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प्रवचन-३१
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जन्म, जीवन और मृत्यु नहीं है। परन्तु आयुष्य कर्म की वजह से उसका जन्म वगैरह होता है। आत्मा में सुख-दुःख के द्वन्द्व नहीं हैं परन्तु वेदनीय कर्म के प्रभाव से आत्मा को सुख-दुःख का अनुभव करना पड़ता है। ___ सभा में से : इस प्रकार देखा जाये तो संसार की हर बात कर्मजन्य लगती है। ___महाराजश्री : हाँ, आत्मा और कर्मों के संयोग से ही तो यह सारा संसार है! संसार में जीव के साथ अच्छी-बुरी जो कुछ बात बनती है, जो कोई घटना घटती है, जो कोई परिस्थिति पैदा होती है वह सब कर्मप्रेरित होती है। जो मनुष्य इस तत्त्वज्ञान को नहीं जानता है वह जीव में ही कर्तृत्व का आरोप करता है। 'मैंने ऐसा किया, उसने ऐसा किया....।' इस प्रकार राग-द्वेष में उलझ जाता है। राग-द्वेष में उलझकर कर्मबंध करता है। अनादिकाल से जीव यह गलती कर रहा है। यदि कर्म का सिद्धान्त समझ ले तो यह गलती सुधर सकती है। अंतराय कर्म की समझ :
आठ कर्मों में जो अंतराय कर्म हैं, वे पाँच प्रकार के हैं : (१) दानांतराय (२) लाभान्तराय (३) भोगान्तराय (४) उपभोगान्तराय और (५) वीर्यान्तराय
बड़े समझने जैसे हैं ये पाँचों अन्तराय कर्म! पहला है दानांतराय कर्म :
मनुष्य के पास दान देने योग्य वस्तु हो और सामने लेनेवाला योग्य पात्र हो, तो भी देने की इच्छा नहीं होती। दानांतराय कर्म देने की इच्छा नहीं होने देता। 'मैं दान दूँ,' ऐसी इच्छा नहीं होने देता। लेनेवाला अच्छा हो या बुरा, सुपात्र हो या कुपात्र, उसको देने की भावना ही नहीं जगती। दुनिया ऐसे मनुष्यों को कंजूस कहती है, कृपण कहती है! परन्तु दुनिया के लोगों को यह ज्ञान नहीं है कि कृपणता को जन्म देनेवाला दानांतराय कर्म है! यदि आप इस तत्त्वज्ञान को पा लो तो कृपण लोगों के प्रति आपके हृदय में तिरस्कार पैदा
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