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प्रवचन- २८
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लक्ष्मीदास का बेईमानी से, अन्याय से कमाया हुआ धन चला गया। वह मानता है कि श्मशान में उसका धन सलामत है । परन्तु कैसे सलामत रहता वह धन? अन्याय और अनीति से कमाया हुआ धन सलामत नहीं रह सकता। हाँ, ठग के पास भी वह धन सलामत नहीं रहने का। चूँकि उसने भी बेईमानी से ही वह धन पाया है न । कुछ समय के लिए भले वह राजी हो जाए, खुश हो जाए परन्तु यह खुशी क्षणिक होती है। जब एक दिन लक्ष्मीदास ने श्मशान में जाकर अपने डिब्बे को देखना चाहा, वह गया, खड्डा खोदने की जरूरत नहीं थी, खड्डा खाली ही पड़ा था। वह अपना सर पीटने लगा। फूट-फूटकर रोने लगा। दुकान पर पहुँचा । लड़के को कोसने लगा । अपने आपको धिक्कारने लगा.....। मैं कैसा मूर्ख ? मैंने उस आदमी का नाक कटवाया.... अरे, गला ही कटवा दिया होता तो यह आफत नहीं आती । अवश्य वह नकटा ही मेरा डिब्बा ले गया....।
अन्याय अनीति से दोनों भव बिगड़ते हैं :
अन्याय से, बेईमानी से कमाया हुआ धन दोनों भवों में दुःखी बना डालता है। वर्तमान जीवन दुःखमय बनता है, आगामी जन्म भी दुःखमय बनता है । इस जीवन में बदनामी, सजा, अशांति, चोरी.... वगैरह अनिष्ट पैदा हो जाते हैं और अन्याय-अनीति करने से जो पापकर्म बंधते हैं, उससे आने वाला जन्म भी दुःखमय बन जाता है । यदि मनुष्य न्याय से, ईमानदारी से अर्थोपार्जन करता है तो वर्तमान जीवन सुखमय बनता है और आने वाला जन्म भी सुखमय बनता है । न्याय नीति और ईमानदारी से अर्थोपार्जन करने वालों की संघ-समाज में प्रसिद्धि होती है, मन में शांति बनी रहती है, निर्भयता और प्रसन्नता बनी रहती है। न किसीको शंका होती है कि 'इसके पास दो नम्बर के पैसे हैं..... इसने किसी का धन हड़प लिया है...।'
यदि आपने न्याय से, नीति से, प्रमाणिकता से धन कमाया हुआ है तो आप उस धन-सम्पत्ति का निर्भयता से उपभोग कर सकते हैं। निर्भयता जैसा सुख दुनिया में दूसरा कोई नहीं है। निर्भय मनुष्य ही निराकुल होता है यानी व्याकुलतारहित होता है । निराकुल मनुष्य की अन्तःपरिणति ...... विचारधारा प्रशस्त-पवित्र बनी रहती है और यही तो श्रेष्ठ सुख है ।
फैशन, व्यसन, अनुकरण :
सभा में से आपकी बात सर्वथा सत्य है, परन्तु न्याय-नीति से अर्थोपार्जन
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