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प्रवचन-३८ स्त्री को स्वच्छंदता के हद की स्वतंत्रता न दें :
तीसरी बात यह बताई गई है कि स्त्री को ज्यादा स्वतंत्रता नहीं देनी चाहिए | स्त्री-स्वातंत्र्य के इस युग में यह बात शायद महिलाओं को पसन्द नहीं आयेगी। परन्तु एक बात ध्यान से सुन लेना कि स्त्री-स्वातंत्र्य की बात करनेवाले मोक्षपुरुषार्थ और धर्मपुरुषार्थ को नहीं मानते! उनकी दृष्टि में मोक्ष नहीं है, धर्म नहीं है। वे सोचते हैं मात्र कामपुरुषार्थ की दृष्टि से! ___ मैं जो बात यहाँ बता रहा हूँ वह धर्मपुरुषार्थ की और मोक्षप्राप्ति की दृष्टि से बता रहा हूँ। यदि स्त्री को अपने शीलधर्म की रक्षा करनी है तो उसको वैसी स्वतंत्रता नहीं लेनी चाहिए। अपने पति की परतंत्रता, परतंत्रता नहीं है परन्तु समर्पण है। समर्पण में दुःख या वेदना नहीं होती, समर्पण में सुख और आनन्द होता है। _ 'भारतीय संस्कृति में स्त्री को गुलाम जैसा बना दिया गया है, यह मिथ्या आरोप है। भारतीय संस्कृति में स्त्री को जो सम्मान दिया गया है, दूसरी किसी संस्कृति में नहीं दिया गया। स्त्री को आत्म-कल्याण की साधना का पूर्ण अधिकार दिया गया है। यदि स्त्री मोक्षपुरुषार्थ की ओर अग्रसर होती है तो वह वंदनीय बन जाती है। इसलिए स्त्री-स्वातंत्र्य की बातें करनेवालों पर जरा भी विश्वास नहीं करना । ऐसी बातें करनेवालों ने पारिवारिक संबंधों पर प्रहार कर दिया है, परस्पर के स्नेह-सम्बन्धों को तोड़ने का पाप किया है। स्त्री को पर-पुरुषों की ओर जाने का रास्ता बताया है, इससे स्त्री के शील और सदाचार का नाश हुआ है।
स्त्री अपने पति की, अपने बुजुर्गों की परतंत्र रहे, वही उसके लिए हितकारी है। अलबत्ता, स्त्री का उत्पीड़न नहीं होना चाहिए, उसके साथ मानवतारहित व्यवहार नहीं होना चाहिए। कुछ अविवेकी, तामसी और अभिमानी पुरुष पत्नी के साथ और बच्चों के साथ पशु जैसा व्यवहार करते हैं, वे लोग वास्तव में अपना ही अहित करते हैं। किसी भी जीव के साथ आपका व्यवहार मैत्रीपूर्ण, करुणामय और सौजन्यशील होना चाहिए।
जैसे कुछ पुरुष अपने परिवार के साथ दुर्व्यवहार करते हैं वैसे कुछ महिलाएँ भी अपने परिवार के साथ विवेकशून्य और दयाहीन व्यवहार करती हैं। इससे वे अपना महत्त्व खंडित करती हैं। परिवार में और स्नेही-स्वजनों में उनका महत्त्व नहीं रहता। फिर वे दूसरों के प्रति रोष करती हैं, दूसरों के
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