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प्रवचन-२८ का ही जीवन जीना है, ऐसे लोगों के लिये यह धर्मोपदेश है ही नहीं। भोगासक्त जीवों को अन्याय अनीति और बेईमानी अखरती ही नहीं है। उनको तो रूपये चाहिए। किसी भी रास्ते मिलने चाहिए। वेश्यागृह चलाने से रूपये मिलते हों तो वेश्यागृह भी चला लें। सिनेमागृह तो कुछ जैन भी चलाते हैं ऐसा मैंने सुना है! कितना निंदनीय धंधा है सिनेमागृह और वेश्यागृह चलाने का, क्या आप लोग जानते हो?
प्रश्न : वेश्यागृह चलाना तो बुरा धंधा है, मानते हैं, परन्तु सिनेमागृह चलाना क्यों बुरा है?
उत्तर : वेश्यागृह में जाने की प्रेरणा सिनेमागृह से मिलती है! चोरी, बदमाशी, डाकूगिरी जैसे अनेक पापों की प्रेरणा सिनेमागृह से मिलती है। पापों की प्रेरणा-प्याऊ है सिनेमागृह! 'फाउन्टेन ऑफ ऑल सिन्स'! समझे?
सिनेमा जैसा पाप दूसरा नहीं है। सिनेमाओं ने करोड़ों लोगों के शील भ्रष्ट किये हैं, करोड़ों लोगों को चोर बनाया है, डाकू बनाया है, आवारा बनाया है, ऐसे सिनेमागृह चलाने का धंधा क्या अच्छा धंधा है? धन के लोभी लोग ही ऐसा धंधा कर सकते हैं। दुनिया का, दुनिया के जीवों का कितना भयंकर अहित होता है सिनेमा देखने से, यह विचार जिनको नहीं हैं, वे लोग ही सिनेमागृह चला सकते हैं। ऐसे पापपूर्ण व्यवसाय से मान लो कि दो चार लाख रूपये कमा भी लिये, परन्तु वे रूपये टिकने वाले नहीं होते। मान लो कि कुछ बरस टिक भी गये, पर उन रूपयों से सत्कार्य होने वाले नहीं! दुष्कर्म ही होंगे। गलत धंधे से प्राप्त रूपये गलत काम ही करवाते हैं। सेवाभक्ति की तीर्थयात्रा करते रहो :
न्याय, नीति और ईमानदारी से कमाया हुआ धन मनुष्य में सद्बुद्धि पैदा करता है। कमाने वाले का चित्त स्वस्थ और प्रसन्न रहता है। धर्म-आराधना में उसका मन लगता है। अपने धन का सदुपयोग करने की इच्छा जगती है। धन का सब से श्रेष्ठ सदुपयोग होता है दीन, अनाथ, गरीब और रोगी जीवों की सेवा करने का दूसरा श्रेष्ठ उपयोग होता है परमात्मभक्ति का, सद्गुरु की सेवा का और साधर्मिक भाई-बहनों की भक्ति का।
ग्रन्थकार आचार्यश्री ने इसी को तीर्थयात्रा कहा है! जो तारे....दुःख से तारे... भवसागर से तारे..... उसका नाम तीर्थ! दीन-दुःखी जीवों की सेवा करने से, उनका उद्धार करने से अपनी आत्मा भवसागर तैर जाती है। दुःखों
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