Book Title: Dhammam Sarnam Pavajjami Part 2
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 279
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४७ २७१ नहीं है, इसलिए वह मेरे साथ प्रेम करता है....| उसको यहीं पर रखना चाहिए....तभी मुझे सुख मिल सकता है।' __ सोचना, मृणाल अपने सुख का विचार करती है। मुंज के सुख दुःख का विचार वह नहीं कर सकती है। संसार में ऐसा ही बनता रहता है। सब लोग अपने अपने सुख का विचार करते हैं। अपने सुख के लिए, अपना सुख पाने के लिए दूसरों को दुःखी करने से भी नहीं हिचकिचाते। हालाँकि मृणाल का इरादा नहीं था मुंज को दुःखी करने का, परन्तु 'मुंज यहाँ से नहीं जाना चाहिए, मुंज यहीं पर रहना चाहिए,' इस विचार ने मृणाल को विवेकहीन बना दी। मृणाल ने सोचा : 'मेरे कहने से, मेरे आग्रह से मुंज यहाँ नहीं रुकेगा। वह भूगर्भ के रास्ते से चला जाएगा। यदि उसको रोकना है तो मेरे भाई को गुप्त बात बता देनी चाहिए। मेरा भाई ही उसको रोक सकता है।' मृणाल ने जाकर तैलप को बात बता दी, भूगर्भ रास्ते की। उधर मुंज मृणाल का इन्तजार करता रहा। ज्यों उसने कारावास के द्वार पर तैलप को नंगी तलवार लिए खड़ा हुआ देखा, मुंज को होश आ गया। उसकी आँखें खुल गईं। उसका मोह दूर हुआ। मुंज वैसे ही विद्वान था, उसने मृणाल का दोष नहीं देखा, अपने स्वयं का दोष देखा। तैलप ने मुंज के पास घर-घर भिक्षा मंगवाई, उस समय मुंज ने सच्चाई की बातें की हैं....वे अद्भुत हैं। तैलप ने मुंज को हाथी के पैरों तले कुचलवा दिया था, उस समय भी मुंज की स्वस्थता अद्भुत थी। इन्द्रियविजेता बनो : कामवासना आन्तर शत्रु है। मनुष्य की सब से बड़ी शत्रु मैथुन की वासना है। उस वासना पर विजय पाने का लक्ष्य चाहिए | उस वासना पर विजय पाने का सतत प्रयत्न जारी रहना चाहिए। 'इन्द्रिय-विजेता' ही सच्चा विजेता है। विश्वविजेता से भी इन्द्रियविजेता महान् है । इन्द्रियविजेता आन्तरिक सुख का अनुभव करता है, उस सुख की कल्पना भी इन्द्रियपरवश जीवात्मा नहीं कर सकता । इन्द्रियपरवश जीवात्मा जो दुःख और अशान्ति पाता है, उस दुःख की परछाँई भी इन्द्रियविजेता पर नहीं आ सकती। पहला आन्तरशत्रु 'काम' है। उस पर विजय पाने के कुछ उपाय आगे बताऊँगा। आज, बस इतना ही For Private And Personal Use Only

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