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प्रवचन-३१ संसार में? दिखता है ऐसा संसार में? धनप्राप्ति का आधार, मूल कारण दूसरा ही है! आज मुझे वह कारण बताना है। वह कारण बताने के लिए मुझे 'कर्मसिद्धान्त' बताना होगा | आप लोग शायद कर्मसिद्धान्त नहीं जानते | जीव मात्र के सुख-दुःख के आधार ये कर्म हैं! अनादि काल से प्रत्येक जीवात्मा कर्मों से आवृत्त है, कर्मों से अभिभूत है।
सभा में से : पर आत्मा को कर्म लगे कब? महाराजश्री : जिस प्रकार आत्मा अनादि है, उसी प्रकार आत्मा और कर्मों का संयोग भी अनादि है। कभी भी आत्मा कर्मरहित नहीं थी। कभी भी आत्मा विशुद्ध नहीं थी। हाँ, कर्मरहित हो सकती है आत्मा। परन्तु आत्मा को कर्मरहित करना आसान काम नहीं है। अनेक जन्मों का पुरुषार्थ होने पर आत्मा परम विशुद्ध बन सकती है। यों तो कर्म अनन्त हैं, परन्तु मुख्य प्रकार मात्र आठ ही हैं :
(१) ज्ञानावरण (५) नाम (२) दर्शनावरण (६) गोत्र (३) मोहनीय (७) आयुष्य और
(४) अन्तराय (८) वेदनीय। कर्मों की पराधीनता :
आत्मा के अपने स्वाभाविक गुण इन कर्मों से दब गये हैं, आवृत्त हो गये हैं। आत्मा स्वयं पूर्ण ज्ञानी है, केवलज्ञानी है, परन्तु ज्ञानावरण कर्म से आत्मा का पूर्ण ज्ञान आवृत्त हो गया है और आत्मा अज्ञानी बनी हुई है। आत्मा का अपना गुण है अनंत दर्शन और पूर्ण जागृति! दर्शनावरण कर्म से वह गुण अभिभूत हो गया है और आत्मा निद्रा वगैरह दोषों की शिकार बनी हुई है। आत्मा स्वयं में वीतराग है, परन्तु मोहनीय कर्म की वजह से राग-द्वेष वगैरह दोष आत्मा में बने हुए हैं। आत्मा स्वयं में अनन्त शक्ति से संपन्न है, परन्तु अन्तराय कर्म के प्रभाव से उसमें दुर्बलता वगैरह दोष दिखायी देते हैं। आत्मा अनामी, अशरीरी है, यश-अपयश, सौभाग्य-दुर्भाग्य वगैरह आत्मा के स्वाभाविक गुणदोष नहीं हैं; परन्तु नामकर्म के प्रभाव से नाम, शरीर वगैरह हैं। आत्मा के विशुद्ध स्वरूप में ऊँचता-नीचता नहीं है, गोत्र कर्म के प्रभाव से कभी आत्मा उच्च कहलाती है, कभी नीच कहलाती है। आत्मा की स्वाभाविक स्थिति में
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