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प्रवचन-४०
१९२ 5.बुराइयों से बचने के लिए निंदा का त्याग अत्यंत जरूरी है,
उसी तरह संस्कारी बनने के लिए सज्जनों के गुणों की र प्रशंसा करना भी अनिवार्य एवं आवश्यक है। जीवन में धर्म के फूलों को खिलाना चाहिए। जीवन धर्म से स्पंदित होना चाहिए। इसके लिए क्रमशः विशिष्ट गुणों को प्राप्त करना चाहिए। शिष्ट पुरुषों के सदाचरण की प्रशंसा हमेशा करते रहना
चाहिए। उनके गुणों की जयगाथा गाते रहना चाहिए। • सुख के फूलों में डूब मत जाओ। .दुःख के काँटों में उलझ मत जाओ! . उपकारी के प्रति कृतज्ञता रखना जीवन का सबसे बड़ा महत्वपूर्ण
गुण है! उपकारी को भूल जाने से बढ़कर कृतघ्नता क्या होगी? -
प्रवचन : ४१
महान् श्रुतधर परमकरूणासिन्धु आचार्य श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी स्वरचित 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ में सर्वप्रथम गृहस्थ का सामान्यधर्म बता रहे हैं । इस ग्रन्थ में क्रमिक मोक्षमार्ग का सुन्दरतम प्रतिपादन किया गया है। जिस मनुष्य को क्रमिक आत्मविकास करना है, वास्तविक धर्मपुरुषार्थ करना है, उस मनुष्य के लिए 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ श्रेष्ठ मार्गदर्शक बन सकता है। गाइड का काम कर सकता है।
गृहस्थ का सामान्य धर्म जीवनधर्म है! आत्मधर्म की बातें तो बाद में करेंगे, पहले जीवनधर्म की बातें आवश्यक हैं। जीवन में धर्म करना, एक बात है, जीवन को धर्ममय जीना, दूसरी बात हैं! जीवन में दो-चार धर्मक्रियायें कर लेना, कभी थोड़ा-सा दान दे देना या तपश्चर्या कर लेना, कभी थोड़ा-सा व्रत-नियमों का पालन कर लेना, यह है जीवन में धर्म करने की बात! परन्तु जीवन को धर्ममय जीने के लिए तो चाहिए न्याय-नीति और प्रामाणिकता से अर्थोपार्जन का पुरुषार्थ! अन्याय नहीं, अनीति नहीं, बेइमानी नहीं, परवंचना नहीं! जीवन को धर्ममय जीने के लिए चाहिए विवाह का औचित्य! जीवन को धर्ममय जीने के लिए चाहिए निर्व्यसनी जीवनपद्धृत्ति और अधमकृत्यों से निवृत्ति!
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