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प्रवचन-३२ असंख्य प्रकार के अनर्थ हो सकते हैं । बम्बई में कुछ वर्ष पूर्व एक सत्य घटना घटी थी, मैंने जिस प्रकार सुनी है आपको बताता हूँ। सभी अनर्थों की जड़ : अनीति :
दो मित्र थे। एक मित्र सर्विस करता था, दूसरा मित्र जौहरी बाजार में दलाली करता था। जो सर्विस करता था उसके पास रहने की जगह थी यानी एक कमरा था, वह पायधुनी-विस्तार में रहता था। दलाल मित्र को रहने की जगह नहीं थी। वह लॉज में भोजन करता था और अपने सम्बन्धी व्यापारी की पेढ़ी पर सो जाया करता था। परन्तु भोजन के बाद आराम करने वह अपने मित्र के घर जाया करता था। यह उसका प्रतिदिन का कार्यक्रम था। दलाली का काम अच्छा चलता था। वह अपने 'बिजनेस' की सारी बातें अपने मित्र से किया करता था। उसके मित्र की सर्विस तो अच्छी थी परन्तु दलाल के जितना वह नहीं कमा सकता था। ___ एक दिन की बात है। छुट्टी का दिन था उस सर्विस वाले मित्र का। उसके घर पर वह अकेला ही था। उसकी पत्नी और बच्चे बाहर कहीं गये हुए थे। मध्याह्न का समय हुआ, वह दलाल मित्र के घर पहुंचा। उसने जाते ही अपने मित्र से कहा : 'आज मैं आधा घंटा ही आराम करूँगा... मुझे एक व्यापारी के पास एक बजे पहुँचना है, अच्छा सौदा होनेवाला है।' उसने अपना कोट निकाला, खूटी पर लटका दिया और मित्र को कहा : 'आज सावधानी रखना, कोई मेरे कोट को छुए नहीं, एक लाख रुपये का माल है उसमें ।' __मित्र ने कहा : 'अपन दोनों कमरे भीतर से बन्द करके ही सोते हैं.... फिर किसी के आने का प्रश्न ही नहीं उठता।' उसने कमरा भीतर से बन्द कर दिया और दोनों मित्र सो गये।
जौहरी दलाल तो तुरन्त ही निद्राधीन हो गया। उसके मित्र को निद्रा नहीं आती है। उसके मन में अन्याय के, विश्वासघात के अनेक विचार उमड़ने लगे | वह सोचने लगा : 'यदि यह एक लाख रुपये का माल मेरे पास आ जाय तो? मुझे नौकरी नहीं करनी पड़ेगी.... मेरी जिन्दगी आराम से कटेगी.... मैं वतन में चला जाऊँगा और सुख से जीवन बसर करूँगा....।' ___ 'परन्तु यह मेरा मित्र है, मेरे प्रति उसको पूर्ण विश्वास है। यदि मैं उसकी जेब से माल निकाल लूँगा तो विश्वासघात होगा... जब वह जानेगा कि 'मेरे
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