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प्रवचन-४७
२६६ भीतरी वैभव को पहचानो :
निर्भयता और निश्चिंतता मनुष्य की आन्तरिक संपत्ति है, आन्तरिक वैभव है। तीव्र कामवासना से प्रेरित मनुष्य जब दुराचार-व्यभिचार के कुत्सित मार्ग पर चल देता है तब वह अपना आन्तरिक वैभव खो देता है। निर्भयता चली जाती है, निश्चितता चली जाती है....भय और चिन्ताओं से वह घिर जाता है। ऐसी मनःस्थिति बन जाने पर मनुष्य न तो धर्मआराधना कर सकता है, न अर्थपुरुषार्थ कर सकता है। जबकि गृहस्थ को कामपुरुषार्थ इस प्रकार करना चाहिए कि धर्मपुरुषार्थ और अर्थपुरुषार्थ में बाधा न पहुंचे। ___ चार प्रकार के पुरुषार्थ तो आप जानते हो न? धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, ये चार पुरुषार्थ हैं। दो पुरुषार्थ साध्य हैं और दो असाध्य हैं। काम और मोक्ष साध्य हैं, धर्म और अर्थ साधन हैं। मोक्ष पाने का साधन है धर्म और काम यानी भोगोपभोग का साधन है अर्थ! इन चार पुरुषार्थ में किसी भी एक पुरुषार्थ को क्षति न पहुँचे इस प्रकार गृहस्थ को अपनी जीवनव्यवस्था स्थापित करनी चाहिए।
धर्मपुरुषार्थ उस प्रकार करना चाहिए कि अर्थ और काम पुरुषार्थ में विघ्न न हो। मोक्ष के प्रति गति होती रहे, मोक्ष का लक्ष्य बना रहे और धर्म होता रहे । अर्थपुरुषार्थ उस प्रकार करना चाहिए कि धर्मपुरुषार्थ में विक्षेप न हो और कामपुरुषार्थ में असंतोष न हो। मोक्षदृष्टि खुली रहनी चाहिए। कामपुरुषार्थ भी उस प्रकार करना चाहिए कि धर्मकार्यों में विक्षेप न हो और अर्थपुरुषार्थ में क्षति न हो। इस प्रकार की जीवनव्यवस्था होनी चाहिए आप लोगों की। क्या होगा हमारा? :
सभा में से : हम लोग मात्र जीते हैं....नहीं है जीवनदृष्टि, नहीं है कोई जीवन-व्यवस्था....! क्या होगा हमारा?
महाराजश्री : चिन्ता मत करो, महानुभाव! आज दिन तक आपके पास जीवनदृष्टि नहीं थी, जीवनव्यवस्था का ज्ञान नहीं था, परन्तु अब तो दृष्टि और व्यवस्था का ज्ञान उपलब्ध हो रहा है न? निराश क्यों होते हो? निराश नहीं होना है। उत्साह से जीवनव्यवस्था में परिवर्तन लाना है। अस्त-व्यस्त जीवनव्यवस्था को व्यवस्थित करना है | मैं जैसे कहूँ वैसे जीवनव्यवस्था बना लो, सुखी बनोगे! प्रसन्नता मिलेगी।
कामपुरुषार्थ यानी स्त्री-पुरुष की संभोग-क्रिया में कुछ मर्यादाओं का पालन करना, यही आप लोगों का इन्द्रिय जय है। स्पर्शेन्द्रिय का जय है। आप गृहस्थ
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