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प्रवचन-४२
२१० रौद्रध्यान में कैसे पापकर्म बंधते हैं, वह तो आप जानते हो न? उन पापकर्मों के फल का भी ज्ञान है न? कभी शान्त चित्त से सोचा है? ऐसा कहो कि 'ये सारी बातें सोचने का समय नहीं है!' कोई बात नहीं! मत सोचो, दुष्परिणाम भोगने के लिए तैयार रहना!
यदि दोषदृष्टि होगी तो आपको दुनिया में कोई शिष्ट पुरुष ही नहीं दिखाई देगा! सर्वत्र दोष ही दिखाई देंगे। शिष्ट पुरुष नहीं दिखेगा तो फिर शिष्टपुरुष के गुण कैसे दिखाई देंगे? गुण नहीं देखेंगे तो गुणानुवाद कैसे करोगे? गुणप्रशंसा कैसे होगी? संभव है कि आप लोग शिष्ट पुरुषों की भी निन्दा करने लग जाओगे?
सर्वत्र दोषदर्शन करने वाले लोग बोलते हैं न कि 'आज तो दुनिया में कोई साधुपुरुष दिखता ही नहीं। ऐसे लोग जहाँ पर भी जाते हैं, वे दोष देखते रहते हैं। छिद्रान्वेषण की उनकी मनोवृत्ति होती है। ऐसे लोगों के मुँह से कभी भी आप किसी शिष्ट पुरुष की प्रशंसा नहीं सुन सकोगे! आपकी निगाहों में जो शिष्ट दिखाई देते होंगे, वे महापुरुष उनके दोषानुवाद करते होंगे। चूँकि वे किसी को शिष्ट पुरुष ही नहीं मानते! इस दुनिया में एक ही शिष्ट पुरुष है
और वह है दोषदृष्टिवाला दोषानुवाद करने वाला महानुभाव स्वयं! दोषदृष्टिवाला मनुष्य किसी को भी शिष्ट पुरुष मानने को तैयार नहीं होता। फिर शिष्ट पुरुषों के गुणों की प्रशंसा करने की तो बात ही कहाँ? शिष्ट पुरुषों के गुणों की प्रशंसा करना, गृहस्थ का सामान्य धर्म है। मयणा की सैद्धान्तिक मान्यता :
मयणासुन्दरी राजकुमारी थी, माता-पिता का उनके प्रति अपार स्नेह था। उसको कल्पना भी नहीं होगी कि उसको एक कुष्ट रोगी युवक से शादी करने का संकट आ जाएगा। बात-बात में पिता के साथ विवाद छिड़ गया। सैद्धान्तिक विवाद हो गया। पिता चाहता था कि राजकुमारी उसका उपकार माने। राजकुमारी सैद्धान्तिक रूप से पिता का उपकार माने। राजकुमारी सैद्धान्तिक रूप से पिता का उपकार मानने को तैयार नहीं थी। व्यवहारलोक-व्यवहार से, और कृतज्ञता के माध्यम से वह माता-पिता के उपकारों को मानती थी परन्तु सिद्धान्त से नहीं। सिद्धान्त कहता है 'पापाद् दुखम, धर्मात् सुखम् ।' पापों से दुःख, धर्म से सुख | जीवात्मा पापकर्मों का उदय दुःखी ही होता है, पुण्यकर्मों के उदय से सुखी होता है। यदि जीव का पापकर्म का
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