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प्रवचन-३६
१३७ राष्ट्र के, प्रजा के, समाज के अपराधी बनो वैसे काम छोड़ दो। जीवन निर्मल और निष्पाप बना लो। प्रामाणिकता से और सज्जनता से जितने सुख के साधन मिलें, उनमें संतुष्ट रहो । गलत काम कर सुख पाने का इरादा छोड़ दो। यदि एक परिवार, एक समाज भी ऐसा आदर्श स्थापित करे तो देश को, दुनिया को बताया जा सके कि इस प्रकार का पवित्र जीवन इस काल में जीया जा सकता है। तृप्ति और संतोष के बिना निष्पाप-निर्मल जीवन संभवित नहीं है। जो सदैव अतृप्त और असंतुष्ट रहते हैं वे निष्पाप नहीं बन पायेंगे। पैदा होती है निष्पाप जीवन जीने की प्रबल भावना? __ आप स्वयं दुष्कार्यों का त्याग करें, लोकविरुद्ध प्रवृत्तियों का त्याग करें और वैसे जनप्रिय, समाजप्रिय, नगरप्रिय लोगों के साथ शादी का संबंध स्थापित करें। आप यदि ऐसे निंदनीय कार्यों का त्याग करेंगे तो आप भी जनप्रिय बनेंगे। जनप्रियता, लोकप्रियता एक ऐसा तत्त्व है कि सम्पत्ति को वह खींच लाता है। आप अपनी जनप्रियता को अखंड बनाये रखें, कभी भी जनप्रियता को खोयें नहीं।
यह बात अच्छी तरह समझ लें। आप सम्पत्ति चाहते हो न? आपको धनवैभव चाहिए न? इसलिए आप, अनुचित प्रवृत्ति करते हो न? आप छोड़ दें अनुचित प्रवृत्ति और जनप्रियता प्राप्त करने का प्रयत्न करें। लोगों का स्नेह सम्पादन करें, लोगों का विश्वास प्राप्त करें.... फिर आप देखना कि धनसंपत्ति प्राप्त होती है या नहीं? लोकप्रियता लखपति भी बना दे :
अभी थोड़े दिन पहले एक भाई ने किस्सा सुनाया। गुजरात का एक युवक व्यवसाय के लिए बम्बई आया । बम्बई में जिस स्नेही के घर वह ठहरा था, उस घर में यह युवक सबका प्रिय बन गया.... दो-चार दिन में ही। उस स्नेही ने इस युवक को शेअर बाजार में सर्विस दिला दी। जिस सेठ के वहाँ सर्विस मिली वह सेठ वैष्णव धर्म का अनुयायी था। लड़के का ऑफिस में सबके साथ इतना अच्छा व्यवहार रहा कि १०-१५ दिन में सबका प्रिय बन गया । इतनी प्रमाणिकता से वह काम करने लगा कि सेठ का अत्यन्त विश्वासपात्र बन गया। यह युवक जैन था। रात्रिभोजन नहीं करता था, रात में पानी भी नहीं पीता था। सूर्यास्त के पहले ऑफिस में ही एक जगह बैठकर, नमस्कार मंत्र का स्मरण कर पानी पी लेता था। जब सेठ को मालूम हुआ कि यह युवक शाम को भोजन नहीं करता है.... भूखा रहता है और ऑफिस का काम करता
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