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प्रवचन-३५
१३२ परिवर्तन करना होगा। दाम्पत्य जीवन में ये सारी बातों की समानता क्यों अपेक्षित हैं, यह बात समझ गये न? यह मानव-जीवन है, धर्मपुरुषार्थ कर लेने का श्रेष्ठ जीवनकाल है। चारित्र्यधर्म स्वीकार करने की क्षमता नहीं है, गृहस्थ जीवन जीना पड़ता है तो गृहस्थ जीवन इस प्रकार जीना चाहिए कि थोड़ा भी धर्मपुरुषार्थ हो सके। वह तभी हो सकता है जब मनुष्य की चित्तवृत्तियाँ उपशान्त हो। विषय-वासना से या क्रोधादि कषायों से चित्तवृत्तियाँ उत्तेजित होती हैं। इसलिए वासना की तीव्रता से बचना चाहिए एवं क्रोधादि कषायों से बचना है। ऐसे निमित्त ही पैदा नहीं करने चाहिए कि कषाय से चित्त चंचल बने। इन सारी समानताओं का ध्यान रखते हुए शादी-विवाह करनेवाले ज्यादातर लोग कषायों की तीव्रता से बच सकते हैं एवं विषमताओं के बीच समता रख सकते हैं।
गृहस्थ जीवन के ३५ सामान्य धर्मों की विवेचना करनी है। यह दूसरा गृहस्थ धर्म है विवाह-औचित्य का । सामान्य धर्मों की उपेक्षा करके विशेष धर्म की क्रियाएँ करनेवाले वास्तव में धर्माराधक नहीं बन पाते हैं!
आज बस, इतना ही।
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