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प्रवचन- ४३
२२६
प्रवचन में जो नियमित आते हैं और आगे प्रथम पंक्ति में बैठते हैं उस सेठ ने, एक गरीब जो कि जैन है, उस पर मुकद्दमा दायर कर रखा है। सेठ उससे एक हजार रूपये माँगते हैं, वह भाई निर्धन है, रूपये वापस नहीं लौटा सकता है....सेठ ने उसका घर ले लेनेका सोचा है .... बेचारा वह आदमी रास्ते का भिखारी बन जायेगा....क्या मंदिर में और ऐसे धर्मस्थानों में आनेवाले भी दयालु नहीं बन सकते? पैसे के लिए इतनी क्रूरता ?'
संवादिता : स्नेह-सद्भाव की जननी :
न्यायाधीश ने उस सेठ के जीवन में विसंवाद पाया ! सेठ के जीवन में धर्मक्रिया के साथ क्रूरता देखी.... दयाहीनता देखी ! इसी का नाम विसंवाद ! यदि सेठ के जीवन में धर्मक्रिया के साथ दया- करुणा देखने को मिलती न्यायाधीश को, तो सेठ के प्रति और धर्मक्रियाओं के प्रति सद्भाव पैदा होता! संवादिता, स्नेह और सद्भाव को जन्म देती है ।
जो मनुष्य मंदिर नहीं जाता है, साधुपुरुषों के पास नहीं जाता है, विशेष प्रकार की धर्मक्रियायें नहीं करता है, वैसा मनुष्य यदि अनीति करता है, बेईमानी करता है, क्रूरतापूर्ण व्यवहार करता है....तो देखनेवालों के मन में विसंवाद पैदा नहीं होगा ! दुनिया समझती है कि यह आदमी तो ऐसा ही है....नहीं मंदिर में जाता, न ही धर्मस्थानों में जाता, न ही कोई धर्मक्रिया करता.... फिर तो ऐसे गलत काम करेगा ही....!' लोगों के मन में विसंवाद पैदा नहीं होगा। अधार्मिकता के साथ अन्याय - अनीति बेईमानी वगैरह पापों का मेलजोल है! संवादिता है ! जो मंदिर में नहीं जाता है परन्तु क्लबों में जाकर जुआ खेलता है, जो साधु पुरुषों के पास नहीं जाता है परन्तु नृत्यांगना के पास जाता है, जो ज्ञानामृत का पान नहीं करता है परन्तु मदिरापान करता है वैसा मनुष्य अन्याय-अनीति, क्रूरता, विश्वासघात जैसे पाप करता है....तो विसंवाद पैदा नहीं होता है।
शिष्ट पुरुषों का जीवन संवादी होता है । वे कभी वाद-विवाद नहीं करते! उनको संवाद ही प्रिय होता है! संवादिता का संगीत ही उनकी जीवनवीणा में से झंकृत होता रहता है । वाद-विवादों को मिटाने की उनकी भावना बनी रहती है। क्या उनकी संवाद -प्रियता प्रशंसनीय नहीं हो सकती? यदि आपको वाद-विवाद और विसंवाद प्रिय नहीं हैं तो ही आपको संवादिता - असंवादिता प्रिय लगेगी और आप उसके प्रशंसक बनेंगे ।
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