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धर्म का प्रारंभ होता है, धर्म के प्रति भीतरी प्रेम जुड़ने से । धर्म के प्रति दिल में प्रोति के भाव जग जाने चाहिए। फिर धर्म को आराधना में आपके तन-मन सराबोर होंगे ही। गृहस्थजीवन में भी धर्म को आराधना-साधना आप कर सकते हैं। पर इसके लिए जाग्रति चाहिए। चूंकि गृहस्थ का जीवन है ही कुछ ऐसा कि जहाँ धर्म के फूलों से भी ज्यादा पापों के कांटे उग आते हैं!
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* प्रेम जगना... अनुराग पैदा होना... यानी ऊपर-ऊपर का दिखावा नहीं...अन्तःस्तल को अथाह गहराइयों में प्रकट होनेवाला अनुराग आत्मा को धर्म को तरफ गतिशील रखता है।
प्रवचन : २५
परमश्रुतधर परम करुणानिधान आचार्यश्री हरिभद्रसूरिजी 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ में धर्म का प्रभाव और धर्म का स्वरूप बताकर अब धर्म के प्रकार बता रहे हैं । धर्म का प्रभाव सुनकर जो मनुष्य धर्माभिमुख बनता है, धर्म के प्रति आकर्षित होता है, धर्माचरण करने उत्साहित होता है, वह मनुष्य धर्म का स्वरूप जानने के लिए लालायित होगा ही । धर्म का स्वरूप समझे बिना धर्माचरण हो कैसे सकता है? इसलिए आचार्यश्री ने धर्म का स्वरूप बता दिया। धर्म का क्रियात्मक स्वरूप बताया और भावात्मक स्वरूप भी बताया ।
धर्म का प्रारंभ : धर्म के प्रति प्रेम से :
'सुख पाना है परन्तु पाने के लिए पाप के रास्ते पर नहीं जाना है, पाप के रास्ते पर चलकर सुख नहीं पाया जाता; सुख पाया जाता है धर्म के रास्ते पर चलकर! इस प्रकार का दृढ़ विश्वास हृदय में स्थापित हो जाने पर मनुष्य की जीवनदृष्टि ही बदल जाती है। संभव है कि वह तत्काल सभी पापों का त्याग नहीं कर सके, परन्तु पापों को त्याज्य तो मानेगा ही । धर्म को ही वह उपादेय समझेगा। धर्म के प्रति उसका हृदय प्रीतिवाला बनेगा। धर्म का प्रारंभ ही धर्मप्रेम से होता है न! ऐसे धर्मप्रेमी बने मनुष्यों के सामने ग्रन्थकार दो प्रकार के धर्म रख देते हैं। दो में से आपको जिस धर्म का चुनाव करना हो, कर लो। आपकी जो क्षमता हो, उस क्षमता के अनुसार आप धर्म का चुनाव कर लो।
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