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प्रवचन-२९ वालों की बुद्धि मलिन होती है, वैसे अन्यायोपार्जित धन मंदिरों के निर्माण में लगाया जाये तो क्या मंदिर पर उसका दुष्प्रभाव पड़ सकता है?
महाराजश्री : जिन मंदिर का निर्माण न्यायोपार्जित द्रव्य से ही करना चाहिए। शास्त्रों में भी वैसा ही विधान है। अन्यायोपार्जित द्रव्य जिस मंदिर में लगता है, उस मंदिर में परमात्म-भक्ति के भाव उतने नहीं उल्लसित होंगे; जितने न्यायोपार्जित द्रव्य से निर्मित मंदिर में उल्लसित होते हैं। आजकल बहुत से लोग पूछते हैं कि 'मंदिर में जाने पर भी मन परमात्मा में जमता नहीं है, वहाँ पर भी मन की चंचलता बनी रहती है....' वगैरह। हालाँकि इस रोग के कारण अनेक हो सकते हैं, फिर भी मंदिर में लगा हुआ अशुद्ध द्रव्य भी एक कारण है!
दूसरी बात यह भी है कि आज कितने लोगों के पास न्यायोपार्जित द्रव्य होगा? धनवानों से, श्रीमन्तों से पूछो कि उनके पास न्यायोपार्जित द्रव्य है कि अन्यायोपार्जित द्रव्य है? बस, इतनी ही अच्छी बात है कि अन्यायोपार्जित द्रव्य का भी सदुपयोग करने का भाव जगता है! अच्छे कार्यों में अपने रूपये खर्च करने का भाव सभी को नहीं जगता है! पापानुबंधी पुण्य के उदय से जो धनसंपत्ति मिलती है, यह संपत्ति मनुष्य में दुर्बुद्धि पैदा करती है, बुद्धि को मलिन कर देती है, इससे मनुष्य उन्मार्गगामी बन जाता है। उसकी संपत्ति बुरे कार्यों में ही चली जाती है। पुण्य के उदय से धन मिलता है। परन्तु उसका उपयोग पापाचरण में करता है.... तो वह पुण्योदय पापानुबंधी हो गया! पुण्य के दो प्रकार : ___ पुण्योदय के दो प्रकार होते हैं। पुण्यानुबन्धी और पापानुबंधी । निर्मल.....पवित्र बुद्धिवालों का पुण्योदय पुण्यानुबंधी होता है। मलिन और अपवित्र बुद्धिवालों का पुण्योदय पापानुबंधी होता है। पवित्र बुद्धि मनुष्य को अच्छे कार्यों के प्रति प्रेरित करती है, मलिन बुद्धि मनुष्य को बुरे कार्यों के प्रति प्रेरित करती है।
यदि मनुष्य का पापानुबंधी पुण्य उदय में आता है तो पवित्र बुद्धि नष्ट हो जाती है! बुद्धि मलिन हो जाती है! वैसे पुण्यानुबंधी पुण्य का उदय होने से मलिन बुद्धिवाला मनुष्य पवित्र बुद्धिवाला बन जाता है! हाँ, कर्मों का यह प्रभाव है। बुद्धि पर भी कर्मों का प्रभाव होता है। ___ यदि आप अन्याय-अनीति करते हो, अन्याय अनीति करने का आपके हृदय में दुःख भी नहीं है और 'मुझे' अन्याय-अनीति नहीं करना चाहिए, मेरा
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