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प्रवचन-३३ सकते। ब्रह्मचर्य को अच्छा मानने पर भी वे ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकते। मैथुन संज्ञा पर विजय पाना उनके लिए अशक्य होता है। ___ जो देव-देवी सम्यकदृष्टि होते हैं, वे समझते हैं कि अब्रह्म का सेवन पाप है, ब्रह्मचर्य का पालन धर्म है, फिर भी वे अब्रह्म का त्याग नहीं कर सकते और ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकते! उन पर मैथुन संज्ञा का उतना प्रबल असर होता है।
तिर्यंचयोनि में यानी पशु-पक्षी की योनि में भी मैथुन संज्ञा का व्यापक असर होता है। जिन पशु-पक्षी और कीड़ों में मन नहीं होता है, जो जीव पंचेन्द्रिय नहीं होते हैं उन जीवों में मैथुन संज्ञा जाग्रत नहीं होती है, सुषुप्त होती है। परन्तु जो तिर्यंच पंचेन्द्रिय हैं और मनवाले हैं उनमें यह संज्ञा जाग्रत होती है। ये जीव भी अविकारी बनने का पुरुषार्थ नहीं कर सकते हैं, संज्ञानिग्रह नहीं कर सकते हैं। हाँ, शारीरिक वेदना से ग्रस्त होने पर उनकी जातीय वासना शान्त हो जाती हैं।
सशक्त और निरोगी शरीर में जातीय वासना की उत्तेजना विशेष रूप में होती है, इसलिए मुमुक्षु आत्मा जो अविकारी बनना चाहता है उसके लिए तप
और त्याग का मार्ग बताया गया है। तप-त्याग से शरीर दुर्बल और अशक्त बनता है, ऐसे शरीर में मैथुन संज्ञा की उत्तेजनाएँ कम होती हैं। मन की वासना ज्ञान-ध्यान से शान्त हो जाती है। परन्तु ये तप-त्याग और ज्ञान-ध्यान नरक में और तिर्यंचयोनि में संभव नहीं हैं! यह साधना तो मात्र मनुष्यजीवन में ही हो सकती है।
मनुष्य को तीन वेदों में से किसी भी वेद का उदय हो सकता है। किसी को पुरुषवेद का उदय, किसी को स्त्रीवेद का उदय, किसी को नपुंसकवेद का उदय! जब पुरुषवेद का उदय होता है तब स्त्रीस्पर्श की इच्छा होती है और जिसको नपुंसकवेद का उदय होता है उसको स्त्रीस्पर्श और पुरुषस्पर्श-दोनों की इच्छा होती है। मोहनीय-कर्म को नष्ट करने का लक्ष्य चाहिए : ___ मैंने आपको पहले ही बता दिया कि ये तीनों वेद मोहनीय-कर्म के प्रकार हैं। मनुष्य मोहनीय-कर्म का नाश कर सकता है! यदि करना हो तो! एक बात अच्छी तरह से ध्यान में रखना कि मोहनीय-कर्म का नाश किये बिना, उपशम किये बिना चित्तशान्ति, आत्मशुद्धि, मन की स्थिरता प्राप्त होनेवाली नहीं है।
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