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प्रवचन-३२
कानों से प्रिय गीत-संगीत सुनना! आँखों से प्रिय रूप का दर्शन करना! नाक से प्रिय सुवास-सुगंध का आस्वाद करना! जिह्वा से प्रिय रसों का अनुभव करना! स्पर्शेन्द्रिय से प्रिय सुखदायी स्पर्श का अनुभव करना!
पुरुष को स्त्री का स्पर्श-सुख और स्त्री को पुरुष का स्पर्शसुख प्रिय लगता है। पुरुष को स्त्री के प्रति और स्त्री को पुरुष के प्रति सहज आकर्षण होता है। देवलोक के देव-देवी हों, तिर्यंचगति के पशु-पक्षी हों या मनुष्यगति के स्त्री-पुरुष हों, विजातीय का आकर्षण होता ही है। क्योंकि संसार के सभी जीवों में 'मैथुन संज्ञा' होती ही है। किसी जीव में मैथुन संज्ञा जाग्रत होती है तो किसी जीव में सुषुप्त होती है। मैथुन संज्ञा :
शास्त्रीय परिभाषा में पुरुष की मैथुन संज्ञा 'पुरुषवेद' कहलाती है, स्त्री की मैथुन संज्ञा स्त्रीवेद' कहलाती है और नपुंसक की मैथुन संज्ञा 'नपुंसकवेद' कहलाती है। ये पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद मोहनीय-कर्म के ही प्रकार हैं। सभी संसारी जीव 'मोहनीय-कर्म' के प्रभाव से प्रभावित हैं। जो जीवात्मा आत्मज्ञानी बनता है और मोहनीय-कर्म के प्रभावों से प्रभावित नहीं होता है, अर्थात् तप, त्याग, ज्ञान, ध्यान और संयम से आत्मनिग्रह करता है, वह मैथुन संज्ञा से पराभूत नहीं बनता है। ___ नरक गति में जीवों को इतनी प्रबल शारीरिक और मानसिक वेदनाएँ होती हैं कि वहाँ उनकी मैथुन संज्ञा जाग्रत ही नहीं हो पाती है। यों भी, मनुष्य के जीवन में भी घोर वेदनाएँ और भयानक व्याधियाँ उभरती हैं तब मैथुन संज्ञा जाग्रत नहीं होती है, यानी जातीय वृत्तियाँ सुषुप्त रह जाती हैं।
देवगति में देव और देवियों में मैथुन संज्ञा जाग्रत होती है और वहाँ तो जन्म होते ही देव-देवियों का संबंध शुरू हो जाता है। जिन-जिन देवलोकों में देवियां नहीं होती हैं वहाँ देवों की मैथुन संज्ञा सुषुप्त होती है और उनमें देवियों के प्रति आकर्षण ही पैदा नहीं होता है। उच्चतम देवलोकों में देवों की आत्मस्थिति निर्विकार होती है। परन्तु जिन-जिन देवलोकों में देवियाँ होती हैं वहाँ देव-देवी के शारीरिक संबंध होते ही हैं, वे लोग ब्रह्मचारी नहीं बन
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