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प्रवचन- ४३
२२९
निकलने देता है। 'मैं तो पामर हूँ.... थोड़ा सा दुःख भी मुझे चंचल कर देता है, थोड़ा सा सुख मुझे ललचा देता है । मुझ में धीरता नहीं है.... वीरता नहीं है .... मैं इस जीवन में कभी भी आत्मविकास नहीं कर सकूँगा.... मेरा मन अस्थिर.... चंचल है.... । ' ऐसे विचार मनुष्य का पतन करते हैं, निराशा मनुष्य को घेर लेती है। अपने आपको अशक्त मानना, मनुष्य मन की बड़ी विकृति है । आप अपने मन की अगाध शक्ति को समझो! मन की शक्ति अपरंपार है। मन मनुष्य को तंदुरुस्त बना सकता है, मन मनुष्य को मौत के मुँह में फेंक सकता है। किसी भी हालत में मन को निर्बल नहीं होने देना चाहिए । कमजोर नहीं पड़ने देना चाहिए ।
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मगधभूमि पर युद्ध चल रहा था, चन्द्रगुप्त के साथ महामात्य चाणक्य भी युद्धभूमि पर थे, उस समय एक गुप्तचर ने आकर कहा : 'महामात्यजी, अपने सैन्य के सेनापति शत्रु के साथ मिल गये हैं और सेना भी संभवतः दगा देगी....।'
पूर्ण स्वस्थता के साथ चाणक्य ने कहा : 'दूसरों को भी शत्रु के पास जाना हो तो चले जायें, केवल मेरी बुद्धि नहीं जानी चाहिए !' नंदराजा का निकंदन निकाल कर चन्द्रगुप्त को मगध सम्राट बनाने वाले चाणक्य के पास सुदृढ मन था! कभी वे निराश नहीं हुए । संकट भी आये थे, बड़ी-बड़ी समस्याएँ भी पैदा हुई थी, परन्तु उनका मन .... उनकी बुद्धि विचलित नहीं हुई थी।
पहले सज्जन बनना है ...
बाद में
साधु :
सज्जन मानव बनने का कम से कम, दृढ़ संकल्प तो होना ही चाहिए । श्रावक बनने की और साधु बनने की बात तो बहुत दूर है, सज्जन बनने की बात महत्वपूर्ण है। सज्जन बने बिना श्रावक नहीं बन सकते, सज्जन हुए बिना साधु नहीं बन सकते। हाँ, आजकल बिना सज्जनता के ही ज्यादातर श्रावक देखने को मिलेंगे! बिना सज्जनता के ही ज्यादातर साधु देखने को मिलेंगे। चूँकि संघ और समाज में मूल्यांकन भक्त श्रावकों का है और मूल्यांकन साधुओं का है! सज्जनता के अभाव में भी समाज साधु - श्रावकों को मान-सम्मान देता है। इसलिए श्रावक बन जाना.... साधु बन जाना सरल हो गया है !
सभा में से: साधु बनने से सज्जनता तो आ ही जाती होगी न ?
महाराजश्री : बिना सज्जनता साधु कैसे बना जा सकता है ? साधु का वेश धारण कर लेने मात्र से क्या सज्जनता आ जाती है? सज्जनता नहीं है और
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