवन लगा है। 'मरकर फिर से जनम लेना पड़ेगा....' यह विचार भी उनको नहीं है। कौन समझाये उनको? आप लोग उनका अनुकरण करने जाओगे तो बरबाद हो जाओगे। सिनेमा में, टी.वी. में, मेगझिनों में... ऐसा देखने को मिलता है और मूर्ख अज्ञानी जीव उनका अनुकरण करने लग जाते हैं। ज्यों पुरुष परस्त्री में आसक्त हुआ, ज्यों स्त्री परपुरुष में आसक्त हुई, कि उनको पारिवारिक जीवन में अशान्ति पैदा हो जाएगी। परिवार में अव्यवस्था फैल जाएगी। पारस्परिक स्नेह कम होता जायेगा। झगड़े शुरु हो जायेंगे... आर्थिक गिरावट भी आ सकती है। सामाजिक प्रतिष्ठा गिरती जाती है....और एक दिन सर्वनाश हो के रहेगा। स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों को लेकर आजकल अखबारों में, पत्रिकाओं में, For Private And Personal Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- ३९ १७७ सेमिनारों में एवं चर्चा सभाओं में बहुत बातें होती हैं। ज्यादातर स्त्री-पुरुष के मुक्त सहचार के पक्ष में तर्क दिये जाते हैं । मेरे ख्याल से ये लोग धर्म एवं मोक्ष को केन्द्रबिन्दु बनाकर नहीं सोचते । वे सोचते हैं सामाजिक व्यवस्था को लेकर अथवा मनोवैज्ञानिक दृष्टि से। कुछ लोग तो लग्नव्यवस्था को भी निरर्थक बता रहे हैं! कुछ साहित्यकार तो पत्नी के अलावा प्रेयसी रखने का भी समर्थन कर रहे हैं। अखबारों में, मेगेझिनों में यह सब छपता है और प्रजा पढ़ती है ! जिसके पास परिपक्व बुद्धि नहीं होती है, स्वयं में पुख्त विचार करने की क्षमता नहीं होती, वैसे मनुष्य शब्दों के मायाजाल में फँसकर 'मुक्त सहचार' के उस मार्ग पर चल देते हैं। भले, अल्प समय के लिए उस मार्ग पर वे ऐन्द्रिक क्षणिक सुख का अनुभव करते हों परन्तु मानसिक स्वस्थता और प्रसन्नता को वे खो देते हैं। कुछ सामाजिक संकट में फँस जाते हैं। धर्मपुरुषार्थ से विमुख बन जाते हैं। 'प्रेम' और 'स्नेह' के नाम पर वे लोग वासना के विषचक्र में फँस जाते हैं। शारीरिक रोगों से घिर जाते हैं । परस्त्रीगमन का निषेध मात्र धार्मिक निषेध ही नहीं है, राज्य के कानून से भी निषिद्ध है । परस्त्रीगमन राज्य का भी अपराध है। समाज का भी अपराध है। समाजविरुद्ध एवं राज्यविरुद्ध प्रवृत्ति मनुष्य को आफत में डाल देती है। धर्मपुरुषार्थ करने वाले मनुष्य को ऐसी कोई प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए कि जिससे मन भयाक्रान्त बना रहे। और चिन्ताओं से व्याकुल बना रहे । परस्त्रीगामी पुरुष को और परपुरुषगामी स्त्री को पूछना कि उनके मन की स्थिति क्या है? अखबारों में आप कई बार पढ़ते हो कि 'उस व्यक्ति ने अपनी स्त्री के दुश्चरित्र को देखा और हत्या कर दी...' उस व्यक्ति ने अपनी पत्नी के प्रेमी को मार डाला।' उस स्त्री के पति और प्रेमी के बीच लड़ाई हो गई .... ।' ऐसे समाचार पढ़कर कुछ सोचते हो या नहीं ? परस्त्री से मिलने वाले सुख को पाने की इच्छा भी मत करो । एक कहानी : ललितांग की : श्रेष्ठिपुत्र ललितांग का उदाहरण आपने सुना होगा ? परस्त्री के मोहपाश में फँसकर वह कितना दुःखी हो गया था ? सुन्दर वस्त्र धारण कर वह राजमार्ग से जा रहा था। राजा का महल राजमार्ग पर था । महल के झरोखे में रानी बैठी थी। श्रेष्ठिपुत्र ने झरोखे के सामने देखा, रानी ने भी ललितांग को देखा। रानी रूपवती थी तो ललितांग भी रूपवान था । रानी की निगाहों में ललितांग के प्रति राग उभर आया। रानी कामविकारपरवश हो गई। For Private And Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७८ प्रवचन-३९ ललितांग को रानी का रूप भा गया.... वह एकटक रानी को देखते ही रहा। रानी ने उसको संकेत से अपने पास आने का समय और स्थान बता दिया । ललितांग रानी का संकेत समझ गया। वह खुश हो गया। उसके मन में संयोगसुख की कल्पना उभर आयी....वह विकारपरवश हो गया। रानी ने सूर्यास्त के बाद गुप्त रास्ते से महल में आने का संकेत किया था। ललितांग ठीक समय पर पहुँच गया महल में | रानी और ललितांग प्रेमसागर में डूबने लगे....। कुछ क्षण बीते होंगे त्यों रानिवास में राजा के आने की आहट सुनी! रानी घबरा गयी! यह समय राजा के आने का नहीं था, अकस्मात् ही राजा आ गया था। ललितांग भी घबरा गया! रानी ने शीघ्र ही ललितांग को छिपा देना चाहा.... परन्तु कहाँ छिपाये? उसकी नजर भीतर के पायखाने की ओर गई। उसने ललितांग को पायखाने में छिप जाने को कहा। एक क्षण का भी विलंब किये बिना ललितांग पायखाने में घुस गया! राजा ने रानिवास में प्रवेश किया। रानी ने प्रेम से राजा का स्वागत किया। रानी का हृदय तो कांप रहा था.... भय से थर्रा रहा था.... फिर भी रानी चतुर थी, उसने अपने मुँह पर प्रसन्नता रखी....। राजा ने रानिवास में इधर-उधर देखा और रानी से कहा : 'मुझे पानी दो, मैं पायखाना जाऊँगा। रानी क्षणभर स्तब्ध हो गई। पायखाने में छिपे हुए ललिताँग ने भी राजा की बात सुनी! भयभीत हो गया.... राजा की तलवार से बचने के लिए वह पायखाने में उतर गया.... विष्टाभरी गटर में उतर गया! भय से आक्रान्त मनुष्य क्या नहीं करता है? राजा ने जब पायखाने का दरवाजा खोला, रानी की सांस ऊँची हो गई.... परन्तु जब ललितांग को पायखाने में नहीं देखा तब जाकर उसे शान्ति हुई। वासना हमेशा स्वार्थभरी होती है : रानी अपनी सलामती चाहती थी। यदि पायखाने में ललितांग पकड़ा जाता तो मात्र ललितांग को ही सजा नहीं होती, रानी को भी सजा होती! संभव था कि राजा दोनों का कत्ल कर देता | रानी ने जब देखा कि ललितांग पायखाने में नहीं है-वह खुश हो गई! वह खुशी थी उसकी स्वयं की सलामती की! क्या वह रानी नहीं समझ सकी होगी कि ललितांग पायखाने में से कहाँ गया होगा? उस गटर में ललितांग का क्या होगा, उसकी कल्पना उसको नहीं आयी होगी? परन्तु रानी ने यह कुछ भी नहीं सोचा। वह कैसे सोच सकती थी! उसके हृदय में ललितांग के प्रति प्रेम नहीं था, वह तो ललितांग को मात्र For Private And Personal Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३९ १७९ अपनी कामवासना पूर्ण करने का साधन मानती थी। राजा से संतोष नहीं होता होगा...इसलिए ललितांग को बुलाया होगा। ललितांग गटर में चला जाय या मर जाय, रानी को कोई अफसोस नहीं था । ललितांग से सुख नहीं मिला तो दूसरा कोई पुरुष मिलेगा। विकारी स्त्री-पुरुष के हृदय में कभी निर्मल प्रेमस्नेह हो नहीं सकता। परस्त्री में लंपट बने ललितांग की कैसी दुर्गति हुई? रानी का सुख तो दूर रहा, घोर आपत्ति में फँस गया। ललितांग गटर में उतर गया और गटर में बहता रहा....बेहोश हो गया था....कई दिनों तक बेहोशी में बहता रहा.... सड़ता रहा। उसके पिता ने पुत्र की सारे नगर में तलाश करवाई। माँ रोती है। पुत्र को खोजने के लिए आकाश-पाताल एक कर दिये सेठ ने... परन्तु पुत्र नहीं मिला.... तब सेठ अत्यंत निराश हो गये। कुछ दिनों के बाद ललितांग गटर में बहता हुआ गाँव के बाहर निकला....शरीर सड़ गया है....निश्चेतन अवस्था में पड़ा है। वहाँ से गुजरने वाले कुछ लोगों ने उस शरीर को देखा | गाँव में बात फैली कि गाँव के बाहर गटर में किसी मनुष्य का मृतदेह सड़ा हुआ पड़ा है। सुनकर अनेक लोग देखने के लिए पहुंचे वहाँ । सभी ने उस शरीर को देखा परन्तु कोई पहचान नहीं पाया कि यह ललितांग है। जब सेठ ने बात सुनी, सेठ दौड़ते हुए वहाँ पहुँचे। उन्होंने अपने नौकरों से उस देह को गटर से बाहर निकलवाया, पानी से साफ करवाया तब वे पहचान गये कि यह ललितांग है। शीघ्र ही सेठ ने वैद्य को बुलाकर जाँच करवायी कि पुत्र जिंदा है या मर गया है। वैद्य ने शरीर को अच्छी तरह से देखा और कहा कि 'लड़का जिंदा है।' सेठ तुरन्त ही ललितांग को घर ले गये। दीर्घ समय तक औषधोपचार किये तब जाकर ललितांग स्वस्थ और निरोगी हुआ। यदि जीवन को निरुपद्रवी बनाये रखना है, निर्भय और निश्चित जीवन जीना है तो १. अन्यायपूर्ण व्यवहार का त्याग करो २. जुआ खेलना बंद करो ३. परस्त्री का पाप छोड़ दो। आज ये तीन बातें बतायी हैं, शेष दो बातें आगे बताऊँगा, आज बस इतना ही! For Private And Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३९ १८० शा. धर्मआराधना करनेवालों का दिल, आत्मविशुद्धि का पुरुषार्थ करनेवालों का मन निराकुल एवं चिंतारहित होना जरूरी है। ताकत का आधार केवल आहार नहीं है। मांसाहार नहीं करनेवाले अनेक महाबलवान महापुरुष विश्व के अंदर इतिहासप्रसिद्ध बने हैं। शराब पीनेवाले इस जीवन में भी पशु का जीवन जीते हैं... आनेवाले जीवन में तो जानवर बनते ही हैं। गलत कार्य हमेशा मन को भयभीत बनाये रखता है। आदमी न तो चैन से जी सकता है, न ही सुख से मर पाता है। बुरी यादें उसका पीछा नहीं छोड़तीं। प्रवचन : ४० परम करुणानिधि पूज्य आचार्य श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ में सामान्य धर्म का निरूपण करते हुए तीसरा सामान्य धर्म बता रहे हैं परोक्षप्रत्यक्ष आपत्तिओं से सावधानी! इहलौकिक-पारलौकिक कष्टों से बचते रहो। एक बात अच्छी तरह समझ लो! कुछ कष्ट कुछ आपत्तियाँ जीवात्मा के पापकर्मों के उदय से आती हैं, कुछ कष्ट और दुःख जीवात्मा के दुष्ट आचरण से आते हैं। आप कोई दुष्ट आचरण नहीं करते यानी आप न्याय-नीति और ईमानदारी से व्यवहार करते हो, आप जुआ नहीं खेलते हो, आप परस्त्रीगमन नहीं करते हो, आप मांसभक्षण नहीं करते हो, शराब नहीं पीते हो फिर भी आप आपत्ति में फँसे जाते हो, अकल्पित दुःखों में फँसे जाते हो तो समझना कि पूर्व जन्मों में उपार्जित पापकर्मों का उदय हुआ है। परन्तु यदि आप अन्यायपूर्ण व्यवहार करते हो और आपत्ति आती है, यदि आप जुआ खेलते हो और कष्ट आता है, यदि आप परस्त्रीगमन करते हो और आफत में फँस जाते हो, यदि आप मांसभक्षी बने हो और कष्ट आते हैं, यदि आप मदिरापान करते हो और आपत्ति में फँसते हो...तो समझना कि आपके ही बुरे आचरण से आप दुःखी बनते हो। जीवन किस के लिए : धर्म-आराधना करने वालों का मन, आत्मशुद्धि का पुरुषार्थ करनेवालों का For Private And Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३९ १८१ मन निर्भय निराकुल और चिन्तारहित बना रहना चाहिए | दुष्ट और अयोग्य आचरण करने वाले कभी भी निर्भय और निश्चित नहीं रह सकते । भय और चिन्ता से उनका मन चंचल, अस्थिर और रुग्ण बना रहता है। ऐसे लोग धर्मआराधना नहीं कर सकते। इसलिए आप लोगों को कहता हूँ कि आप पहले आत्मसाक्षी से निर्णय कर लें कि इस मानवजीवन में धर्मपुरुषार्थ कर लेना है, अशुद्ध आत्मा को विशुद्ध करने हेतु भरसक प्रयत्न कर लेना है। यदि आपका यह निर्णय होगा तो ही आपको निर्भयता और निश्चिन्तता की यह बात समझ में आयेगी। गलत काम से सतत 'टेन्शन' : आप निश्चित रूप से मानना कि बुरे काम करने वाले भयाक्रांत ही रहते हैं, चिन्ताओं से व्याकुल ही रहते हैं। हाँ, उनके वस्त्र उजले और कीमती हो सकते हैं, उनके पास लाखों रूपये भी हो सकते हैं, वे लोग समाज में, नगर में, देश में, सत्ता के सिंहासन पर भी हो सकते हैं। हँसकर वे बोल सकते हैं और शांति पर लंबा चौड़ा भाषण भी दे सकते हैं! परन्तु भीतर में वे भयभ्रान्त होते हैं, चिन्ताओं की आग में सुलगते होते हैं! एक दिन, जब उनका पुण्योदय समाप्त हो जाता है और पापोदय शुरू हो जाता है, वे लोग आपत्ति में फँसे जाते हैं। ऐसे लोग शान्ति से प्रसन्नता से कैसे धर्मआराधना कर सकते हैं? धर्मआराधना तो दूर रही अपने जीवन में ऐसे लोग शान्ति और प्रसन्नता का अनुभव ही नहीं करते। अपने जीवन-व्यवहारों में भी वे लोग स्वस्थ और नियमित नहीं रह पाते। गहरी होती जाती बुराइयों की जड़ें : कल मैंने आपको तीन बुराइयों को जीवन में प्रवेश नहीं देने को कहा था : अन्यायपूर्ण व्यवहार नहीं करना, जूआ नहीं खेलना और परस्त्री का समागम नहीं करना । आज शेष दो बुराइयों के विषय में समझाना है। मांसाहार और मदिरापान के विषय में कुछ विस्तार से समझना पड़ेगा! यों तो अपना जैन समाज मांसाहारत्यागी और मद्यपानत्यागी माना जाता है, इसलिए आप लोगों के सामने मांसाहार और मद्यपान नहीं करने का उपदेश देना, कोई महत्व नहीं रखता है, परन्तु पिछले २५ वर्ष में अपने जैन समाज में भी ये दो बुराइयाँ विशेष फैली हैं और फैलती जा रही हैं, इसलिए इन दो बुराइयों के अनिष्ट बताने ही पड़ेंगे। For Private And Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३९ १८२ विशेषतः जो लोग बड़े श्रीमन्त हैं और अजैन मांसाहारी मित्रों के साथ क्लबों में, रेस्टोरेन्टों में हॉटलों में जाते हैं, वे लोग मांसाहारी और शराबी बन गये हैं। जो लोग विदेशों में जाते आते हैं और जिनमें धर्मनिष्ठा नहीं रही है वे लोग मांसाहारी और शराबी बन गये हैं | जो युवक-युवतियाँ कोलेज में पढ़ते हैं, कालेज-हॉस्टेल में रहते हैं, उनमें से ज्यादातर युवक-युवतियाँ 'अल्ट्रामोर्डन' कहलाने के लिए अति-आधुनिक बनने के व्यामोह में मांसाहार करने लगे हैं और शराब पीने लगे हैं। कुछ लोग शारीरिक ताकत पाने के भ्रम में और मानसिक शान्ति पाने के भ्रम में मांसाहार और मद्यपान करने लगे हैं! दूषणों को उत्तेजित करनेवाली राजनीति : आजकल भारत में राजनीति भी वैसी ही बनी हुई है कि जो इन दूषणों को उत्तेजन देती है। प्रजा को मांसाहार करने हेतु लालायित कर रही है, मद्यपान करने की सुविधायें दे रही है। सभा में से : देश के नेतागण ऐसा क्यों कर रहे हैं? महाराजश्री : प्रजातंत्र है न? प्रजातंत्र में, प्रजा के मत चाहिए नेता बनने के लिए! प्रजा के मत प्राप्त करने के लिए प्रजा को खुश करनी पड़ती है। मुसलमानों के वोट-मत लेने के लिए उनको मांसाहार देने का वचन दिया जाता है! शराब पीने वालों को शराबबंधी नहीं करने का वचन दिया जाता है! शराब की बोतलें, चुनाव के समय लाखों की संख्या में बाँटी जाती हैं! __ शराबबंदी की बातें करनेवाले उम्मीदवारों को शराब पीनेवाले वोट नहीं देते! मांसाहार निषेध करने वालों को मांसाहारी लोग वोट नहीं देते! ऐसे तो सत्तानिःस्पृही लोग हैं नहीं देश में कि जो सत्ता की परवाह किये बिना, अनिष्टों का, दूषणों का, व्यसनों का डटकर मुकाबला करें। कोई विरल मनुष्य निकलता है और बुराइयों का विरोध करता है तो चुनाव में हार जाता है! चूंकि उसके प्रतिस्पर्धी उम्मीदवार बुराइयों को उत्तेजना देकर प्रजामत ज्यादा प्राप्त कर लेता है! इसलिए मेरा तो यह अनुमान है कि जब तक प्रजातंत्र रहेगा, चुनावपद्धति रहेगी तब तक राष्ट्रीय स्तर पर मांसाहार और मद्यपान पर प्रतिबंध आनेवाला नहीं है। आजादी क्या मिली....संस्कृति मरने लगी : आजादी प्राप्त होने के बाद देश में बूचड़खाने कितने बढ़ गये? अंग्रेज लोग भारतीय प्रजा से थोड़े डरते थे, भारत के लोगों की धर्मभावना को नजरअंदाज For Private And Personal Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८३ प्रवचन-३९ नहीं करते थे। आजादी के बाद स्वदेशी सत्ताधीशों ने भारतीय धर्मभावना को कुचलने का ही काम किया है। अहिंसाप्रधान देश में जगह जगह हिंसा की तांडव लीला खेली जा रही है। कारखानों में प्रतिदिन लाखों पशुओं की क्रूर हत्या हो रही है। परदेशों में मांस का निर्यात कर विदेशी मुद्रा कमायी जाती है! मांस का व्यापार! शराब का व्यापार! भगवान महावीर की इस धरती पर क्या हो रहा है, आप सोच सकते हो क्या? ऐसे बदले हुए देशकाल में मांसाहार से बचना, मद्यपान से बचना, इतना आसान काम तो नहीं है! फिर भी बचना अनिवार्य है। दृढ़ मनोबल होगा तभी बच सकोगे। व्यसनों में फिसलने के मार्ग अनेक हैं। काफी सावधानी बरतनी होगी। सुशील और संस्कारी परिवार के लोग भी फिसल रहे हैं। गलत सोहबत के कटु परिणाम : । श्री रामचन्द्रजी के पूर्वजों के इतिहास में भी ऐसी एक घटना पढने में आती है। अयोध्या के राजसिंहासन पर उस समय राजा नधुष राज्य करता था। उसकी रानी का नाम था सिंहिका। सिंहिका महासती सन्नारी थी। सतीत्व के प्रभाव से उसने नघुष का दाहज्वर शान्त कर दिया था। राजकुमार सोदास को सिंहिका ने सुशील और संस्कारी बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। परन्तु तरूण सोदास की पुरोहित पुत्र से मित्रता थी। पुरोहित पुत्र आनंद मांसाहारप्रिय था। सोदास नहीं जानता था कि उसका मित्र मांसाहारी है। धीरे-धीरे मित्र के आग्रह से सोदास जमीनकंद खाने लगा। हालांकि सोदास अपनी माता से डरता था, इसलिए अपनी माता को मालूम न हो उस प्रकार छुप-छुप कर वह जमीनकंद खाता था। मित्र उसको पूरा सहयोग देता था। सिंहिका रानी को पता नहीं था कि उसका पुत्र मित्र के संग जमीनकंद खाने लगा है। रसलोलुपता भयानक होती है। अभक्ष्यभक्षण में रसवृत्ति उत्तेजित होने पर मनुष्य को वापस लौटना मुश्किल हो जाता है। बार-बार अभक्ष्य भक्षण करने से रसवृत्ति प्रबल होती जाती है। प्रारम्भ में लज्जा होती है, समय बीतने पर निर्लज्जता आ जाती है। फिर भी तो पापों का भय नहीं रहता? लोकभय.... अपयशभय नहीं रहता है। सोदास का रास्ता तब साफ हो गया जब राजा नघुष और सिंहिका ने संसार त्याग कर दिया, चारित्र्य ले लिया! सोदास अयोध्या के साम्राज्य का For Private And Personal Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४० १८४ राजा बन गया। सत्ताधीश बन गया। पुरोहितपुत्र की भी पदोन्नति हो गई। उसने धीरे-धीरे सोदास के भोजन में प्रच्छन्न रूप से माँस की मिलावट करवानी शुरू की। रसोइघर के रसोइये को स्वर्णमुद्राएं देकर चुप कर दिया गया था। मांसमिश्रित भोजन सोदास को बड़ा प्रिय लगा। उसने रसोइये को कहा : 'आजकल भोजन बहुत ही अच्छा बन रहा है....क्या कारण है? अद्भुत स्वाद का अनुभव हो रहा है।' आनंद ने सोदास को मांसाहारी बना डाला : ___ मित्र और रसोइया दोनों हंसने लगे। पुरोहितपुत्र सोदास के साथ ही भोजन करता था। सोदास ने मित्र से पूछा : 'आनंद, क्या बात है? क्यों तुम दोनों हंसते हो?' आनन्द ने कहा बाद में बताऊँगा....! आनन्द ने अभय का वचन लेकर सोदास को बताया कि 'भोजन मांसमिश्रित बन रहा है।' सोदास नाराज तो हुआ.... परन्तु आनन्द ने प्रेम से समझाया.... तब वह शान्त हो गया, मांसभक्षण करने के लिए सहमत भी हो गया। प्रथम तीर्थंकर परमात्मा ऋषभदेव से ही अयोध्या की राजपरम्परा अहिंसाप्रधान संस्कृति का स्वीकार करती आयी थी। अयोध्या के राजा निरामिष आहारी थे। प्रजा में भी मांसाहार वर्ण्य माना जाता था। ऐसे वातावरण में प्रकटरूप से मांसाहार करना राजा के लिए भी सरल नहीं था। राजाओं को भी संस्कृति का अनुकरण करना आवश्यक था। प्रजा की धर्मभावना का खयाल करना जरूरी था। सोदास मांसभक्षी बन गया । अब मित्र आनन्द मांसाहार के लिए पशुओं की कत्ल करवाने लगा। एक दिन जब कहीं से भी मांस नहीं मिला तो उसका रसोइया मृत बच्चे का कलेवर उठा लाया और राजा को नरमांस का भोजन खिला दिया। राजा को नरमांस का भोजन ज्यादा रसभरपूर लगा। अब उसने नरमांस का भोजन प्रतिदिन बनाने की आज्ञा दी। नगर में प्रतिदिन एक बच्चे की चोरी होने लगी, अपहरण होने लगा | महाजन और मंत्रीमंडल चिन्तामग्न बना। गुप्तचरों ने अपहरण करने वाले को पकड़ लिया....और पाप का भंडा फूट गया। ___ मंत्रीमंडल ने सोदास को पदभ्रष्ट किया, राजकुमार सिंहस्थ का राज्याभिषेक कर दिया। सोदास जंगल में चला गया। उसका मित्र तो कभी का जंगल में भाग गया था। नरभक्षी सोदास हाथ में तलवार लिए, जंगल में भटकता है, जहाँ कहीं किसी अकेले बच्चे को या किशोर को देखता है, हत्या कर देता है और खाने लगता है। For Private And Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४० ___१८५ और सोदास नरभक्षी हो गया : अयोध्या का राजा नरभक्षी बन गया! किसने बनाया नरभक्षी? मांसभक्षण की बुरी आदत ने! कई बरसों तक वह भटकता रहा....मांस-भक्षण करता रहा...अनेक संकट और उपद्रवों में फँसता रहा। आप लोग सोचें.... सोदास के पतन को कल्पना की आँखों से देखो....उसने क्या नहीं खोया? राज्य, रानी, पुत्र परिवार से बिछड़ गया....सत्ता-संपत्ति चली गई....मान-सम्मान चला गया....क्या रहा उसके पास? अतृप्ति की आग सुलगती रही उसके हृदय में। अनेक निर्दोष बच्चों की क्रूर निर्मम हत्या करता रहा....पापों से आत्मा को मलीन बनाता रहा....| बाद में उसका भाग्योदय हुआ और अचानक सद्गुरु का योग मिल गया, मांसाहार का त्याग कर दिया, यह तो सोदास की बात है, सभी को इस प्रकार सद्गुरु का योग मिलता नहीं और उत्थान होता नहीं। सद्गुरु का योग मिलने पर भी सभी को आत्मज्ञान होना निश्चित नहीं! कई ऐसे जीव होते हैं कि सद्गुरु मिलने पर भी उनकी ज्ञानदृष्टि नहीं खुलती है, उस मार्ग से वापस नहीं लौट सकते हैं। भगवान महावीर देव के समय में 'कालसौकरिक' नाम का कसाई हो गया। प्रतिदिन ५०० भैसों की हत्या करता था। राजा श्रेणिक ने बहुत समझाया तो भी उसने हिंसा का त्याग नहीं किया। जब एक दिन कुए में कालसौकरिक को लटकाया गया, तो वहाँ कुए की भिति पर कल्पना से भैंसों के चित्र बनाकर काटने लगा! उसका समग्र जीवन वैसा ही हिंसापूर्ण व्यतीत हुआ। अहिंसक-शाकाहारी अंडे का भ्रम : अंडे और मछली का व्यापक प्रचार भारत सरकार के द्वारा हो रहा है। क्या पता.... लोगों को अंडे खाने वाले बनाकर सरकार क्या चाहती है। मांसाहार-त्यागी प्रजा को मांसाहारी बनाने के इतने सारे प्रयत्न क्यों हो रहे हैं? 'अहिंसक अंडे' के नाम पर अंडे का प्रचार अहिंसक प्रजा में शिक्षा के माध्यम से हो रहा है। ___ भौतिक....शारीरिक लाभों को बताकर मांसाहार करने प्रजा को उत्साहित किया जाता है। धान्य से और वनस्पति से मांस में ज्यादा 'विटामिन्स' बताये जाते हैं जो कि सर्वथा असत्य है। मांस से ज्यादा विटामिन्स धान्यों में पाये जाते हैं, वनस्पति में पाये जाते हैं। मांसाहारी की शारीरिक शक्ति से मांसाहारीत्यागी For Private And Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८६ प्रवचन-४० की शक्ति कम नहीं होती। शक्ति का आधार मात्र आहार नहीं होता है, आहार से बनने वाला खून और वीर्य होता है। मांसाहार नहीं करने वाले अनेक महाबली पराक्रमी स्त्री-पुरुष विश्व के इतिहास में प्रसिद्ध हैं। मांसाहार एवं ताकत का उलटा गणित : 'मांसाहार नहीं करने वाले स्त्री-पुरुष निर्बल होते हैं और मांसाहारी लोग बलवान् होते हैं, ऐसा कोई नियम नहीं है। मांसाहारी लोग भी अनेक रोगों से अक्रान्त हो सकते हैं, वे भी निर्बल हो सकते हैं और मरते भी हैं। शारीरिकशक्ति के प्रलोभन से भी मांसाहार करने जैसा नहीं है। शारीरिक शक्ति पाने के लिए निरामिष आहार में अनेक द्रव्य मिल सकते हैं। शक्तिदायक अनेक द्रव्य उपलब्ध हो सकते हैं। इसलिए कहता हूँ कि शक्तिशाली बनने के प्रलोभन से भी मांसाहार न करें। ___ मांसाहार से जिस प्रकार इहलौकिक नुकसान है वैसे पारलौकिक नुकसान भी है। हिंसा के अनेक उपाय शास्त्रों में बताये हैं। अहिंसा से यानी अहिंसा के पालन से आरोग्य और सौभाग्य की प्राप्ति होती है वैसे हिंसा से रोग और दुर्भाग्य की प्राप्ति होती है। रोग और दुर्भाग्य हिंसा का फल है। जीवात्मा हिंसा करता है यानी रोग और दुर्भाग्य को निमंत्रण देता है। पारलौकिक दृष्टि से यह बात बताता हूँ। यहाँ इस जीवन में रसनेन्द्रिय की परवशता से जो जीव मांसाहार करके मजा लूटता है, परलोक में अनेक रोगों का शिकार बनता है, उसका जीवन दुर्भाग्य से भर जाता है। जीवहिंसा से 'अशाता-वेदनीय' कर्म बंधता है। जब यह कर्म उदय में आता है तब शरीर रोगों से भर जाता है। जीवदया से 'शातावेदनीय' कर्म बंधता है। इस कर्म का उदय होने पर निरोगिता प्राप्त होती है। सभा में से : ऐसी दवाइयाँ भी होती हैं कि जो जीवहिंसा से बनी हुई होती हैं....जैसे कोडलीवर ऑईल, सेवन पिल्स वगैरह.... महाराजश्री : ऐसी दवाइयाँ भी नहीं लेनी चाहिए। दवाई लेनी हो तो डॉक्टर को पूछ लेना चाहिए कि इस दवाई में कोई हिंसाजन्य तत्त्व नहीं है न? अहिंसक दवाइयाँ भी मिलती हैं। दवाई लेने वाले को सावधानी रखनी चाहिए | आज तो हर बात में सावधानी रखना अनिवार्य हो गया है । पशुओं के चमड़े में से, चरबी में से, हड्डियों में से अनेक वस्तुएँ बनने लगी हैं। कई मिठाइयाँ 'मटन-टेलो' में बनती हैं। बाजार से मिठाई खरीदने वालों को इस For Private And Personal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८७ प्रवचन-४० विषय में जाग्रत रहना चाहिए। पशुओं के चमड़े में से कई मौजशौक की वस्तुएं बनती हैं। पशुओं को क्रूरता से मारा जाता है और चमड़ा उतार कर वैसी वस्तुएं बनायी जाती हैं। जियो और जीने दो : __ ऐसी वस्तुओं का उपभोग करने वाले लोग परोक्षरूप से हिंसा को उत्तेजना देते हैं। 'जियो और जीने दो' सूत्र भुलाया जा रहा है। 'दूसरों को मार कर भी मौजशौक करो।' सूत्र का अनुसरण हो रहा है। मनुष्य दयाहीन....क्रूर बनता जा रहा है। ध्यान रखना, यदि मनुष्य दूसरे जीवों के प्रति क्रूर बना तो कुदरत मनुष्य के प्रति क्रूर बन जायेगी। लाखों-करोड़ों मनुष्यों को क्रूरता से मरने का समय आ सकता है। कुदरत के भी सिद्धान्त हैं। इसलिए कभी भी मांसाहार करने का सोचना नहीं। हिंसाजन्य पदार्थों का उपभोग करना नहीं। धर्मआराधना प्रसन्नचित्त से करने के लिए ये बातें बताता हूँ| इन्सान को हैवान बनानेवाला मद्यपान : पांचवा अनिष्ट है मद्यपान का। शराबी मनुष्य आत्मकल्याण का महान् धर्मपुरुषार्थ नहीं कर सकता है। शराब मनुष्य को हैवान बना देता है। शराबी कौन-सा बुरा काम नहीं करता है? शराब को लेकर लियो टॉलस्टाय ने एक कहानी लिखी है, बहुत मार्मिक और बोधप्रद कहानी है, आप शान्ति से वह कहानी सुनें। एक कहानी एक किसान था। प्रातः नास्ते के लिए एक पाऊं रोटी लेकर अपने खेत में गया। उसने रोटी अपने कोट में लपेट ली और कोट को वृक्षों की घटा में रख दिया। उसने खेती का काम शुरू किया । मध्याह्न तक उसने खेती का काम किया, जब उसका घोड़ा थक गया, जिसको हल के साथ जोड़ा था, उसको छोड़ दिया और खुद भी क्षुधा शान्त करने के लिए अपना कोट लेकर बैठा। कोट में रोटी खोजता है परन्तु रोटी नहीं मिली.... उसने इर्दगिर्द देखा... परन्तु रोटी नहीं मिली। किसान को बड़ा आश्चर्य हुआ.... 'बड़ा आश्चर्य! इधर कोई मनुष्य तो क्या, कोई पशु भी नहीं आया है... तो रोटी कौन ले गया?' किसान स्वयं बोलता था। दूर वृक्षघटा में शैतान का दूत खड़ा हँस रहा था। किसान की रोटी वही For Private And Personal Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन - ४० १८८ उठा ले गया था ! वह देखना चाहता था कि किसान अपनी रोटी खोजने के लिए क्या करता है। वह मानता था कि 'किसान अवश्य गुस्से होगा, गालियाँ बकेगा और मुझे याद करेगा!' किसान को रोटी नहीं मिलने से दुःख तो हुआ परन्तु उसने धैर्य से काम लिया। उसने अपने आप से कहा : 'जो होना था हो गया, एक रोटी नहीं खाने से मैं मर जाऊंगा नहीं, जो कोई मेरी रोटी ले गया होगा, उसको मुझसे ज्यादा आवश्यकता होगी... भगवान उसकी आवश्यकता पूर्ण करें!' ऐसा बोलकर किसान अपने कुए पर गया, पेट भर के पानी पिया, विश्राम किया और पुनः खेती के काम में जुट गया । शैतान के दूत को भारी दुःख हुआ । उसका दाव निष्फल गया था। वह किसान को पाप से मलिन नहीं कर सका । वह वहाँ से शैतान के पास गया। शैतान को उसने किसान की बात कह सुनायी । शैतान अत्यन्त बेचैन हो गया और बोला : 'यदि उस किसान ने तुझ पर विजय पा ली है तो तेरा ही दोष है, तुझे काम करना नहीं आता है। यदि सभी किसान और उनकी पत्नियाँ इस प्रकार व्यवहार करते रहेंगे तो अपना नामोनिशान साफ हो जायेगा । अपन को बड़ी गंभीरता से सोचना पड़ेगा। जाओ, तीन साल का समय देता हूँ । तीन वर्ष यदि तूने किसान को वश में कर लिया तो तुझे उत्तम बक्सीस दी जायेगी, तेरी पदोन्नति की जायेगी । ' दूत शैतान की आज्ञा पाकर पुनः इस धरती पर आया । किसान को अपने वश करने के अनेक उपाय वह सोचने लगा । एक युक्ति उसके दिमाग में आई, वह हर्षित हो गया। उसने मज़दूर का वेश धारण किया और किसान के वहाँ नौकरी कर ली। पहले वर्ष शैतान के दूत ने किसान को राय दी वह गेहूं खेत में नहीं, परन्तु खेत के निम्न भाग में ढलान में बोये । किसान ने उसी प्रकार गेहूं के बीज बो दिये। उस वर्ष वर्षा नहीं होने से दूसरे किसानों की फसल धूप में जल गई जबकि इस किसान को बहुत अच्छी फसल मिली। आवश्यकता से ज्यादा गेहूँ मिले । दूसरे वर्ष शैतान के दूत ने राय दी कि इस वर्ष गेहूं पहाड़ी धरती पर ही बोने चाहिए। इस वर्ष अतिवृष्टि होने से खेतों में पानी भर गया और फसल नष्ट हो गई, परन्तु पहाड़ी पर बहुत अच्छी फसल मिली। गेहूं का पहाड़ी-सा हो गया। किसान को चिन्ता हुई कि इतने सारे गेहूं का क्या करना चाहिए । For Private And Personal Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८९ प्रवचन-४० उसने मजदूर वेशधारी शैतान के दूत से पूछा। उसने कहा : 'जितने गेहूं ज्यादा हों, उनकी शराब बना देनी चाहिए।' किसान ने कहा : 'शराब कैसे बनायी जाती है?' दूत ने कहा : 'मैं शराब बनाना जानता हूँ।' किसान बड़ा खुश हो गया और शराब बनाने की इजाजत दे दी। शैतान के दूत ने तीव्र नशेवाली शराब बनायी। किसान ने जाम भरभर पिया और अपने मित्रों को भी पिलाया । शैतान का दूत अपनी सफलता पर गर्वित हुआ और पहुँचा शैतान के पास । शैतान को 'रिपोर्ट' दे दी। शैतान स्वयं उस जगह पर पहुँचा कि जहाँ किसानों ने शराब पीनी शुरू की थी। शैतान जब उस किसान के घर पहुँचा, उसने देखा तो उसके घर के आगे अनेक स्त्री-पुरुषों की भीड़ जमी हुई थी। शराब की महफिल जमी हुई थी। किसान की पत्नी मेहमानों को शराब दे रही थी। अचानक पत्नी के हाथ में से प्याला जमीन पर गिर गया और शराब जमीन पर दुलक गयी। किसान क्रोध से गालियाँ बकने लगा। शैतान के दूत ने शैतान से कहा : देखा? यह वही किसान है कि जिसने अपनी एक ही रोटी किसीने छीन ली थी तब एक भी बुरा शब्द नहीं बोला था। शैतान का सीना फूल गया : किसान ने पत्नी के हाथ में से शराब की प्याली ले ली और मित्रों के साथ मस्ती में शराब पीने लगा। इतने में एक गरीब किसान वहाँ से गुजरा उसने इस श्रीमन्त किसान के यहाँ महफिल जमी हुई देखी और वह भी महफिल में घुस गया। सख्त मेहनत से वह काफी थक गया था। शराब देखकर उसके मुंह में पानी आने लगा। उसको इच्छा हुई कि 'मुझे भी इस शरबत के दो चार चूंट मिल जायें तो कितना अच्छा।' परन्तु यजमान किसान ने उसको शराब दी नहीं और बड़बड़ करने लगा 'इस प्रकार चलते-फिरते लोगों को मैं शराब देता रहूँगा तो मेरा दिवाला ही निकल जायेगा न!' यह दृश्य देखकर शैतान के हर्ष का ठिकाना नहीं रहा। अपने दत की पीठ थपथपाता बोला 'बहुत अच्छा, मेरे दोस्त! यह तो अभी प्रारभ्भ है....आगे देखते रहो।' शराब पीने का पहला दौर समाप्त हुआ। सभी किसान नशे में चकचूर बन कर झूमने लगे....एक दूसरे को गले लगाने लगे और चापलूसी करने लगे। शैतान ने दूत से कहा : मदिरापान मनुष्यों को इतना नीच व अधर्म बना देता है कि वे एक-दूसरे को दगा देने लगते हैं। अब शीघ्र ही ये लोग हमारे परवश For Private And Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन - ४० १९० हो जायेंगे।' दूत ने कहा : 'यह तो शुरूआत है, शराब का दूसरा दौर चलने दो.... उस समय इन लोगों की अवदशा पूंछ पटपटाते कुत्तों जैसी हो जायेगी.... बाद में खूंखार भेड़िये जैसे बन जायेंगे और लड़ने लगेंगे!' शराब का दूसरा दौर शुरू हुआ। अब किसानों के वाद-विवाद में उग्रता एवं पशुता आ गई। एक दूसरे को गालियाँ बकने लगे । झगड़ने लगे..... मुक्केबाजी करने लगे। शैतान इस रसप्रद दृश्य को देखकर अत्यंत प्रसन्न हो गया, अपने दूत कहने लगा : 'तूने बहुत अच्छा काम कर दिखाया !' दूत ने कहा : 'देखते रहें आप! तीसरा दौर शुरू होने दो! अभी ये लोग एक-दूसरे की ओर घूर रहे हैं... अब वे पागल सुअर से बन जायेंगे !' पागल बनते जा रहे हैं : शराब का तीसरा दौर शुरू हुआ। सभी ने एक-एक प्याला पिया और सबने अपने होश गँवा दिये। सभी चिल्लाने लगे, हँसने लगे.... और जमीन पर गिरने लगे। महफिल समाप्त हुई। कुछ लोग लड़खड़ाते हुए अकेले घर की ओर जाने लगे। कुछ लोग दो-दो तीन की टोली में जाने लगे । यजमान किसान अपने मित्रों को बिदा करने कुछ दूरी तक गया, वापस लौटते समय अंधकार में, एक गटर में वह गिर गया। पूरा का पूरा गंदगी से सन गया। वहीं पर पड़ा-पड़ा बड़बड़ाने लगा....| शैतान की खुशी का ठिकाना नहीं था । उसने दूत से कहा : तूने वास्तव में अद्भुत पेय खोज निकाला है। रोटी के समय तेरी जो भूल हुई थी वह क्षमापात्र है। परन्तु तू मुझे यह बता कि तूने यह पेय पदार्थ बनाया कैसे ? अवश्य तूने सर्व प्रथम इस पेय में सियार का खून डाला होगा। जिसकी बजह से ये किसान सियार की तरह एक-दूसरे के विरूद्ध दाव खेल रहे थे। उसके बाद तूने उसमें भेडिये का खून मिलाया होगा । चूंकि उसके असर से वे लोग भेड़िये की तरह घुर्रा रहे थे। और इसके बाद तूने सुअर का रक्त डाला होगा शराब में। चूंकि वे लोग वास्तव में सुअर बन गये थे। शराब में बहता जानवरों का खून : दूत ने कहा : 'नहीं, नहीं, ऐसा कुछ भी मैंने इसमें नहीं डाला था। मैंने तो इतनी ही करामात की थी कि उस किसान को आवश्यकता से काफी ज्यादा For Private And Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४० १९१ गेहूँ मिल जायें वैसा मार्गदर्शन दिया था! पशु का खून तो मनुष्य की नब्ज में बहता ही होता है। जब तक आवश्यकतानुसार खुराक मिलती रहती है तब तक पशु का खून काबू में रहता है। जब आवश्यकता से ज्यादा वस्तु मिलने लगती है तब बेकाबू बन जाता है वह पशु का खून! मेरा काम तो इतना ही था कि मैंने किसान को मद्यपान का स्वाद करा दिया। उसने गेहूं में से शराब बनायी....और उसकी नब्जों में सियार, भेड़िये और सुअर का खून दौड़ने लगा। यदि वह मद्यपान में डूबा रहेगा तो उसकी पाशविकता कायम रहेगी।' ___ मद्यपान के विषय में यह कहानी सब कुछ कह देती है। विशेष रूप से कहूँ तो मद्यपान करने वाले लोग मात्र इस जीवन में ही पशुता का जीवन जीते हैं इतना ही नहीं, परलोक में भी उनको पशुता ही प्राप्त होती है...आगे के जीवन में नारकीय वेदनायें सहन करनी पड़ती हैं। शराब और मांसाहार को दूर से ही सलाम कर दो : । प्रत्यक्ष और परोक्ष, इहलौकिक और पारलौकिक संकटों से, उपद्रवों से बचे रहने के लिए इन पाँच अनिष्टों को जीवन में प्रवेश मत दो। शान्ति से, प्रसन्नता से, पवित्रता से जीवन व्यतीत करना चाहते हो, निश्चित और निर्भय बनकर आत्मशुद्धि का पुरुषार्थ करना चाहते हो, तो इन पाँच पापों की परछाँई भी मत लो। ऐसे स्थानों में जाओ ही मत कि जहाँ ऐसे पाप होते रहते हों। ऐसे मित्रों का त्याग कर दो कि जो इन पापों का आचरण करते हों। ऐसा साहित्य मत पढ़ो कि जिस साहित्य में इन पापों की कर्तव्यता बतायी जाती हो। दृढ़ संकल्पबल से इन पापों से बचते रहो। इस विषय को आज पूर्ण करता हूँ। कल से चौथे सामान्य धर्म की विवेचना शुरू करूँगा। आज बस, इतना ही। For Private And Personal Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४० १९२ 5.बुराइयों से बचने के लिए निंदा का त्याग अत्यंत जरूरी है, उसी तरह संस्कारी बनने के लिए सज्जनों के गुणों की र प्रशंसा करना भी अनिवार्य एवं आवश्यक है। जीवन में धर्म के फूलों को खिलाना चाहिए। जीवन धर्म से स्पंदित होना चाहिए। इसके लिए क्रमशः विशिष्ट गुणों को प्राप्त करना चाहिए। शिष्ट पुरुषों के सदाचरण की प्रशंसा हमेशा करते रहना चाहिए। उनके गुणों की जयगाथा गाते रहना चाहिए। • सुख के फूलों में डूब मत जाओ। .दुःख के काँटों में उलझ मत जाओ! . उपकारी के प्रति कृतज्ञता रखना जीवन का सबसे बड़ा महत्वपूर्ण गुण है! उपकारी को भूल जाने से बढ़कर कृतघ्नता क्या होगी? - प्रवचन : ४१ महान् श्रुतधर परमकरूणासिन्धु आचार्य श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी स्वरचित 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ में सर्वप्रथम गृहस्थ का सामान्यधर्म बता रहे हैं । इस ग्रन्थ में क्रमिक मोक्षमार्ग का सुन्दरतम प्रतिपादन किया गया है। जिस मनुष्य को क्रमिक आत्मविकास करना है, वास्तविक धर्मपुरुषार्थ करना है, उस मनुष्य के लिए 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ श्रेष्ठ मार्गदर्शक बन सकता है। गाइड का काम कर सकता है। गृहस्थ का सामान्य धर्म जीवनधर्म है! आत्मधर्म की बातें तो बाद में करेंगे, पहले जीवनधर्म की बातें आवश्यक हैं। जीवन में धर्म करना, एक बात है, जीवन को धर्ममय जीना, दूसरी बात हैं! जीवन में दो-चार धर्मक्रियायें कर लेना, कभी थोड़ा-सा दान दे देना या तपश्चर्या कर लेना, कभी थोड़ा-सा व्रत-नियमों का पालन कर लेना, यह है जीवन में धर्म करने की बात! परन्तु जीवन को धर्ममय जीने के लिए तो चाहिए न्याय-नीति और प्रामाणिकता से अर्थोपार्जन का पुरुषार्थ! अन्याय नहीं, अनीति नहीं, बेइमानी नहीं, परवंचना नहीं! जीवन को धर्ममय जीने के लिए चाहिए विवाह का औचित्य! जीवन को धर्ममय जीने के लिए चाहिए निर्व्यसनी जीवनपद्धृत्ति और अधमकृत्यों से निवृत्ति! For Private And Personal Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४० १९३ पथ्य का पालन अनिवार्य : आज चौथा जीवनधर्म बताना है। वह है शिष्टपुरुषों के चरित्र की प्रशंसा! यह है वाचिक जीवन धर्म। किसी की निन्दा नहीं करना, शिष्टपुरुषों के पवित्र आचरण की प्रशंसा करना! शिष्टपुरुषों के चरित्र की प्रशंसा करने की ही! अशिष्ट-अभद्र पुरुषों की निन्दा नहीं करने की और शिष्ट-भद्र पुरुषों की प्रशंसा करने की! कितनी महत्वपूर्ण बात बता रहे हैं ग्रन्थकार महर्षि! शरीर को हानि पहुँचाने वाले पदार्थ नहीं खाने मात्र से काम नहीं बनता, कुपथ्य का त्याग करना जैसे आवश्यक है वैसे पथ्य का सेवन भी अनिवार्य होता है। रोगों से बचने के लिए कुपथ्य का त्याग आवश्यक है वैसे शारीरिक शक्ति के लिये पथ्यसेवन भी अनिवार्य है। बुराइयों से बचने के लिए निन्दा का त्याग आवश्यक है वैसे अच्छाइयों का उपार्जन करने के लिए 'प्रशंसा' करना अनिवार्य है! अपनी स्वयं की प्रशंसा नहीं, वरन् शिष्टपुरुषों की प्रशंसा । गुणात्मक एवं क्रियात्मक : दो प्रकार का चरित्र : शिष्ट पुरुषों के अलावा किसी की भी प्रशंसा करने की है! यानी वार्तालाप में विषय होने चाहिए शिष्टपुरुषों के चरित्र! ये चरित्र होते हैं गुणात्मक और क्रियात्मक । शिष्टपुरुषों के गुणों की प्रशंसा और उनके सदाचारों की प्रशंसा । जब किसी से वार्तालाप करने का प्रसंग न हो तब मौन धारण करने का! सभा में से : शिष्ट पुरुष किसको कहते हैं? महाराजश्री : जो पुरुष, व्रतधारी और ज्ञानवृद्ध महापुरुषों के परिचय में रहते हैं और उनसे विशुद्ध शिक्षा पाये हुए होते हैं, वे पुरुष शिष्ट कहलाते हैं। परिचय होना चाहिए व्रतस्थ और आत्मज्ञानी महापुरुषों का। वह परिचय मात्र नाम-रूप का नहीं, मात्र बाह्य उपचार नहीं, परन्तु निर्मल....निष्काम हृदय का परिचय! उस परिचय से आत्मज्ञान की प्राप्ति होनी चाहिए। जीवन धर्ममय बनना चाहिए | अनेक विशिष्ट गुणों की उपलब्धि होनी चाहिए | यह सब जब होता है, तब मनुष्य में शिष्टता आती है। __ हालाँकि यह चौथा सामान्य धर्म शिष्ट बनने की बात नहीं करता है, शिष्टपुरुषों के प्रशंसक बनने को कहता है। शिष्टता प्राप्त हो जाय तो बहुत ही अच्छा! परन्तु प्राथमिक अवस्था में शिष्टता प्राप्त करना मुश्किल तो है ही। हाँ, शिष्टपुरुषों के प्रशंसक अवश्य बन सकते हैं। For Private And Personal Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४० १९४ गुणदृष्टा बनो : सभा में से : शिष्ट पुरुषों की पहचान कैसे हो? महाराजश्री : उनके विशिष्ट और विशद्ध आचरणों से! एक बात सदैव याद रखना कि शिष्ट पुरुष कोई परिपूर्ण सर्वज्ञ वीतराग नहीं होते हैं! ये शिष्ट पुरुष संसारी होते हैं यानी संसार में रहने वाले जीव होते हैं, छद्मस्थ होते हैं, इसलिए उनके कोई दोष भी हो सकते हैं, वे कभी कोई गलती भी कर सकते हैं, परन्तु आपको देखने हैं मात्र गुण! दोष देखने नहीं हैं। शिष्ट पुरुषों की शिष्टता देखने के लिए चाहिए गुणदृष्टि! यदि आपकी गुणदृष्टि होगी तो ही आप शिष्टपुरुषों की शिष्टता देख पाओगे, अन्यथा नहीं! दोषदृष्टि तो सर्वज्ञ वीतराग में भी दोष निकाल सकती है! गुणदृष्टिवाला मनुष्य ही शिष्ट पुरुषों का प्रशंसक बन सकता है। दोषदृष्टिवाला स्वार्थवश भले ही प्रशंसा कर ले, उसकी प्रशंसा हार्दिक नहीं होगी। उसका मन नहीं जुड़ेगा उस प्रशंसा में! शिष्टता-सज्जनता पाना जिसका लक्ष्य है, ध्येय है, उसको शिष्ट पुरुषों की हार्दिक प्रशंसा करनी ही होगी। ऐसा व्यक्ति प्रशंसा करेगा ही, उसके मुँह से प्रशंसा के स्वर मुखरित हो ही जायेंगे! शिष्टता संपादन करने की तमन्ना शिष्ट पुरुषों की खोज करवायेगी, परिचय करवायेगी और प्रशंसा करवायेगी! आन्तरिक निरीक्षण करो, शिष्टता प्राप्त करने का लक्ष्य बना है? देखो, ध्यान से देखो, सज्जनता पाने की तमन्ना जगी है? हाँ, यदि आपको सज्जनों की जीवनचर्या पसन्द आ गई है, आप उनके सत्कार्यों के प्रशंसक बने हुए हो, तो निश्चित है कि आप शिष्ट बनने जा रहे हो! मनोबल के बगैर मुश्किल है : एक उदाहरण लेकर यह बात समझता हूँ : आपका एक मित्र है, शादी हो गई है उसकी। घर में सुशील पत्नी है। दोनों का जीवन गंगा के प्रवाह की तरह बह रहा है। जब देखो तब दोनों पति-पत्नी प्रसन्न दिखाई देते हैं। एक दिन जब आप उस मित्र से मिलते हैं, वह उदास दिखायी देता है....कुछ गंभीर और विचारमग्न | आपने उससे उदासी का कारण पूछा, आग्रह करके पूछा, उसने थोड़ी सी झिझक के साथ बताया...कि जिस आफिस में वह काम करता है, वहाँ एक महिला भी सर्विस करती है। आफिसवर्क की वजह से दोनों का आपस में मित्रता का सम्बन्ध हुआ, परन्तु मात्र आफिस में ही बातचीत! बाहर निकलने के बाद उस महिला के सामने भी नहीं देखता...न For Private And Personal Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४० १९५ उसके हृदय में कोई दुर्भावना या विकार-विवशता! एक दिन उस महिला ने इससे शारीरिक संबंध करने की बात कर दी और यह सावधान हो गया....इसने स्पष्ट शब्दों में इनकार कर दिया, बात वहाँ समाप्त हो गई....परन्तु अब आफिस में उस महिला के साथ सर्विस करना एक भयस्थान बन गया....इसी वजह से उसके मन में उदासी और मुंह पर गंभीरता छायी हुई है...। वह कोई भी गलत काम करना नहीं चाहता....। आत्मा का अधःपतन हो और दुनिया में बदनामी हो वैसा गलत कार्य करने को वह जरा भी तैयार नहीं है। __ मित्र की यह बात सुनकर यदि आप प्रसन्न होते हो, उसकी शील-दृढ़ता और सदाचारप्रियता देखकर उसको हार्दिक अभिनन्दन देते हो तो समझना कि आप शिष्टता के प्रशंसक हो। संभव है कि आप इतनी शील-दृढता न भी रख सकते हो, आपकी इस विषय में कमजोरी हो, फिर भी आप अपने मित्र की शीलदृढ़ता के प्रशंसक बन सकते हो। आदर्श की प्रशंसा में आदर्श की प्रतिष्ठा : 'परस्त्री के प्रति रागदृष्टि से नहीं देखना चाहिए, परस्त्रीगमन तो प्राण जाने पर भी नहीं करना चाहिए, यह आदर्श होता है शिष्ट पुरुषों का | चूंकि उनको कोई विशिष्ट ज्ञानी पुरुष से यह शिक्षा मिली हुई होती है। संयमी....और ज्ञानी पुरुष के अलावा ऐसी शिक्षा कौन देता है? ऐसी शिक्षा को पाकर उसका समुचित पालन, शिष्ट पुरुष के अलावा दूसरा व्यक्ति कर भी नहीं सकता। दृढ़ मनोबल के अलावा मनुष्य में शिष्टता आ नहीं सकती, आ भी गई, तो टिक नहीं सकती। आत्मा का अधःपतन न हो और समाज में बुराई न हो-इस बात की सावधानी रखने वालों की आप प्रशंसा कर सकोगे? उसके सामने ही प्रशंसा करो, ऐसा आग्रह नहीं है, आप अपने मित्रों के पास, अपने परिवार के पास प्रशंसा कर सकते हो । प्रशंसा करने से, जिस आचरण की आप प्रशंसा करोगे उस आचरण की प्रतिष्ठा बढ़ती है। जिस आचरण की प्रतिष्ठा स्थापित होती है उस आचरण के प्रति जनता आकर्षित होती है। ___ आदर्शों के फैलाव में आदर्श की प्रशंसा महत्वपूर्ण काम करती है। जिस आचरण की प्रतिष्ठा स्थापित होती है, प्रशंसा होती है लोगों में, उस आचरण की चाह बढ़ती है। एक व्यक्ति निन्दित, गर्हित, अनुचित कार्य नहीं करता है, प्रलोभनों को ठुकरा के अपने सन्मार्ग पर दृढ़ता से चलता रहता है, यह असाधारण बात है। उसकी प्रशंसा करनी ही चाहिए | संघ-समाज में कोई भी For Private And Personal Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९६ प्रवचन-४१ व्यक्ति उस व्यक्ति की बुराई कर सके वैसा एक भी बुरा काम उसके जीवन में नहीं है, तो मानना कि वह शिष्ट पुरुष है! शिष्ट पुरुष लोकनिन्दा के पात्र नहीं बनते! यह शिष्टपुरुष का पहला परिचय है। पहला लक्षण है! शिष्ट जन का लक्षण : निस्वार्थ सेवा : __ऐसे सज्जन पुरुषों को दीन-दुःखी निराधार मनुष्यों को सहायता पहुँचाने में रस होता है। ऐसे जीवों का उद्धार करने के लिए वे प्रयत्नशील होते हैं। शिष्ट पुरुषों का यह जीवनकार्य होता है। किसी भी प्रकार की 'पब्लिसिटी' के बिना, किसी प्रकार की स्पृहा के बिना वे सत्पुरुष दीन-दुःखी और त्रस्त जीवों के जीवन में खुशी, आनन्द और प्रसन्नता भर देते हैं। जीवन जीने के लिए आवश्यक-साधन-सामग्री प्रदान करते हैं और उनको स्वावलम्बी बना देते हैं। जब आपको ऐसे कोई सत्पुरुष की ऐसी सत्प्रवृत्ति का खयाल आ जाय, आपके हृदय में खुशी उभर आये, आपके मुँह से प्रशंसा के शब्द निकल जायं....निर्दभ हृदय से आप उस सत्पुरुष की प्रवृत्ति का अनुमोदन करते हो तो समझना कि आप में चौथा सामान्य धर्म आ गया है। सभा में से : ऐसी अनुमोदना तो हो जाती है! महाराजश्री : अच्छा है यदि अनुमोदना करते हो तो! परन्तु किसी दूसरी बात को लेकर निन्दा तो नहीं करते हो न? जैसे : वह भाई दीन-दुःखी के उद्धार का कार्य तो अच्छा करते हैं... परन्तु मंदिर में पूजा करने नहीं आते अथवा उपाश्रय में प्रवचन सुनने नहीं आते...अथवा तपश्चर्या नहीं करते, ऐसीऐसी निन्दा तो नहीं करते हो न? या फिर, ऐसे सत्पुरुष की प्रशंसा करता हुआ दूसरा व्यक्ति आपके पास आता है, जिसकी वह प्रशंसा करता है वह आपका कोई रिश्तेदार है...तो प्रशंसा सुनकर ईर्ष्या तो नहीं है न आपको? दूसरों की प्रशंसा सुनकर प्रसन्न होना-यह कोई मामूली गुण नहीं है, बहुत बड़ा गुण है। गुणवान् होना सरल है, गुणानुरागी बनना मुश्किल काम है। सभी गुणवान गुणानुरागी ही हों, ऐसा नियम नहीं है! गुणानुरागी और गुणप्रशंसक वही बन सकता है कि जो विनम्र होता है। स्वयं गुणवान होने पर भी जो अपने आपकी महत्ता नहीं चाहते, स्वयं की प्रशंसा सुनना नहीं चाहते! जो लोग स्वप्रशंसा के भूखे होते हैं, वे लोग प्रायः दूसरों की निदंभ हृदय से प्रशंसा नहीं कर सकते हैं, प्रशंसा सुन भी नहीं सकते हैं। For Private And Personal Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रवचन- ४१ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९७ क्षुद्र आदमी को ही स्वप्रशंसा अच्छी लगती है : स्वप्रशंसा करना और सुनना क्षुद्र जीवों को बहुत पसन्द होता है । दूसरे सत्पुरुषों की प्रशंसा वे कर ही नहीं सकते । सुन भी नहीं सकते। ऐसे लोग गृहस्थजीवन को धर्ममय नहीं बना सकते, गृहस्थ जीवन को सुशोभित नहीं कर सकते। इसलिए कहता हूँ कि गृहस्थजीवन में इन सामान्य धर्मों को स्थान दो। सामान्य धर्मों से जीवन को भर दो, सुवासित बना दो । शिष्ट पुरुषों के सदाचरणों की हार्दिक प्रशंसा करने से सदाचरण आपके जीवन में भी आयेंगे और आप भी शिष्टपुरुष बन जाओगे ! शिष्ट बनना तो है न ? श्रीमंत बनने की धुन में शिष्ट बनने की बात शायद भूल गये होंगे ! श्रीपाल श्रेष्ठ शिष्ट पुरुष : प्राचीन काल के अनेक रोचक और बोधक उदाहरणों में मुझे श्रीपाल का उदाहरण शिष्टता की दृष्टि से श्रेष्ठ प्रतीत होता है। श्रीपाल शिष्ट श्रेष्ठ महापुरुष थे। आपको जानकर बड़ा आश्चर्य होगा... कि श्रीपाल अपनी पत्नी मयणा सुन्दरी के परिचय से विशुद्ध शिक्षा पाये थे । मयणासुन्दरी का सम्यक्दर्शन उज्ज्वल था। उसके पास सम्यक्दर्शन का प्रकाश था... और सम्यक्चारित्र का सुचारू पालन था। राजसभा में मयणासुन्दरी ने कुष्ठरोगी श्रीपाल को पति के रूप में स्वीकार कर लिया था । पिता राजा थे, पिता के आह्वान को सहजता से झेल लिया था। श्रीपाल भी एक राज्य के राजकुमार ही थे परन्तु प्रकट नहीं थे, प्रच्छन्न थे। मयणा के साहस से ज्ञानदृष्टि से और अनेक मूल्यवान गुणों से श्रीपाल प्रभावित हुए थे। जब मयणा ने 'श्री सिद्धचक्र महायंत्र' की आराधना-उपासना से श्रीपाल का कुष्ठ रोग दूर कर दिया, तब तो श्रीपाल खुशी से झूम उठे थे । श्रीपाल के हृदय में श्री सिद्धचक्रजी की तो प्रतिष्ठा हो गई, मयणासुन्दरी की भी प्रतिष्ठा हो गई, प्रेरणामूर्ति के रूप में! आदर्श की प्रतिमा के रूप में । For Private And Personal Use Only इस 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ में शिष्टपुरुष के जितने सदाचरण बताये गये हैं वे सभी सदाचरण श्रीपाल के जीवन में पाये जाते हैं! उन्नीस प्रकार के सदाचार यहाँ बताये गये हैं, वे सभी श्रीपाल के जीवन में देखने को मिलते हैं, इसलिए मैं श्रीपाल का हमेशा प्रशंसक रहा हूँ, उनके जीवन की हर घटना में, हर प्रसंग में उनकी श्रेष्ठ शिष्टता के मैंने दर्शन किये हैं । श्रीपाल की कहानी की रोचकता तो है ही, परन्तु मैं कहानी की दृष्टि से बात नहीं कर रहा हूँ। उनके Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४१ १९८ जीवन में बहुत बड़े संघर्ष आये थे, उनको जितने दुःखों से संघर्ष करना पड़ रहा था उससे भी ज्यादा उनको सुख के साधन प्राप्त हुए थे, परन्तु दोनों अवस्थाओं में वे तुल्य वृत्ति के दिखायी देते हैं! दुःखों में वे कभी दीन नहीं बने, सुखों में कभी लीन नहीं बने! असाधारण शिष्टता है यह! यह तो करम के खेल : ___ श्री सिद्धचक्रजी की आराधना से जब श्रीपाल का और उनके सातसौ साथियों का कुष्ठरोग नष्ट हो गया, श्रीपाल निरोगी बन गये, सुन्दर, खूबसूरत राजकुमार बन गये तब राजा और प्रजा आश्चर्य से मुग्ध बन गये। राजा को अपनी गलती महसूस हुई, राजा चलकर मयणा-श्रीपाल के पास आया, समाधान हो गया। राजा ने मयणा-श्रीपाल को आदर दिया और सुख सुविधायें प्रदान की। श्रीपाल अश्वारोही बनकर नगर के राजमार्ग से गुजरता है तब लोग उनकी ओर देखते हुए कहते हैं 'यह अपने राजा का जमाई जा रहा है! कितना रूपवान और पुण्यशाली है! मयणासुन्दरी के भाग्य खुल गये!' लोकनिन्दा को लोकप्रशंसा में बदलो : __ श्रीपाल के कानों पर ये शब्द टकराते हैं, वे क्षुब्ध हो जाते हैं। 'मेरा परिचय मेरे श्वसुर के माध्यम से? मेरे लिए शोभारूप नहीं। मेरा परिचय मेरी पहचान, मेरे नाम से ही होना चाहिए। मुझे श्वसुर का आश्रय छोड़ देना चाहिए । 'राजा का जमाई'-इन शब्दों में अपनी निन्दा प्रतीत हुई! वे लोकनिन्दा पसन्द नहीं करते थे! वे समझते थे कि आगे चलकर लोग कहेंगे- 'श्रीपाल घरजमाई बनकर बैठा है, उसका स्वयं का कोई पराक्रम नहीं!' उसने तुरंत ही श्वसुर का नगर और राज्य छोड़कर विदेश जाने का निर्णय ले लिया। मयणासुन्दरी को अपना निर्णय बताकर, अपनी माता कमलप्रभा का आशीर्वाद लेकर, वे अकेले ही नगर से निकल पड़े! शिष्टपुरुष लोकापवाद पसन्द नहीं करते। मयणासुन्दरी ने भी लोकापवाद पसन्द नहीं किया था। राजसभा में राजा ने कुष्ठरोगी अनजान श्रीपाल के साथ मयणा की शादी कर दी थी तब नगरवासियों ने मयणा की और उसके जैनधर्म की निन्दा करने में कसर नहीं छोड़ी थी। 'देखी मयणा की सिद्धान्तहठता...पिता के सामने पुण्य-पापकर्मों की बात करने चली तो कैसा कोढ़ी पति-मिला! रोजाना मन्दिर जाती थी, जैनाचार्यों का उपदेश सुनती थी, For Private And Personal Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४१ १९९ धर्मक्रियायें करती थी....उसका फल मिला । यदि उसके जैनधर्म में सत होता तो अच्छा पति क्यों नहीं मिला? ऐसी तो अनेक बातें लोग करने लगे थे! मयणा धर्म की निन्दा सुनकर दुःख महसूस करती थी, इसलिए गुरूदेव आचार्य श्री मुनिचन्द्रसूरिजी के पास जाकर उसने यही बात कही थी कि'गुरूदेव, लोग धर्मनिन्दा के पाप से बचे वैसा उपाय बताने की कृपा करें! यदि इनका (श्रीपाल का) कुष्ठ रोग चला जाता है तो लोगों को निन्दा छोड़नी पड़ेगी और धर्म की प्रशंसा करनी पड़ेगी!' मयणा की प्रार्थना सुनकर गुरूदेव ने श्री सिद्धचक्र यन्त्र की आराधना बतायी और मयणा ने श्रीपाल के साथ आराधना की। श्रीपाल का कुष्ठ रोग दूर हो गया। शिष्टजन यानी दीन दुःखी का उद्धारक : शिष्ट पुरुषों का दूसरा लक्षण होता है दीन दुःखी का उद्धार करने की तत्परता । श्रीपाल और मयणा के हृदय कितने करूणासभर थे यह बात बताता हूँ। जब श्रीपाल निरोगी बने, उनको अपने सातसौ कुष्टरोगी साथी याद गये! वे मात्र साथी नहीं थे, उपकारी भी थे! श्रीपाल के जीवन-रक्षक थे! श्रीपाल के प्राण बचानेवाले थे! कृतज्ञ-श्रीपाल : श्रीपाल का जन्म राजपरिवार में हुआ था। अभी तो वह बच्चा ही था, उसके पिता-राजा का देहावसान हो गया और राजखटपटें शुरू हो गईं। श्रीपाल के चाचा ने राज्य के लालच से राज्य के वारिसदार श्रीपाल को मार डालने का षड्यंत्र रचा | महामंत्री को षड्यंत्र का पता लग गया! उन्होंने रानी को सावधान कर दिया और राजकुमार को लेकर भाग जाने की राय दी। रानी कमलप्रभा अपने छोटे से पुत्र को लेकर रात्रि के अंधकार में नगर से दूर-दूर निकल गई। उसको पता था कि पीछे सैनिक लोग आयेंगे ही। इसलिये कांटों और कंकरों की परवाह किये बिना रानी दौड़ती ही रही। माँ की चिन्ता : रानी जंगल में दौड़ती जाती है...परन्तु उसने अपने पीछे पड़े हुए घुडसवारों की आवाज सुनी। वह घबरायी। अब पुत्र की रक्षा कैसे होगी? प्रभात हो गया था। उसने उसी जंगल में दूर कुछ लोगों को देखा। 'शायद ये मेरी रक्षा करें तो' इस आशा से वह उन लोगों के पास पहुँची। देखा तो वह सैंकडों For Private And Personal Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४१ २०० कुष्ठरोगियों का समुह था! रानी ने आँखों में आंसुओं के साथ दो हाथ जोड़कर उन लोगों को प्रार्थना की : आप लोग दयालु दिखते हो, मेरे पुत्र की रक्षा करोगे? सुनिये, घुड़सवारों की आवाज आ रही है, वे लोग मेरे पुत्र को मार डालेंगे।' रानी ने संक्षेप में अपनी बात बता दी। कुष्ठ रोगी के मुखिये ने कहाः 'मेरे भाई, आप रख लो बच्चे को, उसको कुष्ठरोग होगा तो मैं औषधोपचार से ठीक करवा दूंगी, उसके प्राणों की रक्षा करना अनिवार्य है। मैं यहाँ से चली जाती हूँ, बच्चे को आप छिपा लो।' रानी ने श्रीपाल को सौंप दिया कुष्ठ रोगियों के हाथ में और स्वयं तीव्र गति से जंगल में अदृश्य हो गई। कुष्ठरोगियों ने श्रीपाल को अपने डेरे में ऐसे छिपा दिया कि सैनिक उसको देख ही न सके । सैनिक आये और पूछाः 'तुम लोगों ने यहाँ से एक औरत को बच्चे के साथ जाते हुए देखा? किस ओर गई है?' कुष्ठरोगियों ने कहा : 'हमें पता नहीं।' सैनिक को कुछ वहम आया, पूछा : 'तुम लोगों ने तो उस औरत को छिपाया नहीं है न?' 'हम लोग क्यों छिपायें? हमने देखा भी नहीं।' सैनिक ने गुस्से में आकर कहा : 'हम लोग तुम्हारा डेरा देखेंगे, यदि मिल गई औरत तो तुम सब को यमलोक पहुँचा देंगे।' ___ 'अरे भगवान! आप हमारा डेरा देख सकते हो परन्तु ध्यान रखना कि हम सब कुष्टरोगी हैं, हमारे स्पर्श से आप लोग भी कुष्ठरोगी बन जाओगे! आपकी इच्छा हो तो देख लो!' सैनिक घबराये! उन्होंने देखा कि ये कुष्ठरोगी सैंकड़ों की तादाद में हैं और वे सैनिक थे चार-पांच । यदि बीस-पच्चीस भी कुष्ठरोगी सैनिक को चिपक जायँ तो काम पूरा हो जाये । सैनिक घबराये और वहाँ से भाग गये। श्रीपाल सुरक्षित रह गया। कई वर्षों तक उन कुष्ठरोगियों ने श्रीपाल की रक्षा की। जब श्रीपाल यौवन में आये तब उनके पूरे शरीर में कुष्ठरोग व्याप्त हो गया था। साथियों ने उनको अपना राजा बनाया था और गाँव-नगर में फिरते रहते थे। श्रीपाल नीरोगी बने कि तुरंत ही अपने उन साथियों को भी नीरोगी बनाने का सोचा! मयणासुन्दरी को बात कही। मयणासुन्दरी ने श्री सिद्धचक्रजी का स्मरण करके, जिस स्नात्रजल से श्रीपाल नीरोगी बने थे, उसी स्नात्रजल से उन सातसौ कुष्ठरोगियों को नीरोगी बना दिया । इस घटना में से दो बातें पायी जाती हैं। दीन-दुःखी के प्रति अपार करूणा और कृतज्ञता! अपने उपकारियों के उपकार नहीं भूलना और उपकार का For Private And Personal Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४१ २०१ बदला चुकाने की तत्परता! शिष्टपुरुषों का यह तीसरा लक्षण है! शिष्टपुरुषों का यह एक सदाचरण है। उपकारियों के उपकारों को सदैव याद रखते हुए, जब अवसर मिले तब प्रत्युपकार करने की जाग्रति रखना। रोग चला गया, सुन्दर और सदगुणी पत्नी मिली, राजा मिला ससुर के रूप में! लोगों का सम्मान मिला, फिर भी श्रीपाल माता को नहीं भूले थे! माता के प्रति पूर्ण आदर और बहुमान था। अपने लिए माता ने कितने कष्ट उठाये थे। यह भी श्रीपाल नहीं भूले थे। जब मन्दिर के द्वार पर अचानक ही माता मिल गई....श्रीपाल माता के चरणों में गिर पड़े! पहले तो माता पुत्र को पहचान ही नहीं पायी, चूंकि उसने श्रीपाल को कुष्ठरोगी के रूप में देखा था! और सामने खड़ा हुआ श्रीपाल तो कामदेव जैसा रूपवान है! श्रीपाल गद्गद् था...माता ने जब पुत्र को पहचाना....वह भी हर्ष से गद्गद् हो गई! 'वत्स, मैं तो तेरे लिए औषध की तलाश में भटकती हूँ...और तू तो संपूर्ण नीरोगी बन गया है! बेटा, यह कैसे हुआ?' __ श्रीपाल ने पास में खड़ी हुई मयणासुन्दरी की ओर इशारा करते हुए कहा : माँ, यह सारा प्रभाव तेरी इस पुत्रवधू का है!' मयणासुन्दरी लज्जित हो गई और अपनी सास के चरणों में प्रणाम कर बोली : 'नहीं माताजी, इसमें मेरा कोई प्रभाव नहीं है, यह सारा उपकार पूज्य गुरुदेव का है।' कितनी उदात्त कुतज्ञता है इन दोनों की। श्रीपाल मयणा को मात्र पत्नी के रूप में ही नहीं देखते, उपकारिणी के रूप में भी देखते हैं। पत्नी के उपकार को नहीं भूलना-यह सामान्य गुण नहीं है, असाधारण गुण है | माता के सामने पत्नी के उपकार की बात करते हुए, श्रीपाल गद्गद् हो गये थे। मयणा के प्रति श्रीपाल के हृदय में कितना प्यार, कितनी श्रद्धा और कैसा आदरभाव होगा, उसकी कल्पना कर सकोगे? ___ श्रीपाल ने कभी भी माता के प्रति रोष करते हुए नहीं कहा था कि 'माँ, तूने तो मुझे कुष्ठरोगियों के हाथ सौंपकर मुझे कुष्ठरोगी बना दिया था। तू चली गई और मैं इन कुष्ठ रोगियों के साथ गाँव-गाँव नगर-नगर भटकता रहा....इससे तो अच्छा था कि तू मुझे सैनिक के हाथ सौंप देती तो मुझे इतने कष्ट सहने नहीं पड़ते। एक दफा मरना तो था....मर जाता सैनिकों के हाथ....। यह तो मेरी किस्मत....कि ऐसी पत्नी मिली और उसने मेरा और मेरे साथियों का रोग मिटा दिया....अब तू आयी है यहाँ....।' For Private And Personal Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४१ २०२ यदि ऐसी आक्रोशपूर्ण बात करता तो माता के हृदय का क्या होता? जिस पुत्र के लिए, पुत्र को बचाने के लिए कष्ट सहन किये गाँव-नगरों में भटकती फिरी, उस पुत्र के मुँह से ऐसी बातें सुनने को मिले तो मातृहृदय जिंदा नहीं रह सकता। माता के उपकारों को नहीं समझने वाले पुत्र इससे भी ज्यादा आक्रोश करके माता के हृदय को तोड़ डालते हैं। कृतज्ञता गुण के अभाव में ऐसा होना स्वाभाविक होता है। श्रीपाल-मयणा के जीवन में उच्चस्तरीय कृतज्ञता गुण देखकर उसकी प्रशंसा किये बिना रहा नहीं जाता है। सभा में से : आजकल तो 'कृतज्ञता' गुण देखने को ही नहीं मिलता है। कोई किसी का उपकार मानने को ही तैयार नहीं है, इसमें भी बच्चे तो....? गुणों की प्रशंसा करके गुणों की प्रतिष्ठा को बढावा दो : महाराजश्री : इस में मात्र बच्चों का ही दोष नहीं है। आपने कभी भी क्या परिवार के सामने शिष्ट पुरुषों के 'कृतज्ञता' गुण की प्रशंसा की है? कृतज्ञता गुण की प्रशंसा कर उसकी प्रतिष्ठा स्थापित की है? आपने कभी माता-पिता के गुण गाये हैं आपके बच्चों के सामने? आपने आपके आपके माता-पिता का विनय-आदर करते गुए कभी कहा था कि 'हे माँ, तेरे उपकारों का बदला मैं कभी नहीं चुका सकता। तूने जो मुझे संस्कार दिये हैं, मैं तुझे कभी नहीं भूल सकता हूँ।' इसी प्रकार, जिन जिनका उपकार आपके ऊपर हों, उनकी प्रशंसा करते हुए आपके संतानों को आदर्श दिया क्या? संघ-समाज और नगर में दूसरे शिष्ट पुरुषों में यह गुण देखकर क्या आपने प्रशंसा की? गुणों की प्रशंसा कर गुणों की प्रतिष्ठा को बढ़ाओ, तभी दुनिया के लोग उस गुण का गौरव करेंगे। प्राचीन श्रीपाल की जगह अर्वाचीन कोई श्रीपाल होता तो मयणासुन्दरी को उपकारिणी मानता क्या? नहीं। वह तो कह देता साफ साफ : 'इसमें मेरे ऊपर काहे का उपकार कर दिया? उसको तो अपने धर्म की निन्दा बंद करवानी थी। यदि धर्म के प्रभाव से मैं नीरोगी बन जाऊं तो उसके धर्म की प्रशंसा हो, इसलिए मुझे नीरोगी किया....मुझसे भी ज्यादा प्रेम उसको धर्म का है....मैं तो अकस्मात् उसके जीवन में आ गया....।' ऐसी-ऐसी तो अनेक मूर्खतापूर्ण बातें करता रहे। मौलिक योग्यता जिस मनुष्य में नहीं होती है वह मनुष्य उपकारी का उपकार मानने को तैयार नहीं होता है। शिष्ट पुरुषों का कृतज्ञतागुण उसको दिखता नहीं है। देख भी लिया तो प्रशंसा नहीं करेगा, उपहास करेगा। For Private And Personal Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रवचन - ४१ बात को सही ढंग से समझो : www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०३ , एक लड़का विदेश में अध्ययन कर M. S. की डिग्री लेकर भारत वापस आया। उसकी माँ वतन के गाँव में रहती थी । वह सीधा उस गाँव में पहुँचा । गली के नुक्कड़ पर गाड़ी रोक दी गाड़ी से निकल कर गली में आता है, अपनी माता को रास्ते पर ही खड़ी देख लिया । वह दौड़ा .... और रास्ते पर ही माँ के चरणों में गिर पड़ा। माँ और बेटा, दोनों गद्गद् थे.... इस दृश्य को चार-पाँच युवकों ने देखा वे लोग कालेज में पढ़ते थे.... । वे हँसने लगे । और आलोचना करने लगे 'रास्ते पर माँ के चरणों में गिरने की क्या आवश्यकता थी? घर में जाकर माँ के चरण छू नहीं सकता था? परन्तु भाई, यह भी एक दिखावा है। दुनिया को बताना है कि मैं विदेश में पढ़कर आया हूँ फिर भी मातृभक्त हूँ। ऐसी तो अनेक बातें करते रहें। करते ही रहेंगे जैसे लोग ऐसी बातें। माँ को गालियाँ बकने वाले और पिता के साथ लड़ने-झगड़ने वाले लोग दूसरा और क्या करेंगे! शिष्ट पुरुषों के सदाचारों को भी संशय से देखनेवाले लोग सदाचरणों के प्रशंसक नहीं बन सकते । For Private And Personal Use Only जो लोग सरल होते हैं, गुणदृष्टि वाले होते हैं वे ही शिष्टपुरुषों के सदाचारों के प्रशंसक बन सकते हैं। शिष्ट श्रेष्ठ श्रीपाल के जीवन प्रसंगों के माध्यम से अपन शिष्टता का परिचय करेंगे और शिष्टतापूर्ण आचरणों के प्रशंसक बनेंगे। आज, बस इतना ही । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०४ प्रवचन-४१ मा. विशुद्धि के रास्ते पर आगे बढ़ना होगा तो कुछ भीतर का म छोड़ना होगा....कुछ बाहर का छोड़ना होगा। • परायी निन्दा नहीं करनी चाहिए। परनिंदा सबसे बड़ा पाप है। यह बात जो लोग मानते हैं-जानते हैं वैसे लोग ही निंदा - नहीं करनेवालों की प्रशंसा कर पाएंगे। जो आदमी किसी का एकाध भी दोष नहीं देखता है और केवल गुणों को ही देखता है...वह व्यक्ति ही गुणानुरागी बन सकता है। दुःख की घड़ी भी खुशी में गुजारे उनका नाम सदियों तक जन-जन की जुबान पर रहता है। पारिवारिक प्रसन्नता की कीमत कम मत आँकना। छोटी-छोटी बातों को लेकर कहासुनी करने से परिवार में कलह बढ़ता है। प्रवचन : ४२ महान श्रुतधर पूज्य आचार्य श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ में गृहस्थजीवन का सामान्य धर्म बताते हैं। सामान्य धर्म की दृढ़ भूमिका पर ही विशेष धर्म का महल खड़ा रह सकता है। प्रबल झंझावात में भी वह महल गिरेगा नहीं। यदि विशाल मंदिर का निर्माण करना है तो नींव उतनी ही गहरी और पक्की बनानी होती है। जमीन शुद्ध और समतल बनानी पड़ती है। तो क्या आत्मभूमि पर परमात्ममंदिर का निर्माण करने के लिए आत्मभूमि को शुद्ध नहीं करना पड़ेगा? समतल नहीं बनाना पड़ेगा? छोड़ने में दुःख होता है : जानते हो कि आत्मभूमि कितनी अशुद्ध है? कितनी विषम है? आत्मनिरीक्षण करो तो मालूम पड़ेगा। परंतु पहली बात तो यह है कि आत्मा को परमात्मा बनाने का विचार आता है? 'मुझे परमात्मदशा प्राप्त करना है, मुझे अशुद्ध आत्मा को विशुद्ध करना है, इसलिए इसी जीवन में पुरुषार्थ करना है, ऐसा संकल्प किया है? एक बात निश्चित मानना कि शुद्धि के बिना सुख नहीं मिलेगा। अशुद्धि में दुःख है, विशुद्धि में सुख है | इस सत्य को स्वीकार करना For Private And Personal Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०५ प्रवचन-४१ ही होगा। हालाँकि अशुद्ध आत्मा को शुद्ध करने की प्रक्रिया में कुछ कष्ट सहन करने होंगे। अशुद्धियाँ वैसे ही, बिना तप किये, बिना ज्ञान पाये दूर नहीं होती हैं। मनुष्य बस, यहाँ घबराता है। अशुद्धियों को मिटाने के लिये स्वेच्छा से जो तप-त्याग के कष्ट सहन करने होते हैं, वहाँ मनुष्य डरता है। अशुद्धिजन्य दुःख सहन करना स्वीकार है, विशुद्धि प्राप्त करने हेतु दुःख सहन करना अस्वीकार है। विशुद्धि के मार्ग पर कुछ भीतर का छोड़ना है, कुछ बाहर का छोड़ना पड़ता है। जो पकड़ा हुआ है उसको छोड़ने में मनुष्य दुःख महसूस करता है। बाहर का छोड़ने में दुःख और भीतर का छोड़ने में भी दुःख | इसलिए आज मनुष्य ऐसा धर्म खोजता है कि जो धर्म छोड़ने की बात न करता हो। जो पकड़ा हुआ है-वह छूटे नहीं, और मुक्ति दिला दें! कुछ बुद्धिमानों ने इसमें अच्छा 'बिजनेस' देखा । दुःखभीरु लोगों को धर्म के नाम पर फँसाने का जाल बिछाया। 'तुम्हें घर छोड़ने की जरूरत नहीं, व्यापार छोड़ने की जरूरत नहीं, आनन्दप्रमोद और भोग-विलास छोड़ने की जरूरत नहीं, भीतर की वासनाएँ भी छोड़ने की नहीं....इच्छाओं को कुचलना नहीं....बस. मेरे प्रवचन सुनो, पढ़ो, गाओ और नाचो । मुक्ति निकट है।' मायाजाल का फैलाव : भाषा पर प्रभुत्व, वक्तृत्व छटा, विशाल प्रचारतंत्र और दिखावा साधुसंन्यासी जैसा | बुद्धिमान और पढ़े-लिखे कहलाने वाले लोग भी इस मायाजाल में फँस गये थे। चूंकि वे कष्टभीरू हैं। अशान्ति से मुक्त होना है परन्तु बिना छोड़े हुए! सुख पाना है परन्तु बिना कुछ छोड़े हुए! त्याग जो कि मोक्षमार्ग की आराधना में अनिवार्य अंग है, उसका उपहास किया जा रहा है। तपश्चर्या को और तपस्वियों को हीनदृष्टि से देखा जा रहा है। शील और सदाचार की परिभाषा ही बदल दी है इन सिरफिरे लोगों ने! मनःकल्पित परिभाषा! दुराचार-व्यभिचार जैसे पापों का आचरण करने की इजाजत दे दी 'मुक्त सहचार' के नाम पर | मांसभक्षण और मद्यपान निषिद्ध नहीं। फिर भी लोगों को समझाये जाते हैं कि 'तुम शीघ्र ही मुक्त हो जाओगे।' और पागल लोग बहकावे में आ भी जाते हैं। हमारे सर्वज्ञ-सर्वदर्शी वीतराग परमात्मा ने बताया है कि अशुद्ध आत्मा को तप से, त्याग से, व्रत से, ज्ञान से, ध्यान से ही विशुद्ध बनाया जा सकता हैं। For Private And Personal Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०६ प्रवचन-४१ उन्होंने आसक्ति को और आसक्ति के विषयों को छोड़ने का उपदेश दिया । आसक्ति की घोर निन्दा की, आसक्ति के विषयों की भी असारता बतायी। अनासक्त मनुष्य बिना कष्ट के, त्याग कर सकता है। शिष्टजनों का उपहास नहीं वरन् प्रशंसा करो : गृहस्थजीवन का चौथा सामान्य धर्म बताते हुए ग्रन्थकार महर्षि एक बुरी आदत का त्याग करने को कह रहे हैं। सज्जन पुरुषों की निन्दा का त्याग करने को कहते हैं। शिष्ट पुरुषों का उपहास मत करो। शिष्टपुरुषों की प्रशंसा करो । परन्तु आजकल तो शिष्ट पुरुषों की ही ज्यादा निन्दा हो रही है। जो किसी की निन्दा नहीं करते, आलोचना प्रत्यालोचना नहीं करते, उनकी ही निन्दा। जो शिष्ट पुरुष होते हैं वे किसी की भी निन्दा नहीं करते। निन्दात्याग, शिष्ट पुरुषों का एक लक्षण है। 'यह कितना अच्छा पुरुष है....कभी किसी की निन्दा नहीं करता है....।' इस प्रकार कभी प्रशंसा करते हो आप लोग? नहीं, चूंकि 'निन्दा करना बहुत बड़ा पाप है-'यह सत्य आपके हृदय में स्थिर नहीं हुआ है। निन्दा का भी रस है। मीठा रस है। जिसको यह रस पसन्द आ गया, छूटना मुश्किल होता है। 'निन्दा करना पाप है-'यह बात उसको पसन्द नहीं आयेगी। निन्दा करने वाले लोग उसको पसन्द आयेंगे। निन्दा नहीं करने वालों के साथ बैठना-उठना पसन्द नहीं आयेगा। निन्दा करने वालों का संग ही पसंद आयेगा। दो-चार लोग मिलकर निन्दारस का पान करते हैं तो उनको बड़ा मजा आता है। 'परनिन्दा करना बड़ा पाप है, परनिन्दा नहीं करनी चाहिए।' यह बात जो लोग मानते हैं, वे लोग ही निन्दा नहीं करने वालों की प्रशंसा कर पाएंगे। 'सर्वत्र निन्दासन्त्याग :'यह एक विशेषता होती है शिष्ट पुरुषों की। वे कहीं पर भी निन्दा नहीं करते । बाहर भी नहीं करते, घर में भी नहीं करते। सार्वजनिक रूप से नहीं करते वैसे गुप्तरूप से भी नहीं करते! शब्दों में नहीं करते, विचारों में नहीं करते। निन्दा का सम्यक त्याग तो ही हो सकता है। श्रीपाल चरित्र में मयणासुन्दरी का व्यक्तित्व ऐसा पाया जाता है। कुष्ठरोगी युवक के साथ शादी कराने वाले पिता की कभी भी मयणासुन्दरी ने निन्दा नहीं की! अपने पति के सामने भी अपने पिता की निन्दा नहीं की! मयणासुन्दरी का यह व्यक्तित्व आपको पसन्द आता है? इस दृष्टि से मयणा की आप प्रशंसा करते हो? For Private And Personal Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन -४१ २०७ मान लो कि आपको निन्दा करने की आदत है, आप यह आदत नहीं छोड़ सकते, फिर भी क्या आप मानते हो कि निन्दा करना बहुत बुरी बात है ? यदि आपकी यह मान्यता होगी तो ही आप सज्जनों की 'निन्दात्याग' की शिष्टता की प्रशंसा कर सकोगे । मौन का अर्थ हमेशा सहमति नहीं होता : मान लो कि आप किसी की निन्दा कर रहे हो, आपके पास ऐसा ही एक शिष्ट पुरुष खड़ा है, जो आपकी निन्दा में शामिल नहीं होता है, मौन रहता है... मौन स्वीकृत भी नहीं देता है, तो आपके मन में क्या होगा? आप उसको क्या कहोगे? सभा में से : हम उसको 'नासमझ' कहेंगे, उसका उपहास करेंगे। महाराजश्री : तो समझना चाहिए कि 'निन्दा' को आप पाप नहीं मानते ! निन्दा को दोष नहीं मानते। आप सज्जनों की 'निन्दात्याग' की विशेषता को देख नहीं सकोगे। उनकी प्रशंसा नहीं कर सकोगे । सभा में से: हमारी निन्दा करने वालों की निन्दा तो हो ही जाती है। महाराजश्री : वह बात अखरती है क्या ? निन्दा करने के बाद पश्चात्ताप होता है क्या? 'निन्दा नहीं करनी चाहिए,' ऐसा समझते हो क्या ? यदि समझते हो तो निन्दात्यागी पुरुषों की प्रशंसा हो ही जाएगी ! ज्यों-ज्यों प्रशंसा करते जाओगे त्यों त्यों निन्दा का व्यसन छूटता जायेगा । निन्दा का रस बेस्वाद लगता जाएगा। इसलिए कहता हूँ कि शिष्ट पुरुषों की प्रशंसा करते रहो। जो गुण पाना हो, उस गुण को, गुणवानों की प्रशंसा करते रहो । आप में वे गुण आयेंगे ही। गुणानुवाद के प्रति अनुराग रखना सीखो : शिष्ट पुरुष- सज्जन पुरुष जैसे किसी की निन्दा नहीं करते वैसे वे सज्जनों की, साधुचरित पुरुषों की प्रशंसा करते रहते हैं ! चूंकि वे लोग गुणानुरागी है ! गुणानुरागी व्यक्ति गुणवानों का प्रशंसक होगा ही! जब जब आप उनकी बातें सुनेंगे, आपको किसी महात्मा के गुण ही सुनने को मिलेंगे! गुणवानों की प्रशस्ति ही सुनने को मिलेगी ! शिष्ट पुरुष की इस विशेषता के प्रति अपने हृदय में आकर्षण जगेगा तो उनकी प्रशंसा हो ही जाएगी। 'गुणानुवाद' एक विशिष्ट गुण है, इस गुण का हमारे हृदय में अनुराग होना चाहिए ! भले आज For Private And Personal Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४२ २०८ अपन किसी का गुणानुवाद नहीं करते हैं परन्तु गुणानुवाद करने वालों के प्रति सद्भाव तो होना ही चाहिए। जो मनुष्य किसी का दोष नहीं देखता है, मात्र गुण ही देखता है, वह मनुष्य गुणानुरागी बन सकता है। गुणानुरागी ही गुणानुवाद कर सकता है! हालाँकि यह काम सरल नहीं है! गुणदर्शन भी एक दिव्यकला है! गुण-दोषों से भरे हुए जीवों में मात्र गुण देखना, दोष नहीं देखना यह काम सुलभ तो नहीं है! परन्तु सुलभ बनाना तो होगा ही! अशक्य या असंभव नहीं है! ऐसा होता तो बात ही नहीं करता। दोष सभी जीवों में होते हैं, फिर भी दोष, देखने के नहीं हैं! आप लोग कहेंगे कि 'मनुष्य में दोष होते हैं तभी दिखाई देते हैं न!' तो मेरा कहना यह है कि मनुष्य में गुण भी होते हैं! वे गुण क्यों नहीं दिखाई देते? आप गुण क्यों नहीं देखते? __ जिस बात का हमारे हृदय में अनुराग होता है, जिस वस्तु के प्रति हमारा हृदय आकर्षित होता है, दूसरे जीवों में वही दिखाई देती है! हमारी चाहना के अनुरूप दूसरे जीवों में दर्शन होता है! यदि चाहना गुणों की होगी तो दूसरे जीवों में गुण दिखाई देंगे, यदि चाहना दोषों की होगी तो दूसरे जीवों में दोष दिखाई देंगे। विश्व के बाजार में सब कुछ मिलता है! आपकी दृष्टि उस मार्केट में उस वस्तु को ही खोजेगी जो कि आपको प्रिय होगी! जिसके प्रति आपकी चाहना आपको होगी। जीवों में गुण भी हैं, दोष भी हैं! आपकी चाहना गुणों की होगी तो अवश्य आपको गुण दिखाई देंगे। आपकी चाहना दोषों की होगी तो आपको दोष दिखाई देंगे! इसका अर्थ यह है कि जो होता है वही दिखाई देता है- ऐसा एकान्त नियम नहीं है, हमारी जो चाहना होती है वह हमें दिखाई देता है। गुणदर्शन किये बिना गुणानुवाद करोगे कैसे? गुणदर्शन के बिना गुणानुवाद नहीं हो सकेगा। गुणदर्शन के बिना गुणानुरागी गुणानुवाद करने वालों की प्रशंसा ही नहीं होगी। गुणानुरागी की प्रशंसा किये बिना जीवन में गुणसमृद्धि आयेगी ही नहीं। गुणसमृद्धि के बिना मोक्षमार्ग पर प्रगति होगी नहीं। जीवन में आत्मानन्द की अनुभूति होगी नहीं। श्रीपालमयणासुन्दरी दोनों गुणवानों के प्रशंसक थे। श्रीपाल ने तो अपनी माता के सामने मयणा की प्रशंसा की थी, मयणा के गुणों की प्रशंसा की थी। गुणदृष्टि होना अत्यन्त आवश्यक है। गृहस्थधर्म का पालन सुचारू रूप से For Private And Personal Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०९ प्रवचन-४२ करने के लिए गुणदृष्टि होना अनिवार्य है। इस दृष्टि के अभाव में आज गृहस्थजीवन असंख्य क्लेश-क्लह में फँस गया है। पारिवारिक जीवन भी नष्ट हुआ जा रहा है। एक-दूसरे के दोष ही दोष देखे जा रहे हैं... दोषदर्शन और दोषानुवाद से द्वेष बढ़ता जा रहा है। द्वेष की भयानक आग में स्नेह जल गया है। दोषदर्शन जब तक रहेगा दोषानुवाद जब तक रहेगा, स्नेह का अमृत नही मिलेगा। __ शादी के बाद लड़का अपनी पत्नी के सामने अपनी माँ की प्रशंसा करता है, माँ के गुणों की प्रशंसा करता है, यदि पत्नी गुणदृष्टिवाली नहीं है तो पति की बातें उसको पसन्द नहीं आयेंगी। वह पति की बात का गलत अर्थघटन करेगी : 'मेरा पति माँ का भक्त है, उसको माँ ही प्यारी है, मेरे प्रति प्यार नहीं है!' फिर वह पति को अपना बनाने के लिए सास की निन्दा करना शुरू कर देगी! अनेक कष्ट-संकट सहन करके जिस माँ ने पुत्र को बड़ा किया है, उस पुत्र को माँ से अलग करने का पाप करेगी। ऐसा करने से पति का सुख मिल जाता है क्या? मातृभक्ति की निर्मम हत्या करने वाले को सुख मिल ही नहीं सकता! दोषदृष्टि और दोषानुवाद उसको नष्ट कर के रहता है। पति को भी वह दोषदृष्टि से देखेगी! पति का भी दोषानुवाद करेगी! परिणाम क्या आएगा? परस्पर द्वेष और कलह! फिर जीवन में क्या रह जाएगा? अब दूसरा प्रसंग देखें : शादी के बाद लड़का यदि अपनी पत्नी के गुणों की प्रशंसा माता के सामने करता है, माँ यदि गुणदृष्टि वाली नहीं है, तो उसको पुत्रवधू की प्रशंसा पसन्द नहीं आएगी। वह समझेगी कि लड़का पत्नी के मोह में फँसता जा रहा है! और मेरी उपेक्षा हो रही है। और वह माँ पुत्रवधू के दोषों को देखेगी...दोषानुवाद करेगी! पुत्र और पुत्रवधू के बीच द्वेष पैदा करेगी! जिस पुत्र को सुखी करने के इरादे से माँ लड़के की शादी करती है, उसी लड़के को दुःखी करने का काम करने लगती है। पुत्र के दोष देखती है, पुत्रवधू के दोष देखती है और दूसरे लोगों के सामने दोषानुवाद करती है। वृद्धावस्था में बहुत दुःख पाती है। आर्तध्यान-रौद्रध्यान में यदि मरती है तो दुर्गति में चली जाती है। दोषदर्शन दुःख का कंटीला रास्ता : परदोषदर्शन, दोषचिन्तन और दोषवचन आर्तध्यान है | आर्तध्यान जब तीव्र बनता है, जब निरन्तर चलता है, तब रौद्रध्यान बन जाता है। आर्तध्यान और For Private And Personal Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४२ २१० रौद्रध्यान में कैसे पापकर्म बंधते हैं, वह तो आप जानते हो न? उन पापकर्मों के फल का भी ज्ञान है न? कभी शान्त चित्त से सोचा है? ऐसा कहो कि 'ये सारी बातें सोचने का समय नहीं है!' कोई बात नहीं! मत सोचो, दुष्परिणाम भोगने के लिए तैयार रहना! यदि दोषदृष्टि होगी तो आपको दुनिया में कोई शिष्ट पुरुष ही नहीं दिखाई देगा! सर्वत्र दोष ही दिखाई देंगे। शिष्ट पुरुष नहीं दिखेगा तो फिर शिष्टपुरुष के गुण कैसे दिखाई देंगे? गुण नहीं देखेंगे तो गुणानुवाद कैसे करोगे? गुणप्रशंसा कैसे होगी? संभव है कि आप लोग शिष्ट पुरुषों की भी निन्दा करने लग जाओगे? सर्वत्र दोषदर्शन करने वाले लोग बोलते हैं न कि 'आज तो दुनिया में कोई साधुपुरुष दिखता ही नहीं। ऐसे लोग जहाँ पर भी जाते हैं, वे दोष देखते रहते हैं। छिद्रान्वेषण की उनकी मनोवृत्ति होती है। ऐसे लोगों के मुँह से कभी भी आप किसी शिष्ट पुरुष की प्रशंसा नहीं सुन सकोगे! आपकी निगाहों में जो शिष्ट दिखाई देते होंगे, वे महापुरुष उनके दोषानुवाद करते होंगे। चूँकि वे किसी को शिष्ट पुरुष ही नहीं मानते! इस दुनिया में एक ही शिष्ट पुरुष है और वह है दोषदृष्टिवाला दोषानुवाद करने वाला महानुभाव स्वयं! दोषदृष्टिवाला मनुष्य किसी को भी शिष्ट पुरुष मानने को तैयार नहीं होता। फिर शिष्ट पुरुषों के गुणों की प्रशंसा करने की तो बात ही कहाँ? शिष्ट पुरुषों के गुणों की प्रशंसा करना, गृहस्थ का सामान्य धर्म है। मयणा की सैद्धान्तिक मान्यता : मयणासुन्दरी राजकुमारी थी, माता-पिता का उनके प्रति अपार स्नेह था। उसको कल्पना भी नहीं होगी कि उसको एक कुष्ट रोगी युवक से शादी करने का संकट आ जाएगा। बात-बात में पिता के साथ विवाद छिड़ गया। सैद्धान्तिक विवाद हो गया। पिता चाहता था कि राजकुमारी उसका उपकार माने। राजकुमारी सैद्धान्तिक रूप से पिता का उपकार माने। राजकुमारी सैद्धान्तिक रूप से पिता का उपकार मानने को तैयार नहीं थी। व्यवहारलोक-व्यवहार से, और कृतज्ञता के माध्यम से वह माता-पिता के उपकारों को मानती थी परन्तु सिद्धान्त से नहीं। सिद्धान्त कहता है 'पापाद् दुखम, धर्मात् सुखम् ।' पापों से दुःख, धर्म से सुख | जीवात्मा पापकर्मों का उदय दुःखी ही होता है, पुण्यकर्मों के उदय से सुखी होता है। यदि जीव का पापकर्म का For Private And Personal Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४२ __ २११ उदय है तो उसको कोई सुखी नहीं कर सकता। यदि जीव का पुण्यकर्म का उदय है तो उसको कोई दुःखी नहीं कर सकता। राजा इस सिद्धान्त को मान्य करने हेतु तैयार नहीं था | मयणासुन्दरी इस सिद्धान्त को छोड़ने हेतु तैयार नहीं थी। उसने पिता को साफ साफ शब्दों में सुनाया-'पिताजी, यदि मेरा पापकर्म का उदय होता तो आप मुझे सुखी नहीं कर सकते थे। सुख-दुःख मनुष्य के अपने पुण्य-पाप कर्मों पर आधारित है। 'आप किसी को सुखी नहीं कर सकते, आप किसी को दुःखी नहीं कर सकते।' राजा को यह बात बहुत ही अखरने लगी। राजा को गुस्सा आ गया। वह आपे से बाहर हो उठा। सभा में से : सन्तानों को माता-पिता के उपकार मानने चाहिए ऐसा सिद्धान्त नहीं है क्या? ___ महाराजश्री : सिद्धान्त है परन्तु औपचारिकता मूलक सिद्धान्त है। वास्तविकता दूसरी है। संसार के सारे संबंध ही औपचारिक हैं! मिथ्या हैं। फिर भी व्यवहारमार्ग में अपेक्षा से उन संबंधों की उपादेयता स्वीकृत है। जब पारमार्थिक दृष्टि से सोचें तब व्यवहारदृष्टि गौण हो जाती है। सुख दुःख का आधार जीवात्मा के पुण्य-पापकर्म हैं। निरपेक्ष बात सिद्धान्त नहीं बन सकती : बड़ी समझने जैसी बात है यह! सिद्धान्त सापेक्ष होते हैं। निरपेक्ष बात सिद्धान्त नहीं बन सकती । अपेक्षाओं का अनुसंधान करना चाहिए | मयणासुन्दरी के पास सम्यक्ज्ञान था। सिद्धान्तों की सापेक्षता वह अच्छी तरह जानती थी। पिता के कर्तृत्त्व का अभिमान वह तोड़ना चाहती थी, साथ-साथ पारमार्थिक सत्य समझाना चाहती थी। पारमार्थिक सत्य प्रकाशित करने पर पिता नाराज हो जाये तो हो जाये.... वह निर्भय थी!' 'पिताजी नाराज होंगे तो मेरे सुख चले जाएंगे, ऐसा कोई भय नहीं था उसके मन में। राजा बहुत नाराज हुआ, परन्तु मयणा ने अपना सिद्धान्तपक्ष नहीं छोड़ा। राजा बौखला गया। मयणा को सबक सिखाने का संकल्प किया और एक दिन एक परदेशी कुष्टरोगी युवक को राजसभा में बुलवा कर राजा ने कुमारी से कहा : 'ले तेरे कर्म तेरे लिए यह पति लाये हैं! कर ले इसके साथ शादी!' मयणासुन्दरीने पिताजी की बात शान्ति से सुनी। कोई प्रतिक्रिया नहीं! यानी कोई इनकार नहीं, जरा भी गुस्सा नहीं, कोई दीनता नहीं, कोई रुदन For Private And Personal Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४२ २१२ नहीं! उसने निःसीम धीरता के साथ उस कुष्ठ रोगी युवक को अपने पति के रूप से स्वीकार कर लिया। राजकुमारी को कुष्ठरोगी के साथ शादी करनी पड़े...यह कोई छोटी आफत है? यह कोई मामूली आपत्ति है? फिर भी मयणा ने कोई दीनता नहीं की। उसके मन में कोई अफसोस नहीं हुआ। यह प्रसंग सुनते-सुनते मयणा के अदीनभाव की प्रशंसा मन में होती है क्या? मयणा के प्रति प्रशंसा के गीत फूट पड़ते हैं क्या? तो मान लेना कि गृहस्थ जीवन का चौथा सामान्य धर्म आपमें आ गया है! आप सज्जनों की शिष्टता के प्रशंसक है। __ आपत्ति के समय सज्जनों को, दीनता नहीं आती, वे लोग आपत्ति को प्रसन्नता से स्वीकार लेते हैं। कुष्ठरोगी पति के साथ मयणासुन्दरी जब उज्जयिनी नगरी के राजमार्ग से गुजर रही थी तब नगरवासी लोग उसकी घोर निन्दा करते थे, उसके जैनधर्म की निन्दा करते थे। यह भी एक बड़ी आपत्ति थी। मयणासुन्दरी ने स्वनिन्दा सुन ली प्रसन्नता से | धर्मनिन्दा सुनकर उसे अवश्य दुःख हुआ और वह होना स्वाभाविक भी था। वह दुःख दीनता नहीं था, वह दुःख धर्मप्रेम में से पैदा हुआ था। आफत में स्वस्थता : शिष्टजनों का लक्षण : श्री 'सिद्धचक्र' के आराधन से श्रीपाल का कुष्ठरोग दूर हो गया और लोग मयणासुन्दरी की प्रशंसा करने लगे। जैनधर्म की प्रशंसा करने लगे। मयणा के संकटों का अन्त आ गया....परन्तु श्रीपाल के जीवन में तो अनेक संकट आते रहें! श्रीपाल की विदेशयात्रा में अनेक संकट आये थे, परन्तु श्रीपाल कभी दीन नहीं बने। जिस धवल सेठ के जहाज में श्रीपाल ने विदेश यात्रा का प्रारंभ किया था, उसी धवल सेठ ने श्रीपाल को दुःख देने में कसर नहीं छोड़ी। श्रीपाल को मार डालने के भी प्रयत्न उसने किये थे! श्रीपाल की संपत्ति और श्रीपाल की पत्नियों को पा लेने के लिए धवल सेठने अनेक अधम उपाय किये थे फिर भी श्रीपाल दीन नहीं बने थे। 'आपत्ति में अदीनता, शिष्ट पुरुषों का एक लक्षण है। हमें भी उनके अदीनभाव के प्रशंसक बनना है तो अपन भी एक दिन वैसी अदीनता पा लेंगे। ___ संसार में ज्यादातर लोग आपत्ति में रोते हैं। दीन-हीन बनते हैं। यह बहुत बड़ा दोष है। ऐसे लोग कोई महान् कार्य नहीं कर सकते। ऐसे लोग कार्यसिद्धि नहीं कर सकते। चूँकि अच्छे कार्य में सैकडों विघ्न आते हैं। For Private And Personal Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- ४२ २१३ कार्यसिद्धि में अवरोध पैदा करते हैं । यदि दृढ़ मनोबल नहीं होगा, यदि भाव नहीं होगा तो कार्य रुक जायेगा । कार्य छूट जायेगा । इतना ही नहीं, कष्टभीरु लोग गलत रास्ते भी चले जाते हैं । दुःखों में जब उनकी धीरता नहीं रहती हैं, सुख पाने के लिए इधर-उधर भटक जाते हैं। दु:खों मे, कष्टों में, आपत्तियों में जो स्त्री-पुरुष दीन नहीं बने, अधीर नहीं बने, कायर नहीं बने, उनके नाम प्रातःस्मरणीय बन गये । उनका जीवन आदर्शभूत बन गया। ऐसे महापुरुषों के सदाचरणों की प्रशंसा करते रहो । सुख वैभव में विनम्र बने रहो : 'संपदि नम्रता' संपत्ति के समय नम्रता, यह भी सज्जनों की एक विशिष्टता है । जब कोई वैभवशाली को, श्रीमन्त को, सत्ताधीश को और नम्र देखो, उसकी नम्रता की प्रशंसा करो | श्रीमन्त और सत्ताधीश में नम्रता होना असाधारण गुण है। देखते हो न दुनिया में ? श्रीमन्त और सत्ताधीश में प्रायः अभिमान ही पाओगे । जो श्रीमन्त शिष्टपुरुष होता है, जो सत्ताधीश शिष्ट पुरुष होता है, उसमें नम्रता दिखाई देगी! ऐसे लोग गुरूजनों के सामने तो नम्र होते हैं, गरीबों के सामने भी नम्र होते हैं। कभी वे दूसरों का तिरस्कार नहीं करते । अनादर नहीं करते। जिस समय गुजरात में राणा वीरधवल का राज्य था उसके महामंत्री थे वस्तुपाल-तेजपाल । वस्तुपाल - तेजपाल संपत्तिशाली तो थे ही, सत्ताधीश भी थे, परन्तु वैसे ही विनम्र थे। उनके जीवन की एक रोमांचक घटना सुनाता हूँ । वस्तुपाल-तेजपाल की विनम्रता कितनी ? वि. सं. १२८६ की यह घटना है। नागपुर के श्रेष्ठि पुनड़ ने शत्रुंजयगिरिराज (पालीताना) का पैदल संघ निकाला । संघयात्रा में हजारों स्त्री - पुरुष थे। तेजपाल ने सामने जाकर संघपति को विनती की कि 'धोलका' (गुजरात की तत्कालीन राजधानी) में होकर पधारो । संघपति ने विनती को स्वीकार किया । जब संघ धोलका के निकट प्रदेश में पहुँचा, महामंत्री संघ के सामने गये । हजारों स्त्री-पुरुष पैदल चल रहे थे । १८०० बैलगाडियाँ चल रही थीं, काफी धूल उड़ रही थी । वस्तुपाल के साथ जो श्रेष्ठिगण था, उसने महामंत्री से कहा : 'इस रास्ते पर ज्यादा धूल उड़ रही है इसलिए अपन दूसरे रास्ते से For Private And Personal Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४२ २१४ चलें।' महामंत्री ने कहा : 'महानुभाव, इस रज का स्पर्श तो महान् पुण्य से प्राप्त होता है। इस रज के स्पर्श से पापरज का नाश होता है। शाश्वत् गिरिराज के मार्ग पर चलने वाले हजारों स्त्री-पुरुष के चरण-स्पर्श से, इस मार्ग की रज पवित्र बनी है, इस रज के स्पर्श से अपन भी पवित्र बनेंगे।' वस्तुपाल ने संघ के साथ पधारे हुए आचार्य श्री नरचन्द्रसूरिजी को वंदना की और संघपति पुनड़ को गले लगाया। नगर के बाहरी सरोवर के किनारे संघ का पड़ाव लगा। वस्तुपाल ने सकल संघ को भोजन का निमन्त्रण दिया। निमन्त्रण को स्वीकार किया गया । वस्तुपाल के हृदय में संघभक्ति करने के उच्चतम भाव उमड़ रहे थे। संघभक्ति करने के लिए महामंत्री ने श्रेष्ठ भोजन तैयार करवाया। सभी संघयात्रिकों का स्वागत करने महामंत्री स्वयं उपस्थित हुए। एक-एक यात्रिक के पैर वे स्वयं धोते हैं और तिलक करते हैं। दो प्रहर यानी ६ घंटे बीत गए....तब तेजपाल ने आकर कहा : 'हे नाथ, आप भोजन के लिए पधारें, यह काम अपने दूसरे स्वजनों के पास करवायेंगे।' वस्तुपाल ने कहा : 'भाई, मुझे बिल्कुल थकान नहीं आयी है, मेरा उल्लास बढ़ता जा रहा है और फिर ऐसा अवसर तो अनंत अनंत पुण्य से प्राप्त होता है।' संघभक्ति क्या चीज है? __आचार्यदेव नरचन्द्रसूरिजी को ज्ञात हुआ कि 'महामंत्री ने अभी तक भोजन नहीं किया है और वे स्वयं संघयात्रिकों का पादप्रक्षालन कर रहे हैं।' उन्होंने महामंत्री को कहलवाया कि 'परिवार के मुख्य पुरुष का यत्न से रक्षण करना चाहिए, उनका नाश होने से परिवार का नाश होता है। इसलिए आपको भोजन कर लेना चाहिए।' महामंत्री ने गुरूदेव को नम्रतापूर्ण वचनों में संदेश भेजा : 'हे गुरूदेव, आज मेरे पिता की आशा परिपूर्ण हुई! आज मेरी माता के आशीर्वाद सफल हुए! देवाधिदेव परमात्मा ऋषभदेव के यात्रियों का मैं प्रसन्नचित से पूजन कर रहा हूँ... मुझे जरा भी खेद नहीं है, थकान नहीं है।' 'संपदि नम्रता' इसको कहते हैं। वस्तुपाल-तेजपाल के पास वैभव था, सत्ता थी...लोकप्रियता थी.... फिर भी वे निराभिमानी थे। विनम्र थे। ऐसी विनम्रता देखकर उनकी प्रशंसा हो ही जायें | नागपुर के संघ को बहुमानसहित भोजन करवाया और सुन्दर वस्त्र भेंट किये । संघपति पुनड़ हर्ष से गद्गद् हो गया। वस्तुपाल-तेजपाल की गुणसमृद्धि देखकर विशेषकर उनकी नम्रता For Private And Personal Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४२ २१५ देखकर हर्षविभोर हो गया | उसने वस्तुपाल को आग्रहपूर्ण प्रार्थना की : 'आप हम सब के साथ पालीताना पधारें।' वस्तुपाल ने विनती को स्वीकार किया। ऐसी विनम्रता देखकर प्रशंसा हो ही जाये न? यदि मुँह से प्रशंसा के पुष्प बिखर जायें तो समझना कि गृहस्थजीवन का चौथा सामान्य धर्म आप में आ गया है। जैसे भूतकाल की ऐसी घटनाएँ सुनकर हृदय हर्ष से पुलकित हो जाता है, वैसे वर्तमानकाल में कोई ऐसी घटना देखने को मिले या सुनने को मिले तो हृदय आनन्दित होना चाहिए | गुणानुवाद हो जाना चाहिए। विपत्तियों में दीनता नहीं और संपत्ति में अभिमान नहीं-यह है सज्जनों की असाधारण विशेषता! अपने जीवन में यदि ऐसी विशेषता पाना है तो गुणानुरागी बनो । गुणों के प्रशंसक बनो । गुणों की प्रशंसा करते ही रहो। एक दिन ऐसा आयेगा कि आप ऐसी असाधारण विशेषताओं के धनी बन जाओगे। गुणवान बनने के लिए गुणानुरागी बने रहना, आवश्यक ही नहीं वरन् अनिवार्य है। आज, बस इतना ही। For Private And Personal Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४२ २१६ . पहले तय करो कि तुम्हें क्या होना है? कैसा बनना है? बस, फिर वैसे लोगों की प्रशंसा करते रहो, दुष्ट बनना हो तो दुष्टों की और सज्जन बनना हो तो सज्जनों की प्रशंसा करते रहो। .सुख-संपत्ति में विनम्र बने रहो। अप्रस्तुत और अप्रासंगिक बोलने से बहुत से निरर्थक विवाद-झगड़े हो जाते हैं। इसलिए बोलने में सावधानी रखो....विवेक रखो। जबान पर लगाम जरूरी है। धार्मिकता और बेईमानी के बीच मेल जमता ही नहीं, धार्मिकता के साथ मेल जमता है प्रामाणिकता का-ईमानदारी का। धार्मिकता के साथ संवाद होता है दया और करुणा का, न्याय एवं नीति का। .जीवन में दोगलापन खतरनाक है....संवादिता एवं सामंजस्य से ही जीवन निखरेगा। प्रवचन : ४३ महान् श्रुतधर पूजनीय आचार्य श्री हरिभद्रसूरिश्वरजी स्वरचित 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ में गृहस्थजीवन का सामान्य धर्म बता रहे हैं। चौथा सामान्य धर्म बताया है शिष्टपुरुषों के चरित्र की प्रशंसा । क्या बनना है? दोषजन्य दुष्टता मिटाने के लिए गुणजन्य शिष्टता संपादन करनी चाहिए। दुष्टता और शिष्टता के बीच सेतु है प्रशंसा का! शिष्ट पुरुष यदि दुष्टता की प्रशंसा करने लगेगा तो वह अवश्य दुष्ट बनेगा! दुष्ट पुरुष यदि शिष्टता की प्रशंसा करता रहेगा तो वह जरूर शिष्ट बनेगा! जिस मनुष्य को जैसा बनना हो, वैसे मनुष्यों की प्रशंसा करता रहे तो वह वैसा बन जायेगा। क्रोधी बनना हो तो क्रोधी की प्रशंसा करो, क्षमाशील बनना हो तो क्षमावान की प्रशंसा करो! अभिमानी बनना हो तो अभिमानी की प्रशंसा करो, विनम्र बनना हो तो विनम्र पुरुषों की प्रशंसा करो । मायावी बनना हो तो मायावी की प्रशंसा करो, सरल बनना हो तो सरल जीवों की प्रशंसा करो। परिग्रही बनना हो तो परिग्रही की प्रशंसा करो, अपरिग्रही बनना हो तो अपरिग्रही की प्रशंसा करो। For Private And Personal Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४२ __२१७ पहले निर्णय कर लो कि आपको कैसा बनना है। बस, फिर वैसे लोगों की प्रशंसा करते रहो। दुष्ट बनना हो तो दुष्टों की, और शिष्ट बनना हो तो शिष्टों की प्रशंसा करते रहो। प्रशस्य...प्रशंसापात्र जीवन जीने के लिए मनुष्य को शिष्ट बनना अनिवार्य है। सद्गृहस्थ का जीवन व्यतीत करने के लिए मनुष्य को शिष्टता का संपादन करना ही होगा। धार्मिक या आध्यात्मिक जीवन बसर करने के लिए मनुष्य को शिष्ट बनना ही होगा। आप लोग द्विधा में न रहें, दुष्टता का सुख और शिष्टता का सुख-दोनों के सुख पाने की आदत छोड़ दें! भीतर में दुष्टता और बाहर से शिष्टता बनाए रखने की वृत्ति का त्याग करना होगा। मज़ा तो देखो : मनुष्य दुष्टतापूर्ण आचरण भी करता है कोई सुख पाने की धारणा से! बहुत-सी गलत धारणायें मनुष्य ने बाँध रखी हैं। हिंसा, झूठ, चोरी, दुराचार आदि पापाचरण, मनुष्य सुख पाने की धारणा से ही करता है। 'मैं असत्य बोलूँगा तो मुझे रुपया ज्यादा मिलेगा, मुझे कष्ट नहीं आयेगा, मैं कष्ट से मुक्ति पाऊँगा...।' इस धारणा से मनुष्य झूठ बोलता है। दूसरी भी ऐसी कई तरह की धारणाएं होती हैं। परन्तु, परिवार में समाज में, देश में झूठ बोलना, चोरी करना, दुराचारसेवन करना बुरा काम माना गया है, इसलिए मनुष्य ऐसे पापाचरण छिपाना चाहता है। उसे दुष्टता प्रिय है परन्तु शिष्टता का दिखावा करता है। दुष्टता का प्रेम बना रहता है....और एक दिन उसकी दिखावटी शिष्टता का जर्जरित परदा फट जाता है। दुष्टता का प्रेम और शिष्टता का प्रदर्शन जब तक बना रहेगा तब तक शिष्टता-सज्जनता प्राप्त नहीं होगी। शिष्टता कोई दिखावे की या प्रदर्शन की वस्तु नहीं है। सभा में से : सभ्यता तो रखनी चाहिए न? शिष्टता क्या है? महाराजश्री : सभ्यता बाहरी व्यवहार है, शिष्टता आन्तरिक योग्यता है। भीतर में शिष्टता हो और बाहर सभ्यता हो-तब आप पूर्ण सद्गृहस्थ बन जाओगे। अरे, भीतर में मान लो कि शिष्टता नहीं है परन्तु शिष्टता का प्रेम है, शिष्टता के प्रति आकर्षण है, तो भी बहुत है। वह आकर्षण के प्रति प्रेम जाग्रत करने के लिए और उस प्रेम को बनाये रखने के लिए, आपको शिष्ट For Private And Personal Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१८ प्रवचन-४२ पुरुषों की प्रशंसा करनी होगी। शिष्टों की श्रेष्ठता को स्वीकार करना होगा और अपनी अधमता का इकरार करना होगा। व्यवहार में आप सभ्यता बनाये रखने का जितना खयाल करते हो, भीतर में शिष्टता बनाए रखने का भरसक प्रयत्न करते रहो। शिष्टता क्या है, अच्छी तरह समझ लो। ० दीन-दुःखी के उद्धार में दिलचश्पी शिष्टता है, : ० निन्दित कार्यों से डरना शिष्टता है, ० उपकारी के उपकारों को याद रखना शिष्टता है, ० निन्दा का त्याग शिष्टता है, ० सज्जनों की प्रशंसा करना शिष्टता है, ० आपत्ति में दीनता नहीं करना शिष्टता है ० और संपत्ति में नम्रता रखना भी शिष्टता है। जब किसी व्यक्ति को आपत्ति में फँसा हआ देखो, आपत्ति में भी उसको अदीन-स्वस्थ देखो, आप उसकी अदीनता की स्वस्थता की मध्यस्थता की प्रशंसा करो। जब आप किसी व्यक्ति को संपत्ति के बीच भी नम्र देखो, आप उसकी प्रशंसा करो। चूंकि आपत्ति में दीन नहीं होना और संपत्ति में अभिमानी नहीं होना, बहुत बड़ी बात है, असाधारण बात है। इसलिए वह बात प्रशंसापात्र है। ___ 'मैं आपत्ति में, दु:ख में, संकट में दीन नहीं बनूँ, मैं संपत्ति-वैभव में अभिमानी नहीं बनूँ...' ऐसे विचार आते हैं? ऐसी इच्छा होती है? टटोलो अपने आपको! यदि ऐसी इच्छा होती हो तो आप वैसे महापुरुषों की प्रशंसा करो। भूतकालीन महापुरुषों की प्रशंसा करो, वर्तमानकालीन ऐसे शिष्ट पुरुषों की प्रशंसा करो। आप के परिवार में ऐसा व्यक्ति हो तो उसकी भी प्रशंसा करो। आपके मित्रों में, स्नेहीस्वजनों में ऐसा व्यक्ति हो तो उसकी प्रशंसा करो। एक घटना पर सोचने का सही तरीका : एक परिवार है, आप उस परिवार को जानते हो, परिवार बहुत सुखी था, लाखों रूपये थे, बंगला था, कार थी, परन्तु अचानक बड़ा नुकसान हो गया...बंगला बिक गया, कार भी बिक गई....संपत्ति चली गई। वे लोग एक For Private And Personal Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४२ २१९ किराये के मकान में रहने चले गए...| आपके हृदय में उस परिवार के प्रति सहानुभूति है, आप एक दिन मिलने गए। आप पहुँचे वहाँ, आपका स्वागत हुआ। आपने वहाँ किसी के मुँह पर दीनता नहीं देखी, शोक नहीं देखा! जब आप सहानुभूति के दो शब्द बोलते हो तो उस परिवार की मुख्य महिला कहती है : 'संसार में ऐसा तो होता रहता है...कर्मों का खेल है, हमें कोई गम नहीं है। हमारी धर्मआराधना सुचारू रूप से चल रही है।' ऐसी बात सुनकर आप का हृदय उनकेप्रति, उनकी अदीनता के प्रति सद्भाव से भर जाता है, तो मानना कि 'शिष्टचरितप्रशंसनम्' नाम का गुण आपने पा लिया है। परन्तु उनकी बात सुनकर यदि आप दूसरे ढंग से सोचने लगते हो कि 'एक तो दुःखी-दुःखी हो गये हैं...फिर भी धर्म की बात करते हैं। देखा बड़े धर्मात्माओं को। बड़ी मुश्किल से गुजारा करते हैं....फिर भी हँसने का दिखावा करते हैं....।' सोचने का भी तरीका बदलना जरूरी है : ऐसा सोचोगे तो कभी भी आप आपत्ति में धैर्य रखने की शक्ति नहीं पाओगे | आपत्ति में धैर्य रखना बहुत बड़ा गुण है। सद्गृहस्थ का लक्षण है। जैसा आपत्ति में अधीरा नहीं होना है वैसे संपत्ति में अभिमानी नहीं बनना है। यदि किसी व्यक्ति को संपत्ति में निरभिमानी देखते हो तो क्या सोचते हो? मान लो कि आपका कोई मित्र दरिद्रता से ग्रसित है, व्यवसाय करने बम्बई गया....वहाँ उसका भाग्य खुल गया... चार-पाँच वर्ष में पाँच-दस लाख रूपये कमा लिये, आप किसी कार्यवश बम्बई चले गये। मित्र को मिलने उसके घर गये। आपको देखते ही मित्र सामने आता है.... आपको गले लगाता है, अपने श्रीमंत मित्रों से आपका परिचय देता है...आपकी अच्छी आवभगत करता है...तो आपको खुशी होगी या नहीं? हालाँकि आपका सद्भाव बढ़ेगा या नहीं? संपत्ति में भी उसकी नम्रता, आपको प्रिय लगेगी न? आप उसकी नम्रता की सराहना करोगे न? यदि ऐसी सराहना करते रहोगे तो आप भी संपत्ति में नम्र बने रहोगे! अभिमान को सुलगा दो : संपत्ति में अभिमान नहीं करना, यह बात मात्र धन-संपत्ति से ही जुड़ी हुई है, इसका संबंध बल-संपत्ति से भी है, रूप-संपत्ति से भी है, बुद्धि की संपत्ति For Private And Personal Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४३ २२० से भी है, ज्ञान-संपत्ति से भी है, तप-संपत्ति से भी है! इसमें से कोई भी संपत्ति हो, फिर भी अभिमान न हो तो वह महान् शिष्ट पुरुष है, यह समझ लेना । ___ अद्वितीय बल होने पर भी कमजोर व्यक्ति के सामने जो बल का अभिमान प्रदर्शित नहीं करते हैं-सद्गृहस्थ की विशिष्ट श्रेष्ठता है। कोई उसका अपमान करता है फिर भी वह बलप्रदर्शन नहीं करता है-यह देखकर आप यदि आकर्षित हो जाते हो तो उसकी प्रशंसा किए बिना नहीं रहोगे। प्रशंसा हो ही जाएगी। अद्भुत रूप होने पर भी रूप का जिसको अभिमान नहीं होता है, अपने रूप की प्रशंसा करता नहीं फिरता है, उसको देख कर आप के दिल में क्या होगा? उसके प्रति सद्भाव जगेगा न? उसका रूप आपको जितना आकर्षित करेगा उससे भी ज्यादा उसकी निरभिमान दशा आपको विशेष आकर्षित करेगी। आप उसकी प्रशंसा किए बिना नहीं रहोगे? __ प्रसिद्ध वैज्ञानिक 'आइन्स्टीन' कितने बड़े बुद्धिमान थे? कितने बड़े वैज्ञानिक थे? फिर भी उनको नहीं था बुद्धि का अभिमान, नहीं था अपने ज्ञान का अभिमान! वे जहाँ रहते थे, उनके घर के सामने एक परिवार रहता था, उस परिवार की एक छोटी लड़की हमेशा 'आइन्स्टीन' के पास आया करती थी और गणित के 'सवाल' आइन्स्टीन से सुलझाती थी हल करती थी! आइन्स्टीन बड़े प्यार से उस छोटी बच्ची के साथ बातें किया करते थे और उसे गणित सिखाते थे! जब उस लड़की के माता-पिता ने यह बात जानी, वे स्तब्ध रह गए! 'इतने बड़े वैज्ञानिक हमारी लड़की से बात करते हैं। गणित सिखाते हैं?' वे 'आइन्स्टीन' की नम्रता के प्रशंसक बन गए। 'आइन्स्टीन' बड़े वैज्ञानिक तो थे ही, बड़े शिष्ट पुरुष भी थे। उनकी शिष्टता की प्रशंसा करने वाले में एक दिन शिष्टता अवश्य आएगी ही। प्रशंसा से शिष्टता मिलती है : ज्ञानी होने मात्र से शिष्टता नहीं आती है, ज्ञानी होने पर भी अभिमानी नहीं होना, शिष्टता है। श्रेष्ठ बुद्धिमत्ता होने मात्र से सज्जनता नहीं आ जाती, बुद्धिमत्ता होने पर भी अभिमान नहीं होना, सज्जनता है। ज्ञानी होने पर भी यदि अभिमानी है, बुद्धिमान होने पर भी गर्व करता है तो वह शिष्ट पुरुष नहीं कहलाएगा। बिना शिष्टता के, ज्ञानी हो या बुद्धिमान् हो, आत्मकल्याण की यात्रा नहीं कर सकता है। आत्मकल्याण की यात्रा में शिष्टता होना अनिवार्य For Private And Personal Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४३ २२१ है। इसलिए आचार्य श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी, शिष्ट पुरुषों के चरित्र की प्रशंसा करने का उपदेश देते हैं। प्रशंसा करने से शिष्टता प्राप्त होती है। प्रशंसा कृत्रिम नहीं होनी चाहिए, स्वाभाविक होनी चाहिए, हार्दिक होनी चाहिए। बोलो पर तोलकर : शिष्ट पुरुषों की एक और विशेषता होती है 'प्रस्तावे मितभाषित्वम्'! शिष्ट पुरुष मितभाषी होते हैं, बहुत कम बोलते हैं। जो बोलते हैं वह भी प्रसंग के अनुसार बोलते हैं। जैसा प्रसंग हो, जैसी बात हो, उसी के अनुरूप बोलते हैं....वह भी थोड़ा ही बोलते हैं। ___ जीवनव्यवहार में यह बात बहुत महत्व रखती है। ज्यादातर लोगों को बहुत बोलना पसन्द होता है। लोग बोलते ही रहते हैं। हर जगह बोलते हैं, हर बात में अपनी टाँग अड़ाते रहते हैं! जिस विषय की जानकारी हो उस विषय में बोलते हैं और जिस विषय में जानकारी नहीं होती है उस विषय में भी बोलते रहते हैं। मौन रहना उपवास करने से भी ज्यादा मुश्किल लगता है! दुनिया में ज्यादा अनर्थ, ज्यादा झगड़े....ये बहुत बोलने वाले लोग ही किया करते हैं। कहाँ बोलना, कितना बोलना, क्या बोलना...ज्यादातर लोग जानते नहीं हैं...और बोले बिना रह नहीं सकते! यह अशिष्टता है, असभ्यता है। सद्गृहस्थ को शोभा नहीं देता है। प्रस्तुत एवं प्रासंगिक बोलना सीखो : अप्रस्तुत और अप्रासंगिक बोलने से कई निरर्थक विवाद पैदा होते हैं। जहाँ मौन रहना आवश्यक होता है वहाँ बोलने से झगड़ा हो जाता है। एक लड़का है, उसको घर में या दुकान में बोले बिना चैन नहीं पड़ता है। भाई और भाभी की बात में भी वह बोलेगा! माता और पिता की बात में भी बोलेगा! परिणाम यह आया है कि वह लड़का घर में अप्रिय बन गया। घर में उसकी बात कोई नहीं सुनता.... 'मेरी बात कोई नहीं मानता! कौन सुनेगा उसकी बात? __वास्तव में, जब दूसरों की बात चलती हो, तब बिना पूछे आपको बोलना नहीं चाहिए। वैसे, बात चलती हो व्यवसाय की, उस समय आपको घरेलू बात नहीं करनी चाहिए। बात चलती हो परिवार की उस समय व्यवसाय की बात नहीं करनी चाहिए | बात चलती हो मन्दिर की, उस समय साधु की बात नहीं करनी चाहिए, या दूसरी बातें नहीं करनी चाहिए। For Private And Personal Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२२ प्रवचन-४३ जो शिष्ट-सज्जन पुरुष होते हैं वे बोलने में सावधान होते हैं, संयम रखते हैं, बहुत ही अल्प बोलते हैं यानी जितना आवश्यक होता है उतना ही बोलते हैं, प्रासंगिक ही बोलते हैं। सज्जनों की इस विशेषता की आप तभी प्रशंसा करोगे जब आपको प्रस्तुत और मितपरिमित बोलना अच्छा लगेगा। सभा में से : यदि प्रस्तुत और परिमित बोलना पसन्द है, तो फिर वह वैसा ही बोलेगा न? ___ महाराजश्री : ऐसा नियम नहीं है! पसंद है प्रासंगिक और परिमित बोलना, फिर भी आदत पड़ गई है अप्रासंगिक और बहत बोलने की आदत से लाचार मनुष्य, जो ठीक नहीं मानता हो, वैसा आचरण कर लेता है। जब परिणाम अच्छा नहीं आता है, बुरा परिणाम आता है तब जाकर उसे अपनी गल्ती महसूस होती है। परन्तु यदि यह व्यक्ति, सज्जनों के प्रास्तविक और परिमित बोलने की प्रशंसा करता रहे तो आदत से मुक्त हो सकता है। ___ कुछ भाषण करनेवाले लोग भी प्रसंग से, विषय से विपरीत बोलने लगते हैं तब श्रोता 'बोर' हो जाते हैं, भाषण का कोई अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता है। असंबद्ध प्रलाप श्रोताओं को विषयबोध नहीं करा सकता। भाषण का विषय देश की आर्थिक समस्या का...और भाषण दे मारे संतति-नियमन पर! विषय हो आत्मविकास का, भाषण कर दे आर्थिक विकास का! ऐसे वक्ताओं का भाषण लोकप्रिय नहीं बन सकता। वैसे बातूनी लोग सफल नहीं होते : अध्यापक को पढ़ाना हो इतिहास, वर्ग इतिहास का हो और पढ़ाने लगे नागरिक शास्त्र! पढ़ने का विषय चलता हो गणित का और चला जाय विज्ञान के विषय में! ऐसे अध्यापक अध्यापनकार्य में निष्फल जाते हैं। दुकान लेकर बैठा हो कपड़े की और ग्राहक के साथ बातें करे सोने-चाँदी की! व्यवसाय करता हो दवाइयों का और ग्राहक के साथ बातें करे कपड़े की! क्या चलेगा उसका व्यापार? क्या पाएगा वह संपत्ति? ___ घर पर मेहमान आये हों आपकी लड़की को देखने और आप बातें शुरू कर दो आपके व्यवसाय की, आपके वैभव की तो क्या होगा? लड़की को देखे बिना ही रवाना हो जाएंगे न? एक लड़की बड़ी उम्र तक कुँवारी रह गई...चूकि उसका पिता हमेशा लड़कों के साथ और लड़के के भाइयोंपिताओं के साथ अप्रस्तुत बात ही किया करता था। एक मित्र ने जब उसका ध्यान आकर्षित किया तब जाकर काम बना! For Private And Personal Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४३ २२३ कुछ लोगों को बोलने में समयमर्यादा का भान नहीं रहता है! वे लोग प्रस्तुत-अप्रस्तुत बोलते ही रहते हैं....सुननेवाले बेचारे 'बोर' हो जाते हैं। दूसरी दफा उसके पास जाना ही पसन्द नहीं करते। उनकी बातों पर विश्वास भी नहीं करते। अशिष्ट पुरुष विश्वासपात्र नहीं रहता, ऐसा बोलनेवाले लोग विश्वसनीय नहीं बन सकते। बात अँचती है न? अप्रस्तुत बोलना, ज्यादा बोलना, नुकसान करनेवाला है, वह बात अँच गई न? आदत से मुक्त होना है न? मुक्त हो सकोगे, 'मुझे इस आदत से मुक्त होना ही है, अप्रासंगिक बोलना नहीं है, ज्यादा बोलना नहीं है,' ऐसा दृढ़ संकल्प कर लो! संकल्प करने के पश्यात् वैसे शिष्ट पुरुषों की प्रशंसा करना शुरू कर दो। एक महर्षि ने कहा है : ‘अतिभुक्तिरतिवोक्तिः सद्यः प्राणापहारिणौ।' ज्यादा खाना और ज्यादा बोलना, तत्काल प्राणों का नाश करना है! समझे इस कथन का तात्पर्य? ज्यादा खाने से अजीर्ण हो जाय और मनुष्य मरणासन्न हो जाये! मर भी जाये! बहुत बोलने की आदत वाले को 'मैं क्या बोलता हूँ, इसका भान नहीं रहता है! होश गँवा देता है। न बोलने की बातें बोल देता है! आजकल बहुत से देशनेता....कि जो दिन में दो-चार प्रवचन देते रहते हैं....बोलते रहते हैं....ऐसी असंबद्ध बातें करते हैं....कि जब अखबार में वे बातें छपती हैं....देशनेता घबराते हैं और दूसरे दिन उसी अखबार में स्पष्टीकरण छपवाते हैं कि 'मैं ऐसा नहीं बोला था, अथवा ऐसा बोलने में मेरा इरादा यह नहीं था! वैसे मुनियों से कहना भी क्या ? कोई-कोई धर्मगुरू भी, कि जो हमेशा प्रवचन देते रहते हैं यदि जोश में होश गँवा देते है तो असंबद्ध और असत्य प्रतिपादन कर देते हैं | थोड़े दिन पूर्व एक भाई ने मुझे कहा : 'मैं बंबई गया था, वहाँ एक मुनिराज प्रवचन देते थे, मैं सुनने गया था, काफी जोर-जोर से चिल्लाकर प्रवचन देते थे....उन्होंने कहा : 'आजकल वातावरण इतना विलासी हो गया है कि एक भी स्त्री पतिव्रता नहीं हो सकती!' तो क्या यह प्रतिपादन सही है? ___ मैं तो सुनकर स्तब्ध हो गया! कैसा अविचारी प्रतिपादन था? एक भी स्त्री, उन मुनिराज की दृष्टि में पतिव्रता नहीं! मुनिराज की दृष्टि में सभी महिलाएं For Private And Personal Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४३ २२४ व्यभिचारिणी थीं। सभी महिलाओं में उनको जन्म देने वाली माता का समावेश होगा या नहीं? उनकी बहनों का समावेश होगा या नहीं? शिष्ट पुरुषों की भाषा, उनका वक्तव्य असंबद्ध नहीं होता । असंबद्ध बोलनेवाले शिष्ट पुरुष नहीं कहलाते। परन्तु किसको शिष्टता अशिष्टता की पड़ी है? कुछ अशिष्टताओंने शिष्टता के वस्त्र पहन लिये हैं! कुछ असभ्यताओं ने सभ्यता का नकाब ओढ़ लिया है। अनेक विकृतियों ने संस्कृति का लेबल लगा लिया है। प्रचार के इस युग में, 'ज्यादा बोलो....बोलते रहो....अपनी बातों का प्रचार करने के लिए ज्यादा बोलो!' यह मान्यता हो गई है। दुनिया में आज 'मौन' का अवमूल्यन हुआ है। मितभाषित्व का उपहास हो रहा है। बहुत बोलने वाले महान् माने जाने लगे हैं! इस दुनिया में रह कर, मितभाषिता का आदर्श बनाए रखना सरल तो नहीं है, फिर भी असंभव नहीं है। सभा में से : मितभाषी को तो आजकल अपने घर में भी सहन करना पड़ता है। महाराजश्री : उससे भी ज्यादा सहन करना पड़ता है अमितभाषी को! ज्यादा बोलनेवाले को! मरने का दिन आ जाता है! मितभाषिता पर विश्वास करो। आपको नुकसान तो नहीं, लाभ ही होगा। सज्जन पुरुष मितभाषी होते हैं : सज्जनों की पहचान के अनेक लक्षणों में यह एक लक्षण है कि वे मितभाषी होते हैं। जो बोलते हैं प्रास्तविक बोलते हैं। होश में बोलते हैं। स्व-पर को नुकसान न हो-वैसा सोचकर बोलते हैं। आप उनकी प्रशंसा करते हैं तो गृहस्थजीवन का चौथा सामान्य धर्म आप में आ गया समझ लें। शिष्ट पुरुषों की एक और विशेषता है अविसंवादिता। उनकी वाणी में विसंवाद नहीं होता, उनके आचरण में विसंवाद नहीं होता। होती है संवादिता। वाणी और वर्ताव में संवादिता होती है। ___ संसार में ज्यादातर लोग बोलते होते हैं कुछ, करते होते हैं कुछ! इस प्रकार जीवन जीने से मनुष्य दुःखी होता है। अशान्ति भोगता है। दुनिया की एक ऐसी चाल है कि स्वयं विसंवादी बोले, और दूसरों से संवादित वचनों की अपेक्षा रखे! विसंवादी बोलने वाले के प्रति दुनिया अविश्वास से देखती है। 'इसके बोलने पर भरोसा मत रखो, इसके बोलने का कोई ठिकाना नहीं For Private And Personal Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- ४३ २२५ है ..... कभी क्या बोलेगा, कभी क्या ! यह बोलेगा कुछ और करेगा कुछ।' दुनिया चाहती है कि आप जैसा बोलो, वैसा करो ! बात भी ठीक है! जैसा बोलें वैसा करना चाहिए! बोलने में भी संवादिता होनी चाहिए ! कभी अहिंसा की बात करें और कभी हिंसा करने का उपदेश दें, कभी सत्य का प्रतिपादन करें और कभी झूठ बोलने पर उतारू हो जायं ! कभी प्रामाणिकता की बात करें और कभी बेईमानी की उपादेयता बताएँ.... ऐसे लोग भरोसेपात्र नहीं बनते। एक सिद्धान्त नहीं होने से ऐसे लोग आफत में फँस जाते हैं । व्यापार में ऐसे लोग सफलता नहीं पा सकते। समाज में प्रियता नहीं पा सकते । धर्मक्षेत्र में तो उसका प्रवेश ही नहीं हो सकता। ऐसे लोग 'ठग' माने जाते हैं। वाणी-वर्तन में संवाद रखना सीखो : आप लोग यहाँ उपाश्रय में धर्मस्थान में आते हो, धर्मक्रियाएँकरते हो, मंदिर में जाते हो और परमात्मा के दर्शन-पूजन करते हो .... दुनिया आपको देखती है 'यह कितना अच्छा आदमी है!' आपके लिए उच्च कल्पना होती है। परन्तु जब आप बाजार में जाते हो, दुकान पर जाते हो अथवा दफ्तर में जाते हो, वहाँ आप ग्राहकों के साथ अनीतिपूर्ण व्यवहार करते हो, अन्याय करते हो, क्रूरतापूर्ण आचरण करते हो .... तब दुनिया आपको देखती है 'यह कैसा बेईमान और क्रूर आदमी है....' आपके लिए निम्न स्तर की कल्पना बनती है ! अब देखने वालों के मन में विसंवाद पैदा होता है! आपके जीवन में विसंवाद देखने को मिला! धर्मस्थानों में मंदिर में आपका रूप देखा धार्मिकता का, दुकान - दफ्तर में आपका रूप देखा शैतानियत का ! धार्मिकता और शैतानियत में संवादिता नहीं होती । धार्मिकता के साथ शैतानी का विसंवाद होता है ! धार्मिकता और बेईमानी का मेलजोल नहीं होता ! धार्मिकता के साथ मेलजोल होता है ईमानदारी का, दया और दिव्य करुणा का, न्याय और नीति का । विशेष प्रकार की धर्मक्रियाएँ करने वालों में सामान्य धर्म यदि होते हैं, सामान्य धर्मों का पालन है तो जीवन में संवादिता स्थापित होती है। विशेष प्रकार की धर्मक्रिया करने वालों के जीवन में, न्याय-नीति इत्यादि सामान्य धर्मों का पालन नहीं होता है तो विसंवादिता प्रगट होती है। ऐसे लोग न तो शान्ति पाते हैं न, ही लोकप्रियता ! केवल पैसों के लिए इतनी क्रूरता क्यों ? एक शहर में एक न्यायाधीश ने मुझे बताया था कि 'महाराजश्री आपके For Private And Personal Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- ४३ २२६ प्रवचन में जो नियमित आते हैं और आगे प्रथम पंक्ति में बैठते हैं उस सेठ ने, एक गरीब जो कि जैन है, उस पर मुकद्दमा दायर कर रखा है। सेठ उससे एक हजार रूपये माँगते हैं, वह भाई निर्धन है, रूपये वापस नहीं लौटा सकता है....सेठ ने उसका घर ले लेनेका सोचा है .... बेचारा वह आदमी रास्ते का भिखारी बन जायेगा....क्या मंदिर में और ऐसे धर्मस्थानों में आनेवाले भी दयालु नहीं बन सकते? पैसे के लिए इतनी क्रूरता ?' संवादिता : स्नेह-सद्भाव की जननी : न्यायाधीश ने उस सेठ के जीवन में विसंवाद पाया ! सेठ के जीवन में धर्मक्रिया के साथ क्रूरता देखी.... दयाहीनता देखी ! इसी का नाम विसंवाद ! यदि सेठ के जीवन में धर्मक्रिया के साथ दया- करुणा देखने को मिलती न्यायाधीश को, तो सेठ के प्रति और धर्मक्रियाओं के प्रति सद्भाव पैदा होता! संवादिता, स्नेह और सद्भाव को जन्म देती है । जो मनुष्य मंदिर नहीं जाता है, साधुपुरुषों के पास नहीं जाता है, विशेष प्रकार की धर्मक्रियायें नहीं करता है, वैसा मनुष्य यदि अनीति करता है, बेईमानी करता है, क्रूरतापूर्ण व्यवहार करता है....तो देखनेवालों के मन में विसंवाद पैदा नहीं होगा ! दुनिया समझती है कि यह आदमी तो ऐसा ही है....नहीं मंदिर में जाता, न ही धर्मस्थानों में जाता, न ही कोई धर्मक्रिया करता.... फिर तो ऐसे गलत काम करेगा ही....!' लोगों के मन में विसंवाद पैदा नहीं होगा। अधार्मिकता के साथ अन्याय - अनीति बेईमानी वगैरह पापों का मेलजोल है! संवादिता है ! जो मंदिर में नहीं जाता है परन्तु क्लबों में जाकर जुआ खेलता है, जो साधु पुरुषों के पास नहीं जाता है परन्तु नृत्यांगना के पास जाता है, जो ज्ञानामृत का पान नहीं करता है परन्तु मदिरापान करता है वैसा मनुष्य अन्याय-अनीति, क्रूरता, विश्वासघात जैसे पाप करता है....तो विसंवाद पैदा नहीं होता है। शिष्ट पुरुषों का जीवन संवादी होता है । वे कभी वाद-विवाद नहीं करते! उनको संवाद ही प्रिय होता है! संवादिता का संगीत ही उनकी जीवनवीणा में से झंकृत होता रहता है । वाद-विवादों को मिटाने की उनकी भावना बनी रहती है। क्या उनकी संवाद -प्रियता प्रशंसनीय नहीं हो सकती? यदि आपको वाद-विवाद और विसंवाद प्रिय नहीं हैं तो ही आपको संवादिता - असंवादिता प्रिय लगेगी और आप उसके प्रशंसक बनेंगे । For Private And Personal Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४३ २२७ सभा में से : हम लोगों को तो वाद-विवाद करना और विसंवादी जीवन जीने में ही मजा आता है। __महाराजश्री : मजा आता है? भले आये मजा, परन्तु वाद-विवाद और विसंवाद की बुराई का खयाल आ गया न? 'वाद-विवाद नहीं करना चाहिए, जीवन में विसंवाद नहीं होना चाहिए' यह बात अच्छी लगती है न? 'बुराई में मजा लेना अच्छा नहीं है,' ऐसा बोध हो जाय तो एक दिन वह बुराई छूट जायेगी, बुराई में मजा नहीं आएगा। शिष्ट पुरुषों की प्रशंसा करते रहने से आप में शिष्टता आयेगी ही। गलत आदमी की प्रशंसा मत करो : प्रशंसा करते समय दो बातों का खयाल रखना चाहिए | गलत व्यक्ति के सामने प्रशंसा नहीं करना! दूसरी बात है - जिस गुण की, जिस विशेषता की प्रशंसा करें उस गुण की और विशेषता की हर दृष्टि से सिद्धि करने की क्षमता रखें! संभव है कि आप जिस बात की प्रशंसा करोगे, सुनने वाले प्रतिवाद भी करेंगे! उस समय दिमाग गरम नहीं होने देना! चुप भी नहीं होना! स्वस्थता से और दृढ़ता से उस बात की उपादेयता सिद्ध करना। यदि आप में ऐसी तर्कशक्ति या समझाने की शक्ति नहीं है, तो प्रतिवाद करनेवाले को मेरे पास ले आना! शिष्टता हर समय उपादेय होती है, देश और काल के बंधन से शिष्टता मुक्त होती है। शिष्टतापूर्ण जीवन जीने का आनन्द अपूर्व होता है! शिष्टतापूर्ण आचरण स्व-पर के लिए कल्याणकारी होता है। शिष्टता का संपादन करने का उपाय कितना सरल बताया गया है? शिष्टता की मात्र प्रशंसा करते रहो। शिष्ट पुरुषों के शेष विशिष्ट गुणों का, उनके आचरणों का विवेचन आगे करेंगे। आज, बस इतना ही। For Private And Personal Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रवचन- ४३ UTA www.kobatirth.org मन का मायाजाल अजीब है.... वह आदमी को तंदुरुस्त भी बना सकता है और बीमार बनाकर मौत के मुँह में भी धकेल देता है। किसी भी संजोग में मन को कमजोर नहीं बनने देना चाहिए। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * संस्कृति हो आत्मधर्म को आधारशिला है.... इससे संस्कृति को टिकाने वाले कुलाचारों को, कुल-धर्मों को कभी भी निंदा या टीका-टिप्पणी नहीं करना । * लकोर के फकोर बनकर अंधानुकरण में मत फँस जाओ! कम से कम जिन्दगी को तो सोच-समझकर जिओ । ● आवश्यकताएँ कम करो... सादगी से जीना सीखो। फालतू और बिनजरूरी खर्चे बंद करो । ● किसी को सहायता पर जोनेवालों को व्यसनों से मुक्त होना जरूरी है। प्रवचन : ४४ २२८ For Private And Personal Use Only BROW महान् श्रुतधर आचार्यदेव श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी, 'धर्मबिंदु' ग्रन्थ के प्रारम्भ में गृहस्थजीवन का सामान्य धर्म बता रहे हैं। वे कहते है कि 'आप लोग अपने जीवन को यदि गुणमय और सुखमय बनाना चाहते हो तो गुणनिधान शिष्ट पुरुषों की प्रशंसा करते रहो! चाहे आज आप आपत्ति में अदैन्य और संपत्ति में नम्रता नहीं रख सकते हैं, आज चाहे आपका जीवन अविसंवादी नहीं है, विसंवादों से भरा हुआ है.... परन्तु आप वैसे गुणवानों की प्रशंसा करो....मुक्त मन से प्रशंसा करो.....एक दिन आएगा, जिस दिन आप गुणवान् बनोगे ! आप भी आपत्ति में धीर रहोगे और सम्पत्ति में विनम्र रहोगे। धनवान् बनने की तमन्ना वाले लोग, क्या धनवानों की प्रशंसा नहीं करते ? ज्ञानी बनने की इच्छा वाले लोग, क्या ज्ञानी पुरुषों की प्रशंसा नहीं करते ? विज्ञानी बनने की कामना वाले लोग, क्या वैज्ञानिकों की प्रशंसा नहीं करते ? प्रशंसा करने से आत्मविश्वास दृढ़ होता है । 'मैं भी ज्ञानी - विज्ञानी बन सकता हूँ.... मैं भी गुणवान् बन सकता हूँ....' । ऐसा आत्मविश्वास प्रबल बनता है। मन को कमजोर मत होने दो : स्वयं के प्रति अश्रद्धा, अविश्वास, मनुष्य को अवनति के खड्डे से बाहर नहीं Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रवचन- ४३ २२९ निकलने देता है। 'मैं तो पामर हूँ.... थोड़ा सा दुःख भी मुझे चंचल कर देता है, थोड़ा सा सुख मुझे ललचा देता है । मुझ में धीरता नहीं है.... वीरता नहीं है .... मैं इस जीवन में कभी भी आत्मविकास नहीं कर सकूँगा.... मेरा मन अस्थिर.... चंचल है.... । ' ऐसे विचार मनुष्य का पतन करते हैं, निराशा मनुष्य को घेर लेती है। अपने आपको अशक्त मानना, मनुष्य मन की बड़ी विकृति है । आप अपने मन की अगाध शक्ति को समझो! मन की शक्ति अपरंपार है। मन मनुष्य को तंदुरुस्त बना सकता है, मन मनुष्य को मौत के मुँह में फेंक सकता है। किसी भी हालत में मन को निर्बल नहीं होने देना चाहिए । कमजोर नहीं पड़ने देना चाहिए । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मगधभूमि पर युद्ध चल रहा था, चन्द्रगुप्त के साथ महामात्य चाणक्य भी युद्धभूमि पर थे, उस समय एक गुप्तचर ने आकर कहा : 'महामात्यजी, अपने सैन्य के सेनापति शत्रु के साथ मिल गये हैं और सेना भी संभवतः दगा देगी....।' पूर्ण स्वस्थता के साथ चाणक्य ने कहा : 'दूसरों को भी शत्रु के पास जाना हो तो चले जायें, केवल मेरी बुद्धि नहीं जानी चाहिए !' नंदराजा का निकंदन निकाल कर चन्द्रगुप्त को मगध सम्राट बनाने वाले चाणक्य के पास सुदृढ मन था! कभी वे निराश नहीं हुए । संकट भी आये थे, बड़ी-बड़ी समस्याएँ भी पैदा हुई थी, परन्तु उनका मन .... उनकी बुद्धि विचलित नहीं हुई थी। पहले सज्जन बनना है ... बाद में साधु : सज्जन मानव बनने का कम से कम, दृढ़ संकल्प तो होना ही चाहिए । श्रावक बनने की और साधु बनने की बात तो बहुत दूर है, सज्जन बनने की बात महत्वपूर्ण है। सज्जन बने बिना श्रावक नहीं बन सकते, सज्जन हुए बिना साधु नहीं बन सकते। हाँ, आजकल बिना सज्जनता के ही ज्यादातर श्रावक देखने को मिलेंगे! बिना सज्जनता के ही ज्यादातर साधु देखने को मिलेंगे। चूँकि संघ और समाज में मूल्यांकन भक्त श्रावकों का है और मूल्यांकन साधुओं का है! सज्जनता के अभाव में भी समाज साधु - श्रावकों को मान-सम्मान देता है। इसलिए श्रावक बन जाना.... साधु बन जाना सरल हो गया है ! सभा में से: साधु बनने से सज्जनता तो आ ही जाती होगी न ? महाराजश्री : बिना सज्जनता साधु कैसे बना जा सकता है ? साधु का वेश धारण कर लेने मात्र से क्या सज्जनता आ जाती है? सज्जनता नहीं है और For Private And Personal Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २30 प्रवचन-४३ साधु बन जाता है तो उस साधु में दुर्जनता ही बढ़ने वाली है। चूंकि आप लोग सज्जनता के पक्षपाती नहीं रहे! आप साधु और श्रावक के पक्षपाती बन गये हो। साधुता से और सज्जनता से आपको कुछ लेना देना नहीं है। साधु में साधुता न हो परन्तु अच्छा वक्ता हो अथवा तपस्वी हो....बस, आप उसके गुण गाओगे! श्रावक में जैनत्व न हो परन्तु वह यदि श्रीमन्त है अथवा सत्ताधीश है तो बस, आप उसके गुण गाते फिरोगे! फिरोगे न? सज्जनता के बिना, शिष्टता के बिना, शिष्टता के पक्षपात के बिना, धार्मिक या आध्यात्मिक नहीं बना जाता। बिना मानवता के मानव कैसे? मानवता का अनुराग, मानवता का पक्षपात हुए बिना मानव कैसे? परन्तु आजकल बिना मानवता का मानव भी स्वीकृत हो गया है! बिना सज्जनता के भी सज्जन माना जाता है! बिना साधुता के भी साधु माना जाता है! ऐसी दुनिया में जीना और शिष्टता-सज्जनता संपादन करना, कितना मुश्किल काम है? फिर भी दृढ़ संकल्प से कौनसी सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती है? 'मैं शिष्ट सज्जन बन सकता हूँ, मुझे शिष्टता प्राप्त करना है, ऐसे संकल्प के साथ, आप शिष्ट पुरुषों के सदाचरणों की प्रशंसा करना शुरू कर दो। लिया हुआ कार्य पूर्ण करो : शिष्ट पुरुषों की कुछ नयी विशिष्टता आज बताऊँगा। ये महापुरुष कोई भी अच्छा काम हाथ में लेंगे, उसे पूरा कर के ही छोडेंगे! काम हाथ में लेने से पूर्व, कार्य स्वीकार करने से पूर्व, वे शिष्टजन हर दृष्टि से सोच लेंगे! कार्य की योग्यता-अयोग्यता का, अपनी बुद्धि से और शास्त्रदृष्टि से निर्णय करेंगे। कार्य की योग्यता का निर्णय होने के बाद, 'यह कार्य मुझे करना ही है, विघ्न आयेंगे, तो भी मैं कार्य नहीं छोडूंगा...।' ऐसा सुदृढ संकल्प करते हैं और कार्य शुरू करते हैं। कार्यसिद्धि में विघ्न तो आते ही हैं! अच्छे कार्यों में तो हजारों विघ्न आयेंगे! इसलिए एक महर्षि ने कहा है - 'श्रेयांसि बहुविघ्नानि'! विघ्नों से, आफतों से शिष्टजन डरते नहीं हैं। विघ्नों पर विजय पाने के लिए, विघ्नों को कुचलने के लिए, वे भरसक प्रयत्न करते हैं। जब तक कार्यसिद्धि न हो तब तक वे प्रयत्न जारी रखते हैं। विघ्नों से डरकर, निराश हो कर कार्य छोड़ नहीं देते हैं। अधूरा कार्य छोड़ना उनके स्वभाव में ही नहीं होता! परदुःखभंजक राजा विक्रम का जीवनचरित्र पढ़ा है? वह जो कार्य हाथ में For Private And Personal Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३१ प्रवचन-४३ लेता, पूरा करके छोड़ता था....। आप लोग पढ़ोगे तो प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकोगे। दीनता और निराशा तो उसके पास भी नहीं जा सकती थी! जो कार्य उठा लिया, पूर्ण करके छोड़ने का! यह विशेषता सामान्य नहीं है, बहुत बड़ी विशेषता है। जिस व्यक्ति में यह विशेषता देखो, आप आनन्द व्यक्त करो, प्रशंसा करो। वैसे महापुरुषों के जीवन-चरित्र पढ़ो, उनके महान कार्यों की सिद्धि का वर्णन पढ़ो या....पढ़ते-पढ़ते उनके सत्व की हार्दिक प्रशंसा करते चलो! 'कैसा अपूर्व सत्व....कैसी वीरता....कैसी निर्भयता और कैसी कार्यसिद्धि? सोच विचार कर कार्य उठाओ : ज्यादातर लोग, सोचे-समझे बिना ही कार्य शुरू कर देते हैं! जब कोई छोटा-बड़ा विघ्न आया, कार्य अधूरा छोड़ देते हैं। जब इस प्रकार चार-पाँच कार्य अधूरे छूट जाते हैं, मनुष्य आत्मविश्वास खो देता है। अपनी निर्बलता को स्वीकार कर लेता है, हताश-निराश बन कर भटक जाता है। दोष होता है अपनी अस्थिरता का, निर्बलता का, निःसत्वता का, और वह दोष देता है अपने कर्मों को, अपने दुर्भाग्य को! मेरे पापकर्म उदय में आये हैं इसलिए मुझे किसी भी कार्य में सफलता नहीं मिलती....कोई कार्यसिद्धि नहीं होती। जीवनपर्यंत निराशा का रूदन करता हआ जीता है। ऐसे लोगों के जीवन में नहीं होता है उल्लास! नहीं होता है उत्साह! कैसे जीवन जीना है? तय कर लो, अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है.... सभा में से : बहुत कुछ, बिगड़ गया है...उत्साह टूट गया है....। अभी भी बाजी हाथ में है : महाराजश्री : बो बिगड़ गया है, याद मत करो। जो बिगड़ा नहीं है वह याद रखो! आप का शरीर स्वस्थ है, पाँचों इन्द्रियाँ कार्यरत हैं, आपकी बुद्धि सलामत है, फिर क्या बात है? कितना कुछ है तुम्हारे पास? __ एक भाई मेरे पास आये थे, उन्होंने कहा : मेरा तो सब कुछ नष्ट हो गया....व्यापार में सब संपत्ति गँवा दिया... 'पार्टनर' ने धोखा दिया...अब मरने के सिवाय कोई मार्ग नहीं दिखता...' मैंने कहा : 'आप शान्ति रखें। मन को विचारों से मुक्त करें, कुछ क्षणों के लिये, और मैं पूछू उसका उत्तर दें। For Private And Personal Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३२ प्रवचन-४४ मैंने पूछा : आपका शरीर नीरोगी है न? उसने कहा : 'हाँ, मेरा शरीर बिल्कुल नीरोगी है, कई वर्षों से मैंने दवाई नहीं ली है। ___ मैंने कहा : तो, एक बात लिख लो-मेरा शरीर स्वस्थ है। अब बताइये कि आपकी पत्नी है? कैसी है? उसने कहा : मेरी शादी हुए पच्चीस वर्ष हो गये, मेरी पत्नी मेरे साथ है और उसने मुझे कहा है कि मैं कभी भी किसी भी हालत में आपको छोड़ के नहीं जाऊँगी।' मैंने कहा : तो दूसरी बात लिखो : मेरी पत्नी मेरे साथ है। अब यह बतायें कि आप के संतान हैं? कितने हैं? कैसे हैं? उसने बताया : मेरे तीन सन्तान हैं, दो लड़के और एक लड़की, तीनों अच्छे हैं ओर मेरे प्रति स्नेह रखते हैं!' मैंने कहा : तो तीसरी यह बात लिखो : 'मेरे बच्चे मेरे साथ हैं।' अब यह बताओ कि आप के कोई मित्र हैं? कैसे हैं? उसने कहा : मेरे कुछ मित्र हैं और अच्छे हैं। जब मेरी सम्पत्ति चली गई, तब वे मेरे पास आये थे और मुझे मदद करने की तत्परता बताई थी...।' ___मैंने कहा : तो, यह चौथी बात लिखो : मेरे मित्र मेरे साथ हैं।' अब यह बताओ कि रहने के लिए घर और बाजार में दुकान है या नहीं? उसने तुरंत कहा : 'हाँ हाँ, घर मेरा अपना है और दुकान है किराये की।' मैंने कहा : तो, लिखो पाँचवी बात : 'मेरे पास घर और दुकान है! अब यह कहो कि 'व्यवसाय करने की बुद्धि है या नहीं?' उसने कहा : 'अवश्य! मैं दो-तीन तरह के व्यवसाय कर सकता हूँ!' मैंने कहा : तो, लिखो छछी बात : 'मेरे पास बुद्धि है!' अब कहो, कि परमात्मा के प्रति श्रद्धा है या नहीं?' ___ उसने कहा : 'रियली, आइ बिलीव इन गॉड' मैं सच कहता हूँ, मेरी श्रद्धा है परमात्मा में! ___ मैंने कहा : तो, लिखो सातवीं बात : 'मुझे परमात्मा में श्रद्धा है।' अब आपके पास क्या-क्या है, उसका 'करन्ट लिस्ट' पढ़ो : १. मेरा शरीर नीरोगी है। For Private And Personal Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रवचन -४४ २. मेरी पत्नी मेरे साथ है। ३. मेरे संतान मेरे प्रति स्नेह रखते हैं । ४. मेरे मित्र मुझे सहायता करने को तैयार हैं । मेरे पास घर और दुकान है। मेरी बुद्धि सलामत है । ७. परमात्मा में मेरी श्रद्धा है। ५. www.kobatirth.org ६. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३३ मैंने कहा : महानुभाव, इतनी सात-सात बातें आपके पास हैं, फिर मरने की बात क्यों सोचते हो? इतना सब कुछ होने पर निराशा क्यों ? अब तो चाहिए इन साधनों का सदुपयोग करने का उत्साह ! कार्यसिद्धि का दृढ़ संकल्प! परमात्मा के चरणों की शरणागति !' वह हर्ष से गद्गद् हो गया और उत्साह लिए चला गया । कार्यसिद्धि के लिए चाहिए उत्साही मन! उल्लासपूर्ण हृदय और स्थिर ....शान्त बुद्धि । शिष्ट और सज्जनों में ये बातें होती हैं उनके परिचय से, उनकी प्रशंसा से ये बातें आपके जीवन में आ सकती हैं। शिष्ट पुरुषों का एक नया परिचय है कुलधर्मों का पालन! अपनी कुलपरंपरा में जो भी परमार्थ-परोपकार की धर्मप्रवृत्ति चली आ रही हो उसका पालन शिष्ट पुरुष करते रहते हैं। मान लो कि पीढ़ी दर पीढ़ी सदाव्रत चला आ रहा हो, प्याऊ चली आ रही हो, शिष्ट पुरुष उसको बंद नहीं करेगा। हाँ, जब तक उसकी शक्ति होगी तब तक वह चलाता रहेगा । जैसे प्राचीनकाल में क्षत्रियों का कुलधर्म था शरणागत की रक्षा करने का । कुलपरम्परा में यह धर्म चलता रहता था... अभी न तो रहे वैसे क्षत्रिय और न रहा वह धर्म। कुछ कुल परम्पराओं में अतिथिसत्कार का धर्म चलता रहता था। जब तक ऐसी कुलपरम्पराओं में शिष्ट पुरुष होते रहे तब तक कुलधर्मों का पालन होता रहा, धीरे-धीरे शिष्ट पुरुषों का अभाव होता गया और कुलधर्मों का पालन भी समाप्त होने लगा। फिर भी, कहीं पर, किसी परिवार में कुलधर्मों का पालन होता हुआ दिखाई दे तो प्रशंसा करना । संस्कृति : आत्मधर्म की आधारशिला : For Private And Personal Use Only जिस कुलधर्म के पालन में हिंसा, झूठ, चोरी, दुराचार, व्यसन - सेवन इत्यादि पाप न होते हों वैसे कुलधर्म का पालन प्रशंसनीय होता है । वास्तव में Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४४ २३४ देखा जाए तो कुलधर्मों के पालन से आर्यसंस्कृति जीवंत रहती है। संस्कृति ही तो आत्मधर्म की आराधना का आधार है। इसलिए संस्कृति को टिकाने वाले कुलधर्मों की कभी निन्दा नहीं करनी चाहिए। कुलधर्मों में भिन्नता हो सकती है। सभी परिवारों के कुलधर्म समान नहीं होते, कुछ कुलधर्म समान होते हैं, कुछ भिन्न होते हैं। शिष्ट पुरुषों के जीवन की पद्धति में धर्म और संस्कृति का समन्वय होता है। कई विशिष्ट सांस्कृतिक धाराएं उनके जीवन में बहती रहती हैं। इसलिए समाज में और राष्ट्र में ऐसे शिष्ट पुरुष उच्चतम आदर्श बने हुए होते हैं, प्रेरणास्रोत बने हुए होते हैं। चाहिए अपनी गुणदृष्टि, चाहिए विशिष्टता को परखने की सूक्ष्मबुद्धि। दुर्व्यय से सदा-सर्वदा दूर रहो : शिष्ट पुरुषों की जीवनचर्या में एक विशिष्टता होती है असद्व्यय के परित्याग की। शिष्ट पुरुष तन-मन-धन का दुर्व्यय नहीं करते। दुर्व्यय और सव्यय की भेदरेखा वे जानते होते हैं। दुर्व्यय-सदव्यय को परखने की ज्ञानदृष्टि होती है उनके पास । शक्ति का दुर्व्यय रोकने से उनमें शक्ति का संग्रह होता है। वे शक्तिपुंज बनते हैं, इसलिए अच्छे कार्यों में उन्हें शीघ्र सफलता मिलती है। वे महापुरुष, फालतू और निम्न स्तर के विचार नहीं करते! गंदे विचार नहीं करते, कल्पनाजाल नहीं बुनते! इससे मन की शक्ति का दुर्व्यय नहीं होता है। फालतू और पाप विचार करने से मन की शक्ति क्षीण होती है | मन निर्बल बनता है। सत्कार्य करने में मन उल्लसित नहीं बनता। शिष्ट पुरुषों की सफलता का रहस्य यह है कि वे मन की शक्ति का दुर्व्यय नहीं करते अपितु संग्रह करते हैं। तन की शक्ति का, शारीरिक शक्ति का भी वे महापुरुष दुर्व्यय नहीं करते। निरर्थक दौड़धूप नहीं करते। निष्प्रयोजन गमनागमन नहीं करते। सोच समझकर ही वे शरीरशक्ति का उपयोग करते हैं। इसलिए जब कोई विशिष्ट-महत्वपूर्ण प्रयोजन उपस्थित होता है, तब शरीर शक्ति भरपूर मात्रा में उनके पास होती है। वे थकते नहीं हैं, शरीर में स्फूर्ति बनी रहती है। जीवन सदाचारी होने से वीर्यशक्ति का संचय होता रहता है, उससे शरीर सशक्त और स्फूर्तिवाला बना रहता है। For Private And Personal Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४४ __ २३५ धनशक्ति के दुर्व्यय से भी बचना चाहिए : धनशक्ति का, शिष्टपुरुष दुरुपयोग नहीं करते। धन भी गृहस्थ की एक बड़ी शक्ति है। उस शक्ति का दुर्व्यय नहीं करने वाले ही सद्व्यय कर सकते हैं। धन का, पैसे का दुरुपयोग और सदुपयोग किसे कहते हैं, यह तो आप जानते हो न? धन का दुर्व्यय नहीं करते हो न? धन का दुर्व्यय नहीं करने वालों के प्रति किस दृष्टि से देखते हो? ___ 'मुझे मेरी लक्ष्मी का दुरुपयोग नहीं करना है, ऐसा आपका दृढ़ संकल्प होगा तो ही आप दुरुपयोग नहीं करोगे और परिवार को भी अपनी बात समझाने में सफलता पाओगे। हाँ, परिवार को समझाना अनिवार्य है। अन्यथा आप तो दुरुपयोग नहीं करोगे परन्तु पत्नी, पुत्र, पुत्री वगैरह करते रहेंगे। आप सिनेमा देखने नहीं जायेंगे, परन्तु वे लोग जायेंगे! आप होटल में नहीं जायेंगे, वे लोग जायेंगे! आप फैशनेबल कपड़े नहीं पहनोगे, वे लोग पहनेंगे! आप दस रूपये के जूते से काम चला लोगे वे लोग सौ-दो सौ रूपये से कम कीमत वे जूते नहीं पहनेंगे। आपको बाहर जाना होगा, पैदल जाओगे या बस में जाओगे, वे लोग टैक्सी में घूमना पसन्द करेंगे। आप घर में अल्प 'फरनीचर' पसन्द करेंगे, वे लोग 'फरनीचर' से घर भर देना पसन्द करेंगे। आप सादा भोजन लेना पसन्द करेंगे, वे लोग विशिष्ट भोजन पसन्द करेंगे! बात एक आदर्श परिवार की : इसलिए, परिवार को धन का अपव्यय नहीं करने की बात, शान्ति से और तर्क से समझानी पड़ेगी। धन का सदुपयोग समझाना पड़ेगा। एक करोड़पति परिवार के निकट पन्द्रह-बीस दिन रहने का अवसर आया था। उस परिवार के दो लड़के कॉलेज जाने के लिए निकले, मैंने दोनों को देखा....मुझे सुखद आश्चर्य हुआ। उस समय तो मैं कुछ बोला नहीं, जब शाम को वे कॉलेज से वापस आये, भोजनादि से निवृत्त होकर मेरे पास आकर बैठे, मैंने उनसे पूछा'तुम हाथ पर घड़ी क्यों नहीं बांधते?' उन्होंने कहा : घड़ी की आवश्यकता ही नहीं रहती! घर में घड़ी देखकर जाते हैं, रास्ते में टावर समय बताता है और कॉलेज में घड़ी है ही! क्लास में भी घड़ी होती है! मैंने कहा : तुम्हें शौक नहीं है घड़ी बाँधने का? अथवा तुम्हारे मित्र नहीं कहते कि 'श्रीमंत होकर एक अच्छी घड़ी भी नहीं बाँधते?' दूसरे श्रीमन्त मित्रों For Private And Personal Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४४ २३६ के हाथ पर अच्छी घड़ी देखकर तुम्हारा मन नहीं होता घड़ी बाँधने का? ___ दो भाई में से एक भाई ने कहा : हमें ऐसा शौक नहीं है। शुरूआत में मित्र पूछते थे तो हमने उनको कहा था : घड़ी बांधना कोई श्रीमन्ताई का प्रतीक नहीं है! और, 'हम श्रीमन्त हैं' ऐसा दुनिया को बताने की हमें चाह भी नहीं है! बस, तभी से कोई 'हमारे' साथ घड़ी के विषय में बात नहीं करता! मैंने कहा : 'इस से, तुम कंजूस हो, वैसा 'इम्प्रेशन' नहीं बना? उन्होंने कहा : नहीं जी, कॉलेज में जब कोई अच्छा कार्य होता है, हम अच्छा डोनेशन-दान देते हैं! जैसे, गरीब विद्यार्थियों को किताबें फ्री देना, उनको आर्थिक सहायता देना....वगैरह । ऐसी प्रवृत्ति करने से कॉलेज में सभी विद्यार्थी हमारी ओर प्रेम से देखते हैं। ___ मैंने दूसरा प्रश्न पूछा : मैं देखता हूँ कि प्रतिदिन तुम दोनों भाई सिम्पलसादे वस्त्र पहनकर कॉलेज जाते हो....तुम बढ़िया...मूल्यवान् और फैशनेबल वस्त्र क्यों नहीं पहनते?' सादगी में ही शोभा अमीरी की : उन्होंने कहा : हम छोटे थे तभी से पिताजी ने हमको ये संस्कार दिये हैं! वे कहते थे 'सादगी से श्रीमन्ताई शोभती है! सादगी से जिओगे तो अच्छे कार्य करने की शक्ति बढ़ेगी। अपनी लक्ष्मी सत्कार्य करने के लिए है, अपने स्वयं के मौज-शौक के लिए नहीं है! पिताजी स्वयं सादगी से जीते हैं! और लाखों रुपये का दान देते हैं! जब दान की बात आई, मैंने बात पकड़ ली और पूछा : 'तुम्हारे पिताजी लाखों रुपये का दान देते हैं, क्या तुम लोगों को पसन्द आता है?' __ दोनों भाई हँस पड़े....और कहने लगे : 'हमें क्यों पसन्द नहीं आये? पिताजी कमाते हैं और कार्य करते हैं! हमारा नाराज होने का प्रश्न ही नहीं उठता!' एक पैसे का भी दुर्व्यय नहीं। न वे होटल में जाते थे, नही कभी बाहर का कुछ खाते | श्रीमन्त होते हुए भी फालतू खर्च नहीं। जीवन जीने की यह उत्तम पद्धति है। अन्तिम दो दशक में, अपने देश में, अपने समाज में भी फालतू अर्थव्यय बढ़ गया है। श्रीमन्त तो करते ही हैं, मध्यमवर्ग और गरीब लोग भी पैसे का दुर्व्यय कर रहे हैं। For Private And Personal Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रवचन-४४ २३७ मध्यम कक्षा के परिवार में सिनेमा देखने का मासिक खर्च कितना ? बीसपचीस रूपये तो आसानी से खर्च हो जाते हैं। बीडी-सिगरेट और होटल की चाय का खर्च कितना? मासिक पचास रूपये तो मामूली खर्च ! साबुन का खर्च कितना? घर में कितने प्रकार के साबुन चाहिए? कितने प्रकार के पावडर चाहिए? धोबी का खर्च अलग! घर में हर व्यक्ति का पॉकेट-खर्च अलग! Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इतने सारे फालतू खर्च करना और फिर चिल्लाना कि 'मध्यम कक्षा के परिवार दु:खी हैं...उनकी सहायता करना चाहिए ! उनको आर्थिक मदद देनी चाहिए!' इतना ही नहीं अब तो जुआ खेलना 'मटका' खेलना भी सामान्य हो गया है। इस प्रकार पैसे का दुर्व्यय करने वाले लोग कैसे सत्कार्य कर सकते हैं ? दुर्व्यय करते हैं, फिर भी मानने को तैयार नहीं कि 'हम दुर्व्यय करते हैं!' नहीं, वे तो मानते हैं कि 'हम सब कुछ ठीक ही करते हैं! इस जमाने में यह सब कुछ तो होना चाहिए ।' कुछ लोग तो समाज की, धार्मिक संस्थाओं की या दानवीरों की सहायता लेकर - आर्थिक सहायता प्राप्त करके मौज-मजा करते हैं! व्यसन-सेवन करते हैं! व्यसनों में डुबे हुए को सहायता कैसी ? एक गाँव में हम वर्षाकाल व्यतीत कर रहे थे । एक दिन एक ३५-४० वर्ष का युवक मेरे पास आया। उसने मुझे कहा : 'मेरी सर्विस छूट गई है, मेरी पत्नी 'प्रेगनन्ट' है, मेरे पास पैसे नहीं है, कृपा कर किसी व्यक्ति से या संस्था से मुझे कुछ आर्थिक सहायता करवाइये अथवा 'सर्विस' मिल....जाये...वैसा प्रबन्ध करवाने की कृपा करें ।' मैंने उसका नाम पता ले लिया और कहा कि 'कल आना।' वह चला गया। ३. परस्त्री का त्याग करना, ४. प्रतिदिन मंदिर जाना, मैंने उस व्यक्ति के विषय में कुछ जानकारी प्राप्त की। दूसरे दिन वह आया, बैठा। मैंने कहा : 'तुम्हें नौकरी तो मिल सकती है मासिक ३००/४०० रूपये मिल सकते हैं, परन्तु मेरी चार बातें माननी पड़ेंगी। चार प्रतिज्ञाएं लेनी होंगी!' उसके मुँह पर चिन्ता की रेखाएं उभर आई ! मैंने कहा : १. जुआ नहीं खेलना, २. शराब नहीं पीना, For Private And Personal Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३८ प्रवचन-४४ इतनी प्रतिज्ञा कर लो और कल से ही नौकरी पर लग जाओ। अपना जीवन सुधारो और परिवार का जीवन भी सुधारो।' उसने कहा : 'मैं सोचकर कल आऊँगा....।' खड़ा हुआ और चला गया! आज दिन तक वापस नहीं आया! अब आप बताइये कि, ये बातें जो नहीं मानें उसको आर्थिक सहायता करनी चाहिए? यदि आप लोग करोगे सहायता, तो उसका उपयोग क्या होगा? और, ऐसे व्यक्ति को आपने १००/२०० रूपये दे भी दिये, तो क्या करेगा? क्या परिवार के लिए खर्च करेगा? नहीं, वह पहले शराब की बोतल खरीदेगा! बाद में जुआ खेलेगा...स्वयं होटल में जाकर पेट भरेगा और जाएगा वेश्या के कोठे पर! इसलिए कहता हूँ कि आर्थिक मदद करने से पहले उन लोगों को व्यसनों से मुक्त करना होगा। पैसे का दुर्व्यय नहीं करें, वैसी स्थिति का निर्माण करना होगा। मनुष्य को सर्वप्रथम यह बोध होना चाहिए कि 'मैं लक्ष्मी का दुर्व्यय करता हूँ, मुझे नहीं करना चाहिए।' इतनी समझदारी आएगी तो ही वह शिष्ट पुरुषों की प्रशंसा कर सकेगा कि 'ये महानुभाव एक पैसे का भी दुर्व्यय नहीं करते।' प्रसन्न जीवन जीने का सही रास्ता : __ पैसे का दुर्व्यय करना भी फैशन बन गया है! सामाजिक 'स्टेटस' माना जाता है! 'आप लोग 'पिक्चर' देखने नहीं जाते? आप लोग 'केन्टीन' में चाय नहीं पीते? आप लोग ऐसे-ऐसे कपड़े नहीं पहनते?....आप लोग घर में 'फ्रीज' नहीं लाते?....रेडिओ नहीं बजाते? टी. वी. नहीं है आपके घर में? अभीतक आपने 'डायनिंग टेबल' नहीं बसाया? अभी तक घर में नौकर नहीं? सब काम आप स्वयं करते हो?....' पैसे के दुर्व्यय को फैशन मानने वाले लोग ऐसी बातें करके अपना गौरव बताते फिरते हैं! दुर्व्यय नहीं करने वालों को हीन भाव से देखते हैं! ऐसे लोग शिष्ट पुरुषों की प्रशंसा कैसे करेंगे? वे तो उपहास करेंगे!' यह तो कंजूस है...अठ्ठारहवीं शताब्दी में जीता है 'ऑर्थोडोक्स' है...' ऐसा-ऐसा बोलेंगे! ___शिष्ट पुरुषों का लक्ष्य होता है आत्महित का। लक्ष्य होता है मन की प्रसन्नता का और तन की पवित्रता का। इस लक्ष्य से जीवन जीने वाले शिष्ट पुरुष, कम से कम आवश्यकताओं से जीवन जीने की पद्धति अपनाते हुए जीते हैं। वे किसी का अनुकरण नहीं करते। वे चलते हैं ज्ञानी पुरुषों के मार्गदर्शन के अनुसार । देखा-देखी और अन्ध-अनुकरण उनको कतई पसन्द नहीं आता। For Private And Personal Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४४ २३९ वास्तव में यह सच्चा मार्ग है प्रसन्नतापूर्ण जीवन जीने का | मनुष्य ज्यों-ज्यों भौतिक-वैषयिक सुख के साधन बढ़ाता जाता है, उसकी मनःशान्ति नष्ट होती जाती है। उसके पवित्र विचार नष्ट होते जाते हैं। वह अनेक उलझनों में फँसता जाता है। चिन्ता, सन्ताप और उद्वेग से वह भर जाता है। कोई नहीं बचा सकता ऐसे लोगों को। यदि आप लोग समझ जाओ और दुर्व्यय बंद कर दो संपत्ति का, तो बच जाओगे अनेक अनिष्टों से। तब तुम महसूस करोगे.... 'तन-मन और धन का अपव्यय नहीं करना चाहिए, इस सत्य को स्वीकार कर लो, तभी आप शिष्ट पुरुषों की प्रशंसा करोगे । आपका भी आदर्श बनेगा कि 'मुझे अपव्यय से बचना है।' कभी आप दुर्व्यय कर दोगे अथवा परिवार के लोग अपव्यय कर देंगे, तो आपको बुरा लगेगा | मैंने अच्छा नहीं किया, फालतू खर्च कर दिया....।' अफसोस होगा। __ 'मोर्डन' बनने का मोह छोड़ दो। दुनिया का अन्ध अनुकरण छोड़ दो। 'सिनेमा' के पर्दे पर जो कुछ देखते हो, उसका अनुकरण करना छोड़ दो। और, यदि महिलाएँ यह बात मान जायें, उनके हृदय में यह बात अँच जाये तो आपके परिवारों में बहुत अच्छा परिवर्तन आ जाय । लक्ष्मी का दुर्व्यय रुक जाये। सज्जनों का 'दुर्व्यय त्याग' आपको आकर्षित करता रहेगा। __शिष्टचरित प्रशंसनम' के विषय में विस्तृत विवेचन इसलिए कर रहा हूँ चूंकि आपको शिष्ट-सज्जन बनाना है! सज्जनों की जीवन पद्धति का परिचय इसलिए करा रहा हूँ, चूंकि आप वैसी जीवन पद्धति को पसंद करें, वैसे जीवन के प्रशंसक बनें। शिष्ट पुरुषों के चरित्र की दूसरी विशिष्ट बातें आगे करूँगा। आज, बस इतना ही, For Private And Personal Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रवचन -४४ UTAS www.kobatirth.org अच्छा विचार करना सरल बात है... अच्छा कार्य करना उतना सरल नहीं है! अच्छा कार्य करने को ताकत न हो तो भी अच्छे कार्य को प्रशंसा तो करनी ही चाहिए। अच्छे कार्य के प्रति हमेशा पक्षपाती बने रहो! Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरएक कार्य के लिए उचित समय और उचित स्थान होता है। इस औचित्य का ज्ञान आदमी को होना जरूरी है। प्रमाद- आलस- लापरवाही ये सब आदमी के बड़े शत्रु हैं। आत्मविकास को यात्रा के अवरोधक है। आत्मविकास के लिए प्रमाद का त्याग एवं सतत पुरुषार्थ करना ही होगा ! महत्वपूर्ण कार्य को छोड़कर इधर-उधर की बातों में भटकने वाले क्या खाक कुछ कर गुजरेंगे? प्रवचन : ४५ २४० For Private And Personal Use Only YOU महान् श्रुतधर आचार्यदेव श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी ने स्वरचित 'धर्मबिन्दु', ग्रन्थ में सर्वप्रथम गृहस्थ का सामान्य धर्म बताया है । चौथा गृहस्थधर्म बताया है : शिष्ट पुरुषों के चरित्र की प्रशंसा का । शिष्ट पुरुषों का सच्चरित्र कैसा होता है, वह विस्तार से मैं इसलिये बता रहा हूँ, ताकि आपको शिष्ट पुरुषों के चरित्र का ज्ञान हो और आप उसकी प्रशंसा कर सकें । प्रशंसा करते-करते आप भी वैसे शिष्ट पुरुष बन जायें! कभी, मान लो कि वे गुण आप में नहीं आ पाये, तब भी उन गुणों का पक्षपात आप में प्रस्थापित होगा और भवान्तर में वे गुण आप में अवश्य आएंगे । प्रशंसा का पक्षपात संस्कारप्रद : आप इस सिद्धान्त को अच्छी तरह समझ लेना । मनुष्य जिस बात की प्रशंसा करता रहता है, उस बात का पक्षपात उसके मन में दृढ़ होता जाता है। जिस बात का पक्षपात हो जाता है, उसके गाढ़ संस्कार आत्मा में स्थापित होते हैं और ये संस्कार आत्मा के साथ जन्मान्तर में चलते हैं! जन्मान्तर में वे संस्कार मनुष्य में प्रकट होते हैं। संभव है कि सभी अच्छी बातें वर्तमान जीवन में न भी आ पायें, परन्तु Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४४ २४१ अच्छी बातों का पक्षपात तो हृदय में हो सकता है। जो मनुष्य दान नहीं दे सकता है वह दान धर्म का पक्षपाती तो बन सकता है! ब्रह्मचर्य का पालन जो नहीं कर सकता है वह ब्रह्मचर्य का प्रशंसक तो बन सकता ही है! न्याय-नीति प्रमाणिकता का पालन नहीं कर सकने वाला मनुष्य भी न्याय-नीति और प्रमाणिकता का पक्षपाती तो जरुर बन सकता है। सभा में से : जिस बात का पक्षपात हो उस बात का पालन क्यों नहीं होता है... इसके पीछे कारण क्या है? ___ महाराजश्री : ऐसा नियम नहीं हो सकता कि जिस बात का पक्षपात हो उसका पालन होगा ही! नहीं भी हो सकता है। पक्षपात वैचारिक भूमिका है, पालन कर्तव्य की भूमिका है। वैचारिक भूमिका से कर्तव्य की भूमिका बढ़कर होती है। कर्तव्य की भूमिका निभाने में विशेष शक्ति अपेक्षित होती है। अच्छा विचार करना सरल है, अच्छा काम करना मुश्किल होता है। जिसे अच्छे काम करने की शक्ति न हो, उसे अच्छे काम की प्रशंसा तो करनी ही चाहिए, उसे अच्छे काम का पक्षपात तो होना ही चाहिए | प्रश्न : काम बुरा करता हो और विचार अच्छा करता हो....तो क्या फायदा? उत्तर : बहुत बड़ा फायदा है! वास्तव में यदि वह विचार अच्छे करता है तो एक दिन वह बुरा काम छोड़ देगा! बुरे काम छूट जायेंगे! यह फ़ायदा क्या कम है? इसलिए उत्तम पुरुषों के सत्कार्यों की प्रशंसा करते रहो। ___सज्जन जो भी कार्य करते हैं, उचित स्थान पर करते हैं। हर काम करने के उचित स्थान होते हैं। जिस स्थान पर जो कार्य करना हो उसी स्थान पर वह कार्य करना चाहिए। जीवन-व्यवहार में क्षेत्र और काल का महत्व होता है। हर कार्य का उचित समय और उचित स्थान होता है। मनुष्य को इस औचित्य का ज्ञान होना चाहिए | स्थान का औचित्य भी अनिवार्य : शिष्ट पुरुष कभी बाजार में खड़े खड़े नहीं खायेंगे! बाजार में किसी से झगड़ा नहीं करेंगे। रास्ते में खड़े-खड़े हँसी-मजाक नहीं करेंगे। रास्ते में परायी औरत से ज्यादा बातें नहीं करेंगे। ये सारी क्रियाएँ करने के लिए बाजार या रास्ता अनुचित स्थान है। खाना खायेंगे लेकिन घर में बैठकर! किसी से दो कटु शब्द कहेंगे परन्तु मकान में, हँसी-मजाक भी करेंगे परन्तु घर में! For Private And Personal Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४२ प्रवचन-४४ घर में भी उचित स्थान का खयाल रखना आवश्यक होता है। पत्नी को उपालंभ देना है, बच्चों की उपस्थिति में नहीं देना चाहिए। जब घर में बच्चे नहीं हो तब जो उपालंभ देना हो, दे सकते हो। वह भी, सारे पड़ोसी इकट्ठे हो जायें वैसे शब्दों में नहीं! घर की चार दीवारी के बाहर आपकी आवाज नहीं जानी चाहिए। युवान पुत्र पुत्री को गम्भीर बात कहनी है तो एकान्त में कहो। दूसरों के सामने, मित्रों के बीच या घरवालों के बीच में उनको उपालंभ मत दिया करो। किसी को उपालंभ देना, एक क्रिया है। वह क्रिया उचित स्थान पर होनी चाहिए। जो क्रिया गुप्त स्थान में करने की होती है उस क्रिया को प्रकट नहीं करना चाहिए। जो क्रिया प्रकट में करने की होती है, उसे गुप्त स्थान में नहीं करना चाहिए। बुद्धिमान वैसे शिष्ट पुरुष, स्थान का औचित्य समझ कर हर क्रिया करते हैं। यदि आप नहीं करते हो तो उनकी प्रशंसा तो कर सकते हो न? बम्बई-अहमदावाद-दिल्ली जैसे बड़े शहरों में, जहाँ हजारों परिवारों को एक-एक कमरे में ही पारिवारिक जीवन जीना होता है वहाँ स्थान की मर्यादाओं का पालन प्रायः नहीं हो पाता है। सारी क्रियायें एक ही कमरे में करने की होती हैं! स्त्री-पुरुष की मर्यादा नहीं रहती, माता-पिता और संतानों की मर्यादा नहीं रहती। बच्चों को नहीं देखने योग्य दृश्य दिखाई देते हैं और उनके मन में विकृतियाँ प्रविष्ट हो जाती हैं | ग्राम्य संस्कृति की आज हो रही उपेक्षा : सभा में से : क्या करें? आजीविका के लिए बड़े शहरों में जाना पड़ता है, गाँवों में तो व्यापार-धंधा रहा ही नहीं। महाराजश्री : क्या आज मनुष्य को आजीविका की ही इच्छा है? जिनको आजीविका का प्रश्न नहीं है, क्या वे लोग शहर छोड़कर गाँव में नहीं लौट सकते? नहीं, आज हर आदमी को धनवान बनना है! हर व्यक्ति को अल्प मेहनत से ज्यादा धन कमा लेना है। शहरों में रहकर मौज-मजा करना है। ग्राम्य जीवन पसन्द ही किसको है? शहरों की विकृतियाँ पसन्द हैं, ग्राम्य जीवन की संस्कृति अब उपेक्षित हो गई है। क्षेत्र-काल की मर्यादाओं का पालन, बड़े शहरों में असंभव सा बन गया है। या तो आप लोग, जिनको अब आजीविका कमाने की चिन्ता नहीं है, शहरों को छोड़ो अथवा शहरों की विकृतियों के भोग बनकर मानव जीवन को बरबाद For Private And Personal Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४४ २४३ होते देखते रहो। धनवान बनने की तीव्रलालसा में पागल बने हुए आप लोगों का इन्सान बनना बड़ा विकट प्रश्न बन गया है। धनवान बनने की धुन से क्या बन सकोगे? यह धुन भूत-पिशाच से भी ज्यादा भयानक है। लाखों करोड़ों रुपये मिल जाने पर भी इस धुन से मुक्त होना मुश्किल है। काफी सोच समझ कर ज्ञानदृष्टि के प्रकाश में धनसंपत्ति की असारता को हृदयस्थ कर इस धुन से छुटकारा पा लो। धनवान बनने की धुन से मुक्त बनो : धनवान बनने की धुन से छुटकारा पाने वाला ही मानव जीवन के शृंगारभूत इन सामान्य धर्मों का पालन कर सकता है। करना है पालन? जीवन को गुणों के पुष्पों से सजाना है न? गुणों के सुवासित पुष्पों से सुशोभितजीवन का जो आनन्द, जो प्रसन्नता आप चाहते हो वह आनन्द, वह प्रसन्नता आपको ‘एयरकंडीशन्ड' बंगले में भी नहीं मिल सकेगी। यह बात आप के हृदय में अँचनी चाहिए। गुणमय जीवन जीने का आपका सदृढ़ संकल्प होना चाहिए। ___ शिष्ट पुरुषों का प्रशंसा करने योग्य एक आचरण है 'प्रधानकार्ये निर्बंधः' । कार्य तो अनेक होते हैं, परन्तु कुछ कार्य सामान्य होते हैं, कुछ कार्य महत्त्वपूर्ण होते हैं। कुछ कार्य तत्काल करने के होते हैं, कुछ कार्य नहीं छोड़े जा सकते। शिष्टपुरुषों की ऐसी प्रज्ञा होती है, बुद्धि होती है कि वे हर कार्य की गौणता-प्रधानता का विवेक कर सकते हैं और कार्यसफलता प्राप्त सकते हैं। ___जब अनेक कार्य एक साथ उपस्थित हो जाते हैं तब किस कार्य को मुख्यता देना, किस कार्य को महत्व देना, यह विवेक पर निर्भर करता है। कार्य की अग्रता पर श्री राम का दृष्टांत : रामायणकाल में, वानरद्वीप पर एक दिन ऐसी ही घटना बन गई! वानरद्वीप का अधिपति था सुग्रीव | सुग्रीव की पटरानी थी तारा। राजकुमारी तारा के साथ शादी करना चाहता था विद्याधरकुमार साहसगति। जबकि तारा की शादी हो गई सुग्रीव के साथ, तब साहसगति सुग्रीव को दुश्मन मानने लगा। सुग्रीव साहसगति से ज्यादा बलवान था, इसलिए साहसगति तारा का अपहरण करने में समर्थ नहीं था, परन्तु उसके हृदय में तो तारा के प्रति प्रबल राग बना हुआ था। किसी भी तरह तारा को पाने की उसकी तीव्र इच्छा थी। For Private And Personal Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४५ २४४ __ ताकत से तो सुग्रीव का सामना करना उसके बस में नहीं था। साहसगति ने विद्यासिद्धि करने का निर्णय किया | वह हिमवंतगिरि की गुफा में जा बैठा । उसने 'प्रतारिणी' विद्या की साधना शुरू की। कुछ समय की साधना के बाद विद्या सिद्ध हुई। वह खुशी के मारे झूम उठा । अज्ञानी जीव जब कोई एकाध कार्य सिद्ध हो जाता है तब मान लेता है कि 'अब मेरे सभी कार्य सिद्ध हो गये!' उसको कर्मों की कुटिलता का भान नहीं होता है....कि नैया किनारे पर भी डूब सकती है! 'प्रतारिणी' विद्या के सहारे तारा को प्राप्त करना, साहसगति को आसान लगा....वह वानरद्वीप पर जा पहुंचा। __उसने सुग्रीव का रूप कर लिया। रूप परावर्तन करने की विद्या उसने पा ली थी। वह राजधानी किष्किन्धा के उद्यान में जा पहुँचा। उसने देखा कि सुग्रीव बाह्य उद्यान में क्रीड़ा करने गया है, इस अवसर का उसने लाभ उठाया। उसने नगर में प्रवेश कर दिया। नगर-रक्षकों की दृष्टि में वह सुग्रीव ही था! वह सीधा राजमहल में पहुँचा। राजमहल के रक्षकों ने भी सुग्रीव को प्रणाम किया और नतमस्तक होकर मार्ग दे दिया । नकली सुग्रीव ने तो सीधा अन्तःपुर का रास्ता लिया कि जहाँ तारा रानी थी! अन्तःपुर के रक्षकों ने नकली सुग्रीव को अचानक बेसमय अन्तःपुर के द्वार पर देखा....उनको आश्चर्य हुआ....उन्होंने प्रणाम करके कहा : अभी हम महारानी को आपके पधारने की सूचना देकर आते हैं आप यहीं प्रतीक्षा करें! रक्षकों ने अन्तःपुर में जाकर तारा रानी से कहा : 'महाराजा द्वार पर पधारे हैं!' तारा रानी स्नान करने जा रही थी....उसको आश्चर्य हुआ, परन्तु उसने कहा : महाराजा को कहो कि मैं स्नानादि से निवृत्त होकर, द्वार पर स्वागत करने आती हूँ| असली नकली सुग्रीव : __ रक्षकों ने नकली सुग्रीव को कहा : 'महारानी स्नानादि से निवृत्त होकर स्वयं स्वागत के लिए द्वार पर आ रही हैं, आप यहाँ प्रतीक्षा करने की कृपा करें।' नकली सुग्रीव के मन में तारा से मिलने की तीव्र उत्कंठा थी परन्तु क्या करें? राजमहल की रीत-रसमों का आदर करना आवश्यक था! वह अन्तःपुर के द्वार पर टहलने लगा। ___ उधर नगर के द्वार पर बड़ी गड़बड़ी मच गई। सच्चा सुग्रीव बाह्य उद्यान में क्रीड़ा करके वापस लौटा तो नगर के द्वार पर नगररक्षकों ने उसको रोका। 'महाराजा सुग्रीव तो कभी के नगर में पधार गये हैं, आप दूसरे सुग्रीव कहाँ से पधार गये?' सुग्रीव को बड़ा आश्चर्य हुआ....। उसने कहा : 'सच्चा सुग्रीव For Private And Personal Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४५ २४५ मैं हूँ, मेरे पहले यदि कोई सुग्रीव नगर में गया है तो वह नकली है।' नगररक्षक द्विधा में पड़ गये। दोनों सुग्रीव एक समान थे! असली और नकली का भेद करना, उनके लिए मुश्किल काम था। द्वाररक्षकों ने सुग्रीव को नगर में प्रवेश नहीं करने दिया और शीघ्र ही राजमहल में जाकर युवराज चन्द्ररश्मि को परिस्थिति से परिचित किया। मंत्रीमंडल को भी सावधान कर दिया। किष्किन्धा में दो सुग्रीव! सब के सामने विकट प्रश्न पैदा हो गया । युवराज चन्द्ररश्मि ने सोचा : कौन असली सुग्रीव है और कौन नकली सुग्रीव है, इसका निर्णय करना एक कार्य है, दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य है किसी भी सुग्रीव को अन्तःपुर में प्रवेश करने से रोकना! तीसरा काम है असली-नकली सुग्रीव की पहचान कर सके, ऐसे ज्ञानी पुरुष की खोज करना। अन्तःपुर की सुरक्षा प्रमुख कर्तव्य था : उसने इन कार्यों में सर्वप्रथम महत्त्व दिया अन्तःपुर की रक्षा करने का । उसने सेनापति से कहा : आप नगर के द्वार पर जाकर उस सुग्रीव को वहीं पर रोको | मैं अन्तःपुर के द्वार पर खड़ा रहूँगा, किसी भी सुग्रीव को अन्तःपुर में प्रवेश नहीं करने दूंगा। मंत्रीमंडल को उसने कहा : आप ऐसा उपाय सोचो कि शीघ्र असली-नकली सुग्रीव का भेद खुल जाये! देखो, चन्द्ररश्मि की कार्यक्षमता! सभी कार्यों में प्रधान कार्य उसने देखा अन्तःपुर की रक्षा का और वह कार्य किसी दूसरे को नहीं सौंपा, वह स्वयं उस कार्य को करने के लिए चल पड़ा। चन्द्ररश्मि, वानरद्वीप का सर्वश्रेष्ठ योद्धा था, अजेय पराक्रमी पुरुष था। वीर वाली का वह पुत्र था। सुग्रीवने भतीजे को युवराज का पद दिया था। चन्द्ररश्मि शस्त्रसज्ज बनकर शीघ्र ही अन्तःपुर के द्वार पर पहुँच गया और अन्तःपुर के रक्षकों को सावधान कर दिया । सैनिकों ने अन्तःपुर को चारों ओर से घेर लिया। नकली सुग्रीव इस नयी आफत को देखकर बौखला उठा। इतने में महारानी तारा अन्तःपुर के द्वार पर आयी, उसने द्वार पर शस्त्रसज्ज चन्द्ररश्मि को खड़ा देखा....! उसको आश्चर्य हुआ, पूछा : 'चन्द्र! बेटा तू यहाँ और शस्त्रसज्ज होकर? क्या बात है?' चन्द्ररश्मि ने तारा रानी को परिस्थिति बतायी और कहा : आप अन्त:पुर के गुप्त कक्ष में चली जाइये । मैं यहाँ खड़ा हूँ, आप निश्चित रहें।' तारा रानी असमंजस की स्थिति में अन्तःपुर के गुप्त कक्ष में चली गई। For Private And Personal Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४५ २४६ नकली सुग्रीव अन्तःपुर में प्रवेश करने के लिए आगे बढ़ा | चन्द्ररश्मि ने उसको रोका | सुग्रीव के कहा : 'मैं ही सच्चा सुग्रीव हूँ, मैं ही अन्तःपुर में जाने का अधिकारी हूँ।' चन्द्ररश्मि ने कहा : 'आप सच्चे सुग्रीव हैं या नगर के द्वार पर खड़े हुए सुग्रीव सच्चे हैं - इस बात का जब तक निर्णय न हो तब तक आप धैर्य धारण करें।' नकली सुग्रीव चन्द्ररश्मि के साथ युद्ध करने तत्पर हो गया, चन्द्ररश्मि ने उसको वहाँ से हटाया। ___ परन्तु मंत्रीमंडल के लिए असली-नकली सुग्रीव का भेद करना अशक्य हो गया। सैनिक दो विभाग में बंट गये। लोग भी दो विभाग में बंट गये। दोनों सुग्रीव के पक्षकारों के बीच युद्ध प्रारंभ हो गया। किष्किन्धा नगरी की गलीगली में युद्ध होने लगा। मंत्रीमंडल चन्द्ररश्मि के पास पहुँचा | चन्द्ररश्मि ने कहा : जब तक असली-नकली सुग्रीव का भेद नहीं खुलेगा, आन्तरिक विग्रह होने वाला ही है | आप भेद को दूर करने का प्रयत्न करें, मैं यहाँ अंतःपुर से हटने वाला नहीं हूँ। ___ जो असली सुग्रीव था, अपने नगर की और सेना की दुर्दशा देखकर रो पड़ा | दो सुग्रीवों के बीच भयानक युद्ध हुआ परन्तु कोई किसी को हरा नहीं सका.... | मामला बड़ा पेचीदा बन गया । नकली सुग्रीव पुनः अन्तःपुर के द्वार पर पहुँचा। चन्द्ररश्मि ने उसको रोका। नकली सुग्रीव अत्यन्त क्रोध से चन्द्ररश्मि के साथ युद्ध करने लगा। चन्द्ररश्मि ने नकली सुग्रीव के सारे शस्त्र तोड़ दिये और उसे जमीन पर पटक दिया। उसके सीने पर कटारी रख दी और कहा : 'मैं इसलिए तुझे जिन्दा छोड़ता हूँ....चूकि तू यदि असली सुग्रीव हो, तो अनर्थ हो जाय तेरी मौत से । परन्तु यदि दूसरी बार अन्तःपुर में प्रवेश करने की कोशिश करेगा तो जिन्दा नहीं रहेगा।' नकली सुग्रीव वहाँ से भागा और असली सुग्रीव के पास पहुँचा | असली सुग्रीव को घेर कर किष्किन्धा का सेनापति सेना के साथ खड़ा था । नकली सुग्रीव अपनी छावनी में पहुँच गया। सुग्रीव की सहायता के लिए श्रीराम : __ असली सुग्रीव ने, इस संकट से मुक्त होने के लिए श्री हनुमानजी को बुलावा भेजा। हनुमानजी आये। उन्होंने दोनों सुग्रीवों को देखा! वे भी उलझन में फँस गये। हनुमानजी देखते रहे और नकली सुग्रव ने असली सुग्रीव को बहुत पीटा....। हनुमानजी चले गये। असली सुग्रीव बड़ा अफसोस करने लगा। वह अपने मित्रों को याद करने लगा.... उसको खर विद्याधर याद For Private And Personal Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- ४५ २४७ आया। परन्तु खर विद्याधर तो लक्ष्मणजी के द्वारा युद्ध में मारा गया था। सुग्रीव के दिमाग में अचानक विचार कौंधा ! श्री राम-लक्ष्मण ने खर विद्याधर को मार कर, विराध को पाताल लंका का राजा बनाया है.... सुना है रामलक्ष्मण जैसे पराक्रमी हैं, वैसे दयालु भी हैं! यदि वे यहाँ पधारें तो मेरा संकट टल सकता है। सुग्रीव ने तुरन्त ही सेनापति को बुलवाया और श्रीराम-लक्ष्मण के नाम सन्देश देकर, उसको पाताल लंका भेजा । श्री राम-लक्ष्मण सीताजी के अपहरण हो जाने के बाद, विराध के साथ पाताल लंका गये थे और वहीं पर रुके थे । विराध सीताजी की खोज करवा रहा था, परन्तु सीताजी का पता नहीं मिल पा रहा था । सुग्रीव का सेनापति पाताल लंका पहुँचा । उसने विराध को सुग्रीव का संदेश दिया, विराध ने रामचन्द्रजी को सुग्रीव की परिस्थिति कह सुनायी । श्री राम ने किष्किन्धा जाने की अनुमति प्रदर्शित की। महापुरुषों का यह स्वभाव होता है.... जब किसी का दुःख देखते हैं, किसी की आपत्ति देखते हैं, उसकी सहायता करने तत्पर हो जाते हैं । उस समय वे अपना दुःख भूल जाते हैं। ‘परोपकार परायणता' का संगीत महापुरुषों के श्वासोच्छ्वास में सुनायी पड़ता है । सुग्रीव का कोई परिचय श्री राम को नहीं था, विराध ने सुग्रीव का परिचय दिया, उसकी आपत्ति कह सुनायी और श्री राम वानरद्वीप पर जाने को तैयार हो गये। सेनापति किष्किन्धा पहुँचा और सुग्रीव को समाचार दिया । सुग्रीव हर्ष से गद्गद् हो गया। शीघ्र विमान लेकर पाताल लंका पहुँचा और श्री राम के चरणों में नमन किया । जरा भी विलंब किये बिना सुग्रीव के साथ श्रीरामलक्ष्मण विमान में बैठ गये । विराध भी साथ चला। रास्ते में विराध ने सुग्रीव को सीताजी के अपहरण की बात कह सुनायी और सीताजी की खोज करने की बात कही। श्री राम ने विराध को वापस पाताल लंका भेज दिया । विमान किष्किन्धा के बाह्य प्रदेश में उतरा । श्रीराम ने प्रत्यक्ष दो सुग्रीवों को देखा! दोनों अपने आपको सच्चा सुग्रीव बताने लगे। श्रीराम ने क्षणभर सोचा और तुरन्त अपना वज्रावर्त धनुष उठाया । धनुष का ऐसा टंकार हुआ कि सारी किष्किन्धा स्तब्ध रह गई...! साहसगति की 'प्रतारिणी' विद्या टिक नहीं सकी । विद्याशक्ति नष्ट हो गई.... साहसगति की पोल खुल गई। असली-नकली सुग्रीव का भेद खुल गया.....। श्रीराम अत्यंत रोषायमान हुए और तीर मार कर साहसगति को यमसदन में पहुँचा दिया। For Private And Personal Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४५ २४८ सुग्रीव के आनन्द की सीमा नहीं रही। वह श्रीराम के चरणों में गिर पड़ा। श्रीराम-लक्ष्मण के साथ सुग्रीव राजमहल में आया। चन्द्ररश्मि भी श्रीरामलक्ष्मणजी के पास पहुँचा और चरणों में प्रणाम किया। सुग्रीव ने चन्द्ररश्मि का परिचय श्रीराम को दिया और उसने किस तरह अन्तःपुर की रक्षा की, बात बतायी। श्रीराम ने चन्द्ररश्मि को बहुत-बहुत धन्यवाद दिया और कहा : सब से श्रेष्ठ कार्य तुमने किया है। तुम्हारी कार्यक्षमता अद्भुत है। सीताजी की खोज : प्रमुख कार्य : जब सुग्रीव ने श्री राम के चरणों में बैठकर कहा : 'हे पूज्य, आपके उपकारों का मैं कभी बदला नहीं चुका सकता हूँ, फिर भी मुझे आपकी सेवा का अवसर प्रदान करें।' श्री लक्ष्मणजी ने कहा : 'सुग्रीव, इस समय सीताजी की खोज करना ही हमारा सब से बड़ा कार्य है।' सुग्रीव ने कहा : 'कृपानाथ, आप यहाँ बिराजें, मैं सीताजी का पता हर कीमत पर लगा के रहूँगा। आप ही अब वानरद्वीप के मालिक हैं, मैं तो आपका अनुचर हूँ।' श्री रामचन्द्रजी ने किष्किन्धा के बाह्य उद्यान में रहना पसन्द किया । सुग्रीव ने बाह्य उद्यान को नन्दनवन-सा बना दिया। श्री राम की सेवा में अनेक कुशल सेवकों को नियुक्त कर दिया और सुग्रीव वहाँ से पहुँचा अपने अन्तःपुर में तारारानी के पास। संसारी जीवों का यह प्रायः स्वभाव होता है कि बहुत दुःख सहने के बाद जब सुख मिलता है वह सुख में डूब जाता है! दुःख में बने साथियों को भी भूल जाता है! सुग्रीव दिनरात तारारानी के प्रेम में डूब गया! वह श्री राम-लक्ष्मणजी को भी भूल गया! सीताजी का शोधकार्य भी भूल गया। सुग्रीव अपने महत्त्वपूर्ण कार्य को भूल गया! प्रधानकार्य के प्रति उसका ध्यान नहीं रहा। उधर श्री राम और लक्ष्मण, सुग्रीव की प्रतीक्षा करते दिन गुजारते रहे। सीताजी की खोज का कोई समाचार नहीं मिलने से वे उद्विग्न होने लगे। लक्ष्मणजी को सुग्रीव के प्रति तीव्र रोष पैदा हुआ। 'सुग्रीव नमकहराम है, अपना काम हो गया, अब वह क्यों हमारा ध्यान रखेगा? परन्तु मैं उससे मिलूँगा....।' For Private And Personal Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४९ प्रवचन-४५ लक्ष्मणजी की गर्जना : लक्ष्मणजी ने श्रीराम के सामने अपना गुस्सा व्यक्त किया । और श्रीराम की अनुमति लेकर लक्ष्मणजी पहुँचे सुग्रीव के राजमहल में | महल में प्रविष्ट होते ही उन्होंने गर्जना की : 'कहाँ है सुग्रीव?' राजमहल में घबराहट फैल गई। अन्तःपुर के रक्षकों ने अन्तःपुर में जाकर सुग्रीव को लक्ष्मणजी के आगमन के समाचार दिये । सुग्रीव कांप उठा। उसको तुरन्त अपनी गलती खयाल में आ गई। वह दौड़ता हुआ आया और लक्ष्मणजी के सामने हाथ जोड़कर नतमस्तक होकर बोला : 'हे क्षमानिधि, मुझे क्षमा कर दो, मेरा बहुत बड़ा प्रमाद हो गया है....।' परन्तु ये तो लक्ष्मणजी थे! क्रोध से वे लाल लाल हो गये थे... सुग्रीव का तिरस्कार करते हुए : 'रे दुर्जन, तेरा काम हो गया...बस, बैठ गया अन्तःपुर में... दिया हुआ वचन भूल गया? क्या साहसगति के पीछे तुझे भी यमसदन में जाना है? अभी तक सीताजी की खोज तूने चालू भी नहीं की है और हम तेरे भरोसे यहाँ बैठे हैं...।' सुग्रीव लक्ष्मणजी के चरणों में गिर पड़ा। पुनः पुनः क्षमायाचना करने लगा और लक्ष्मणजी के साथ बाह्य उद्यान में श्री रामचन्द्रजी के पास आया। श्रीराम के चरणों में गिरकर पुनः पुनः क्षमा माँगने लगा। 'हे करूणासिन्धु, मुझे क्षमा करो। मैं अभी ही सीताजी की खोज करने निकल जाता हूँ| आप यहीं पर बिराजें, अल्प समय में आपको सीताजी के समाचार मिल जायेंगे।' श्रीराम तो क्षमानिधि थे। सुग्रीव को कोई उपालंभ नहीं दिया। उनका प्रधान कार्य था सीताजी की परिशोध! सुग्रीव के साथ झगड़ा करके उस कार्य को उलझाना नहीं चाहते थे, विलंब में डालना नहीं चाहते थे। सुग्रीव की मित्रता उनको भविष्य में उपयोगी सिद्ध होनेवाली थी। मुख्य कार्य के प्रति सज्जन सजग रहते हैं : शिष्ट पुरुषों का मुख्य कार्य के प्रति लक्ष जाग्रत होता है। उनकी यह विशेषता सराहनीय तो है ही, अनुकरणीय भी है। जो मनुष्य महत्त्व के कार्य को छोड़कर तुच्छ कार्यों में अपनी शक्ति का व्यय कर डालता है वह मनुष्य कार्यसिद्धि नहीं कर सकता। ये दो बातें १. उचित स्थान में क्रिया करना और २. मुख्य कार्य को प्राथमिकता देना, महत्वपूर्ण बातें हैं। योगी हो या भोगी हो, साधु हो या संसारी हो, ये दो बातें सभी के लिए महत्त्व रखती हैं। प्रतिदिन के जीवनव्यवहार For Private And Personal Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५० प्रवचन-४५ में भी ये बातें महत्त्व रखती हैं। कार्यदक्षता, कार्य कुशलता प्राप्त करने के लिए इन बातों का पूरा खयाल करना अनिवार्य होता है। उत्तम पुरुषों में ऐसी कार्यदक्षता देखकर प्रशंसा करते रहो। पुरुषार्थ के लिए प्रमाद-त्याग अनिवार्य : एक और विशेषता शिष्ट पुरुषों में पायी जाती है, वह है प्रमाद का त्याग! ऊपर जो बातें बतायीं उनके साथ इसका प्रगाढ़ संबंध है। प्रमादत्यागी मनुष्य ही अपने प्रधान कार्य की सिद्धि के लिए पुरुषार्थशील बन सकता है और उचित देश-काल का लक्ष्य रख सकता है। चन्द्ररश्मि अप्रमादी था, क्षण का भी प्रमाद किये बिना उसने सुग्रीव के अन्तःपुर की रक्षा की। यदि थोड़ा सा भी प्रमाद करता या लापरवाही दिखाता तो नकली सुग्रीव अन्तःपुर में प्रवेश कर देता और तारारानी का अपहरण भी कर सकता था! शिष्ट पुरुषों के जीवन में निद्रा, विकथा वगैरह प्रमाद नहीं होते। सदैव अप्रमत्तता, शिष्ट पुरुषों की विशेषता होती है। इस गुण की प्रशंसा करते रहोगे.... हृदय से प्रशंसा करते रहोगे तो आपका प्रमाद भी दूर हो सकता है। प्रमाद, आलस्य, लापरवाही.... मनुष्य के बड़े शत्र हैं। न होने देते हैं आत्मविकास, नहीं होने देते है भौतिक विकास | प्रमादी मनुष्य उन्नति नहीं कर सकता है। यदि आप लोगों को उन्नति करनी है, आत्मविकास करना है....तो प्रमाद का त्याग करना ही होगा। सतत पुरुषार्थशील रहना होगा। शिष्ट-सज्जन पुरुषों की ये सारी विशेषताएँ जानकर आप उनके प्रशंसक बने रहें और उन विशेषताओं को पाने के लिए पुरुषार्थशील बने रहो, इसलिए ये सारी बातें बता रहा हूँ। अब, शिष्ट पुरुषों की तीन और विशेषताएँ बतानी शेष हैं, ये बताकर यह विषय समाप्त करूँगा। आज, बस इतना ही। For Private And Personal Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५१ प्रवचन-४५ मा. प्रत्येक आदमी को चाहिए कि वह अच्छे और सर्वजन साधारण परोपकार के कार्य करके लोकप्रियता का अर्जन करें। .औचित्य-पालन मानवीयगुणों का अविभाज्य अंग है। गृहस्थ जीवन हो या साधु का जीवन.... औचित्य पालन अत्यंत आवश्यक है, अनिवार्य है। स्वार्थी, आलसी और विषयासक्त आदमी कर्तव्यपालन कर ही नहीं सकता! ठीक है, कर्तव्य-पालन शायद न हो सके.... पर कर्तव्य-पालन करनेवालों की प्रशंसा तो हो सकती है न? । विचारों की भूमिका को समृद्ध बनाना अत्यंत जरूरी है। विचारशुद्धि पर पूरा ध्यान बरतो। =. जीवनव्यवहार को बदलने का कड़ा संकल्प करना होगा। प्रवचन : ४६ महान् श्रुतधर पूज्य आचार्यदेव श्री हरिभद्रसूरिजी ने स्वरचित 'धर्मबिंदु' ग्रन्थ में, सर्वप्रथम गृहस्थजीवन का सामान्य धर्म बताया है। इस सामान्य धर्म का, धर्मक्रियाओं से संबंध नहीं है, जीवनव्यवहार से इसका संबंध है। इस सामान्य धर्म का योग, ध्यान या अध्यात्म के साथ भी सीधा संबंध नहीं है। परन्तु इन सामान्य धर्मों के पालन के बिना योग, ध्यान या अध्यात्म की साधना फलवती नहीं बन सकती है, यह बात निश्चित है। सामान्य धर्मों की उपेक्षा कर के जो मनुष्य योग-साधना या ध्यान-साधना करने जाता है वह मनुष्य वास्तविक रूप में साधना नहीं कर पाता है। हाँ, उसका अभिमान अवश्य पुष्ट होता है! जिनमें शिष्टता नहीं है, शिष्टों के प्रति आदर या प्रेम भी नहीं है, ऐसे व्यक्ति आजकल अपने आपको 'योगी' 'ध्यानी' कहलाने लगे हैं। कुछ तो 'भगवान' भी बन गये हैं! सर्व प्रथम इन्सान बनो, आदमी बनो : खैर, बनने दो जिसको जैसा बनना हो! आप लोग सावधान बन जायें धनोपार्जन की दृष्टि से कई योगाश्रम खुले हैं और खुल रहे हैं, अपने मत के फैलाव की दृष्टि से कई ध्यान शिबिरें हो रही हैं, अध्यात्म के नाम पर कई For Private And Personal Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४५ २५२ पाखंड़ फैल रहे हैं.... बाह्य आडंबर.... अखबारों के आकर्षक विज्ञापन आदि से भ्रमित मत हो जाना। सामान्य धर्मों की घोर उपेक्षा के साथ यह सब हो रहा है। मानव मानव नहीं बन पाता, योगी कैसे बनेगा? ध्यानी कैसे बनेगा? पहले मानव बनना आवश्यक है। जीवन व्यवहार को सुचारु बनाना आवश्यक है। __ सभा में से : यह क्रमिक आत्मविकास की प्रक्रिया से बढ़कर 'अक्रम विज्ञान' की बात एक भगवानश्री कर रहे हैं....कहते हैं कि सीधे मोक्ष में पहुँचने के लिए 'अक्रमविज्ञान' श्रेष्ठ है! ___ महाराजश्री : ऐसी बात करने वाले भगवान से पूछो कि अब तक कितनों को मोक्ष में पहुँचाया? आत्मविकास की क्रमिक साधना का निषेध करने वाले वे भगवान् शरीरस्वास्थ्य में क्रम का पालन करते हैं! दैनिक कार्यक्रम में क्रम का पालन करते हैं! देशभ्रमण में गाँव नगरों का क्रम बनाते हैं। संसार की सभी बातों में क्रम का पालन और मोक्ष की साधना में अक्रम! वे भगवान् अपने पास आने वाले स्त्री-पुरुषों को अपना चरणस्पर्श करवाते हैं! हैं वे एक सामान्य गृहस्थ | गुजरात के पटेल हैं। बोलते हैं तो गालियाँ भी बक देते हैं। उनकी किताब में भी गालियाँ पढ़ने को मिल जाएंगी। धर्मग्रन्थों में कुछ ऐसे व्यक्तियों के जीवन चरित्र आते हैं कि जो डाकू थे और साधु बन गये। जिन्होंने वर्तमान जीवन में कोई क्रमिक धर्मआराधना नहीं की थी और कुछ निमित्त मिलने पर केवलज्ञानी बन गये | बस, अक्रमविज्ञान की बातें करनेवालों को यह शास्त्रीय प्रमाण मिल गया। उन्होंने पूर्व जन्मों की आराधना का विचार नहीं किया। जन्म-जन्मान्तर की आत्मविकास की यात्रा को नहीं देखा.... मात्र वर्तमान काल की पूर्णता को देखा और उसको राजमार्ग मान लिया। जटाशंकर का सफेद झूठ : एक बार जटाशंकर रास्ते से जा रहा था, ध्यान नहीं रहा और ठोकर लग गई... जमीन में से पत्थर निकल पड़ा....। जटाशंकर को बड़ी पीड़ा होने से बैठ गया। उसने उस पत्थर को देखा और पत्थर निकलने से जमीन में जो खड्डा पड़ गया था उस खड्डे में देखा.... कुछ पीला पीला दिखायी दिया। आस-पास देख लिया 'कोई मुझे देखता तो नहीं है न।' और हाथ डालकर उसने पीली पीली वस्तु बाहर निकाली। सोने का टुकडा था। तुरंत जेब में For Private And Personal Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५३ प्रवचन-४५ टुकडा डालकर वह घर पहुंचा। बस अब क्या पूछना। धन कमाने का अक्रमविज्ञान मिल गया उसको । उसने सोचा : धन कमाने के लिये १०/१५ साल पढ़ाई करना, फिर सर्विस करना.... दुकान खोलना.... यह सारा क्रम बेकार है। धन कमाने के लिए सीधा रास्ता है ठोकर खाना | जमीन में गड़े हुए पत्थर से ठोकर खाओ जमीन में से सोना मिलेगा।' बस, फिर तो जटाशंकर सभी जगह धन कमाने का अक्रमविज्ञान बताता चला। अपना अनुभव भी बताने लगा : 'मैंने ठोकर खायी और देखो, यह सोना मुझे मिला ।' कुछ मूर्ख लोग मिल गये जटाशंकर को! जिनको बिना मेहनत और बिना विलंब श्रीमन्त बन जाना था! ठोकरें खायीं परन्तु सोना नहीं मिला.... तो पहुँचे जटाशंकर के पास | जटाशंकर ने कहा : 'तुमने गलत जगह पर ठोकर खायी होगी इसलिए धन नहीं मिला, मैं बताऊँ उस जगह ठोकर खाना..... अवश्य मिलेगा सोना।' जटाशंकर ने अपनी बात को सिद्ध करने को योजना बनाई। कुछ लालची लोग भी उसके भक्त तो बन ही गये थे.....। एक भक्त के द्वारा जटाशंकर ने निश्चित स्थानों पर थोड़ी थोड़ी सोनामुहरें रखवा दीं, उस पर पत्थर रखवा दिये, और नये नये भक्तों को उस निश्चित स्थान पर ठोकर खाने का चमत्कारिक निर्देश देने लगा! भक्तों को सोनामुहरें मिलने लगीं! बस, जटाशंकर का काम बन गया । ज्यादा धन पाने की लालसा में भक्त लोग थोड़ा-थोड़ा धन जटाशंकर को देने लगे! थोड़ा-थोड़ा करते उसके पास पाँच लाख रूपये बन गये। अक्रमविज्ञान या चक्रमविज्ञान? परन्तु जब कुछ भक्तों को ज्यादा धन नहीं मिलने लगा, वे संशय से 'भगवान् जटाशंकर' को देखने लगे.... तब जटाशंकर घबराया! उसने विदेश भाग जाने का सोचा और एक दिन वह भारत से उड़ गया! आपको नहीं मिलेगा! मोक्ष पाने का अक्रम विज्ञान बतानेवाले भगवान भारत में भी मिलेंगे! अभी तो उनकी लीला चल रही है.... कल क्या होगा.... वह तो केवलज्ञानी जाने! ___ 'मानवीय गुणों के बिना भी आत्मा का मोक्ष हो सकता है, ऐसी बातें करनेवालों पर आप लोग विश्वास कैसे कर सकते हो? वास्तव में देखा जाय तो मोक्ष की बात तो एक परदा मात्र होती है, भीतर में होती है वैषयिक For Private And Personal Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४५ २५४ सुखभोग की पाशवीय लीला! इसलिए कहता हूँ कि ऐसी मायाजाल से बचते रहना। अपनी बात चल रही है गृहस्थ जीवन के सामान्य धर्मों की। चौथा सामान्य धर्म है 'शिष्टचरित प्रशंसनम्'। यानी सज्जनों के चरित्र की प्रशंसा करना । सज्जनों की जीवनचर्या कैसी होती है, यह बात कुछ दिनों से बता रहा हूँ | आज यह विषय समाप्त करूँगा। सज्जनों की जीवनचर्या के तीन विशेष अवशिष्ट आचार और बताने हैं। १. सज्जन पुरुष लोकाचारों का पालन करनेवाले होते हैं। २. सज्जन पुरुष सर्वत्र औचित्य का पालन करनेवाले होते हैं। ३. सज्जन पुरुष गर्हित-निन्दित प्रवृत्ति का त्याग करनेवाले होते हैं। कुछ लोकाचार ऐसे होते हैं जिनमें किसी एक धर्म से संबंध नहीं होता। सभी लोकाचार धर्म से संबंधित नहीं होते। ऐसे लोकाचारों का पालन भी शिष्ट पुरुष करते होते हैं। जिन लोकाचारों में विशेष हिंसा वगैरह पाप नहीं होते हों, जिन लोकाचारों में निन्दनीय कुत्सित क्रियायें नहीं होती हों, वैसे लोकाचारों का पालन करना चाहिए। जिस गाँव नगर में आप रहते हो, उस गाँव-नगर की प्रजा के साथ आपका व्यवहार ऐसा रहना चाहिए कि आप प्रजाप्रिय बनें। गलत काम करके प्रजाप्रियता संपादन नहीं करने की है, अच्छे और सर्वजनसाधारण परोपकार के काम करके लोकप्रियता प्राप्त करने की है। ___ लोकाचारों के पालन में, समाज व्यवहार में औचित्य का पालन होना आवश्यक होता है। लोकाचार ही नहीं, धर्माचारों के पालन में भी औचित्य का पालन करना आवश्यक होता है। घर में, बाजार में नगर में, मंदिर में और उपाश्रय में सर्वत्र औचित्य का पालन करना चाहिए। शिष्ट पुरुषों की प्रज्ञा ही वैसी होती है कि सर्वत्र उचित कर्तव्य का बोध हो ही जाता है। समग्र लोकव्यवहार में शिष्ट पुरुष अपने उचित कर्तव्यों का पालन करते रहते हैं और गर्हित-निन्दनीय कार्यों से दूर रहते हैं। कितना प्रशंसनीय जीवनव्यवहार होता है शिष्ट पुरुषों का! ___ लंका में राम का जब भीषण युद्ध हुआ, लक्ष्मणजी के द्वारा जब रावण मारा गया, उस समय श्रीराम-लक्ष्मणजी वगैरह ने लोकाचार का कितना सुन्दर पालन किया था! कैसा सुन्दर औचित्यपालन किया था! जानते हो न? For Private And Personal Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५५ प्रवचन-४५ लोकाचार के पालक श्री रामचंद्रजी : वैशाख कृष्णा एकादशी का वह दिन था। सूर्य अस्त होने में थोड़ी देर थी और लक्ष्मणजी ने रावण का वध किया। राक्षससैन्य में हाहाकार मच गया। विभीषण की प्रेरणा से राक्षससैन्य ने श्री राम की शरणागति स्वीकार कर ली। विभीषण रावण के मृतदेह को देखता रहा, उसका हृदय भ्रातृविरह से व्याकुल हो गया। वह दौड़ा और रावण के मृतदेह से लिपट गया। करुण विलाप करने लगा। रावण के वध का समाचार लंका के राजमहल में पहुँच गया....मंदोदरी वगैरह रानियों का करूण कल्पान्त शुरु हो गया। सभी रानियाँ दौड़ती युद्धभूमि पर आयी। रावण का मृतदेह देखते ही मंदोदरी मूर्छित होकर गिर पड़ी। श्रीराम, लक्ष्मण, सुग्रीव, भामंडल, हनुमान, नल नील.... अंगद वगैरह वहाँ मौन खड़े खड़े रानियों के दुःख में सहानुभूति व्यक्त कर रहे थे। विभीषण बुरी तरह रो रहा था । उसने अपनी कमर से छुरी निकाली और आत्महत्या करने के लिए तत्पर बना.... तुरंत ही श्रीराम ने विभीषण का हाथ पकड़ लिया, छुरी छीन ली और उसके सर पर हाथ फेरने लगे, आश्वासन देने लगे। ___उस समय श्री राम ने लंका के राजपरिवार को गंभीर ध्वनि से आश्वासन देते हुए कहा : श्री राम की श्रद्धांजलि : रावण को : ___'यह वह दशमुख राक्षसेश्वर है कि जिसका पराक्रम देवलोक में प्रशंसित हुआ है। उसने वीरगति प्राप्त की है। वह कीर्ति का पात्र बना है। उसका युद्धकौशल्य, प्रजाप्रियता वगैरह गुण, युगों तक प्रजा याद करती रहेगी। इसलिए उसके पीछे शोक न करें, कल्पांत न करें। राक्षसेश्वर के मृतदेह का उचित उत्तर कार्य करके निवृत्त हो।' श्री राम ने कुंभकर्ण, इन्द्रजित, मेघवाहन....वगैरह युद्धबंदियों को मुक्त कर दिया। जब वे सभी, रावण के मृतदेह के पास आये, रो पड़े। कुंभकर्ण के पास बैठकर श्री राम ने आश्वासन दिया। इन्द्रजित् और मेघवाहन को अपने उत्संग में ले लिये और बड़े वात्सल्य से कहा : 'हे वत्स, तुम शोक मत करो, विलाप मत करो। राक्षसेश्वर रावण ने अपने पराक्रम से स्वर्ग को धरा पर उतारा है। उस स्वर्ग को छोड़कर वे चले गये, अब यह स्वर्ग तुम्हारा है, पिता का अपूर्व पराक्रम तुम्हें प्राप्त है। दोनों भाई अपने जीवन में सुख-शान्ति और समृद्धि प्राप्त करोगे।' For Private And Personal Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४६ રદ્દ श्री राम का औचित्य : __ श्री राम ने अपने उत्तरीय वस्त्र से इन्द्रजित-मेघवाहन के आँस पोंछे । दूसरी ओर, रावण के मृतदेह की अन्तिम क्रिया की सभी तैयारी हो गई थी। रावण की देह को सुगंधयुक्त जल से स्नान कराया गया। श्रेष्ठ वस्त्र पहनाये गये | चन्दन की चिता पर पार्थिव देह को रखा गया....और इन्द्रजित ने चिता में अग्नि प्रज्वलित की। श्री राम-लक्ष्मण वगैरह वहाँ खड़े रहे। जब चिता शान्त हुई, श्रीराम आदि पद्मसरोवर में स्नान करने गये। कुंभकर्ण, विभीषण, इन्द्रजित, मेघवाहन, मंदोदरी वगैरह ने भी पद्मसरोवर में स्नान किया। स्नानादि से निवृत्त होकर सब, श्री राम के पास इकट्ठे हुए। श्रीराम ने, लंका के राजपरिवार को मधुर वाणी से संबोधित करते हुए कहा : __ 'हे वीर पुरुषो, आप पूर्ववत् अपना राज्य सम्हालो, प्रजा का पालन करो, हमें आपकी राज्य संपत्ति का कोई प्रयोजन नहीं है | आपका मैं कुशल चाहता ___ श्री राम के वचन सुनकर कुंभकर्ण आदि की आँखें अश्रुपूर्ण हो गईं। सभी गद्गद् हो गये। सबके मन में श्रीराम के प्रति अपार स्नेह प्रकट हुआ। ___ श्री रामचन्द्रजी का लोकाचार-पालन कैसा था? शत्रु की मृत्यु होने पर शत्रु परिवार के प्रति, शत्रु के राज्य के प्रति, मृत शत्रुदेह के प्रति श्री राम ने कैसा उचित व्यवहार किया? रावण की मौत के बाद एक शब्द भी अवर्णवाद का, श्री राम के मुँह से नहीं निकला। वैसा उपदेश भी नहीं दिया कि कुंभकर्ण आदि के दिल में चोट लगे! 'देखो, रावण की मौत परस्त्री के कारण हुई, तुम लोग इस घटना से बोध लेना, कभी भी परस्त्री की इच्छा नहीं करना....' इस प्रकार का उपदेश नहीं दिया । मृत्यु के बाद, मृत व्यक्ति के परिवार के समक्ष, स्नेही-स्वजनों के समक्ष कैसे शब्दों में आश्वासन देना चाहिए, इसमें विवेक चाहिए। किस समय, किस व्यक्ति को, कैसे शब्दों में उपदेश देना, आश्वासन देना, यह गहरी सूझ की बात है। श्री राम ने इन्द्रजित आदि की ओर कैसी स्नेहपूर्ण सहानुभूति व्यक्त की? अंतिम संस्कार के समय वे उपस्थित रहे। सीताजी के पास जाने की कोई जल्दबाजी नहीं की। लक्ष्मणजी को भी सीताजी के पास नहीं भेजा। यह औचित्यपालन था। लंका पर विजय प्राप्त कर ली थी श्री राम ने, फिर भी उन्होंने उसी समय For Private And Personal Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- ४६ २५७ अपना अधिकार उठा लिया और इन्द्रजित वगैरह को कह दिया : 'यह राज्य तुम्हारा है, तुम राज करो, प्रजा का पालन करो !' कैसी अद्भुत उदारता ! ऐसा भी नहीं कहा कि 'तुम्हें राज्य सौंपता हूँ, मेरे आज्ञांकित राजा बनकर रहना होगा.....' ऐसी कोई शर्त नहीं की । सहजता से राज्य का त्याग कर दिया! 'मैं उपकार करता हूँ.... और तुम पर दया आती है.... तुम कहाँ कहाँ भटकोगे? इसलिए तुम्हारा राज्य तुम्हें सौंपता हूँ....' इस प्रकार की कोई बात नहीं की ! कोई निन्दनीय बात नहीं की । यदि श्री राम चाहते तो रावणवध होने के बाद तुरंत वे सीताजी के पास जा सकते थे! यदि वे चाहते तो कुंभकर्ण वगैरह को कारावास में बंद रख सकते थे! यदि वे चाहते तो लंका का राजा बन सकते थे! परन्तु यदि ऐसा करते तो वे लोकाचार - विरूद्ध कार्य करते ! उनकी शिष्टता खंडित हो जाती। औचित्यभंग शिष्टता का भंग है । आँसू बने वैराग्य के फूल : श्री रामचन्द्रजी के इस प्रकार के श्रेष्ठ लोकाचार के पालन ने, श्रेष्ठ कक्षा के औचित्य के पालन ने, कुंभकर्ण, इन्द्रजित, मेघवाहन और मंदोदरी वगैरह के ऊपर कैसा अद्भूत प्रभाव डाला ? श्री राम की उदारता ने, निःस्पृहता ने, वात्सल्य ने... निर्दंभ स्नेह ने इन्द्रजित के हृदय को विरक्त बना दिया ! इन्द्रजित का अन्तःकरण संसार के सुखों से विरक्त बन गया और उसने वहीं पर श्री राम के सामने संसारत्याग करने की भावना व्यक्त की । श्रमणजीवन जीकर, मानवजीवन का श्रेष्ठ धर्मपुरुषार्थ कर लेने का निर्णय प्रगट किया। श्रीराम ने इन्द्रजित को अपने उत्संग में लेकर, गद्गद् स्वर में समझाने का प्रयत्न किया। 'तुम संसारत्याग मत करो....' लंका का विशाल साम्राज्य तुम भोगो....तुम्हें किसी प्रकार का दुःख नहीं रहेगा।' बहुत समझाया, परन्तु इन्द्रजित का निर्णय नहीं बदला। मेघवाहन ने भी श्रमणजीवन अंगीकार करने का निर्णय घोषित किया। कुंभकर्ण भी मोक्षमार्ग की साधना करने तत्पर बना । मंदोदरी वगैरह रानियों ने भी संसार का त्याग कर साध्वीजीवन स्वीकार करने की भावना व्यक्त की । श्री राम, लक्ष्मणजी, सुग्रीव, भामंडल वगैरह रावण के परिवार की उत्तमता देखकर नतमस्तक हो गए। सभी की आँखें आँसू बहाने लगीं। राक्षसेश्वर की मृत्यु ं से लंका की प्रजा अत्यन्त शोकातुर थी, उस प्रजा ने जब राजपरिवार की For Private And Personal Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४६ ___ २५८ संसार-त्याग की बात सुनी....तब हजारों स्त्री-पुरुष रोते-बिलखते वहाँ पर आये कि जहाँ श्रीराम वगैरह बैठे थे। प्रजाजनों ने भी कुंभकर्ण वगैरह को संसार-त्याग नहीं करने की प्रार्थना की, परन्तु इन्द्रजित ने प्रजा को, संसार की निःसारता समझायी, मानवजीवन की महत्ता समझायी, मोक्षसुख की अविनाशिता बतायी। प्रजा को आश्वस्त किया। लंका शोकसागर में डूब गई थी। उस समय लंका के कुसुमायुध उद्यान में महामुनि अप्रमेयबल को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई थी। जब भी किसी महामुनि को केवलज्ञान प्रकट होता है तब देवलोक के देव पृथ्वी पर आते हैं, दुंदुभि बजाकर आनन्द की अभिव्यक्ति करते हैं। कुसुमायुध उद्यान में हजारों देव आये हैं और दुंदुभि बजा रहे हैं। रात्रि, पद्मसरोवर के किनारे पर सभी ने व्यतीत की। प्रभात में उद्यानपालक ने आकर श्री रामचन्द्रजी आदि को समाचार दिया कि महामुनि को केवलज्ञान प्रगट हुआ है और देवों ने महोत्सव मनाया है। श्री रामचन्द्रजी, रावण के परिवार के साथ कुसुमायुध उद्यान में गये। ___महामुनि अप्रमेयबल को तीन प्रदक्षिणा देकर भावपूर्वक वंदना की | महामुनि ने वहाँ धर्मोपदेश दिया । इन्द्रजित वगैरह की वैराग्य-भावना अति प्रबल बनी। महामुनि अपने ज्ञान प्रकाश में इन्द्रजित-मेघवाहन के पूर्वजन्मों को देखा.... कह सुनाया.... दोनों भाई खड़े हो गये और महामुनि को कहा : 'गुरुदेव, हम सभी संसार से विरक्त बने हैं, हमें चारित्र्यधर्म देने की कृपा करें, भवसागर में आप हमारी जीवननैया के नियामक बनें.... हमें तारने की कृपा करें।' श्रीरामचन्द्रजी खड़े हो गये....इन्द्रजित को अपने बाहुपाश में जकड़ लिया.... अश्रुपूर्ण आँखों से और गद्गद् स्वर से, उन्होंने इन्द्रजित को संन्यास लेने से रोकने का प्रयास किया। परन्तु इन्द्रजित वगैरह संपूर्ण विरक्त बने हुए थे। उनकी ज्ञानदृष्टि खुल गई थी। ___कुंभकर्ण, इन्द्रजित और मेघवाहन ने श्रमण जीवन अंगीकार कर लिया। मंदोदरी वगैरह हजारों रानियाँ साध्वी बन गईं! कैसा गजब परिवर्तन! कैसा अद्भुत त्याग! श्रीरामचन्द्रजी वगैरह ने नूतन मुनिवरों को वंदना की, स्तुति की। विभीषण ने श्रीराम से कहा : 'हे पूज्य, अब आप लंका में पधारें और देवी सीता को दर्शन देकर उनका चित्त प्रसन्न करें।' For Private And Personal Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५९ प्रवचन-४६ कर्तव्यपालन का मूल्य : अमूल्य : अचित कर्तव्यों का पालन करने के लिए मनुष्य में कितना धैर्य चाहिए? यदि सीताजी से मिलने की अधीरता होती तो श्रीराम अपने उचित कर्तव्यों का पालन नहीं कर सकते। रावण के परिवार को मोक्षमार्ग पर चलने की प्रेरणा प्राप्त नहीं होती....और इतिहास ही बदल जाता! औचित्यपालन, मानवता का अविभाज्य अंग है | गृहस्थजीवन हो या साधुजीवन हो, औचित्यपालन आवश्यक होता है। __ श्रेष्ठ पुरुषों के जीवन में उच्च कोटि का औचित्यपालन देखकर, हमें उनकी प्रशंसा करनी चाहिए। कर्तव्यपालन के प्रति यदि आपका लगाव होगा, कर्तव्यपालन का मूल्यांकन यदि आप करते होंगे, तो ही आप उस गुण के प्रशंसक बन सकोगे। दूसरे जीवों के प्रति अपने कर्तव्यों का बोध होना चाहिए। कर्तव्य की भीतरी इच्छा होनी चाहिए। सभा में से : आजकल तो कर्तव्यपालन की भावना ही नष्ट हो गई है। सबको अपने कर्तव्यों से बचना है! महाराजश्री : उचित कर्तव्यों का पालन करने के लिए बहुत सी योग्यताएँ चाहिए। स्वार्थी, आलसी और विषयलोलुपी जीवात्मा कर्तव्यपालन कर ही नहीं सकता। आज ये तीन बातें जीवों में विशेष रूप से प्रविष्ट हो गई हैं। स्वार्थ की कोई सीमा नहीं रही है। आलस्य अंग-अंग में भरा पड़ा है और विषयलोलुपता का विस्तार होता ही जा रहा है। ऐसी परिस्थिति में कर्तव्यपालन होना असंभव सा ही है। मेरा कहना तो यह है कि भले कर्तव्यपालन न हो, पर कर्तव्यपालन करनेवाले शिष्ट पुरुषों की प्रशंसा तो होनी चाहिए न? करते हो प्रशंसा? प्रशंसा करो तो भी बहुत है। ___ जो पुरुष निन्दनीय कार्य नहीं करते हैं, क्या उनकी प्रशंसा करते हो? प्रशंसा तो नहीं ऊपर से उपहास करते हो! जुआ खेलनेवाले जुआ नहीं खेलनेवाले की खिल्ली उड़ाते हैं! शराब पीनेवाले शराब नहीं पीनेवालों पर हँसते हैं! बीभत्स और मर्यादाहीन वेश पहननेवाले, जो वैसी वैशभूषा नहीं करते उनकी हँसी उड़ाते हैं। अभक्ष्य खाने वाले, अभक्ष्यभक्षण नहीं करने वालों की निन्दा करते हैं। दूसरों का दुःख दूर करने के लिए स्वयं दुःख सहन करनेवालों की आलोचना वे लोग करते हैं कि जो दूसरों के दुःखों के प्रति हँसते रहते हैं! For Private And Personal Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४६ वे इन्सान कहलाने के लायक नहीं है! : शिष्ट-सज्जनों के सदाचारों की प्रशंसा भी जो नहीं कर सकते, वे मानव कहलाने लायक भी हैं क्या? देह मानव का और जीवन पशु का बनता जा रहा है। यदि पशुता ही पसन्द हो तो इस धर्मोपदेश की आपको कोई आवश्यकता नहीं है | गृहस्थ जीवन को स्वस्थ, सुन्दर और सुखमय बनाने की तीव्र इच्छा हो, गृहस्थ जीवन को आनन्द और उल्लास से जीने की भावना हो तो दुनिया की रीत-रसमों को छोड़ो और इन सामान्यधर्मों को जीवन में जीने का प्रयत्न शुरू कर दो। 'डिवाइन लाइफ' बनाने का 'प्लान' बनाओ। दृढ़ संकल्प करना होगा : __ वैचारिक भूमिका को समृद्ध बनाना अति आवश्यक है। वैचारिक स्तर स्वच्छ उन्नत और पवित्र बनाने का द्रढ़ संकल्प करो। सज्जनों की जीवनचर्या विशिष्ट गुणसमृद्धि और उच्चतम औचित्यपालन की बातें सुन कर, उनके प्रति अहोभाव से....प्रशंसा की दृष्टि से देखो और अपने आप को वैसा बनाने की कल्पना करो। जीवनव्यवहार को बदलने का दृढ़ संकल्प आपको करना होगा। 'शिष्टचरित प्रशंसनम्' चौथा सामान्य धर्म है। सब मिलाकर ३५ सामान्य धर्मों का, ग्रन्थकार ने प्रतिपादन किया है। ये ३५ सामान्य धर्म, यदि जीवन व्यवहार में ओतप्रोत हो जाएँ तो जीवन नन्दनवन बन जाय। सच्चे अर्थ में मानव मानव बन जाय । आज, बस इतना ही। For Private And Personal Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४६ २६१ ब. गुणों की प्राप्ति एवं प्राप्त हुए गुणों की स्थिरता जीवन में तब ही जाकर संभवित होगी जबकि आदमी अपनी इन्द्रियों का गुलाम न बने। इन्द्रियों की परवशता से दूर रहे। काम-क्रोध, लोभ, मान, मद और हर्ष-ये छह अपने भीतर में घुसकर बैठे हुए शत्रु हैं। इन शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना होगा। इन्हें भीतर से खदेड़ना होगा। . इन्द्रियविजेता व्यक्ति आत्मसुख की जो अनुभूति करता है...इन्द्रियविवश व्यक्ति उस सुख की कल्पना भी नहीं कर सकता! . इन्द्रियपरवश जीवात्मा जिस दुःख-अशांति से घिर जाता है, इन्द्रियविजेता को उस दुःख की छाया भी छू नहीं सकती! . औरों पर विजय पाना सरल है, अपने आप पर काबू पाना कठिन तो है, पर पाना ही होगा। क प्रवचन : ४७ परम कृपानिधि महान् श्रुतधर आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी स्वरचित 'धर्मबिंदु' ग्रन्थ में, गृहस्थजीवन के सामान्य धर्म का प्रतिपादन करते हुए ३५ गुणों का निर्देश करते हैं। किसी भी विशेष धर्म का पालनआराधना करने से पहले इन गुणों का अर्जन-आराधना करना अति आवश्यक है | कुछ गुण हैं व्यवहारशुद्धि के और कुछ गुण हैं विचारशुद्धि के । __ गुणों की प्राप्ति और प्राप्त गुणों की जीवन में अवस्थिति, तभी सहज और स्वाभाविक हो सकती है जब मनुष्य अपनी इन्द्रियों का विजेता हो। यानी जो मनुष्य इन्द्रियपरवश नहीं होता है वह मनुष्य ही वैचारिक शुद्धि और व्यवहारिक शुद्धि पा सकता है। शत्रु कौन? जो अहित करे? : ___ आप जानते हो क्या, आपके विचारों और आपके व्यवहारों को अशुद्धअपवित्र और असंस्कृत कर देने वाले कौन हैं? अशुद्धियों के उद्भव स्थानउत्पत्ति स्थान कौन-कौन से हैं, इसका ज्ञान होना अति आवश्यक है। जो-जो For Private And Personal Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६२ प्रवचन-४६ तत्त्व हमारे विचार-व्यवहार को अशुद्ध कर देते हैं वे सारे तत्त्व हमारे शत्रु हैं! जो हमें नुकसान पहुंचाते हैं, जो हमारा अहित करते हैं, जो हमारी संपत्ति लूट लेते हैं, जो हमारा सर्वनाश कर देते हैं.... वे हमारे शत्रु हैं। कौन हैं वे हमारे शत्रु? जानते हो? जान लो उन शत्रुओं को, पहचान लो उन शत्रुओं को! ___ काम, क्रोध, लोभ, मान, मद और हर्ष-ये हैं हमारे शत्रु! हमारे भीतर बैठे हैं ये शत्रु! इन शत्रुओं ने हमारी पाँचों इन्द्रियों पर कब्जा कर लिया है, अधिकार स्थापित कर दिया है। ये शत्रु रहते हैं हमारे मन में | मन के 'हेडक्वार्टर' में रहते हुए उन्होंने सारे शरीर पर अधिकार कर लिया है। तन-मन की मालिक 'आत्मा' सोई हुई है, बेहोश है....। और ऐसे बेहोश जीवात्माओं को मुझे जगाने हैं! उनकी बेहोशी दूर करनी है.....! बेहोशी दूर होगी तभी तो वे सुन पायेंगे न? जब सुनेंगे तभी समझेंगे न? जब समझेंगे तभी उन शत्रुओं के साथ लड़ने का सोचेंगे और लड़ना शुरू करेंगे न? ___ सभा में से : हम लोग तो जगे हुए हैं न? यदि जगे हुए नहीं होते तो यहाँ...आपके पास कैसे आते? ___ महाराजश्री : यही तो भ्रमणा है! काम-क्रोध आदि शत्रुओं के प्रभाव में रहा हुआ जीव भी अपने आप को जाग्रत मानता है! ऐसे जाग्रत लोग धर्मस्थानों में आते भी हैं....परन्तु आने मात्र से क्या? काम-क्रोधादि के प्रभाव से प्रभावित लोग जो यहाँ आते हैं वे धर्मोपदेश सुनने नहीं आते। वे लोग बैठते हैं मेरे सामने, परन्तु देखते हैं महिलाओं की ओर! एक बदनाम सत्यकथा : राजस्थान के बड़े नगर में हमारा चातुर्मास था। एक लड़का जो कि कालेज के चौथे वर्ष में पढ़ता था, प्रतिदिन प्रवचन में आता था, दर्शन करने भी आया करता था। संघ के कुछ लोगों ने मुझे कहा : 'महाराजश्री, यह लड़का कभी भी उपाश्रय में नहीं आता था, आप पधारे हैं, तब से नियमित प्रवचन सुनने आया करता है....यों तो आवारा-सा है, अब शायद सुधर जाएगा....।' वे सब खुश थे! चूंकि आम धारणा ऐसी ही होती है कि धर्मस्थानों में आने वाले लोग सुधर जाते हैं! परन्तु लोग यह नहीं सोचते कि धर्मस्थानों में कभी-कभी कुत्ते भी आ जाते हैं और आवारा पशु भी आ जाते हैं! क्या वे सुधर जाते हैं?' दो महीने चातुर्मास के व्यतीत हो गये और एक दिन, प्रवचन पूर्ण होने के बाद, एक लड़की को धक्का देता हुआ वह लड़का पकड़ा गया? उस लड़की For Private And Personal Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- ४६ २६३ की माँ भी साथ थी और उसने उस मजनू की चप्पल से आरती उतार दी ! लड़का इसलिए प्रवचन में आता था, चूँकि वह लड़की भी प्रवचन सुनने आती थी! उस लड़की के प्रति वह लड़का मोहित था और उसके साथ शादी करना चाहता था। प्रवचन में जैसे पुरुष आते हैं वैसे महिलाएं भी आती हैं। वह लड़की महिला विभाग में बैठती थी तो यह लड़का पुरुष विभाग में ऐसी जगह बैठता था कि जहाँ से वह उस लड़की को देख सके और ... !! अब कहिये, उस लड़के को जाग्रत मानना या सोया हुआ ? 'काम' शत्रु के प्रभाव में था वो लड़का ! बाहर से जगता हुआ भी वह भीतर से सोया हुआ था । धर्मोपदेश वह सुनता कैसे ? जब तक मनुष्य काम-क्रोध-लोभ -मद-मान और हर्ष को मित्र मान रहा है और उनके सहारे जीवन जी रहा है, तब तक वह सोया हुआ है, उस पर बेहोशी छायी हुई है। भाग्य से जग जायं .... तो काम हो जाय । सभा में से : आप जगाने आये हो और जगाने का भरसक प्रयत्न करते हो, तो जगेंगे ही! महाराजश्री : जीवों को जगाना, तो मेरा परम कर्तव्य है और जगाने का प्रयत्न करने में थकान भी महसूस नहीं होती है! सब जीव जगे, सुने, समझे और शत्रुओं को मार भगायें....ऐसी मेरी अभिलाषा है। ऐसी मेरी शुभेच्छा है, परन्तु वास्तविकता दूसरी है ! बहुत कम लोग जगते हैं! ज्यादातर लोग नहीं जगते! युगों तक नहीं जगेंगे ! कुछ जीव तो अनन्तकाल तक नहीं जगेंगे। जगाने वाले तीर्थंकर मिलेंगे, तो भी कुछ जीव नहीं जगेंगे! जगेंगे नहीं तो सुनेंगे कैसे ? सुनेंगे नहीं तो समझेंगे कैसे? समझेंगे नहीं कि 'ये मेरे शत्रु हैं' तो लड़ेंगे कैसे? भीतर में सुनो : भीतर में समझने की कोशिश करो : यदि आप लोग समझेंगे कि 'ये काम, क्रोध, लोभ, मद, मान और हर्ष - शत्रु हैं, हमारी आत्मा का अहित करने वाले हैं, दुःखी करने वाले हैं, तो मैं मानूँगा कि आप सुनते हैं। सुनते हैं इसलिए आप जाग्रत हैं! आप जगे हैं! भीतर में जगना है। भीतर में सुनना है, भीतर में समझना है। इसलिए भीतर में जाना पड़ेगा। भीतर में तभी जाओगे, जब बाहर में मजा नहीं आएगा । भीतर में तभी आओगे, जब बाहर में परेशानी महसूस होगी । अथवा, भीतर में क्या क्या भरा पड़ा है, वह जानने-देखने की जिज्ञासा से भी भीतर जाया जा सकता है। For Private And Personal Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४६ २६४ कैसे भी आप अपने भीतर जाकर देखो। अपने मन में बैठे उन काम-क्रोध आदि शत्रुओं को देखो | मन में से जितने भी विचार निकलते हैं वे सभी विचार इन काम-क्रोधादि से प्रबावित होकर ही निकलते हैं - ऐसा मालूम होगा। कोई विचार कामवासना से प्रचुर होता है तो कोई विचार क्रोध से भरा हुआ होता है। कोई विचार लोभ से आवृत्त होता है तो कोई विचार मद से उन्मत्त होता है! कोई विचार मान से रंगा हुआ होता है तो कोई विचार हर्ष से उछलता हुआ होता है! इस प्रकार समग्र मनःसृष्टि पर इन छह शत्रुओं के गिरोह का प्रभाव प्रस्थापित है। भीतरी शत्रुओं को समझो : ये शत्रु अपने साथ कौन-कौन सा शत्रुतापूर्ण व्यवहार करते हैं, क्या आप जानते हो? अपना कैसा कैसा अहित करते हैं वे शत्रु, क्या आप जानते हो? जान लो, अच्छी तरह जान लो। मित्रों के रूप में बैठे हुए शत्रुओं का परिचय प्राप्त कर लो। ___ पहला शत्रु है काम | काम यानी जातीय वासना । काम यानी अब्रह्मसेवन की इच्छा | यह कामवासना सजातीय और विजातीय, दोनों प्रकार के जीवों के विषय में हो सकती है। पुरुष को स्त्रीभोग की जैसे इच्छा होती है वैसे पुरुषभोग की भी इच्छा हो सकती है। यह कामेच्छा और विषयोपभोग जीवात्मा को प्रिय लगते हैं। काम की यही विशेषता है कि वह जीवात्मा को पहले महसूस नहीं होने देता है कि 'यह शत्रु है.... पहले तो उसे सुख का आभास देता है परन्तु बाद में दुःखी-दुःखी कर देगा।' __ कामेच्छा जाग्रत होती है और मन चंचल बनता है। कामेच्छा तीव्र बनती जाती है और मन की अस्थिरता बढ़ती जाती है। विषयोपभोग कर लेने से क्षणिक तृप्ति का अनुभव होता है... परन्तु यह तृप्ति का अनुभव भी एक धोखा ही है। इस क्षणिक तृप्ति को मनुष्य सुख मान लेता है! सुखानुभव समझ लेता है। वह सुखानुभव तो उस कुत्ते के सुखानुभव जैसा अनुभव है। कभी कुत्ते के मुँह में हड्डी का टुकड़ा आ जाता है, कुत्ता उस हड्डी को चबाने का चूसने का प्रयत्न करता है... हड्डी तो नहीं टूटती है परन्तु उसके मुँह में घाव जरूर हो जाता है! उस घाव में से खून रिसता है, टपकता है....कुत्ता समझता है कि हड्डी में से रस टपकता है....! अपना खून गले उतारता जाता है और सुखानुभव करता है! For Private And Personal Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४६ २६५ सुख नही सुखाभास : पशु-पक्षी और मनुष्य की मैथुनजन्य तृप्ति ऐसी ही है। अपने ही शरीर की एक धातु का स्राव हो जाता है....और जीवात्मा मानता है कि मुझे सुख मिल रहा है! उपभोग्य पात्र मुझे सुख दे रहा है! इसलिए वह अपना उपभोग्य पात्र खोजता रहता है। जब तक वैसा पात्र नहीं मिलता है, वह बेचैनी महसूस करता रहता है। इसलिए तो स्त्री-पुरुष के बीच शादी का संबंध स्थापित हुआ है। स्त्री या पुरुष, जो इस कामवासना के परवश होते हैं, विषयभोग में सुख मानते हैं, और मैथुनजन्य सुख पाने को लालायित होते हैं, वे अपनी इच्छा के अनुसार सुख प्राप्त कर सकें, इसलिए शादी कर लेते हैं। फिर उनको पात्र ढूंढ़ने नहीं जाना पड़ता है। स्त्री को पुरुषपात्र और पुरुष को स्त्रीपात्र मिल जाता है। पति-पत्नी का संबंध इस हेतु से प्रस्थापित हुआ है। परन्तु, एक सुख.... जो कि वास्तव में सुख नहीं है, सुखाभास है.... उसको पाने के लिए मनुष्य कैसा बन्धन स्वीकार कर लेता है! शादी करके स्त्री पुरुष का और पुरुष स्त्री का बन्धन स्वीकार कर लेता है। एक बंधन में से नये नये अनेक बंधन होते जाते हैं। सारे संबंध बन्धन ही तो हैं! ___ सभा में से : शादी नहीं करें और किसी भी पात्र के साथ विषयोपभोग करें तब तो फिर बंधन नहीं रहें! ___ महाराजश्री : जब तक इच्छाएँ रहेंगी तब तक बंधन रहेंगे ही! जिस किसी के साथ शारीरिक संबन्ध करनेवाले भयानक रोगों के शिकार बन जाते हैं। जिस किसी के साथ सम्बन्ध करनेवालों के मन अति चंचल बन जाते हैं। तन और मन के अनेक रोग ऐसे लोगों को घेर लेते हैं। इसलिए, दो रास्ते हैं.... या तो ब्रह्मचारी बनो या तो शादी करके गृहस्थाश्रमी बनो! ब्रह्मचारी नहीं रहना है और शादी भी नहीं करनी है... तब तो परेशानी का पार नहीं रहेगा। आप स्वयं दुःखी बनोगे और समाज का दूषण बनोगे। ऐसे लोग जिनका एक स्त्री से लगाव नहीं होता है, अनेक स्त्रियों से संबंध रखते हैं, समाज के लिए अभिशाप रूप बन जाते हैं। समाज की महिलाओं के लिए यह खतरा बन जाता है। कामवासना इस तरह आन्तरिक शान्ति का नाश कर देती है। आन्तरिक शान्ति, आन्तरिक प्रसन्नता, आन्तरिक आनन्द....हमारा धन है, हमारी संपत्ति है, कामवासना इस संपत्ति की लूट करती है। दुराचार और व्यभिचार करनेवाले लोग इस आन्तरिक संपत्ति को सर्वथा खो देते हैं। For Private And Personal Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४७ २६६ भीतरी वैभव को पहचानो : निर्भयता और निश्चिंतता मनुष्य की आन्तरिक संपत्ति है, आन्तरिक वैभव है। तीव्र कामवासना से प्रेरित मनुष्य जब दुराचार-व्यभिचार के कुत्सित मार्ग पर चल देता है तब वह अपना आन्तरिक वैभव खो देता है। निर्भयता चली जाती है, निश्चितता चली जाती है....भय और चिन्ताओं से वह घिर जाता है। ऐसी मनःस्थिति बन जाने पर मनुष्य न तो धर्मआराधना कर सकता है, न अर्थपुरुषार्थ कर सकता है। जबकि गृहस्थ को कामपुरुषार्थ इस प्रकार करना चाहिए कि धर्मपुरुषार्थ और अर्थपुरुषार्थ में बाधा न पहुंचे। ___ चार प्रकार के पुरुषार्थ तो आप जानते हो न? धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, ये चार पुरुषार्थ हैं। दो पुरुषार्थ साध्य हैं और दो असाध्य हैं। काम और मोक्ष साध्य हैं, धर्म और अर्थ साधन हैं। मोक्ष पाने का साधन है धर्म और काम यानी भोगोपभोग का साधन है अर्थ! इन चार पुरुषार्थ में किसी भी एक पुरुषार्थ को क्षति न पहुँचे इस प्रकार गृहस्थ को अपनी जीवनव्यवस्था स्थापित करनी चाहिए। धर्मपुरुषार्थ उस प्रकार करना चाहिए कि अर्थ और काम पुरुषार्थ में विघ्न न हो। मोक्ष के प्रति गति होती रहे, मोक्ष का लक्ष्य बना रहे और धर्म होता रहे । अर्थपुरुषार्थ उस प्रकार करना चाहिए कि धर्मपुरुषार्थ में विक्षेप न हो और कामपुरुषार्थ में असंतोष न हो। मोक्षदृष्टि खुली रहनी चाहिए। कामपुरुषार्थ भी उस प्रकार करना चाहिए कि धर्मकार्यों में विक्षेप न हो और अर्थपुरुषार्थ में क्षति न हो। इस प्रकार की जीवनव्यवस्था होनी चाहिए आप लोगों की। क्या होगा हमारा? : सभा में से : हम लोग मात्र जीते हैं....नहीं है जीवनदृष्टि, नहीं है कोई जीवन-व्यवस्था....! क्या होगा हमारा? महाराजश्री : चिन्ता मत करो, महानुभाव! आज दिन तक आपके पास जीवनदृष्टि नहीं थी, जीवनव्यवस्था का ज्ञान नहीं था, परन्तु अब तो दृष्टि और व्यवस्था का ज्ञान उपलब्ध हो रहा है न? निराश क्यों होते हो? निराश नहीं होना है। उत्साह से जीवनव्यवस्था में परिवर्तन लाना है। अस्त-व्यस्त जीवनव्यवस्था को व्यवस्थित करना है | मैं जैसे कहूँ वैसे जीवनव्यवस्था बना लो, सुखी बनोगे! प्रसन्नता मिलेगी। कामपुरुषार्थ यानी स्त्री-पुरुष की संभोग-क्रिया में कुछ मर्यादाओं का पालन करना, यही आप लोगों का इन्द्रिय जय है। स्पर्शेन्द्रिय का जय है। आप गृहस्थ For Private And Personal Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४७ २६७ हैं, यदि अभी तक विशेष गृहस्थधर्म का पालन करने की भूमिका प्राप्त नहीं की है, मैथुनक्रिया का त्याग करने की क्षमता प्राप्त नहीं की है, तो आपका इन्द्रिय विजय वहाँ तक ही सीमित रहेगा कि आप परस्त्री की इच्छा न करें, कुमारिका की इच्छा न करें। आपका संबंध स्वस्त्री से ही रहना चाहिए। वैसे महिला के लिए परपुरुष वर्ण्य होना चाहिए, अपरिणीत युवक भी वर्म्य होना चाहिए। इनकी इच्छा भी नहीं करनी चाहिए। अपने ही विवाहित पुरुष के साथ भोग-संभोग होना चाहिए, दूसरों के साथ नहीं। भोग-संभोग का सुख आप लोगों को यदि चाहिए, आप सर्वथा मैथुन का त्याग नहीं कर सकते हो, आप भोग-संभोग करें, परन्तु अपने ही विवाहित व्यक्ति के साथ ही आपका सम्बन्ध हो। तो आप इन्द्रियविजेता हैं। आपकी गृहस्थोचित भूमिका पर आप इन्द्रियविजेता हो। सभा में से : इन्द्रियविजेता बनने के लिए इन्द्रियों का दमन नहीं करें, परन्तु इन्द्रियों को विषयभोग करने दें....तो क्या गलत है? आजकल कुछ फिलोसॉफर ऐसी भी बात करते हैं! महाराजश्री : यदि विषयभोग करने से इन्द्रियविजेता बनना संभव होता तो आप लोग कभी के विजेता बन गए होते! कितने वर्षों से विषयभोग करते हो? आप लोगों से पहले....वेश्यायें और वेश्यागामी पुरुष इन्द्रियविजेता शीघ्र बन जाने चाहिए। कितनी वेश्यायें कामविजेता बनीं? कितने वेश्यागामी पुरुष कामविजेता बने? कुछ अपनी बुद्धि से सोचो। बोलनेवाले तो बोलते रहेंगे। अपने देश में वाणी स्वातंत्र्य है न? जिसको जो ऊंचे यह बोल सकते हैं। सुनने वालों का दिमाग ठिकाने होना चाहिए। कुछ लोगों को उलटी बातें करने की आदत पड़ी हुई है। जब की तीर्थंकरों ने, अवतारों ने, ऋषि-मुनियों ने इन्द्रियों के दमन और शमन की बात की है, तब ये 'इमीटेशन फिलॉसफर' उलटी ही बात करते हैं। दमन और शमन नहीं करने की बात करते हैं। और, उलटी बातें करनेवालों की ओर लोगों का ध्यान जल्दी खिंच जाता है। जीवों में कामवृत्ति वैसे भी प्रबल होती है। जब ऐसे लोगों को कामवृत्ति और कामप्रवृत्ति की अनिष्टता का ज्ञान नहीं होता है, कामवृत्ति के भयानक परिणामों का ज्ञान नहीं होता है, तब वे लोग ऐसे उलटी बातें करनेवालों के चक्कर में सुविधायें चाहिए वे सुविधाएं जहाँ भी मिल जाती हो, निर्भयता से जहाँ भोग-संभोग हो सकता हो, भले ही वह वेश्यागृह हो या आश्रम हो, लोग चले जायेंगे! नाम 'आश्रम' का और काम वेश्यागृह का! आश्रम के नाम पर For Private And Personal Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६८ प्रवचन-४७ वेश्यागृह चलाने में कुछ प्रपंची लोगों को सफलता मिल रही है! सन्यासी का वेश पहनकर व्यभिचार सेवन करने में उनको सफलता मिल रही है! वासना-विजय के उपाय : विषयोपभोग से कभी भी इच्छाएँ शान्त नहीं होती हैं। विषयोपभोग से इच्छाएँ प्रबल बनती जाती हैं। प्रबल इच्छाएं मन को और तन को रोगी बना देती हैं। प्रबल कामेच्छा, स्वस्थता, स्थिरता, प्रसन्नता और पवित्रता को नष्ट कर देती है। इसलिए ज्ञानी पुरुष कहते हैं कि इच्छाओं को प्रबल मत होने दो। इच्छाएं प्रबल बनने के अनेक निमित्त होते हैं, अनेक आलंबन होते हैं। कुछ निमित्त बताता हूँ। (१) अविवाहिता, परस्त्री और विधवा महिलाओं का संपर्क मत रखो। इनके साथ बैठने से, ज्यादा बातें करने से शरीरस्पर्श करने से कामेच्छा प्रबल हो सकती है। (२) कामक्रीड़ा के विभिन्न दृश्य देखने से कामेच्छा तीव्र बन सकती है। आजकल वैसे सिनेमा चलते हैं, जहाँ स्त्री-पुरुष की कामक्रीड़ाएं देखने को मिलती हैं। सिनेमा नहीं देखने वाले कितने लोग? आप लोग कि जो मंदिर में जाते हैं, धर्मस्थानों में आते हैं, वे भी ज्यादातर लोग सिनेमा देखते रहते हैं। सेक्सी-विलासी सिनेमा ही ज्यादा बन रहे हैं। 'प्रेम' के नाम, परस्त्री से या अविवाहिता से अथवा विधवा स्त्री से संबंध स्थापित किए जाते हैं और भोगसंभोग के प्रसंग बताए जाते हैं। देखनेवालों के दिमाग पर इनका बड़ा बुरा असर पड़ता है। (३) लड़के और लड़कियों की सहशिक्षा भी कामवृत्ति को प्रबल बनाती है। प्राथमिक शाला में, माध्यमिक शाला में और कालेज में....सर्वत्र सहशिक्षा दी जा रही है। तरुण अवस्था में और युवावस्था में ही कामवासना के शिकार बन जाते हैं लड़के और लड़कियाँ । अनेक लड़कों के जीवन, लड़कियों के जीवन नष्ट हो रहे हैं। पढ़ाई का रस अब नहीं रहा है अब रस रहा 'सेक्सी' प्रवृत्तियों का। जिनके पास धन और यौवन है, वे युवक और युवतियाँ भोग-संभोग करते हुए अनेक मानसिक एवं शारीरिक बीमारियों के शिकार बन रहे हैं। (४) सरकार ने भी इन लोगों को सुविधाएँ दे रखी हैं। संतति-नियमन के साधन बाजारों में बिकने लगे हैं। वैसी होटलें बनी हैं और बन रही हैं कि जहाँ स्त्री-पुरुषों को चाहिए वैसा एकान्त मिल जाता है। और वैसा कामोत्तेजक भोजन मिल जाता है ऐसी होटलें भी हैं कि जहाँ पुरुष को चाहिए वैसी स्त्री मिल जाती है! यानी होटल के साथ साथ वेश्यागृह भी चलते हैं! For Private And Personal Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६९ प्रवचन-४७ सदाचारी होना किसको है? : ऐसे स्थानों में जाना आना आजकल फैशन माना जाता है! बड़े शहरों में तो कोई संकोच ही नहीं रहा है। पुरुष का परस्त्री के साथ, स्त्री का परपुरुष के साथ संबंध बढ़ता जा रहा है। इसके पारिवारिक सामाजिक और राष्ट्रीय परिणाम कैसे आ रहे हैं, यह जानते हो? परिवार छिन्नभिन्न हो रहे हैं। समाज जैसा कुछ रहा ही नहीं है! राष्ट्रीय चरित्र की शान नष्ट हो रही है। शान का माध्यम सदाचार नहीं रहा है, शान के माध्यम अर्थ और काम बन गये हैं। अमरीका की राष्ट्रीय शान किस बात पर निर्भर है? सदाचार पर? नहीं, उसकी श्रीमन्ताई पर उसकी शान है दुनिया में | भारत को भारत नहीं रहने देना है, भारत को अमरीका बनाना है! भारत को 'फ्रान्स' बनाना है, भारत को 'रशिया' बनाना है! भारतीय संस्कृति शीघ्र गति से नष्ट होती जा रही है। सीता और दमयंती के सतीत्त्व की कथाएँ मात्र सुनने का विषय बन गई हैं। किस नारी को सीता बनना है? किस नारी को दमयंती बनना है? किस पुरुष को सदाचारी सुदर्शन श्रेष्ठि बनना है? ___ परायें पुरुषों के साथ, परायी महिलाओं के साथ इस तरह संबंध घनिष्ट बनते जा रहे हैं, कि कामवृत्ति पर संयम पाना अति मुश्किल बन गया है। इस बुराई से जो घर, जो स्त्री, जो पुरूष बचा हो, वह धन्यवाद का पात्र है। वह अभिनन्दनीय-प्रशंसनीय है! गृहस्थ जीवन की भूमिका पर कामनिग्रह का अर्थ इतना ही होता है कि परस्त्री का त्याग करना और परपुरुष का त्याग करना । पुरुष को परस्त्री का संसर्ग नहीं रखना है। मुंज और मृणाल की इतिहास-कथा : __जो पुरुष परस्त्री का संग करता है वह अनेक आपत्तियों को मोल लेता है। मालवपति मुंज का नाश इसी कारण हुआ था। जब तैलप ने मुंज को अपने कारावास में डाला था, मुंज तैलप की बहन मृणाल के संपर्क में आया था। मृणाल मुंज के लिए भोजन लेकर प्रतिदिन मुंज के पास आया करती थी। मुंज और मृणाल का प्रेमसंबंध कारावास में स्थापित हुआ। कामवासना कितनी प्रबल होती है! शत्रु के घर में शत्रु की बहन के साथ प्रेम संबंध बांध लिया मुंज ने! मुंज राजा बुद्धिमान था, ज्ञानी था, परन्तु कामवासना ने मुंज को विवेकहीन बना दिया! एक अनजान नारी के साथ मुंज ने प्रेम कर लिया! For Private And Personal Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७० प्रवचन-४७ हालाँकि मृणाल इतनी रूपवती भी नहीं थी! परन्तु कामवासना रूप को नहीं देखती, उसको तो चाहिए नारीदेह! मृणाल कुमारिका थी। उसमें भी कामवासना प्रबल थी... अन्यथा वह स्वयं मुंज के लिए भोजन लेकर क्यों आती? उसका तो इरादा ही था मुंज के साथ विषय-भोग करने का | मुंज का रुपवान और शक्तिशाली देह मृणाल को पसंद आ गयी थी। कामवासना पर संयम रखना, उसके विचारों में ही नहीं था । वह चाहती थी वासना की तृप्ति! पात्र मिल गया मुंज का | मुंज भी अपना विवेक खो बैठा। मृणाल के साथ विषयभोग का सुख अनुभव करता रहा। मुंज के बुद्धिमान मंत्रियों ने मुंज को कारावास से मुक्त कराने की योजना बनाई। धरती में रास्ता बनाया । कारावास भूमिगृह में था। जब भूगर्भ रास्ता कारावास में खुला तब मुंज को पता लगा कि उसके लिए मुक्ति का मौका आ गया है। मंत्री ने भूगर्भ रास्ते से आकर मुंज को सारी योजना बता दी। मुंज बहुत खुश हो गया। जब मृणाल भोजन लेकर आई, मुंज को ज्यादा खुश देखकर वह शंकाशील बनी। भोजन करते समय मृणाल ने मुंज से पूछा : 'आज आप बहुत खुश हैं, क्या बात है?' मुंज ने कहा : 'तुम्हें देखकर खुशी हो रही है!' मृणाल ने कहा : 'मैं रोजाना आती हूँ..इतनी खुशी कभी नहीं देखी! बात कोई दूसरी होनी चाहिए...बताइये...क्या बात है?' ___ बात अत्यन्त गोपनीय थी, गंभीर थी, किसी को भी बताने जैसी नहीं थी। मुंज मौन रहता है। मृणाल अत्यन्त आग्रह करती है। मुंज सोचता है कि 'मृणाल को भी मेरे साथ ले चलूं....उसने मुझे इस कारावास में इतना सुख दिया है...गहरा प्रेम दिया है....वह अवश्य मेरे साथ चलेगी।' मुंज ने मृणाल पर विश्वास कर लिया और कारावास से भागने की सारी योजना बता दी! बात सुनकर मृणाल खुश हो गई। 'मुंज मुझे अपनी रानी बना देगा, इस कल्पना ने उसको आनन्द से भर दिया, उसने मुंज से कहा : 'मैं अपने गहनों का डिब्बा लेकर आती हूँ, मैं आपके साथ ही चलूँगी, आप मेरा इन्तजार करना।' मृणाल का विचार क्यों बदला? : मृणाल गई, अपने महल में जाकर उसने सोचा : 'मुंज के अन्तःपुर में अनेक रानियाँ हैं। सभी रानियाँ रूपवती हैं....मैं रूपवती नहीं हूँ....वहाँ जाने के बाद मुंज यदि मेरे सामने नहीं देखेगा तो? यहाँ तो मेरे अलावा दूसरी कोई For Private And Personal Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४७ २७१ नहीं है, इसलिए वह मेरे साथ प्रेम करता है....| उसको यहीं पर रखना चाहिए....तभी मुझे सुख मिल सकता है।' __ सोचना, मृणाल अपने सुख का विचार करती है। मुंज के सुख दुःख का विचार वह नहीं कर सकती है। संसार में ऐसा ही बनता रहता है। सब लोग अपने अपने सुख का विचार करते हैं। अपने सुख के लिए, अपना सुख पाने के लिए दूसरों को दुःखी करने से भी नहीं हिचकिचाते। हालाँकि मृणाल का इरादा नहीं था मुंज को दुःखी करने का, परन्तु 'मुंज यहाँ से नहीं जाना चाहिए, मुंज यहीं पर रहना चाहिए,' इस विचार ने मृणाल को विवेकहीन बना दी। मृणाल ने सोचा : 'मेरे कहने से, मेरे आग्रह से मुंज यहाँ नहीं रुकेगा। वह भूगर्भ के रास्ते से चला जाएगा। यदि उसको रोकना है तो मेरे भाई को गुप्त बात बता देनी चाहिए। मेरा भाई ही उसको रोक सकता है।' मृणाल ने जाकर तैलप को बात बता दी, भूगर्भ रास्ते की। उधर मुंज मृणाल का इन्तजार करता रहा। ज्यों उसने कारावास के द्वार पर तैलप को नंगी तलवार लिए खड़ा हुआ देखा, मुंज को होश आ गया। उसकी आँखें खुल गईं। उसका मोह दूर हुआ। मुंज वैसे ही विद्वान था, उसने मृणाल का दोष नहीं देखा, अपने स्वयं का दोष देखा। तैलप ने मुंज के पास घर-घर भिक्षा मंगवाई, उस समय मुंज ने सच्चाई की बातें की हैं....वे अद्भुत हैं। तैलप ने मुंज को हाथी के पैरों तले कुचलवा दिया था, उस समय भी मुंज की स्वस्थता अद्भुत थी। इन्द्रियविजेता बनो : कामवासना आन्तर शत्रु है। मनुष्य की सब से बड़ी शत्रु मैथुन की वासना है। उस वासना पर विजय पाने का लक्ष्य चाहिए | उस वासना पर विजय पाने का सतत प्रयत्न जारी रहना चाहिए। 'इन्द्रिय-विजेता' ही सच्चा विजेता है। विश्वविजेता से भी इन्द्रियविजेता महान् है । इन्द्रियविजेता आन्तरिक सुख का अनुभव करता है, उस सुख की कल्पना भी इन्द्रियपरवश जीवात्मा नहीं कर सकता । इन्द्रियपरवश जीवात्मा जो दुःख और अशान्ति पाता है, उस दुःख की परछाँई भी इन्द्रियविजेता पर नहीं आ सकती। पहला आन्तरशत्रु 'काम' है। उस पर विजय पाने के कुछ उपाय आगे बताऊँगा। आज, बस इतना ही For Private And Personal Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४७ २७२ मा. आंतरिकशत्रुओं के साथ युद्ध करते रहो....तुम अवश्य विजयी बनोगे। विजयी बनकर पूर्णता को प्राप्त करोगे....तुम पूर्ण बन जाओगे! . सिनेमा का मनोरंजन छोड़ दो! सिनेमा देखने से असंख्य मानसिक विकृतियाँ पैदा हो जाती हैं। . वैसा मत देखो....मत पढ़ो....मत सुनो जिससे कि वासना को उत्तेजना मिले। कामशशु पर विजय पाने का यही एक सरल उपाय है। • वस्त्र परिधान में यह ध्यान रखो कि स्वयं या अन्य की वासना भड़के नहीं! तुम्हारी वेशभूषा वैसी होनी चाहिए कि देखने वालों के दिल और आँखों में वासना न उभरे...न ही विकृति की चिनगारी भड़के। प्रवचन : ४८ परम कृपानिधि महान् श्रुतधर आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी, स्वरचित 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ में गृहस्थ जीवन के सामान्य धर्म बता रहे हैं। सामान्य धर्म यानी सभी गृहस्थों के लिए 'कॉमन रिलीजन'। जिस किसी गृहस्थ को, गृहस्थ जीवन जीते हुए मानवता को उजागर करना है, उन सभी के लिए यह सामान्य धर्म उपादेय है। मानवता को सदैव उजागर करने के लिए मनुष्य को अपने अन्तरंग शत्रुओं की पहचान कर लेनी चाहिए और उन शत्रुओं का निग्रह करते हुए इन्द्रियसंयम करना चाहिए | परन्तु परिस्थिति और ही है! अन्तरंग शत्रुओं की शरणागति स्वीकार कर ली गई है! आन्तरिक शत्रुओं के सहारे जीवन जीने का निर्णय कर लिया गया है। सही बात है न? काम, क्रोध, लोभ, मान, मद और हर्षइनके बिना जीवन जीने का विचार भी कभी किया है? कभी अपने आपको पूछा है कि___ 'हे आत्मन, तू कामविकारों की तीव्रता का कब त्याग करेगा? तू क्रोध की तीव्र वासना से कब मुक्त होगा? तू लोभ की प्रचंड आग में कब तक जलता रहेगा? तू अभिमान में पकड़ा हुआ कब तक रहेगा? विविध प्रकार के मदों में कब तक उन्मादी बना हुआ रहेगा? दुर्व्यसनों में कब तक हर्षोन्मत्त बना हुआ For Private And Personal Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४७ २७३ रहेगा? इन आन्तरिक शत्रुओं के सहारे जीवन जीने में तू अनन्त पापकर्म बांध रहा है यह तू जानता है क्या? आन्तरिक शत्रुओं के सहारे तेरी पाँच इन्द्रियाँ कितनी उन्मादी बनी हुई हैं-इसका तू विचार करता है क्या? इन आन्तरिक शत्रुओं के कारण तू धर्मपुरुषार्थ नहीं कर सकता है-इस बात पर तू कभी सोचता है क्या? इन शत्रुओं के कारण अर्थपुरुषार्थ में एवं कामपुरुषार्थ में भी तू सफलता प्राप्त नहीं कर सकता है, इस बात पर गंभीरता से तूने कभी सोचा है?' इस प्रकार का चिन्तन-मनन करने का कभी समय निकालते हो क्या? थोड़ा समय निकाल कर, इन बातों पर सोचोगे तब तो तुम्हारे जीवन में परिवर्तन आयेगा। अच्छा परिवर्तन आयेगा। काम-क्रोध वगैरह शत्रु हैं-वे ही सचमुच शत्रु हैं, इतनी बात समझ में आ जाने पर भव्य परिवर्तन आ जायेगा। भगवान ऋषभदेव के ९८ पुत्रों के जीवन में कैसा अद्भुत परिवर्तन आया था? सुनो वह रोमांचक घटना, मैं सुनाता हूँ। भरत की विराट महत्वाकांक्षा : भगवान ऋषभदेव के १०० पुत्र थे। जब ऋषभदेव ने संसार त्याग दिया था तब उन्होंने १०० पुत्रों को, राज्य का बँटवारा करके सबको स्वतंत्र राज्य दे दिये थे। सबसे बड़ा पुत्र भरत था। भरत को चक्रवर्ती सम्राट होना था! समग्र भारत का अधिपति होना था। कई वर्षों तक भरत ने अन्य राजाओं के साथ युद्ध किये। भारत के सभी राजाओं ने भरतकी आज्ञा शिरोधार्य की। भरत अपनी राजधानी में लौट आया। एक ऐसा नियम होता है कि चक्रवर्ती होने वाला राजा जब संपूर्ण भारत विजेता बन जाता है तब उनका सर्वश्रेष्ठ शस्त्र 'चक्र' उसकी आयुधशाला में स्वतः प्रविष्ट हो जाता है। 'ऐसा कैसे होता है? क्यों होता है-'इस की चर्चा अभी नहीं करता हूँ, अभी तो मुझे भरत चक्रवर्ती के छोटे ९९ भ्राताओं के जीवनपरिवर्तन की महत्वपूर्ण बात बतानी है। जब शस्त्रागार में 'चक्र' प्रविष्ट नहीं हुआ तब भरत विचार में पड़ गये। 'भारत के छह खण्ड पर मैंने विजय प्राप्त कर लिया है, फिर भी 'चक्र' शस्त्रागार में क्यों प्रविष्ट नहीं होता?' उसने अपने महामंत्री को पूछा। महामंत्री ने कुछ समय सोच कर कहा : 'महाराजा, आपने संपूर्ण भारत पर विजय पा लिया, परन्तु आपके ९९ छोटे भाइयों ने आप की आज्ञा शिरोधार्य नहीं की है? जब तक ९९ भाई आपकी आज्ञा शिरोधार्य नहीं करेंगे - तब तक For Private And Personal Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४७ २७४ 'चक्र' आयुधशाला में प्रविष्ट नहीं होगा, ऐसा हमें लगता है।' भरत को महामंत्री की बात ठीक लगी। उन्होंने तुरन्त ९९ भाइयों के पास अपने दूत रवाना किये और संदेश भेजा कि 'तुम मेरे आज्ञांकित राजा बन जाओ।' दूत भरत का संदेश लेकर ९९ भाइयों के पास पहुँचे। संदेश दिया। बाहुबली ने तो दूत को धुतकार दिया। शेष ९८ भाई भी भरत का संदेश सुनकर रोषायमान हो गये। ___९८ भाई एकत्र हुए और भरत के संदेश पर विचार-विमर्श किया। किसी को भी भरत की बात अच्छी नहीं लगी। 'जब पिताजी ने हम सभी को स्वतन्त्र राज्य दिया है तब भरत कैसे हम सबका मालिक बनने की इच्छा करता है? भरत हमारा ज्येष्ठ भ्राता है, हम उनका आदर करते हैं, परन्तु इसका अर्थ यह तो नहीं होता कि वह हमारे राज्य का मालिक बन जाये, वह हम पर अधिकार स्थापित करे। हमें उसे याद दिलानी चाहिए कि पिताजी ने हम सबको स्वतन्त्र राज्य दिया है, तुम अपना राज्य करो, हम हमारा राज्य करें।' ९८ भाइयों ने भरत के दूत को संदेश देकर वापस भेजा। परन्तु भरत नहीं माना, तब ९८ भाइयों ने मिलकर भरत से लड़ लेने का निर्णय किया। भाईभाई के मधुर संबंध को तोड़ने के लिए ये सभी तैयार हो गये। राज्य का लोभ! लोभ है आन्तरिकशत्रु! भरत को था चक्रवर्ती बनने का लोभ और ९८ भाइयों को था अपने-अपने राज्य का लोभ! लोभ सभी पापों का बाप होता है! लोभ में से अनेक पाप पैदा होते हैं। अनेक दोष पैदा होते हैं। जब ९८ भाइयों ने भरत की अधीनता स्वीकार नहीं की, तब भरत गुस्से हो गया। क्रोध से आगबबूला हो गया । ९८ भाइयों के साथ युद्ध करने को तैयार हो गया। दूसरी ओर, ९८ भाई भी भरत के अन्याय को देखकर अत्यन्त क्रुद्ध हो गये। सभा में से : अन्याय के प्रति तो आक्रोश होना चाहिए न? महाराजश्री : आक्रोश होना चाहिए आन्तरिक शत्रुओं के प्रति! न्याय और अन्याय तो मनुष्य के पुण्यकर्म और पापकर्म पर निर्भर होते हैं। यदि ९८ भाइयों के हृदय में राज्य का लोभ नहीं होता, राज्य की आसक्ति नहीं होती तो भरत अन्यायी नहीं लगता! 'भरत बड़ा भाई है, उसको चक्रवर्ती होना है, तो चलें, उसकी आज्ञा मान लें! अपना राज्य रहेगा तो अपने ही पास, मात्र मालिक कहलायेगा भरत....बड़ा भाई है....मालिक कहलायेगा तो दुनिया में बुरा नहीं लगेगा....परन्तु इस बात को लेकर भरत से लड़ना नहीं है। भगवान ऋषभदेव के पुत्र यदि आपस में लड़ेंगे तो दुनिया में अपयश फैलेगा।' ऐसा वे For Private And Personal Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन -४७ २७५ लोग सोच सकते थे न ? परन्तु नहीं सोचा ऐसा, उन्होंने सोचा आन्तरिक शत्रुओं से प्रेरित होकर। न्याय-अन्याय का विचार मनुष्य अपनी बुद्धि से करता है। और बुद्धि तो कभी गलत निर्णय भी कर लेती है । बुद्धि के निर्णय को कभी अंतिम निर्णय मत मानो। अंतिम निर्णय धर्मशास्त्र के माध्यम से किया करो | बुद्धि के निर्णय को शास्त्र के माध्यम से जांचते रहो, परखते रहो । ९८ भाईयों ने शास्त्र का माध्यम तो नहीं लिया, चूँकि उस समय शास्त्र ही नहीं थे! परन्तु उन्होंने भगवान् ऋषभदेव के पास जाने का निर्णय किया और उनकी राय लेकर आगे बढ़ने के लिए सोचा। जहाँ भगवान ऋषभदेव विचरते थे वहाँ ९८ भाई गये। जाकर वंदना की और सारी बात कह सुनायी । भगवान् ने उनकी सारी बात सुनी और कहा : कब तक लड़ते रहोगे इस तरह ? : 'महानुभाव, तुम्हारे राज्य पर भरत अपना आधिपत्य स्थापित करना चाहता है इसलिए तुम सब भरत को शत्रु मान रहे हो और उससे युद्ध करने को तत्पर हुए हो। परन्तु तुम आगे सोचो, मान लो कि तुमने भरत को पराजित कर दिया, क्या दूसरा कोई शत्रु पैदा नहीं होगा? उसके साथ भी तुम लड़ोगे...उसको पराजित करोगे... क्या नया शत्रु पैदा नहीं होगा ? कब तक लड़ते रहोगे? किसके लिए लड़ते रहोगे ? जिस राज्य के लिए युद्ध करते रहोगे, वह राज्य क्या तुम्हारे साथ परलोक चलेगा? राज्य यहाँ रह जायेगा और तुम अनंत पापकर्म लेकर परलोक चले जाओगे....। पापकर्मों का फल दुःख है। तुम अनंत दुःख पाओगे । इस विश्व में कोई भी जीव किसी का भी शत्रु नहीं होता । शत्रु होते हैं हर जीवात्मा के भीतर पले हुए काम, क्रोध, लोभ वगैरह अनंत दोष । भीतर के शत्रुओं को पहचानो। जब तक भीतर के शत्रु बने रहेंगे तब तक दुनिया में तुम्हें शत्रुता की बुद्धि होती रहेगी। सारे अनर्थ भीतर के शत्रु करवाते हैं। जब तक जीवात्मा पर भीतर के शत्रुओं का प्रभाव छाया हुआ रहता है तब तक वह जीवात्मा दुःखमय संसार में परिभ्रमण करता रहता है । अनन्त दुःख, त्रास और वेदनायें भोगता रहता है। इसलिए तुम्हें मैं कहता हूँ कि तुम भीतर के शत्रुओं से लड़ो। इस मानव जीवन में ही आन्तरिक शत्रुओं से लड़ सकोगे और विजय पा सकोगे । ऐसी विजय पाओगे कि फिर कभी पराजय नहीं होगी । ऐसी अनन्त, अक्षय संपत्ति पा लोगे कि फिर दूसरी कोई संपत्ति पाने की इच्छा ही पैदा नहीं होगी । For Private And Personal Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४७ २७६ तुम युद्ध करो आन्तरिक शत्रुओं से। जब तुम्हें विजय प्राप्त होगी तुम पूर्णता पा लोगे। पिता की बात पुत्रों के हृदय में उतर गई। सभी....९८ पुत्रों के मन में बात अँच गई। उन्होंने उसी समय भगवान ऋषभदेव के चरणों में जीवन समर्पण कर दिया । आन्तरिक शत्रुओं से युद्ध करना शुरू कर दिया । युद्ध का मैदान था श्रमण जीवन । श्रमण जीवन में सरलता से आन्तरिकशत्रु पर विजय पायी जा सकती है। क्रोध पर तो विजय पा ही ली थी। उनके हृदय में अब भरत के प्रति कोई शत्रु-भाव नहीं रहा। किसी जीव के प्रति शत्रुभाव नहीं रहा। दर्शन-श्रवण-वाचन में सावधान-सजग रहें : __ कल मैंने आपको बतायी थी काम-शत्रु पर विजय प्राप्त करने की बात | यदि कामवासना पर विजय पाना है तो तीन बातों में काफी सावधानी बरतनी होगी। पहली सावधानी दर्शन में रखनी होगी। देखने में सावधानी! कामवासना उत्तेजित हो वैसे द्रश्य मत देखो। सिनेमा तो देखना ही नहीं। सिनेमा का मनोरंजन छोड़ना होगा। असंख्य मानसिक विकृतियाँ पैदा होती हैं सिनेमा देखने से। दूसरी सावधानी रखने की है श्रवण में। ऐसी बातें, ऐसे गीत और ऐसे वार्तालाप मत सुनो कि जिस से कामवासना उत्तेजित होती हो, जिससे मनोविकार पैदा होते हों। रेडियो पर ज्यादातर गंदे गीत 'रिले' होते हैं न? मत सुनो। मित्रों में वैसी ही निम्नस्तर की कुत्सित बातें होती रहती है न? मत सुनो। युवान लड़के-लड़कियों के वार्तालाप भी ज्यादातर 'सेक्सी' होते हैं न? मत सुनो। यदि कामशत्रु पर विजय पानी है तो ऐसा सब सुनना बंद करना होगा। है न तैयारी? तीसरी बात है पढ़ने की। ऐसे अखबार, ऐसे पत्र, ऐसी पुस्तकें मत पढ़ो, कि जिसके पढ़ने से आपकी कामवासना प्रज्वलित होती हो। आजकल तो ऐसा साहित्य बहुत छपता है....लोग ज्यादा पढ़ते हैं....यदि आपको कामविजय पानी है कामवासना को संयम में रखना है.... तो ऐसा गंदा साहित्य कभी भी मत पढ़ो। इन तीन बातों के अलावा दूसरी भी कुछ सावधानियाँ बरतनी होंगी। खानेपीने में सावधान रहना | फैशन और मौजमजा के लिए आजकल अपने समाज के लोग भी अभक्ष्य खाने लगे हैं और अपेय पीने लगे हैं। अभक्ष्य खाने से और अपेय का पान करने से कामवासना प्रबल होती ही है। अंडे खानेवाले, For Private And Personal Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७७ प्रवचन-४७ मांसभक्षण करनेवाले और शराब पीने वाले लोग क्या अपनी कामवासना को संयम में रख सकते हैं? कामोत्तेजक औषधियों का तो त्याग करना ही होगा। वस्त्रपरिधान भी वैसा करना चाहिए कि जिस से कामवासना संयम में रहे। वस्त्रपरिधान के साथ कामवासना का संबंध है! इसलिये मर्यादा में रहते हुए वस्त्रपरिधान करना चाहिए। आपकी वेशभूषा ऐसी होनी चाहिए कि आपको देखने वाले दूसरे लोगों के मन और नयन विकृत न हो! बच्चों को भीतरी शत्रुओं का परिचय दो : सभा में से : आजकल तो हमारे लड़के-लड़कियाँ ऐसे वस्त्र पहनते हैं और ऐसी विभूषा करते हैं कि उनकी और लोगों की निगाह जाये बिना न रहे। लड़के चाहते हैं कि लड़कियाँ उनको देखती रहें। लड़कियाँ चाहती हैं कि लड़के उनको देखते रहे। महाराजश्री : ऐसा क्यों होता है? आन्तरिक शत्रुओं का उन्हें कोई खयाल ही नहीं है! आन्तरिक पापवृत्तियों की उन्हें पहचान ही नहीं है! उन्हें चाहिए इन्द्रियों के प्रिय विषय | उन्हें चाहिए विषयभोग | उन्हें चाहिए मात्र बाहरी आनंद-प्रमोद | उनकी दुनिया ही दूसरी है। आन्तरिक शत्रुओं का परिचय क्या आप लोगों ने अपनी संतानों को कभी दिया है? बाल्यकाल में यदि बच्चों को सरल भाषा में आप आन्तरिक शत्रुओं का परिचय देते, इन्द्रियसंयम की बातें करते और आप स्वयं वैसा उदाहरण प्रस्तुत करते तो आज जो विकृत परिस्थिति पैदा हुई है, वह पैदा नहीं होती। युवा पीढ़ी को कैसे समझायें कि काम-वासना आन्तरिक-शत्रु है। चूंकि वे लोग कामवासना को मित्र मान रहे हैं। कामवासना के माध्यम से ही वे सुख का, ऐन्द्रियक सुख का अनुभव करना चाहते हैं। शत्रु को मित्र मानकर चलने वालों को सही बात समझाना, सरल काम नहीं होता। ___ मेरा अभी यह कहना नहीं है कि आप सभी ब्रह्मचारी बन जाओ। हालांकि, ब्रह्मचारी बन जाओ तो मुझे खुशी अवश्य होगी, परन्तु आप सभी ब्रह्मचारी बन जाये, वह संभव नहीं लगता। क्यों ठीक बात है न? ब्रह्मचारी नहीं, सदाचारी तो बने रहो। शादी न हो वहाँ तक : जब तक शादी न हो, तब तक तो अवश्य ब्रह्मचर्य का पालन होना चाहिए | शादी से पूर्व विजातीय शारीरिक संबंध नहीं होना चाहिए | सजातीय शारीरिक For Private And Personal Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७८ प्रवचन-४८ संबंध भी नहीं होना चाहिए। तरुण अवस्था तक शरीर का गठन होता है | यदि उस अवस्था में ब्रह्मचर्य का पालन होता है तो शरीर का ढांचा अच्छा बनता है, शारीरिक शक्ति का अच्छा निर्माण होता है। युवावस्था के प्रारम्भ से मनुष्य के मन का विकास होता है। यदि ब्रह्मचर्य का पालन होता है तो मन की स्मरण शक्ति का और चिन्तनशक्ति का अच्छा विकास होता है | जब तक कामवासना पर संयम रह सके वहाँ तक ब्रह्मचारी बने रहना चाहिए | जब कामवासना पर संयम रखना अशक्य बन जाये तब सुयोग्य व्यक्ति से शादी कर लेनी चाहिए। शादी के बाद : _जिस व्यक्ति के साथ शादी की हो, उस व्यक्ति के अलावा दूसरे किसी व्यक्ति के साथ यौन-संबंध नहीं करना चाहिए। विवाहित व्यक्ति के अलावा दूसरे व्यक्ति के साथ मैथुन-सेवन करने से शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक और सामाजिक अनेक अनिष्ट पैदा होते हैं। शरीर में रोग, मन में अशान्ति और भय, परिवार में क्लेश और झगड़े, समाज में बेइज्जती और तिरस्कार! आध्यात्मिक दृष्टि से पापकर्म का बंधन और दुर्गति-गमन! __ कामवासना पर संयम रखने के लिए, आप लोगों को दूसरी महिलाओं का संपर्क-परिचय नहीं करना चाहिए। दूसरी महिलाओं के साथ निष्प्रयोजन बातें नहीं करनी चाहिए, हँसना नहीं चाहिए, एकान्त में मिलना नहीं चाहिए और शारीरिक स्पर्श नहीं करना चाहिए । वैसे महिलाओं को अपने पति के अलावा दूसरे पुरुषों के साथ ज्यादा बातें नहीं करनी चाहिए, हँसना नहीं चाहिए और एकान्त में मिलना नहीं चाहिए | परपुरुष का स्पर्श भी नहीं करना चाहिए | सभा में से : आजकल तो महिलाएँ भी पुरुषों के साथ 'सर्विस' करती हैं। इसलिए पर पुरुषों का और पर स्त्रियों का आपस में मिलना-जुलना और मित्रता होना स्वाभाविक हो गया है। महाराजश्री : इसलिए तो उनके जीवन में अनेक अनिष्ट प्रविष्ट हो गये हैं न? ऐसी 'सर्विस' करने वाले स्त्री-पुरुषों में से एक प्रतिशत भी सदाचारी लोग मिल जायें तो मैं खुश हो जाऊँ। 'सरविस' करने वाली कई महिलाओंने अपने शील को खो दिया है। सामाजिक दृष्टि से 'पापी' नहीं कहलाने के लिए वैसे साधन का उपयोग कर लेती हैं। सरकार ने 'बर्थकन्ट्रोल' के साधन सुलभ कर For Private And Personal Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४८ २७९ दिए हैं। उन साधनों का उपयोग दुराचार के सेवन में करने से कौन रोकता है? __यदि गृहस्थ जीवन के सामान्य धर्म का पालन करना है, मानवता के पुष्पों को जीवन-वन में उगाना है तो आन्तरिक शत्रुओं से बचना होगा। आन्तरिक शत्रु पर विजय पाना होगा। इन्द्रियों पर आंशिक संयम भी रखना होगा। जीवनपद्धति में थोड़ा परिवर्तन करें : आज का वातावरण जो कि अत्यंत कलुषित और विलासी है, उसमें कामवासना पर संयम रखने का काम सरल नहीं है, यह बात मैं जानता हूँ, परन्तु फिर भी कहता हूँ कि दृढ़ मनोबल से यदि आप चाहें तो संयम रख सकते हैं। जीवन जीने की पद्धति में कुछ परिवर्तन करना होगा और परिवार के सभ्यों को आन्तरिक शत्रुओं पर विजय पाने के अभियान में सहयोगी बनाने होंगे। यदि परिवार के लोग आपके सहयोगी बनेंगे और आन्तरिक शत्रुओं पर विजय पाने के कार्य में आपको साथ देंगे तो आप सफल बनेंगे। जिस प्रकार कामवासना शत्रु है उस प्रकार क्रोध भी आन्तरिक शत्रु है। क्रोध शत्रु है, चूंकि वह शत्रुओं को पैदा करता है। चूंकि वह जिसके तन-मन में प्रवेश करता है उसको बरबाद करके रहता है। यह बात भी मैं मानता हूँ कि आप क्रोध का सर्वथा त्याग नहीं कर सकते, परन्तु आप क्रोध को शत्रु तो मान सकते हो न? क्रोध को मित्र मानकर उसका सत्कार मत करो, यह मेरा कहना है। यदि मित्र मानकर क्रोध को तन-मन में स्थान दे दिया, तो बरबाद हो जाओगे। शरीर से बरबाद, धन संपत्ति से बरबाद, संबंधों से बरबाद और परिवार से भी बरबाद हो जाओगे। क्रोध को मित्र मानने का अर्थ यह होता है : 'यदि गुस्सा नहीं करता हूँ तो लड़के कहा नहीं मानते, पत्नी भी कहा नहीं मानती है। इसलिए गुस्सा तो करना ही पड़ता है।' __ 'यदि गुस्सा नहीं करते हैं तो जिनके पास हम पैसा मांगते हैं, वे देते नहीं। दो-चार गाली बकते हैं....आँख लाल करते हैं....तभी पैसा मिलता है।' _ 'यदि गुस्सा नहीं करते हैं, तो लड़के-लड़कियाँ बिगड़ जाते हैं, पढ़ते नहीं हैं, अनुशासन में नहीं रहते हैं....इसलिए हम मास्टरों को गुस्सा तो करना ही पड़ता है।' For Private And Personal Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४८ २८० इस प्रकार की मान्यतायें जब बन जाती हैं तब क्रोध से मित्रता बंध जाती है। ज्यों-ज्यों मित्रता दृढ़ होती है त्यों-त्यों क्रोध प्रबल बनता जाता है। बस, अनर्थों की परंपरा शुरू हो जाती है। गुस्सा मनुष्य के वश नहीं रहता, मनुष्य गुस्से के वश हो जाता है । गुस्से को मित्र बना लो : बड़ी महत्व की बात है यह । क्रोध आपके वश में रहता हो तब तक वह आपका नहीं बिगाड़ेगा। आपको वह उपयोगी भी बन सकता है । जैसे, सर्प जब तक सपेरे के वश में रहता है तब तक सर्प से सपेरा पैसा कमाता है, परन्तु सपेरा यदि साँप के वश हो गया तो .... मौत ही होती है, वैसे मनुष्य पर यदि क्रोध हावी बन जाता है तो मनुष्य अनेक जन्मों तक बरबाद होता रहता है। यों तो साधु को भी विशेष प्रसंग में क्रोध करने की इजाजत तीर्थंकरों ने दी है। परन्तु वैसे साधुओं को दी है कि जो साधु क्रोध को शत्रु मानता हुआ, उसके वश न हो। क्रोध को अपने वश में रखता हुआ, मात्र उसका उपयोग कर ले! क्रोध को मात्र साधन के रूप में ही इस्तेमाल करे। वैसे आप लोगों को, गृहस्थों को भी वैसी सावधानी रखने की है कि आप क्रोध के 'कन्ट्रोल' में नहीं रहें । क्रोध आपके 'कन्ट्रोल' में रहे। क्रोध आपको नहीं नचाये। आप क्रोध को नचा सको । यानी क्रोध करते समय भी जाग्रत रहना है। संसार के अर्थ- पुरुषार्थ और काम पुरुषार्थ में जब कभी क्रोध का सहारा लेना पड़े तब जाग्रत रहकर क्रोध का उपयोग करना है। आवश्यकता से ज्यादा जरा भी उपयोग न हो जाये, इस बात की संपूर्ण जागृति रहनी चाहिए। डॉक्टर को जब दर्दी का ऑपरेशन करना होता है तब वह कितना सावधान रहता है? छूरी से पेट को चीरता है.... परन्तु यदि एक इंच का घाव करना है तो सवा इंच का नहीं करेगा। जहाँ चीरना होगा वहीं पर ही चीरेगा । चीरने के बाद रोग दूर करके शीघ्र ही घाव तो बंद कर देगा। चूँकि उसका लक्ष्य मरीज के रोगनिवारण का होता है । वैसा आपका लक्ष्य यदि दूसरों के दोष दूर करने का होगा, और क्षमा से अथवा समझाने से कार्य नहीं होता होगा और आपको क्रोध करना आवश्यक ही लगता होगा तो आप क्रोध करेंगे परन्तु उतना ही क्रोध आप करेंगे.... कि जितना आवश्यक होगा। आपको आवश्यकता का अंदाजा होना चाहिए। For Private And Personal Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- ४८ २८१ क्रोध करना एक बात है, क्रोध हो जाना दूसरी बात है । क्रोध करना पड़े और करो, तो नुकसान नहीं, परन्तु क्रोध हो जाया करता है, तो नुकसान हुए बिना नहीं रहेगा। क्रोध हो जाना मनुष्य की कमजोरी है । क्रोध करना मनुष्य की एक प्रकार की समझदारी है । स्व- पर हित की दृष्टि से यदि मनुष्य क्रोध करता है तो उसका खयाल होता है कि मुझे कब क्रोध करना है, कितने समय तक करना है, किसके साथ करना है, कितनी मात्रा में करना है । वह यह भी जानता है कि क्रोध करने के बाद उसका निवारण कैसे किया जा सकता है । क्रोध से यदि विपरीत असर पैदा हो गया तो उसको कैसे मिटाया जा सकता है। गुस्से का परिणाम : पारावार दुःख : ऐसी क्रोध करने की कला प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम तो आपको 'क्रोध मेरा आन्तरिक शत्रु है,' इस बात को अच्छी तरह समझ लेना होगा। अच्छी तरह समझ लेने के बाद क्रोध के प्रभाव से मुक्त होने का प्रयत्न करना होगा । चूंकि अपनी आत्मा अनन्त जन्मों से, इन आन्तरिक शत्रुओं के घेरे में फंसी हुई है। अपनी आत्मा पर क्रोधादि शत्रुओं का प्रबल प्रभाव छाया हुआ है । उस प्रभाव को नष्ट कर देना है । इसलिए क्रोध से होने वाले अनर्थों का, नुकसानों का यथार्थ भान होना चाहिए। क्रोध होने के कारणों का यथार्थ ज्ञान होना चाहिए। जिन-जिन कारणों से क्रोध होता है, उन कारणों का ज्ञान होने से अपन क्रोध से बच सकते हैं । जिनको बात-बात में क्रोध हो जाता है, जिनको मामूली प्रतिकूलता में भी क्रोध हो जाता है, जिनको सामान्य प्रसंगों में भी क्रोध आ जाता है - उन सब को अनुभव होगा ही कि उनको कितने नुकसान हुए हैं। किसी भी क्षेत्र का मनुष्य हो, क्रोध से उसने नुकसान ही पाया होगा । आर्थिक नुकसान, पारिवारिक नुकसान, मानसिक नुकसान और शारीरिक नुकसान। अभी-अभी मैंने इसी नगर की एक घटना सुनी। एक लड़का जुआ खेलने की आदत में फंस गया था। उसके पिता ने उसको एक दिन थोड़ा सा उपालंभ दिया। लड़के को गुस्सा आ गया । घर छोड़ कर निकल गया .... और ट्रेन की पटरी पर जाकर सो गया.... गाड़ी के नीचे कट गया.... । इस प्रकार गुस्से में आकर कई महिलाएँ भी आत्महत्या कर लेती हैं न? जहर पीकर मर जाती हैं न? For Private And Personal Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४८ भगवान् उमास्वातीजी ने क्रोध के नुकसान बताते हुए कहा है : 'क्रोधः परितापकरः सर्वस्योद्वेगकारकः क्रोधः | वैरानुषङ्गजनकः क्रोधः क्रोधः सुगतिहन्ता ।।' १. क्रोध से मनुष्य के मन में परिताप पैदा होता है। यानी क्रोध करने से क्रोध करने वाले का मन तपता है। दिमाग तपता है, अशान्ति से भर जाता है। यह है मानसिक नुकसान । २८२ २. क्रोध करने से आस-पास के सभी लोगों को उद्वेग होता है। सभी के मन अशान्त होते हैं। वातावरण दूषित होता है, यह है पारिवारिक नुकसान । ३. क्रोध करने से दूसरे जीवों के साथ वैरभावना बंधती है। वैरभावना अनेक जन्मों तक जीव को दुःख देती है । यह है पारलौकिक नुकसान । ४. क्रोधान्ध व्यक्ति सद्गति में नहीं जाता, मर कर वह दुर्गति में जाता है । इसलिए क्रोध सद्गति का घातक बनता है। For Private And Personal Use Only क्रोध दूसरा आन्तरिकशत्रु है। बड़ा खतरनाक शत्रु है। उसका निग्रह करते हुए इन्द्रियविजेता बनना है। गृहस्थजीवन में मनुष्य सर्वथा तो क्रोधरहित नहीं बन सकता, परन्तु क्रोध की तीव्रता तो कम कर सकता है। तीव्र क्रोध नहीं होना चाहिए। क्रोध की तीव्रता कम करने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। आज बस इतना ही Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा तीर्थ Acharya Shree Kailasasagarsuri Gyanmandir Shree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba Tirth, Gandhinagar-382 007 (Guj.) INDIA Website : www.kobatirth.org E-mail: gyanmandir@kobatirth.org ISBN: 978-81-89177-19-5 (ISBN SET : 978-81-89177-17-1 For Private And Personal Use Only