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प्रवचन-४५
२४८ सुग्रीव के आनन्द की सीमा नहीं रही। वह श्रीराम के चरणों में गिर पड़ा। श्रीराम-लक्ष्मण के साथ सुग्रीव राजमहल में आया। चन्द्ररश्मि भी श्रीरामलक्ष्मणजी के पास पहुँचा और चरणों में प्रणाम किया। सुग्रीव ने चन्द्ररश्मि का परिचय श्रीराम को दिया और उसने किस तरह अन्तःपुर की रक्षा की, बात बतायी। श्रीराम ने चन्द्ररश्मि को बहुत-बहुत धन्यवाद दिया और कहा : सब से श्रेष्ठ कार्य तुमने किया है। तुम्हारी कार्यक्षमता अद्भुत है। सीताजी की खोज : प्रमुख कार्य :
जब सुग्रीव ने श्री राम के चरणों में बैठकर कहा : 'हे पूज्य, आपके उपकारों का मैं कभी बदला नहीं चुका सकता हूँ, फिर भी मुझे आपकी सेवा का अवसर प्रदान करें।'
श्री लक्ष्मणजी ने कहा : 'सुग्रीव, इस समय सीताजी की खोज करना ही हमारा सब से बड़ा कार्य है।' सुग्रीव ने कहा : 'कृपानाथ, आप यहाँ बिराजें, मैं सीताजी का पता हर कीमत पर लगा के रहूँगा। आप ही अब वानरद्वीप के मालिक हैं, मैं तो आपका अनुचर हूँ।'
श्री रामचन्द्रजी ने किष्किन्धा के बाह्य उद्यान में रहना पसन्द किया । सुग्रीव ने बाह्य उद्यान को नन्दनवन-सा बना दिया। श्री राम की सेवा में अनेक कुशल सेवकों को नियुक्त कर दिया और सुग्रीव वहाँ से पहुँचा अपने अन्तःपुर में तारारानी के पास।
संसारी जीवों का यह प्रायः स्वभाव होता है कि बहुत दुःख सहने के बाद जब सुख मिलता है वह सुख में डूब जाता है! दुःख में बने साथियों को भी भूल जाता है! सुग्रीव दिनरात तारारानी के प्रेम में डूब गया! वह श्री राम-लक्ष्मणजी को भी भूल गया! सीताजी का शोधकार्य भी भूल गया।
सुग्रीव अपने महत्त्वपूर्ण कार्य को भूल गया! प्रधानकार्य के प्रति उसका ध्यान नहीं रहा। उधर श्री राम और लक्ष्मण, सुग्रीव की प्रतीक्षा करते दिन गुजारते रहे। सीताजी की खोज का कोई समाचार नहीं मिलने से वे उद्विग्न होने लगे। लक्ष्मणजी को सुग्रीव के प्रति तीव्र रोष पैदा हुआ। 'सुग्रीव नमकहराम है, अपना काम हो गया, अब वह क्यों हमारा ध्यान रखेगा? परन्तु मैं उससे मिलूँगा....।'
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