Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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छान्दोग्योपनिषद्११३ और श्वेताश्वेतरोपनिषद्१४ में आत्मा को अणु से अणु और महान् से महान् भी कहा है।
सांख्यदर्शन में आत्मा को कूटस्थ नित्य माना है अर्थात् आत्मा में किसी भी प्रकार का परिणमन या विकार नहीं होता है। संसार और मोक्ष आत्मा का नहीं प्रकृति का है।१५ सुख-दुःख ज्ञान, ये आत्मा के नहीं किन्तु प्रकृति के धर्म हैं । ११६ इस तरह वह आत्मा को सर्वथा अपरिणामी मानता है। कर्तृत्व न होने पर भी भोग आत्मा में ही माना है। ११७ इस भोग के आधार पर आत्मा में परिणाम की संभावना है, इसलिए कितने ही सांख्य भोग को आत्मा का धर्म नहीं मानते। ११८ उन्होंने आत्मा को कूटस्थ होने के मन्तव्य की रक्षा की है। कठोपनिषद् आदि में भी आत्मा को क्रूटस्थ माना है। ११९ __जैनदर्शन में आत्मा को सर्वव्यापक नहीं माना है, वह शरीर-प्रमाण-व्यापी है। उसमें संकोच और विकास दोनों गुण हैं। आत्मा को कूटस्थ नित्य भी नहीं माना है किन्तु परिणामी नित्य माना गया है। इस विराट् विश्व में वह विविध पर्यायों के रूप में जन्म ग्रहण करता है और नियत स्थान पर ही वह आत्मा शरीर धारण करता है। कौन सा जीव किस स्थान में है, इस प्रश्न पर चिन्तन करना आवश्यक हो गया तो प्रज्ञापना के द्वितीय पद में स्थान के सम्बन्ध में चिंतन किया है। स्थान भी दो प्रकर का है- एक स्थायी, दूसरा प्रासंगिक। जन्म ग्रहण करने के पश्चात् मृत्युपर्यन्त जीव जिस स्थान पर रहता है, वह स्थायी स्थान है, स्थायी स्थान को आगमकार ने स्व-स्थान कहा है। प्रासंगिक निवास स्थान उपपात और समुद्घात के रूप में दो प्रकार का है।
जैनदृष्टि से जीव की आयु पूर्ण होने पर वह नये स्थान पर जन्म ग्रहण करता है। एक जीव देवायु को पूर्ण कर मानव बनने वाला है; वह जीव देवस्थान से चलकर मानवलोक में आता है। बीच की जो उसकी यात्रा है, वह यात्रा स्वस्थान नहीं है; वह तो प्रासंगिक यात्रा है, उस यात्रा को उपपातस्थान कहा गया है। दूसरा प्रासंगिक स्थान समुद्घात है। वेदना, मृत्यु, विक्रिया, प्रभृति विशिष्ट प्रसंगों पर जीव के प्रदेशों का जो विस्तार होता है वह समुद्घात है। समुद्घात के समय आत्मप्रदेश शरीरस्थान में रहते हुए भी किसी न किसी स्थान में बाहर भी समुद्घात-काल पर्यन्त रहते हैं। इसलिए समुद्घात की दृष्टि से जीव के प्रासंगिक निवास स्थान पर विचार किया गया है। इस तरह द्वितीय पद में स्वस्थान, उपपातस्थान और समुद्घातस्थान—तीनों प्रकार के स्थानों के सम्बन्ध में चिंतन किया है। यहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिए कि प्रथम पद में निर्दिष्ट जीवभेदों में से एकेन्द्रिय जैसे कई सामान्य भेदों के स्थानों पर चिंतन नहीं है, केवल मुख्य भेद-प्रभेदों के स्थानों पर ही विचार किया है।
११३. छान्दोग्योपनिषद् ३ । २० ११४. श्वेताश्वतरोपनिषद् ३ । २० ११५. सांख्यकारिका ६२ ११६. सांख्यकारिका ११ ११७. सांख्यकारिका १७ ११८. सांख्यतत्त्वकौमुदी १७ ११९. कठोपनिषद् १२ । १८ । १९
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