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प्रवचन-३० आचार्यदेव की समयज्ञता :
छुरी से राजा का गला कट गया था, खून की धारा बह रही थी, खून से आचार्यदेव का संस्तारक गीला हो गया। आचार्यदेव जग गये। अन्धेरा था, कुछ स्पष्ट दिखाई देता नहीं था। हाथ फेरकर देखा, हाथ खूनवाला हो गया। उन्होंने 'विनयरत्न....विनयरत्न' करके विनयरत्न को आवाज दी, परन्तु विनयरत्न हो तो बोले न? जब विनयरत्न का प्रत्युत्तर नहीं मिला, उसका संस्तारक खाली पड़ा था, तब आचार्यदेव खड़े हुए और राजा उदायी को ध्यान से देखा तो वे स्तब्ध हो गये। 'राजा की हत्या? किसने की होगी?' वे सोचने लगे। जब विनयरत्न देर तक नहीं आया.... वे समझ गये! 'विनयरत्न के वेष में वह उदायी का शत्रु ही था। मैं धोखे में आ गया। परन्तु अब क्या किया जाय? प्रातः जब राजमहल में और नगर में राजा की हत्या का समाचार फैल जाएगा, तब हत्या का आरोप मुझ पर ही आएगा....' जैनाचार्य ने उदायी राजा की हत्या कर दी....' इससे मेरे धर्म की घोर निन्दा होगी। लोगों को साधुओं पर विश्वास नहीं रहेगा। साधु-साध्वी को संयमपालन करना दुष्कर हो जाएगा.... घोर अनर्थ हो जाएगा।' जिनशासन के लिए बलिदान :
कालिकसरिजी गंभीरता से सोचते हैं। 'दुनिया विनयरत्न को नहीं जानती है, कालिकसूरि को जानती है-रात्रि के समय राजा मेरे पास पौषध व्रत करता है, यह बात सब लोग जानते हैं। यहाँ दूसरा कोई व्यक्ति बाहर से आया नहीं है, इसके साक्षी हैं महल के रक्षक सैनिक। आरोप मुझ पर ही आएगा। इससे परमात्मा जिनेश्वर देव का जिनशासन कलंकित होगा। यह नहीं होना चाहिए।'
'जिनशासन की निंदा नहीं होनी चाहिए, इसकी गहन चिंता हो आयी आचार्यदेव को। जिनशासन को निंदा से बचा लेने का एक ही उपाय उनको हाथ लगा.... और वह उपाय था अपना स्वयं का बलिदान!
'यदि इस छुरी से मैं आत्महत्या कर लूँ तो जिनशासन निंदा से बच सकता है। लोग जानेंगे कि किसी दुष्ट ने राजा और आचार्य दोनों की हत्या कर दी....।' ___ आचार्यदेव अपने शरीर के प्रति भी निःस्पृह थे। शरीर पर उनकी कोई ममता नहीं थी, आसक्ति नहीं थी। उन्होंने छुरी हाथ में ली और एक झटके से आत्महत्या कर डाली। धर्मशासन को निंदा से बचा लेने के लिए अपना बलिदान दे दिया!
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