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प्रवचन-४१
१९८ जीवन में बहुत बड़े संघर्ष आये थे, उनको जितने दुःखों से संघर्ष करना पड़ रहा था उससे भी ज्यादा उनको सुख के साधन प्राप्त हुए थे, परन्तु दोनों अवस्थाओं में वे तुल्य वृत्ति के दिखायी देते हैं! दुःखों में वे कभी दीन नहीं बने, सुखों में कभी लीन नहीं बने! असाधारण शिष्टता है यह! यह तो करम के खेल : ___ श्री सिद्धचक्रजी की आराधना से जब श्रीपाल का और उनके सातसौ साथियों का कुष्ठरोग नष्ट हो गया, श्रीपाल निरोगी बन गये, सुन्दर, खूबसूरत राजकुमार बन गये तब राजा और प्रजा आश्चर्य से मुग्ध बन गये। राजा को अपनी गलती महसूस हुई, राजा चलकर मयणा-श्रीपाल के पास आया, समाधान हो गया। राजा ने मयणा-श्रीपाल को आदर दिया और सुख सुविधायें प्रदान की।
श्रीपाल अश्वारोही बनकर नगर के राजमार्ग से गुजरता है तब लोग उनकी ओर देखते हुए कहते हैं 'यह अपने राजा का जमाई जा रहा है! कितना रूपवान और पुण्यशाली है! मयणासुन्दरी के भाग्य खुल गये!' लोकनिन्दा को लोकप्रशंसा में बदलो : __ श्रीपाल के कानों पर ये शब्द टकराते हैं, वे क्षुब्ध हो जाते हैं। 'मेरा परिचय मेरे श्वसुर के माध्यम से? मेरे लिए शोभारूप नहीं। मेरा परिचय मेरी पहचान, मेरे नाम से ही होना चाहिए। मुझे श्वसुर का आश्रय छोड़ देना चाहिए । 'राजा का जमाई'-इन शब्दों में अपनी निन्दा प्रतीत हुई! वे लोकनिन्दा पसन्द नहीं करते थे! वे समझते थे कि आगे चलकर लोग कहेंगे- 'श्रीपाल घरजमाई बनकर बैठा है, उसका स्वयं का कोई पराक्रम नहीं!' उसने तुरंत ही श्वसुर का नगर और राज्य छोड़कर विदेश जाने का निर्णय ले लिया। मयणासुन्दरी को अपना निर्णय बताकर, अपनी माता कमलप्रभा का आशीर्वाद लेकर, वे अकेले ही नगर से निकल पड़े!
शिष्टपुरुष लोकापवाद पसन्द नहीं करते। मयणासुन्दरी ने भी लोकापवाद पसन्द नहीं किया था। राजसभा में राजा ने कुष्ठरोगी अनजान श्रीपाल के साथ मयणा की शादी कर दी थी तब नगरवासियों ने मयणा की और उसके जैनधर्म की निन्दा करने में कसर नहीं छोड़ी थी। 'देखी मयणा की सिद्धान्तहठता...पिता के सामने पुण्य-पापकर्मों की बात करने चली तो कैसा कोढ़ी पति-मिला! रोजाना मन्दिर जाती थी, जैनाचार्यों का उपदेश सुनती थी,
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