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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- २५ ४ जाते हैं, साधुजीवन से भ्रष्ट हो जाता है । सुखों का आकर्षण उसको साधुता से गिराता है। साधुजीवन में सुखों का आकर्षण मर जाना चाहिए। सुखों का राग नहीं चाहिए । दुःखमूलक वैरागी को सुखों के आकर्षण बने ही रहेंगे। साधुजीवन में भी सुख के अनेक प्रलोभन आते हैं । यदि आकर्षण होगा तो वह प्रलोभन साधु को गिरायेगा ही । संसार में सुख नहीं मिलते हैं, इसलिए साधुजीवन स्वीकार करना अनुचित है। संसार के दुःखों को देखकर, अनुभव कर, ज्ञानदृष्टि खुल जाये और संसार के सुखों को भी दुःखरूप समझ लें, तो वह साधुता स्वीकार कर सकता है। वैश्रवण का वैराग्य ज्ञानमूलक : रावण ने राजा वैश्रवण को पराजित कर दिया था । पराजित वैश्रवण ने साधुजीवन स्वीकार कर लिया था, परन्तु पराजय के दुःख से स्वीकार नहीं किया था, ज्ञानदृष्टि से संसार के स्वरूप को जानकर साधुता का स्वीकार किया था। तभी तो वे उसी भव में, साधुजीवन में उग्र तपश्चर्या कर, मोक्ष में गये थे। यदि उनका दुःखगर्भित वैराग्य होता तो वे सभी कर्मों का क्षय करके निर्वाण नहीं पा सकते थे। उन्होंने साधुधर्म का श्रेष्ठ पालन करके निर्वाण पाया था, इसलिए हमें मानना ही पड़ेगा कि उनका वैराग्य ज्ञानमूलक था । वैश्रवण के सामने दो धर्म थे, गृहस्थधर्म और साधुधर्म । यदि वे चाहते तो बारह व्रतों का गृहस्थधर्म भी ले सकते थे। परन्तु उन्होंने चुनाव किया साधुधर्म का । संसार के सुखों का राग नहीं रहा, आसक्ति नहीं रही, फिर गृहस्थ जीवन किसलिए चाहिए? गृहस्थ जीवन तो तब तक ही पसन्द करना पड़ता है जब तक पाँच इंद्रियों के विषय सुख प्यारे लगते हैं, वैषयिक सुखों का उपभोग किये बिना रहा नहीं जाता है । साधुता के महाव्रत एवं दूसरे नियमों का पालन करने का मनोबल नहीं हो । शारीरिक प्रतिकूलताएं सहन करने की शक्ति नहीं हो और मानसिक तनावों से मुक्त रहने की क्षमता नहीं हो । ऐसा कोई नियम नहीं है कि गृहस्थधर्म का पालन करके ही साधुधर्म स्वीकार किया जा सकता है। गृहस्थधर्म का पालन किये बिना भी सीधा साधुजीवन अंगीकार किया जा सकता है। ऐसे कई उदाहरण शास्त्रों में एवं इतिहास में मिलते हैं। चाहिए साधुधर्म की पूरी जानकारी और साधुधर्म के पालन की पूरी तैयारी! कई डाकू भी सीधे साधु बन गये हैं भूतकाल में! चारचार हत्याएं करने वाला दृढप्रहारी साधु ही बन गया था न? उसमें साधुता का For Private And Personal Use Only
SR No.009630
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages291
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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