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प्रवचन-३९
१८१ मन निर्भय निराकुल और चिन्तारहित बना रहना चाहिए | दुष्ट और अयोग्य आचरण करने वाले कभी भी निर्भय और निश्चित नहीं रह सकते । भय और चिन्ता से उनका मन चंचल, अस्थिर और रुग्ण बना रहता है। ऐसे लोग धर्मआराधना नहीं कर सकते। इसलिए आप लोगों को कहता हूँ कि आप पहले आत्मसाक्षी से निर्णय कर लें कि इस मानवजीवन में धर्मपुरुषार्थ कर लेना है, अशुद्ध आत्मा को विशुद्ध करने हेतु भरसक प्रयत्न कर लेना है। यदि आपका यह निर्णय होगा तो ही आपको निर्भयता और निश्चिन्तता की यह बात समझ में आयेगी। गलत काम से सतत 'टेन्शन' :
आप निश्चित रूप से मानना कि बुरे काम करने वाले भयाक्रांत ही रहते हैं, चिन्ताओं से व्याकुल ही रहते हैं। हाँ, उनके वस्त्र उजले और कीमती हो सकते हैं, उनके पास लाखों रूपये भी हो सकते हैं, वे लोग समाज में, नगर में, देश में, सत्ता के सिंहासन पर भी हो सकते हैं। हँसकर वे बोल सकते हैं
और शांति पर लंबा चौड़ा भाषण भी दे सकते हैं! परन्तु भीतर में वे भयभ्रान्त होते हैं, चिन्ताओं की आग में सुलगते होते हैं! एक दिन, जब उनका पुण्योदय समाप्त हो जाता है और पापोदय शुरू हो जाता है, वे लोग आपत्ति में फँसे जाते हैं। ऐसे लोग शान्ति से प्रसन्नता से कैसे धर्मआराधना कर सकते हैं? धर्मआराधना तो दूर रही अपने जीवन में ऐसे लोग शान्ति और प्रसन्नता का अनुभव ही नहीं करते। अपने जीवन-व्यवहारों में भी वे लोग स्वस्थ और नियमित नहीं रह पाते। गहरी होती जाती बुराइयों की जड़ें :
कल मैंने आपको तीन बुराइयों को जीवन में प्रवेश नहीं देने को कहा था : अन्यायपूर्ण व्यवहार नहीं करना, जूआ नहीं खेलना और परस्त्री का समागम नहीं करना । आज शेष दो बुराइयों के विषय में समझाना है। मांसाहार और मदिरापान के विषय में कुछ विस्तार से समझना पड़ेगा! यों तो अपना जैन समाज मांसाहारत्यागी और मद्यपानत्यागी माना जाता है, इसलिए आप लोगों के सामने मांसाहार और मद्यपान नहीं करने का उपदेश देना, कोई महत्व नहीं रखता है, परन्तु पिछले २५ वर्ष में अपने जैन समाज में भी ये दो बुराइयाँ विशेष फैली हैं और फैलती जा रही हैं, इसलिए इन दो बुराइयों के अनिष्ट बताने ही पड़ेंगे।
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