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प्रवचन-२७ ___ मन में ऐसे ऐसे परमार्थ-परोपकार की तीव्र भावनाएँ भरकर यदि आप न्यायपुरस्सर अर्थोपार्जन करते हों तो अर्थोपार्जन का पुरुषार्थ 'गृहस्थधर्म' बन जाता है। यदि गृहस्थ अर्थोपार्जन का सही पुरुषार्थ नहीं करता है तो उसका धर्मपुरुषार्थ भी रुक जाता है। ऐसे लोगों को तो दीक्षा लेकर साधु ही बन जाना चाहिए। टीकाकार आचार्य श्री ने कहा है :
वित्तीवोच्छेयंमि य गिहिणो सीयंति सव्व किरियाओ।
निरवेक्खवस्स उ जुत्तो संपुण्णो संजमो चेव ।। 'गृहस्थ की आजीविका का विच्छेद होने पर उसकी सभी क्रियाएँ शिथिल बन जाती हैं। जिसको अर्थोपार्जन नहीं करना हो उसके लिए साधु बन जाना ही उचित है।
आज, बस इतना ही।
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