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प्रवचन-२५ बंधाने वाले पुण्यकर्म का उदय है। आजकल दुनिया में इस पुण्य का उदय ज्यादा दिखाई देता है। जिन जिनको पुण्यकर्म के उदय से सुख के साधन मिले हैं वे लोग ज्यादातर पाप ही करते नजर आते हैं। ऐसे जीवात्मा मोक्षमार्ग की आराधना, आत्मशुद्धि का पुरुषार्थ नहीं कर सकते। ऐसे जीवों की बुद्धि ही इतनी मलिन बनी हुई होती है कि उनको आत्मा, परमात्मा या मोक्ष की बातें अँचती ही नहीं हैं।
सभा में से : पुण्यानुबंधी पुण्य किसको कहते हैं?
महाराजश्री : जिस पुण्यकर्म का उदय जीवात्मा की धर्मवृत्ति को जाग्रत करे, धर्म की प्रवृत्ति में प्रेरित करे, वह होता है, पुण्यानुबंधी पुण्य | जिस पुण्य के उदय से नया पुण्यकर्म बंधे, वह होता है पुण्यानुबंधी पुण्य | यह पुण्यकर्म जीवात्मा की मोक्षमार्ग की आराधना में सहायक बनता है- जैसे, हमें पाँच परिपूर्ण इन्द्रियाँ पुण्यकर्म के उदय से मिली हैं, तो अपने धर्मग्रंथ को सुन सकते हैं, पढ़ सकते हैं। परमात्मा का दर्शन-पूजन-स्तवन कर सकते हैं। अच्छा शरीर मिला हुआ होता है तो तपश्चर्या कर सकते हैं, विहार-पदयात्रा कर सकते हैं। पुण्यकर्म के उदय से अच्छी दौलत मिली है तो दान दे सकते हैं। परमार्थपरोपकार के कार्य कर सकते हैं | पुण्यकर्म के उदय से सत्ता मिली है तो देश में, गाँव-नगर में प्रजा को धर्मसन्मुख कर सकते हैं, पापों का त्याग करवा सकते हैं। तीर्थंकर परमात्मा को कैसा अद्भुत पुण्यकर्म का उदय होता है। इससे तो वे करोड़ों जीवों को धर्मबोध दे सकते हैं। करोड़ों जीवों को सन्मार्गगामी बना सकते हैं। पुण्यकर्म के साथ अनासक्ति के संस्कार : ___ सभा में से : साधुधर्म के पालन से आत्मा को देवगति मिलती है, देवगति में तो 'अविरति' होती है। सर्वविरतिवाले साधु को अविरति वाले जीवन में जाना पड़े यह तो नुकसान की बात हुई न?
महाराजश्री : साधुधर्म हो या गृहस्थधर्म हो, जिसने देवगति का आयुष्यकर्म बांध लिया, उसको देवलोक में जाना ही पड़ता है। जो पुण्यकर्म बंधा हुआ होता है, उसको भोगना ही पड़ता है। परन्तु देवलोक में भी जो देव जाग्रत होते हैं, सावधान होते हैं, वे सुख भोगते समय डूब नहीं बांधते हैं। प्रगाढ़ आसक्ति उनको नहीं होती है, इसलिए वे ज्यादा पापकर्म नहीं बांधते हैं | साधुजीवन में जो अनासक्ति के संस्कार पड़ते हैं, वे संस्कार आत्मा के साथ
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