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प्रवचन-३४ 6. शादी करते समय भी, सहजीवन जीते समय भी भीतर में
लगन तो संयम की ही रखना है। .सांसारिक क्रिया में भी यदि औचित्य का ध्यान रखा जाये और
ज्ञानीपुरुषों के मार्गदर्शन के मुताबिक जीवन जिया जाये तो वह धर्म बन जाता है। धर्मक्रिया का रुप हो जाता है। पली की सच्ची और अच्छी बात भी खुले दिल व खुले दिमाग से मान लेनेवाले पति आजकल कितने मिलेंगे? शायद खोजने जाना होगा.... दीया लेकर नहीं पर 'फ्लडलाईट' लेकर खोजना होगा। सर्विस करनेवाली पत्नियाँ बहुधा अपने पति या अपने परिवार से भी ज्यादा ध्यान अपने 'बॉस' या सेठ का रखती हैं....क्योंकि नोट तो वह देता है! • किसी की भी रुचि या आदत का परिवर्तन झुंझलाकर या बौखलाकर नहीं करवा सकोगे आप! इसके लिए आपको शांत, स्वस्थ एवं समझदार होना होगा।
प्रवचन : ३५
महान श्रुतधर, पूज्य आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी 'धर्मबिन्दु' ग्रंथ के माध्यम से गृहस्थ जीवन का सामान्य धर्म बता रहे हैं। सामान्य धर्म विशेष धर्म की आधारशिला है। व्रत-नियम और धर्मानुष्ठानरूप विशेष धर्म तभी आत्मसात हो सकता है जब सामान्य धर्म का जीवन में समुचित पालन हो।
सामान्य धर्म की उपेक्षा करके विशेष धर्म की आराधना करना वस्त्ररहित शरीर पर आभूषण पहनाने जैसा है। नंगे शरीर पर आभूषण शोभते हैं क्या? वैसे सामान्य धर्म का पालन किये बिना विशेष धर्म की आराधना शोभा नहीं बढ़ाती है। लोगों की निगाहों में विशेष धर्माराधना हास्यास्पद बनती है | न्यायनीति और प्रामाणिकता की उपेक्षा कर धन कमानेवाले लोग जब परमात्ममंदिर में जाते हैं, सामायिक प्रतिक्रमण की धर्मक्रियाएँ करते हैं, उपधानतप, वरसीतप जैसी तपश्चर्याएँ करते हैं... ये लोग शोभते नहीं हैं। उनसे पूछना, उनका मन धर्मक्रियाओं में स्थिर रहता नहीं होगा। धर्मक्रियाएँ करने पर भी आत्मानन्द का अनुभव नहीं होता होगा।
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