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प्रवचन-३० तो फिर हमारा जीवननिर्वाह कैसे होगा? चित्तसमाधि कैसे रहेगी? धर्मआराधना कैसे होगी? आज तो सबको 'इन्स्टंट' श्रीमंत हो जाना है : ___ महाराजश्री : आप लोग पहले अन्याय-अनीति का त्याग कर थोड़े समय के लिए अनुभव तो करें! मात्र कल्पना करने से नहीं चलेगा | न्याय-नीति पर आप लोगों की श्रद्धा ही नष्ट हो गई है। अन्याय एवं अनीति पर दृढ़ श्रद्धा स्थापित हो गई है। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आप न्याय-नीति से व्यापार करेंगे तो जीवननिर्वाह होगा ही, चित्तसमाधि रहेगी ही और धर्मआराधना भी होती रहेगी। परन्तु आप लोगों को मात्र जीवननिर्वाह के लिए ही अर्थोपार्जन करना है? नहीं रे नहीं, आप लोगों को तो श्रीमंत बनना है, धनवान् बनना है! सुन्दर बंगला बनाना है, बंगले को लाख-दो लाख के फर्निचर से सजाना है, एक-दो कार चाहिए आपको, बढ़िया से बढ़िया वस्त्र चाहिए, श्रेष्ठ अलंकार चाहिए, दुनिया में प्रतिष्ठा चाहिए! यह सब श्रीमंत बने बिना असंभव है! श्रीमंत बनने के लिए चाहिए पुण्यकर्म का उदय! यदि न्याय-नीति के रास्ते वैसा पुण्यकर्म उदय में नहीं आता है तो अन्याय-अनीति के मार्ग पर पुण्यकर्म को खोजते हो! खोजते हो न? पापानुबंधी पुण्योदय से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है :
यह मात्र मन की भ्रमणा है। पुण्यकर्म का उदय आ जाये तो भी क्या? जो पुण्योदय पापकर्मों का बंधन करवाता है, जो पुण्योदय अयोग्य अनुचित पापाचरण में प्रवृत्ति करवाता है, जो पुण्योदय जीवात्मा को दुर्गति में ले जाता है.... वैसा पुण्योदय किस काम का? पूर्व जन्मों में उपार्जित पापानुबंधी पुण्यकर्म का यहाँ उदय होने पर, अन्याय एवं अनीति करने पर भी अर्थप्राप्ति होती है, परन्तु वह अर्थप्राप्ति ही अनर्थपरंपरा की प्राप्ति करवाती है। पापानुबंधी पुण्य के उदय से जैसे मनुष्य को अनेक प्रकार के भौतिक सुख प्राप्त होते हैं वैसे उसको भ्रष्ट बुद्धि भी प्राप्त होती है। भ्रष्ट बुद्धि में विवेक नहीं होता है। भ्रष्ट बुद्धि मनुष्य को पापाचरण के प्रति प्रेरित करती है। भ्रष्ट बुद्धि जीव को परिग्रह में आसक्त बनाती है।
परिग्रह को जानते हो न? परिग्रह पाप है या पुण्य? आपकी स्थावर-जंगम संपत्ति क्या है? उसको परिग्रह मानते हो क्या? परिग्रह यानी पाप! आपकी सम्पत्ति पाप है- जानते हो? ध्यान रखना, यह परिग्रह-संज्ञा राक्षसी है। इस
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