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प्रवचन-३१ नहीं होगा। आपके हृदय में ऐसे जीवों के प्रति करुणा पैदा होगी। "कैसा दानांतराय कर्म का उदय है कि पास में देने योग्य सामग्री होने पर भी, दानधर्म की आराधना नहीं कर सकता....।'
सभा में से : ऐसा दानान्तराय कर्म मनुष्य कैसे बांधता है?
महाराजश्री : दूसरा कोई भी मनुष्य दान देता हो और आप उसे दान नहीं देने देते हैं तो दानान्तराय कर्म बंधता है। दान देनेवालों की ईर्ष्या करो तो भी यह कर्म बंधता है। दान देने के बाद पश्चात्ताप करो : 'अरे रे.... मैंने कहाँ दान दे दिया? नहीं देता तो अच्छा होता....' वगैरह से भी यह कर्म बंधता है। दिया हुआ दान वापस ले लो तो भी यह कर्म बंधता है। जो लोग यह तत्त्वज्ञान नहीं जानते वे लोग इस प्रकार प्रवृत्ति करते हैं। दानांतराय कर्म बांधते रहते हैं।
सावधान रहना! अज्ञानता जीव का सबसे बड़ा शत्रु है। अज्ञान दशा में जीव इस प्रकार कर्म बांध लेता है और दुःखी होता है। दानांतराय कर्म के उदय से जीव कृपण बनता है इतना ही नहीं, उसके पास जो कुछ धन-संपत्ति होती है, उस पर आसक्त बनता है! ममत्ववाला बनता है। यह आसक्ति और ममता जीव को संसार में रुलाती है। कृपणता के साथ ममता-आसक्ति जुड़ी हुई होती है। दूसरा अन्तराय कर्म है लाभान्तराय :
लाभ यानी प्राप्ति । प्राप्ति में रुकावट करनेवाला यह कर्म है। मनुष्य के प्रिय, अभिलषित सुख की प्राप्ति नहीं होने देता है यह कर्म | आप धनप्राप्ति का प्रयत्न करते हों, परन्तु धनप्राप्ति नहीं होती है, तो मानना कि लाभान्तराय कर्म उदय में है। आपकी इच्छा मकान, वस्त्र, स्त्री इत्यादि प्राप्त करने की है; परन्तु यदि ये सुख के साधन आपको नहीं मिल रहे हैं तो मानना कि लाभान्तराय कर्म का उदय है।
जो मनुष्य इस तत्त्वज्ञान को नहीं जानता है अथवा नहीं मानता है वह दूसरे जीवों पर आक्रोश करता है : 'इसने मुझे धनप्राप्ति नहीं होने दी, इसने मुझ से शत्रुता की और मकान नहीं मिलने दिया, इस शत्रु ने उस लड़की के साथ मेरी शादी नहीं होने दी....' इस प्रकार जीवों पर आरोप लगाता रहता है।
यदि आपका लाभान्तराय कर्म उदय में होगा तो लाख उपाय करने पर भी आप इच्छित धन-संपत्ति प्राप्त नहीं कर सकेंगे। सुबह से रात के बारह बजे तक मेहनत-मजदूरी करने पर भी आपको धन-संपत्ति नहीं मिलेगी।
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