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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-२५ गृहस्थधर्म : साधुधर्म : ___ एक है गृहस्थधर्म और दूसरा है यतिधर्म यानी साधुधर्म | चूंकि इस दुनिया में जीवन दो प्रकार से व्यतीत किया जा सकता है : गृहस्थ रहते हुए और गृह का त्याग करके | गृहस्थ रहना यानी पत्नी, पुत्र आदि परिवार के साथ रहना, आजीविका हेतु व्यापार वगैरह करना इत्यादि। गृह का त्याग कर, साधु बन कर भिक्षावृत्ति से जीवन जीना, साधुधर्म का पालन करते हुए जीवन जीना यह दूसरा प्रकार है। गृहस्थ जीवन में जो धर्मआराधना करनी होती है, वह धर्मआराधना करने के लिए तन-मन की जो क्षमता चाहिए इससे बहुत ज्यादा क्षमता साधुधर्म का पालन करने के लिए चाहिए। साधुधर्म है महान, परन्तु साधुजीवन जीने के लिए तन-मन की अपार शक्ति चाहिए। तन में कष्ट सहन करने की शक्ति चाहिए और मन में महाव्रतों का पालन करने की दृढ़ता चाहिए। साधुधर्म के लिए तन-मन की असीम शक्ति चाहिए : । प्रभाव की दृष्टि से देखा जाय तो गृहस्थधर्म से साधुधर्म बहुत ज्यादा प्रभावशाली है। पुण्यकर्म के बंध की दृष्टि से और कर्मों की निर्जरा की दृष्टि से साधुधर्म ही श्रेष्ठ है। आंतरशान्ति की दृष्टि से भी साधुजीवन श्रेष्ठ जीवन है। आत्मगुणों के विकास की दृष्टि से देखा जाय तो भी साधुजीवन ही सर्वोपरि है। परन्तु साधुधर्म स्वीकार करने एवं उसका पालन करने हेतु तनमन की अपार शक्ति चाहिए। __ गृहस्थधर्म भी प्रभावशाली तो है, परन्तु गृहस्थजीवन ऐसा है कि जहाँ मनवचन एवं काया के पाप हो ही जाते हैं। कुछ पाप अनिवार्य होते हैं। करने ही पड़ते हैं, पाप! यह एक बहुत बड़ा घाटा होता है गृहस्थ जीवन में! एक मनुष्य दुकान में प्रतिदिन सौ रूपये कमाता है, परन्तु खर्च भी रोजना साठ-सत्तर रूपये का हो जाता है, तो लाभ कितना रहेगा? तीस चालीस रूपये ही बचेंगे। दूसरा मनुष्य प्रतिदिन सौ रूपये कमाता है और खर्च होता है दस-पन्द्रह रूपये ही! मुनाफा कितना होता है? साधुजीवन ऐसा है! साधुजीवन में पापों का खर्चा नहींवत् होता है! जबकि गृहस्थजीवन में पापों का खर्चा बहुत ज्यादा होता है। कभी-कभी तो धर्म से पाप ज्यादा हो जाते हैं....धर्म में से पाप 'माईनस' नहीं होते, पापों में से धर्म 'माईनस' हो जाता है! नीचे बचते हैं पाप! For Private And Personal Use Only
SR No.009630
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages291
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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