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प्रवचन-३९ चन्दूलाल सब कुछ हार गया और अत्यंत मूढ़ बन गया। घर में युवान पत्नी रोती थी बिलखती थी। पति को समझाने जाती तो पति लातों से बात करता। एक दिन चन्दूलाल भी युधिष्ठिर बन गया। उसने भी पत्नी को दाव पर लगा दिया और हार गया...। पत्नी को पता नहीं था पर एक दिन चन्दूलाल पत्नी को लेकर सुरत जाने के लिए निकला। सूरत स्टेशन पर वह अपनी पत्नी को जुआरी के हाथों सौंप देने का तय कर आया था। गाड़ी अहमदाबाद से छूट चुकी थी, इधर चन्दूलाल की पत्नी के भाई को कहीं से भी पता लग गया.... उसने टैक्सी कर ली और पहुँच गया सूरत । जुआरी को पैसा देकर, अपनी बहन को लेकर आ गया अपने घर |
बाद में चन्दूलाल ने जुआ खेलना छोड़ दिया और दूसरा धंधा शुरू कर दिया। ऐसे तो जुआरी बने हुए अनेक चन्दूलाल अपना जीवन और अपने परिवार का जीवन नष्ट कर रहे हैं। देश-विदेश में कुछ क्लबें भी ऐसी चल रही हैं... जहाँ जुआ खेला जाता है। शिक्षित कहलाने वाले भी कई लोग क्लबों में जा कर जुआ खेलते हैं। ___ सभा में से : जुआ खेलने की आदत कैसे पड़ जाती है, जब लोग जानते हैं कि जुआ खेलने से पांडव भी सब कुछ हार गये थे....? _महाराजश्री : जुआ खेलने वाले युधिष्ठिर को नहीं देखते, दुर्योधन को देखते हैं। दुर्योधन जीत गया था न! वास्तव में देखा जाय तो मनुष्य की बिना मेहनत धन कमा लेने की वृत्ति ही इस बात में जिम्मेदार है। बिना परिश्रम किये लखपति-करोड़पति बन जाने की लालसा इस बात में जिम्मेदार है। मनुष्य की इस कमजोरी का लाभ कुछ व्यापारी उठाते हैं, वैसे सरकार भी उठा रही है। 'लॉटरी' क्या है? एक प्रकार का जुआ ही है। एक रूपये की टिकट लो और लाख रूपये का इनाम कमाओ । आज देश में लाखों-करोड़ों मनुष्य इस लॉटरी के चक्कर में फँसे हैं। वैसे भिन्न-भिन्न वस्तुओं का सट्टा भी लोग खेलते हैं! सोने का सट्टा, चांदी का सट्टा, रूई का सट्टा, शक्कर का सट्टा....। ऐसे सट्टे खेलकर कौन लखपति बना? मानों कि एक-दो बार लाखों रूपये कमा भी लिये, क्या वे रूपये टिकते हैं? जुआ खेलना बरबादी का मार्ग है। जुआरी-सट्टाखोर कभी भी मानसिक शान्ति, मानसिक स्थिरता नहीं पा सकता। निरन्तर आर्तध्यान में लीन रहता है। हार-जीत की कल्पना निरन्तर उसको उद्विग्न बनाये रखती है।
कर्मबन्ध की दृष्टि से सोचें तो रोंगटे खड़े हो जायें। आर्तध्यान में कितने और कैसे पापकर्म बंधते हैं इसका गंभीरता से विचार करना चाहिए | पापकर्म
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