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प्रवचन -४१
२०७
मान लो कि आपको निन्दा करने की आदत है, आप यह आदत नहीं छोड़ सकते, फिर भी क्या आप मानते हो कि निन्दा करना बहुत बुरी बात है ? यदि आपकी यह मान्यता होगी तो ही आप सज्जनों की 'निन्दात्याग' की शिष्टता की प्रशंसा कर सकोगे ।
मौन का अर्थ हमेशा सहमति नहीं होता :
मान लो कि आप किसी की निन्दा कर रहे हो, आपके पास ऐसा ही एक शिष्ट पुरुष खड़ा है, जो आपकी निन्दा में शामिल नहीं होता है, मौन रहता है... मौन स्वीकृत भी नहीं देता है, तो आपके मन में क्या होगा? आप उसको क्या कहोगे?
सभा में से : हम उसको 'नासमझ' कहेंगे, उसका उपहास करेंगे।
महाराजश्री : तो समझना चाहिए कि 'निन्दा' को आप पाप नहीं मानते ! निन्दा को दोष नहीं मानते। आप सज्जनों की 'निन्दात्याग' की विशेषता को देख नहीं सकोगे। उनकी प्रशंसा नहीं कर सकोगे ।
सभा में से: हमारी निन्दा करने वालों की निन्दा तो हो ही जाती है।
महाराजश्री : वह बात अखरती है क्या ? निन्दा करने के बाद पश्चात्ताप होता है क्या? 'निन्दा नहीं करनी चाहिए,' ऐसा समझते हो क्या ? यदि समझते हो तो निन्दात्यागी पुरुषों की प्रशंसा हो ही जाएगी ! ज्यों-ज्यों प्रशंसा करते जाओगे त्यों त्यों निन्दा का व्यसन छूटता जायेगा । निन्दा का रस बेस्वाद लगता जाएगा। इसलिए कहता हूँ कि शिष्ट पुरुषों की प्रशंसा करते रहो। जो गुण पाना हो, उस गुण को, गुणवानों की प्रशंसा करते रहो । आप में वे गुण आयेंगे ही।
गुणानुवाद के प्रति अनुराग रखना सीखो :
शिष्ट पुरुष- सज्जन पुरुष जैसे किसी की निन्दा नहीं करते वैसे वे सज्जनों की, साधुचरित पुरुषों की प्रशंसा करते रहते हैं ! चूंकि वे लोग गुणानुरागी है ! गुणानुरागी व्यक्ति गुणवानों का प्रशंसक होगा ही! जब जब आप उनकी बातें सुनेंगे, आपको किसी महात्मा के गुण ही सुनने को मिलेंगे! गुणवानों की प्रशस्ति ही सुनने को मिलेगी ! शिष्ट पुरुष की इस विशेषता के प्रति अपने हृदय में आकर्षण जगेगा तो उनकी प्रशंसा हो ही जाएगी। 'गुणानुवाद' एक विशिष्ट गुण है, इस गुण का हमारे हृदय में अनुराग होना चाहिए ! भले आज
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