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प्रवचन-४५ लक्ष्मणजी की गर्जना :
लक्ष्मणजी ने श्रीराम के सामने अपना गुस्सा व्यक्त किया । और श्रीराम की अनुमति लेकर लक्ष्मणजी पहुँचे सुग्रीव के राजमहल में | महल में प्रविष्ट होते ही उन्होंने गर्जना की : 'कहाँ है सुग्रीव?' राजमहल में घबराहट फैल गई। अन्तःपुर के रक्षकों ने अन्तःपुर में जाकर सुग्रीव को लक्ष्मणजी के आगमन के समाचार दिये । सुग्रीव कांप उठा। उसको तुरन्त अपनी गलती खयाल में आ गई। वह दौड़ता हुआ आया और लक्ष्मणजी के सामने हाथ जोड़कर नतमस्तक होकर बोला : 'हे क्षमानिधि, मुझे क्षमा कर दो, मेरा बहुत बड़ा प्रमाद हो गया है....।' परन्तु ये तो लक्ष्मणजी थे! क्रोध से वे लाल लाल हो गये थे... सुग्रीव का तिरस्कार करते हुए : 'रे दुर्जन, तेरा काम हो गया...बस, बैठ गया अन्तःपुर में... दिया हुआ वचन भूल गया? क्या साहसगति के पीछे तुझे भी यमसदन में जाना है? अभी तक सीताजी की खोज तूने चालू भी नहीं की है और हम तेरे भरोसे यहाँ बैठे हैं...।'
सुग्रीव लक्ष्मणजी के चरणों में गिर पड़ा। पुनः पुनः क्षमायाचना करने लगा और लक्ष्मणजी के साथ बाह्य उद्यान में श्री रामचन्द्रजी के पास आया। श्रीराम के चरणों में गिरकर पुनः पुनः क्षमा माँगने लगा। 'हे करूणासिन्धु, मुझे क्षमा करो। मैं अभी ही सीताजी की खोज करने निकल जाता हूँ| आप यहीं पर बिराजें, अल्प समय में आपको सीताजी के समाचार मिल जायेंगे।'
श्रीराम तो क्षमानिधि थे। सुग्रीव को कोई उपालंभ नहीं दिया। उनका प्रधान कार्य था सीताजी की परिशोध! सुग्रीव के साथ झगड़ा करके उस कार्य को उलझाना नहीं चाहते थे, विलंब में डालना नहीं चाहते थे। सुग्रीव की मित्रता उनको भविष्य में उपयोगी सिद्ध होनेवाली थी। मुख्य कार्य के प्रति सज्जन सजग रहते हैं :
शिष्ट पुरुषों का मुख्य कार्य के प्रति लक्ष जाग्रत होता है। उनकी यह विशेषता सराहनीय तो है ही, अनुकरणीय भी है। जो मनुष्य महत्त्व के कार्य को छोड़कर तुच्छ कार्यों में अपनी शक्ति का व्यय कर डालता है वह मनुष्य कार्यसिद्धि नहीं कर सकता।
ये दो बातें १. उचित स्थान में क्रिया करना और २. मुख्य कार्य को प्राथमिकता देना, महत्वपूर्ण बातें हैं। योगी हो या भोगी हो, साधु हो या संसारी हो, ये दो बातें सभी के लिए महत्त्व रखती हैं। प्रतिदिन के जीवनव्यवहार
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