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प्रवचन-४१
२०१ बदला चुकाने की तत्परता! शिष्टपुरुषों का यह तीसरा लक्षण है! शिष्टपुरुषों का यह एक सदाचरण है। उपकारियों के उपकारों को सदैव याद रखते हुए, जब अवसर मिले तब प्रत्युपकार करने की जाग्रति रखना।
रोग चला गया, सुन्दर और सदगुणी पत्नी मिली, राजा मिला ससुर के रूप में! लोगों का सम्मान मिला, फिर भी श्रीपाल माता को नहीं भूले थे! माता के प्रति पूर्ण आदर और बहुमान था। अपने लिए माता ने कितने कष्ट उठाये थे। यह भी श्रीपाल नहीं भूले थे। जब मन्दिर के द्वार पर अचानक ही माता मिल गई....श्रीपाल माता के चरणों में गिर पड़े! पहले तो माता पुत्र को पहचान ही नहीं पायी, चूंकि उसने श्रीपाल को कुष्ठरोगी के रूप में देखा था! और सामने खड़ा हुआ श्रीपाल तो कामदेव जैसा रूपवान है!
श्रीपाल गद्गद् था...माता ने जब पुत्र को पहचाना....वह भी हर्ष से गद्गद् हो गई! 'वत्स, मैं तो तेरे लिए औषध की तलाश में भटकती हूँ...और तू तो संपूर्ण नीरोगी बन गया है! बेटा, यह कैसे हुआ?' __ श्रीपाल ने पास में खड़ी हुई मयणासुन्दरी की ओर इशारा करते हुए कहा : माँ, यह सारा प्रभाव तेरी इस पुत्रवधू का है!' मयणासुन्दरी लज्जित हो गई
और अपनी सास के चरणों में प्रणाम कर बोली : 'नहीं माताजी, इसमें मेरा कोई प्रभाव नहीं है, यह सारा उपकार पूज्य गुरुदेव का है।'
कितनी उदात्त कुतज्ञता है इन दोनों की। श्रीपाल मयणा को मात्र पत्नी के रूप में ही नहीं देखते, उपकारिणी के रूप में भी देखते हैं। पत्नी के उपकार को नहीं भूलना-यह सामान्य गुण नहीं है, असाधारण गुण है | माता के सामने पत्नी के उपकार की बात करते हुए, श्रीपाल गद्गद् हो गये थे। मयणा के प्रति श्रीपाल के हृदय में कितना प्यार, कितनी श्रद्धा और कैसा आदरभाव होगा, उसकी कल्पना कर सकोगे? ___ श्रीपाल ने कभी भी माता के प्रति रोष करते हुए नहीं कहा था कि 'माँ, तूने तो मुझे कुष्ठरोगियों के हाथ सौंपकर मुझे कुष्ठरोगी बना दिया था। तू चली गई और मैं इन कुष्ठ रोगियों के साथ गाँव-गाँव नगर-नगर भटकता रहा....इससे तो अच्छा था कि तू मुझे सैनिक के हाथ सौंप देती तो मुझे इतने कष्ट सहने नहीं पड़ते। एक दफा मरना तो था....मर जाता सैनिकों के हाथ....। यह तो मेरी किस्मत....कि ऐसी पत्नी मिली और उसने मेरा और मेरे साथियों का रोग मिटा दिया....अब तू आयी है यहाँ....।'
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