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प्रवचन- ४३
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मन का मायाजाल अजीब है.... वह आदमी को तंदुरुस्त भी बना सकता है और बीमार बनाकर मौत के मुँह में भी धकेल देता है। किसी भी संजोग में मन को कमजोर नहीं बनने देना चाहिए।
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* संस्कृति हो आत्मधर्म को आधारशिला है.... इससे संस्कृति को टिकाने वाले कुलाचारों को, कुल-धर्मों को कभी भी निंदा या टीका-टिप्पणी नहीं करना ।
* लकोर के फकोर बनकर अंधानुकरण में मत फँस जाओ! कम से कम जिन्दगी को तो सोच-समझकर जिओ ।
● आवश्यकताएँ कम करो... सादगी से जीना सीखो। फालतू और बिनजरूरी खर्चे बंद करो ।
● किसी को सहायता पर जोनेवालों को व्यसनों से मुक्त होना जरूरी है।
प्रवचन : ४४
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महान् श्रुतधर आचार्यदेव श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी, 'धर्मबिंदु' ग्रन्थ के प्रारम्भ में गृहस्थजीवन का सामान्य धर्म बता रहे हैं। वे कहते है कि 'आप लोग अपने जीवन को यदि गुणमय और सुखमय बनाना चाहते हो तो गुणनिधान शिष्ट पुरुषों की प्रशंसा करते रहो! चाहे आज आप आपत्ति में अदैन्य और संपत्ति में नम्रता नहीं रख सकते हैं, आज चाहे आपका जीवन अविसंवादी नहीं है, विसंवादों से भरा हुआ है.... परन्तु आप वैसे गुणवानों की प्रशंसा करो....मुक्त मन से प्रशंसा करो.....एक दिन आएगा, जिस दिन आप गुणवान् बनोगे ! आप भी आपत्ति में धीर रहोगे और सम्पत्ति में विनम्र रहोगे।
धनवान् बनने की तमन्ना वाले लोग, क्या धनवानों की प्रशंसा नहीं करते ? ज्ञानी बनने की इच्छा वाले लोग, क्या ज्ञानी पुरुषों की प्रशंसा नहीं करते ? विज्ञानी बनने की कामना वाले लोग, क्या वैज्ञानिकों की प्रशंसा नहीं करते ? प्रशंसा करने से आत्मविश्वास दृढ़ होता है । 'मैं भी ज्ञानी - विज्ञानी बन सकता हूँ.... मैं भी गुणवान् बन सकता हूँ....' । ऐसा आत्मविश्वास प्रबल बनता है। मन को कमजोर मत होने दो :
स्वयं के प्रति अश्रद्धा, अविश्वास, मनुष्य को अवनति के खड्डे से बाहर नहीं