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प्रवचन-३३
१०१ यदि आप चाहते हो चित्तशान्ति, आत्मशुद्धि और मनःस्थिरता, तो मोहनीयकर्म का क्षय-उपशम करने का प्रयत्न करना ही पड़ेगा। आपकी धर्मआराधना का लक्ष्य मोहनीय-कर्म का नाश ही होना चाहिए। मोहनीय का मायाजाल :
आठों कर्मों में यह मोहनीय-कर्म ही अति प्रबल है। जीवात्मा पर पूरा छा गया है! जीव रागी बनता है, द्वेषी बनता है, क्रोध करता है, अभिमान करता है, माया-कपट करता है, लोभ करता है, हँसता है, शोक-आक्रन्द करता है, खुश होता है, नाखुश होता है, भयभीत होता है, किसकी वजह से यह सब होता है? कौन नचाता है? मोहनीय-कर्म! यह सब आपको पसन्द है। राग-द्वेष वगैरह करने में मज़ा आता है? क्षण में हँसना, क्षण में रोना! क्षण में खुश होना, क्षण में नाखुश होना! क्षण में प्रेम करना, क्षण में घृणा करना, यह एक नाटक नहीं लगता है? लज्जास्पद नाटक है यह। एक सामान्य जड़ पदार्थ अनन्त शक्तिवाले आत्मा को नचाता है, यह क्या लज्जास्पद नहीं है? 'मैं चैतन्यस्वरूप अनन्त शक्ति-सम्पन्न आत्मा हूँ और मुझे जड़ पदार्थ नचाये? मैं वीतराग स्वरूप हूँ और राग-द्वेष मुझे नचाये?' आता है ऐसा विचार? कैसे आयें ऐसे विचार? नाचने में मजा लूट रहे हो न? नाचते रहो! अनन्तकाल से संसार में नाचते आये हो। भिन्न-भिन्न रूप और भिन्न-भिन्न वेश धारण कर जीव नाचते रहे हैं, नचानेवाला है मोहनीय-कर्म! नाचनेवाले हैं मोहमूढ़ जीव! एक कहानी रामलीला की : ___ एक छोटे गाँव में रामलीला करनेवाली एक मंडली आयी। गाँव में लोगों को मालूम हो गया कि आज रात को रामलीला होनेवाली है। रामलीला करनेवाले के पास दूसरा तो सब सामान था परन्तु राजा को पहनने का कोट नहीं था! कोट होना अनिवार्य था, कोट के बिना राजा का अभिनय नहीं हो सकता था। तुरंत ही वह नट-अभिनय करनेवाला गाँव के दरजी के पास गया। गाँव में एक ही दरजी था और शादी का मौसम था! दरजी के पास ढेर सारा काम था। नट ने जाकर नम्रता से दरजी को कहा : 'भाई, आज रात को मुझे नाटक करना है और मैं कोट भूल आया हूँ, तो मुझे राजा पहनता है वैसा कोट शाम तक तैयार करके दो, तुम जितना रूपया लेना चाहो ले लेना।'
दरजी ने कहा : 'मुझे इन दिनों में मरने की भी फुरसत नहीं है.... इतना सारा काम पड़ा है, दिखता नहीं है? मैं कोट नहीं बना सकता।' दरजी ने
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