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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- ३९ १७७ सेमिनारों में एवं चर्चा सभाओं में बहुत बातें होती हैं। ज्यादातर स्त्री-पुरुष के मुक्त सहचार के पक्ष में तर्क दिये जाते हैं । मेरे ख्याल से ये लोग धर्म एवं मोक्ष को केन्द्रबिन्दु बनाकर नहीं सोचते । वे सोचते हैं सामाजिक व्यवस्था को लेकर अथवा मनोवैज्ञानिक दृष्टि से। कुछ लोग तो लग्नव्यवस्था को भी निरर्थक बता रहे हैं! कुछ साहित्यकार तो पत्नी के अलावा प्रेयसी रखने का भी समर्थन कर रहे हैं। अखबारों में, मेगेझिनों में यह सब छपता है और प्रजा पढ़ती है ! जिसके पास परिपक्व बुद्धि नहीं होती है, स्वयं में पुख्त विचार करने की क्षमता नहीं होती, वैसे मनुष्य शब्दों के मायाजाल में फँसकर 'मुक्त सहचार' के उस मार्ग पर चल देते हैं। भले, अल्प समय के लिए उस मार्ग पर वे ऐन्द्रिक क्षणिक सुख का अनुभव करते हों परन्तु मानसिक स्वस्थता और प्रसन्नता को वे खो देते हैं। कुछ सामाजिक संकट में फँस जाते हैं। धर्मपुरुषार्थ से विमुख बन जाते हैं। 'प्रेम' और 'स्नेह' के नाम पर वे लोग वासना के विषचक्र में फँस जाते हैं। शारीरिक रोगों से घिर जाते हैं । परस्त्रीगमन का निषेध मात्र धार्मिक निषेध ही नहीं है, राज्य के कानून से भी निषिद्ध है । परस्त्रीगमन राज्य का भी अपराध है। समाज का भी अपराध है। समाजविरुद्ध एवं राज्यविरुद्ध प्रवृत्ति मनुष्य को आफत में डाल देती है। धर्मपुरुषार्थ करने वाले मनुष्य को ऐसी कोई प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए कि जिससे मन भयाक्रान्त बना रहे। और चिन्ताओं से व्याकुल बना रहे । परस्त्रीगामी पुरुष को और परपुरुषगामी स्त्री को पूछना कि उनके मन की स्थिति क्या है? अखबारों में आप कई बार पढ़ते हो कि 'उस व्यक्ति ने अपनी स्त्री के दुश्चरित्र को देखा और हत्या कर दी...' उस व्यक्ति ने अपनी पत्नी के प्रेमी को मार डाला।' उस स्त्री के पति और प्रेमी के बीच लड़ाई हो गई .... ।' ऐसे समाचार पढ़कर कुछ सोचते हो या नहीं ? परस्त्री से मिलने वाले सुख को पाने की इच्छा भी मत करो । एक कहानी : ललितांग की : श्रेष्ठिपुत्र ललितांग का उदाहरण आपने सुना होगा ? परस्त्री के मोहपाश में फँसकर वह कितना दुःखी हो गया था ? सुन्दर वस्त्र धारण कर वह राजमार्ग से जा रहा था। राजा का महल राजमार्ग पर था । महल के झरोखे में रानी बैठी थी। श्रेष्ठिपुत्र ने झरोखे के सामने देखा, रानी ने भी ललितांग को देखा। रानी रूपवती थी तो ललितांग भी रूपवान था । रानी की निगाहों में ललितांग के प्रति राग उभर आया। रानी कामविकारपरवश हो गई। For Private And Personal Use Only
SR No.009630
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages291
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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