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प्रवचन-४५ मा. प्रत्येक आदमी को चाहिए कि वह अच्छे और सर्वजन साधारण
परोपकार के कार्य करके लोकप्रियता का अर्जन करें। .औचित्य-पालन मानवीयगुणों का अविभाज्य अंग है। गृहस्थ जीवन हो या साधु का जीवन.... औचित्य पालन अत्यंत आवश्यक है, अनिवार्य है। स्वार्थी, आलसी और विषयासक्त आदमी कर्तव्यपालन कर ही नहीं सकता! ठीक है, कर्तव्य-पालन शायद न हो सके.... पर कर्तव्य-पालन करनेवालों की प्रशंसा तो हो सकती है न? । विचारों की भूमिका को समृद्ध बनाना अत्यंत जरूरी है।
विचारशुद्धि पर पूरा ध्यान बरतो। =. जीवनव्यवहार को बदलने का कड़ा संकल्प करना होगा।
प्रवचन : ४६
महान् श्रुतधर पूज्य आचार्यदेव श्री हरिभद्रसूरिजी ने स्वरचित 'धर्मबिंदु' ग्रन्थ में, सर्वप्रथम गृहस्थजीवन का सामान्य धर्म बताया है। इस सामान्य धर्म का, धर्मक्रियाओं से संबंध नहीं है, जीवनव्यवहार से इसका संबंध है। इस सामान्य धर्म का योग, ध्यान या अध्यात्म के साथ भी सीधा संबंध नहीं है। परन्तु इन सामान्य धर्मों के पालन के बिना योग, ध्यान या अध्यात्म की साधना फलवती नहीं बन सकती है, यह बात निश्चित है। सामान्य धर्मों की उपेक्षा कर के जो मनुष्य योग-साधना या ध्यान-साधना करने जाता है वह मनुष्य वास्तविक रूप में साधना नहीं कर पाता है। हाँ, उसका अभिमान अवश्य पुष्ट होता है! जिनमें शिष्टता नहीं है, शिष्टों के प्रति आदर या प्रेम भी नहीं है, ऐसे व्यक्ति आजकल अपने आपको 'योगी' 'ध्यानी' कहलाने लगे हैं। कुछ तो 'भगवान' भी बन गये हैं! सर्व प्रथम इन्सान बनो, आदमी बनो :
खैर, बनने दो जिसको जैसा बनना हो! आप लोग सावधान बन जायें धनोपार्जन की दृष्टि से कई योगाश्रम खुले हैं और खुल रहे हैं, अपने मत के फैलाव की दृष्टि से कई ध्यान शिबिरें हो रही हैं, अध्यात्म के नाम पर कई
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