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प्रवचन-३०
जिनशासन की परंपरा में ऐसे महान आचार्य हो गये हैं। आचार्य अपनी जिम्मेदारियों को निभानेवाले सत्त्वशील महापुरुष होते हैं। शरीर के प्रति भी निःस्पृह! निर्मम! शरीर पर कोई राग नहीं, कोई आसक्ति नहीं। यदि शरीर पर ममता होती कालिकसूरिजी को तो क्या करते वे? भव्य बलिदान का इतिहास नहीं रचा जाता। शरीर का मोह होता तो वे सोचते कि 'क्या करें अब? जो होना था वह हो गया। उस विनयरत्न ने विश्वासघात कर दिया । साधु के वेष में डाकू था वह, हत्या कर भाग गया। अब सुबह राजपरिवार को मैं सत्य बात बता दूंगा। लोगों को भी समझाने का प्रयत्न करूँगा। जो होनेवाला होता है वह होकर रहता है। कोई मिथ्या नहीं कर सकता। बहुत बड़ी दुर्घटना हो गई....।' जिनशासन की रक्षा के मुखौटे में आशातना, निंदा :
निःसत्त्व, निर्बल और देहासक्त मनुष्य अपनी सुरक्षा पहले सोचता है और सिद्धान्तों का सहारा लेकर आत्मवंचना करता है। कर्तव्यपालन, जिम्मेदारी का पालन करने के लिए मनुष्य में सत्त्व चाहिए, निःस्पृहता और निर्ममता चाहिए। जिनशासन की रक्षा मात्र भाषणबाजी करने से या अखबारबाजी करने से नहीं होती। विश्वास में धैर्य रहता है :
धन-संपत्ति की ममता, मनुष्य का वर्तमान जीवन और पारलौकिक जीवन, दोनों जीवन को नष्ट कर देती है। अन्याय, अनीति से धनप्राप्ति करने का पुरुषार्थ परिग्रह संज्ञा करवाती है। 'धनप्राप्ति का सच्चा उपाय न्याय-नीति ही है', यह सत्य, परिग्रह संज्ञा से बेहोश जीवात्मा नहीं समझ पाता है।
धनप्राप्ति का सच्चा उपाय न्याय-नीति ही है। चाहिए विश्वास और धीरता! हालाँकि विश्वास में से धैर्य उत्पन्न होता है। विश्वास उठ जाता है तो धैर्य भी चला जाता है। सुनो एक छोटी-सी घटना : ___ करीबन चालीस वर्ष पुरानी एक सत्य घटना है | बम्बई में यह घटना घटी थी। बम्बई के जौहरी बाजार में एक युवक दलाली करता था | ज्वेलरी का 'ब्रोकर' था | बड़ा प्रामाणिक था। कभी भी उसने बेईमानी नहीं की थी। बाजार में उसकी अच्छी प्रतिष्ठा जम गई थी। बड़े-बड़े व्यापारी इस युवक को लाखों
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