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प्रवचन-३७
१५७ .धर्म तो जीने के लिए है! जिन्दगी की हर एक साँस के साथ धर्म की सुवास गुम्फित हो जानी चाहिए। नई बात या नया अभिगम अपनाने के लिए भी सत्त्व चाहिए। निःसत्त्व आदमी कभी क्रांति नहीं कर सकता! क्रांति के लिए तो लौह हृदय, फौलादी व्यक्तित्व चाहिए! वर्ना क्रांति केवल भ्रांति बनकर रह जायेगी! यदि आप परिवार में बड़े हो, बुजुर्ग हो... तो आपके पास समझदारी, गंभीरता, उदारता जैसे मौलिक गुण होने अत्यंत जरुरी हैं! ये बातें होंगी तो ही आप परिवार को पूरा न्याय दे पाओगे! दुनिया के प्रवाह में बहकर यदि जीते रहे तो पतन की गहरी
खाई में फिसल जाओगे! जरा सोच-समझकर जीवन जीओ! . स्त्री अपने परिवार की सेवा करे, पूरे परिवार को प्रेम-उष्मा
से सराबोर रखे, संस्कारों से सुवासित् करे... क्या यह = दकियानूसी है?
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प्रवचन : ३८
महान श्रुतधर, आचार्यश्री हरिभद्रसूरिजी 'धर्मबिन्दु' ग्रंथ में गृहस्थ का सामान्य धर्म बता रहे हैं। सामान्य धर्म वास्तव में देखा जाये तो विशेष धर्म से भी ज्यादा महत्त्व रखता है। पालन की दृष्टि से देखा जाये तो भी सामान्य धर्मों का पालन, विशेष धर्मों के पालन से ज्यादा दुष्कर है। सामान्य धर्म असामान्य... असाधारण धर्म है! क्योंकि सामान्य धर्म जीवनधर्म है | जीवन की हर क्षण का, श्वासोश्वास का धर्म है! सामान्य धर्म जीने का है, करने का नहीं है! आज मनुष्य धर्म करने को फिर भी तैयार हो जाता है, धर्म जीने को तैयार नहीं होता!
दान देने को तैयार होता है परन्तु अप्रमाणिक धन्धा छोड़ने को तैयार नहीं होता! सामायिक करने को तैयार होता है परन्तु क्रोध, रोष, वैर को छोड़ना नहीं चाहता! परमात्मा की पूजा करने को तैयार होता है, परन्तु परमात्मा की आज्ञा का पालन करने को तैयार नहीं होता! प्रतिक्रमण करने को तैयार होगा, पापों का त्याग करने को तैयार नहीं होता!
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