________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
प्रवचन- २९
५७
भीष्म का अति आग्रह होने पर द्रौपदी ने कहा : 'हे पूजनीय ! आप हमारे पितामह हैं, आपका उपदेश सुनते-सुनते मुझे बार-बार याद आया कि जब भरी राजसभा के बीच कौरव मेरी लाज लूट रहे थे तब आप वहाँ मौन धारण किये हुए थे! तो क्या ज्ञान मात्र कोरा उपदेश देने के लिए ही है? आपके उपदेश की निःसारता पर मुझे हँसी आ गई । '
भीष्म पितामह ने कहा : 'वत्से, तू सच कहती है। ज्ञान मात्र उपदेश देने के लिए नहीं है, व्यवहार में, आचरण में उतारने के लिए है। मुझे उस समय.... राजसभा में ज्ञान था परन्तु दुर्योधन का अन्यायपूर्ण अन्न खा-खाकर मेरी बुद्धि इतनी मलिन हो गई थी कि मेरा ज्ञान व्यवहार में नहीं आ सका, मैं देखता रह गया.... परन्तु अब अर्जुन के तीर मेरे शरीर में लगने से, मेरे शरीर में जो दूषित अन्न से बना हुआ खून था, वह निकल गया, अब मैं निर्विकार हूँ, मेरी बुद्धि शुद्ध है, मैं शान्त हूँ ।'
जैसा होगा भोजन, वैसा बनेगा मन !
भीष्म पितामह की बात आप लोग समझे क्या ? अन्याय से प्राप्त धनवैभव का उपभोग करने से मनुष्य की बुद्धि मलिन हो जाती है। मलिन बुद्धि वाले मनुष्य में सद्धर्म का जन्म ही नहीं हो सकता! राजसभा में जब दुःशासन ने द्रौपदी के वस्त्र खींचे थे उस समय वहाँ भीष्म बैठे हुए ही थे, परन्तु उन्होंने इस दुष्कृत्य का विरोध नहीं किया । मौन रहे और तमाशा देखते रहे! कैसे वे विरोध करते? वे दुर्योधन के आश्रित थे ! दुर्योधन का अन्न जो खाते थे न! वह अन्न, सुख-सुविधा अन्यायोपार्जित थी । दुर्योधन स्वयं अन्याय अनीति की प्रतिकृति था ।
'जैसा खाये अन्न वैसा होता मन !' सुनी है न यह कहावत ? आप जैसा अन्न खाओगे वैसे विचार आपके मनमें उभरेंगे। इसलिए हमारे भारतीय सभी धर्मों में आहारशुद्धि को महत्व दिया गया है। जैन धर्म में आहारशुद्धि को महत्त्व दिया गया है। जैन धर्म में तो आहारशुद्धि के प्रति काफी लक्ष्य दिया गया है। परन्तु दुर्भाग्य है कि आजकल जैन लोग भी आहारशुद्धि के प्रति बड़े उदासीन बन गये हैं।
अनीति का पैसा मंदिर को भी अपवित्र करेगा :
सभा में से : अन्यायोपार्जित रूपयों का उपभोग करने से, उपभोग करने
For Private And Personal Use Only