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प्रवचन-४४
२३६ के हाथ पर अच्छी घड़ी देखकर तुम्हारा मन नहीं होता घड़ी बाँधने का? ___ दो भाई में से एक भाई ने कहा : हमें ऐसा शौक नहीं है। शुरूआत में मित्र पूछते थे तो हमने उनको कहा था : घड़ी बांधना कोई श्रीमन्ताई का प्रतीक नहीं है! और, 'हम श्रीमन्त हैं' ऐसा दुनिया को बताने की हमें चाह भी नहीं है! बस, तभी से कोई 'हमारे' साथ घड़ी के विषय में बात नहीं करता! मैंने कहा : 'इस से, तुम कंजूस हो, वैसा 'इम्प्रेशन' नहीं बना?
उन्होंने कहा : नहीं जी, कॉलेज में जब कोई अच्छा कार्य होता है, हम अच्छा डोनेशन-दान देते हैं! जैसे, गरीब विद्यार्थियों को किताबें फ्री देना, उनको आर्थिक सहायता देना....वगैरह । ऐसी प्रवृत्ति करने से कॉलेज में सभी विद्यार्थी हमारी ओर प्रेम से देखते हैं। ___ मैंने दूसरा प्रश्न पूछा : मैं देखता हूँ कि प्रतिदिन तुम दोनों भाई सिम्पलसादे वस्त्र पहनकर कॉलेज जाते हो....तुम बढ़िया...मूल्यवान् और फैशनेबल वस्त्र क्यों नहीं पहनते?' सादगी में ही शोभा अमीरी की :
उन्होंने कहा : हम छोटे थे तभी से पिताजी ने हमको ये संस्कार दिये हैं! वे कहते थे 'सादगी से श्रीमन्ताई शोभती है! सादगी से जिओगे तो अच्छे कार्य करने की शक्ति बढ़ेगी। अपनी लक्ष्मी सत्कार्य करने के लिए है, अपने स्वयं के मौज-शौक के लिए नहीं है! पिताजी स्वयं सादगी से जीते हैं! और लाखों रुपये का दान देते हैं!
जब दान की बात आई, मैंने बात पकड़ ली और पूछा : 'तुम्हारे पिताजी लाखों रुपये का दान देते हैं, क्या तुम लोगों को पसन्द आता है?' __ दोनों भाई हँस पड़े....और कहने लगे : 'हमें क्यों पसन्द नहीं आये? पिताजी कमाते हैं और कार्य करते हैं! हमारा नाराज होने का प्रश्न ही नहीं उठता!'
एक पैसे का भी दुर्व्यय नहीं। न वे होटल में जाते थे, नही कभी बाहर का कुछ खाते | श्रीमन्त होते हुए भी फालतू खर्च नहीं। जीवन जीने की यह उत्तम पद्धति है। अन्तिम दो दशक में, अपने देश में, अपने समाज में भी फालतू अर्थव्यय बढ़ गया है। श्रीमन्त तो करते ही हैं, मध्यमवर्ग और गरीब लोग भी पैसे का दुर्व्यय कर रहे हैं।
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