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प्रवचन-३२
९१ __ मेरे सामने कई बार मैंने कुछ लोगों को निन्दा करते पाये हैं। जो लोग मंदिर जाते हैं, साधु-संतों के पास जाते हैं, कुछ धर्मक्रियाएँ करते हैं और फिर बाजार में जाकर लोगों के साथ अन्याय-अनीतिपूर्ण व्यवहार करते हैं।
ऐसे लोगों की अवश्य निन्दा होती है। ऐसे लोगों के सामने लोग अच्छी निगाहों से नहीं देखते। उनकी धर्मक्रियाओं की प्रशंसा नहीं करते। कभी कभी ऐसा बोलते हैं कि 'ऐसे धर्म करनेवालों से तो हम लोग अच्छे हैं कि जो मन्दिर-उपाश्रय नहीं जाते! धर्मक्रियाएँ नहीं करते!' विश्वासघात से धर्म बदनाम होता है :
कुछ लोग कहते हैं : 'ऐसे लोग परमात्मभक्त और गुरुभक्त होने का दिखावा इसलिए करते हैं क्योंकि लोगों का उन पर विश्वास हो जाये। लोग उन भक्तों पर विश्वास करें तो ही वे भक्त लोग अच्छी तरह बेईमानी कर सकें
ना
आज भी लोगों का मानस, धर्म करनेवालों के प्रति विश्वास करता है! "भाई, इतना धर्म करनेवाला कभी विश्वासघात नहीं कर सकता..... कभी अपने साथ धोखेबाजी नहीं कर सकता'.... वगैरह। हालाँकि ऐसे भद्र.... सरल जीवों के साथ विश्वासघात होता है, धोखेबाजी होती है.... फिर भी कुछ विश्वास टिका हुआ है। यदि धार्मिक लोगों ने अन्याय-अनीति का शीघ्र त्याग नहीं कर दिया तो रहासहा विश्वास भी नष्ट हो जाएगा। __ परन्तु दुर्भाग्य है कि धर्मस्थानों में आनेवाले ज्यादातर लोग अपना ही स्वार्थ देखते हैं, अपने ही भौतिक सुखों विचार करते हैं। वे परमात्मा का, सद्गुरुओं का, सद्धर्म का विचार ही नहीं करते। 'मेरे निमित्त परमात्मा की निन्दा नहीं होनी चाहिए, गुरुजनों की निन्दा नहीं होनी चाहिए... सद्धर्म की निन्दा नहीं होनी चाहिए..।' यह विचार आप लोगों को आता है? नहीं, आप लोगों को तो ढेर सारे रूपये चाहिए। किसी भी रास्ते रूपये मिलने चाहिए! न्याय-अन्याय, नीति-अनीति का विचार ही नहीं। अच्छा धंधा हो या बुरा धंधा हो, कोई विचार ही नहीं! जिस धंधे में बहुत सारे रूपये मिलते हों, वह धंधा अच्छा! सही बात है न?
आपको किसी का भय भी नहीं लगता? आप लोग राज्यविरुद्ध धंधे भी करते हो न? निर्भय होकर करते हो न?
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