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प्रवचन-४४
२३४ देखा जाए तो कुलधर्मों के पालन से आर्यसंस्कृति जीवंत रहती है। संस्कृति ही तो आत्मधर्म की आराधना का आधार है। इसलिए संस्कृति को टिकाने वाले कुलधर्मों की कभी निन्दा नहीं करनी चाहिए। कुलधर्मों में भिन्नता हो सकती है। सभी परिवारों के कुलधर्म समान नहीं होते, कुछ कुलधर्म समान होते हैं, कुछ भिन्न होते हैं।
शिष्ट पुरुषों के जीवन की पद्धति में धर्म और संस्कृति का समन्वय होता है। कई विशिष्ट सांस्कृतिक धाराएं उनके जीवन में बहती रहती हैं। इसलिए समाज में और राष्ट्र में ऐसे शिष्ट पुरुष उच्चतम आदर्श बने हुए होते हैं, प्रेरणास्रोत बने हुए होते हैं। चाहिए अपनी गुणदृष्टि, चाहिए विशिष्टता को परखने की सूक्ष्मबुद्धि। दुर्व्यय से सदा-सर्वदा दूर रहो :
शिष्ट पुरुषों की जीवनचर्या में एक विशिष्टता होती है असद्व्यय के परित्याग की। शिष्ट पुरुष तन-मन-धन का दुर्व्यय नहीं करते। दुर्व्यय और सव्यय की भेदरेखा वे जानते होते हैं। दुर्व्यय-सदव्यय को परखने की ज्ञानदृष्टि होती है उनके पास । शक्ति का दुर्व्यय रोकने से उनमें शक्ति का संग्रह होता है। वे शक्तिपुंज बनते हैं, इसलिए अच्छे कार्यों में उन्हें शीघ्र सफलता मिलती है।
वे महापुरुष, फालतू और निम्न स्तर के विचार नहीं करते! गंदे विचार नहीं करते, कल्पनाजाल नहीं बुनते! इससे मन की शक्ति का दुर्व्यय नहीं होता है। फालतू और पाप विचार करने से मन की शक्ति क्षीण होती है | मन निर्बल बनता है। सत्कार्य करने में मन उल्लसित नहीं बनता। शिष्ट पुरुषों की सफलता का रहस्य यह है कि वे मन की शक्ति का दुर्व्यय नहीं करते अपितु संग्रह करते हैं।
तन की शक्ति का, शारीरिक शक्ति का भी वे महापुरुष दुर्व्यय नहीं करते। निरर्थक दौड़धूप नहीं करते। निष्प्रयोजन गमनागमन नहीं करते। सोच समझकर ही वे शरीरशक्ति का उपयोग करते हैं। इसलिए जब कोई विशिष्ट-महत्वपूर्ण प्रयोजन उपस्थित होता है, तब शरीर शक्ति भरपूर मात्रा में उनके पास होती है। वे थकते नहीं हैं, शरीर में स्फूर्ति बनी रहती है। जीवन सदाचारी होने से वीर्यशक्ति का संचय होता रहता है, उससे शरीर सशक्त और स्फूर्तिवाला बना रहता है।
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